"बिफोर सनराइज" बातों की लडियों से जुड़ती प्यार की कड़ियां / राकेश मित्तल

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"बिफोर सनराइज" बातों की लडियों से जुड़ती प्यार की कड़ियां
प्रकाशन तिथि : 21 सितम्बर 2013


वर्ष 1995 में प्रदर्शित अमेरिकी लेखक-निर्देशक रिचर्ड लिंकलेटर की फिल्म ‘बिफोर सनराइज’ बिल्कुल अलग तरह की एक अद्भुत रोमांटिक फिल्म है। प्यार के प्रस्फुटन को यह इतनी खूबसूरती से व्यक्त करती है कि फिल्म एक कविता हो जाती है। यह फिल्म इस बात की तस्दीक करती है कि यदि आप किसी व्यक्ति से किसी भी विषय पर हमेशा बात कर सकते हैं या करने की इच्छा रखते हैं, तो ही आप उसे पूरी शिद्दत से प्यार कर पाते हैं। यदि बातचीत का आधार बना रहे, तो प्यार का आधार तलाशने की जरूरत नहीं पड़ती है, वह स्वतः ही निर्मित हो जाता है।

रिचर्ड इस फिल्म की अवधारणा से इस कदर प्रभावित थे कि उन्होंने 2004 में इसका सीक्वल ‘बिफोर सनसेट’ बनाया तथा हाल ही में जून 2013 में वे इसका अगला सीक्वल ‘बिफोर मिडनाइट’ लेकर आए हैं। प्यार के इस बेहद जरूरी पक्ष की बेहतरीन बुनावट देखने के लिए ये फिल्में अवश्य देखी जानी चाहिए। हॉलीवुड कलाकार ईंथन हॉक और जूली डेल्पी ने अपने सहज स्वाभाविक अभिनय से इन फिल्मों को अविस्मरणीय बना दिया है। पहली फिल्म और तीसरे सीक्वल में 18 वर्षों के विशाल अंतर के बावजूद तीनों फिल्मों में इन दोनों कलाकारों ने ही लीड रोल किए है।ं विश्व के अनेक प्रतिष्ठित फिल्म समीक्षकों और पत्रिकाओं ने इन फिल्मों को ‘बेस्ट रोमांटिक सिरीज ऑफ ऑल टाइम’ की संज्ञा दी है।

‘बिफोर सनराइज’ की शुरूआत योरप की खुशनुमा गर्मी की एक चमकीली सुबह से होती है, जहां ऑस्ट्रिया की खूबसूरत वादियों से गुजरती एक ट्रेन में दो अजनबी मुसाफिरों की मुलाकात होती है। जैसी (ईंथन हॉक) एक अमेरिकी युवक है, जो यू-रेल पास के साथ योरप भ्रमण कर रहा है। उसे विएना उतरकर अगली सुबह अमेरिका के लिए फ्लाइट पकड़ना है। सेलीन (जूली डेल्पी) एक फ्रैंच युवती है, जो अपनी दादी के यहां छुट्टियां मनाने आई थी और अब पेरिस लौट रही है, क्योंकि उसका कॉलेज खुलने वाला है। यह फिल्म इन दो पढ़े-लिखे, समझदार, संवेदनशील युवाओं के बारे में है, जिनकी उम्र बीस-बाईस के आसपास है। वे जीवन की ऊर्जा से भरे हुए हैं और हर पल की ऊष्मा को मुट्ठी में जकड़ लेना चाहते हैं। उनका अपना अतीत और वर्तमान है, अपने मित्र और संबंधी हैं। एक-दूसरे से उनका कोई पूर्व रिश्ता भी नहीं है।

सामान्य अजनबी मुसाफिरों की तरह उनकी मुलाकात इस ट्रेन में होती है। वे आपस में बातें करना शुरू करते हैं और धीरे-धीरे उन्हें बातों में इतना रस आने लगता है कि वे लगातार विषय बदलते हुए दुनिया के तमाम मुद्दों पर चर्चा करने लगते हैं। जिंदगी-मौत, देश-समाज, विज्ञान-फंतासी, दर्शन-साहित्य, धर्म, राजनीति, संगीत, किताबें और न जाने क्या-क्या...। उनकी बातें खत्म होने का नाम ही नहीं लेतीं। वे और अधिक समय साथ बिताना चाहते हैं।

जेसी किसी तरह सेलिन को मना लेता है कि वह उसके साथ विएना स्टेशन पर उतर जाए ताकि वे अगली सुबह उसके फ्लाइट पकड़ने तक साथ रह सकें। उनके पास विएना में रात होटल में ठहरने जितने पैसे नहीं है। पर इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वे उस दोपहर से लेकर अगले दिन पौ फटने तक पूरा समय विएना की सड़कों, गलियों, बाग-बगीचों, खूबसूरत स्थानों और काफी शॉप्स में घूमते हुए बातें करते हुए गुजार देते हैं। जैसे-जैसे समय बीतता जाता है उनकी बातें बेतकल्लुफ होती जाती हैं। वे अपने छोटे-2 अंतरंग अनुभव शेयर करने लगते हैं। बातों ही बातों में उन्हें पता ही नहीं चलता कि इस दरम्यान वे एक-दूसरे के इतना निकट आ गए हैं कि अब बिछुड़ना नहीं चाहते, पर लौटना उनकी मजबूरी है।

फिल्म इतनी सहज, सरल और निष्पाप लगती है कि आपको फिल्म देखने का अहसास ही नहीं होता। ऐसा लगता है मानो सब कुछ वास्तव में घटित हो रहा है, जिसका कोई अदृश्य कैमरा पीछा कर रहा है। यहां कोई गुप्त एजेंडा नहीं है। कोई साजिश, धाोखा या आडम्बर नहीं है। सिर्फ बातें हैं और उनके जरिए दिल में उतरने की कवायद है।

फिल्म में विएना शहर अपनी संपूर्ण जीवंतता के साथ एक किरदार के रूप में उपस्थित है। सड़क पर चलते लोग, फेरी वाले, दुकान वाले, मूर्त-अमूर्त आकृतियां आदि सभी मिलकर एक किस्म का सकारात्मक वातावरण बनाते हैं।

निर्देशक और पटकथा लेखक द्वय (रिचर्ड लिंकलेकर तथा किम क्रीजा) ने दृश्यों की बुनावट और सूक्ष्म डीटेल्स पर बहुत मेहनत की है। मुख्य रूप से बातों और संवादों पर आधारित इस फिल्म के चरम प्रभावी दृश्य संवादहीन हैं, जहां खामोशी बहुत कुछ कह जाती है। फिल्म खत्म होने के बाद भी आपके साथ चलती है और कई दिनों तक जेहन में गुनगुनाती रहती है।