"मुझे प्यार करने वाले, तू जहां है, मै वहां हूं" / नवल किशोर व्यास

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"मुझे प्यार करने वाले, तू जहां है, मै वहां हूं"


यश चोपड़ा की 1981 में आई फिल्म सिलसिला के गाने "येकहां आ गए हम/ यूं ही साथ चलते चलते" के बीच अंतरे मे लता की आवाज में जावेद अख्तर की लिखी ये लाइन आती है।सोचता हूं कि ये लाइन गाने में नही आती तो क्या ज्यादा फर्क पड जाता।हिन्दी फिल्मों के गीत वैसे ही तुकबंदियो का ही मायाजाल है। ये ना होती तो इसकी बजाय कोई और लाइन सैट हो जाती। इस एक लाइन पर इतना जोर क्यो दे रहा हूं।  पर दो बातें, जो इस लाइन के प्रति हमेशा अनुराग जगाये रखती है उनमें से एक है कि ये बात और ये दिलकश संबोधन नायक की बजाय नायिका से कहलवाना। प्यार तो पुरूष और स्त्री दोनो ही करते है। अलग भी दोनो ही होते है। दुख भी दोनो का साझा होता है पर गाने में ये लाइन स्त्री क्यों कहती है। पुरूष भी तो कह सकता था। पर नही। ये बात नायिका से ही कहलवाई गई सोच समझकर या ऐसे ही पता नही पर शायद किसी फिल्मी गीत में ही नही जीवन की हर ऐसी स्थिति में भी ये बात केवल और केवल स्त्री ही कह सकती है। दरअसल पुरूष अपने जीवन में ज्यादातर किसी स्त्री से सम्मोहित होकर प्यार करते है पर स्त्री ज्यादातर मामलों में अपने लिये आये प्यार का सम्मान करते हुए प्यार की संभावना को जन्म देती है। ये संभावना पूरे प्यार में बदलती है या नही पर स्त्रियां संभावनाओ को बरकरार रखने में दक्ष होती है। पुरूष के मन में अपने लिये उग आये प्रेम को ही ज्यादातर स्त्री अपना प्यार मानती है। ज्यादातर स्त्रियां आज भी प्यार करती नही, सामने से आये प्यार को बस स्वीकार करती है। भारतीय विवाह इसलिये ही लंबे टिकते है। इसीलिये ही नायिका अपने अतीत के प्यार को "मुझे प्यार करने वाले" कहकर पुकारती है ना कि "तुझे प्यार करने वाली"। ये संबोधन साधारण नही हैै। इसके मायने बेहद खास है जो जावेद अख्तर ने एक लाइन में तय किये है। और एक दूसरी बात जोे मुझे लाइन से इश्क जगाता है वो है स्त्री का अलग होने के बाद ये कहना कि "तू जहां है, मै वहां हूं"। ये दिलासा है अपने पूर्व प्रेमी के लिये। उसकी तसल्ली और आराम के लिये।स्त्री की ये दिलासा, दुआ और अपने लिये चिंता हर पुरूष के जीवन की धाती है। ज्वर के ताप में सिर पर पट्टी करते मुलायम हाथ सी। स्त्रियां उदार होती हैै। रिश्ते के हर संधिविच्छेद में पुरूष अपने हल्केपन की हर एक प्रतिक्रिया के साथ मुखर होता है जबकि स्त्री अवसाद के अपने तमाम गहरे दुख को अपने में समेटे शांत नदी सी। स्त्री की मजबूती का अंदाजा तो इसी से ही लगाया जा सकता है कि उसकी हर प्रतिक्रिया पुरूष की खत्म हुई क्रिया के स्तर पर तो केवल शुरू होती है।

इसी गीत में जावेद अख्तर की लिखी एक नज्म मैं और मेरी तन्हाई भी ये कहां आ गए हम अमिताभ की आवाज में है।दरअसल जावेद ने अपनी एक दूसरी नज्म बंजारा की अंतिम तीन चार पंक्तियों को उठाकर फिल्म में इसका इस्तेमाल किया गया था। पंक्तियां थी- तुम होती तो ऐसा होता। तुम होती तो वैसाहोता। तुम इस बात पे हैरां होती। तुम उस बात पर कितनी हंसती। अपनी इस बंजारा नज्म के बारे मे जावेद का कहना था कि ये एक शहर से दूसरे शहर भटक रहे किसी यात्री का दुःख है जो अपने पिछले शहर मे छूट गए लम्हो को याद करता है। हम सब भी तो यात्री है। हो सकता है कि हम किसी एक जगह या शहर के यात्री नही है पर कही ना कही इस चल रहे समय के यात्री जरूर है।

ये कहां आ गए हम के पिक्चरराइजेशन में यश चौपड़ा ने बर्फ की चादर, बरसती स्नो, समुंद्र का बीच, बारिश, नाव, बाग-बगीचें,पतझड, ट्यूलिप-गुलाब के फूल और ना जाने कितने मौसम और वादियों के प्रतीको का इस्तेमाल किया। अमिताभ और रेखा एक दूसरे में खोये लगातार बदल रहे मौसम में मैरून स्वेटर पहने प्यार की परिभाषा परदें पर गढ रहे थे। अमिताभ और रेखा प्रेम के गहरे प्रतीक बन कर गाने में उभरे है। ये शिखर था। प्रेम का भी और प्रतीको का भी। उतराव आना ही था और आया। प्रसिद्व नाटककार आर्नोल्ड वेस्कर ने एक नाटक लिखा था - फॉर सीजनस। नाटक में दिखाया गया कि हर बदलता मौसम आदमी की भावनाओ और अहसासो को भी प्रभावित करता रहता है।घोषित रूप से शरद, बारिश्, बर्फ, लाल और गहरा मेहरून प्रेम के प्रतीक हो चले है और गर्मी और लू को हमने अधोषित रूप से प्रेम विच्छेद का प्रतीक मान लिया है। बहरहाल सिलसिला भी प्रेम से ज्यादा विरह कथा रही। प्रेमियो के संबंध टूटने पर फिर से मिलना भी अजब गजब स्थिति लाता होगा। अचानक मिलना और एक दूसरे को फिर से अजनबी की तरह देखना। कॉफी के लिए पूछना। एक दूसरे की आदतों का ध्यान देना। बीता समय कैसे बीता। वो अभी भी जीवन में, याद में कही है या भूला दिये गए। नए रिश्ते में खुश है या नही वगैरह वगैरह। ये मनोविज्ञान कमाल है। इस पर अशोक वाजपेयी की कविता भी क्या कम लाजवाब है।

"उस क्षण तक जीने देना मुझको/जब मैं और वह प्रियंवदा एक डूबते पोत के डेक पर/सहसा मिलें। दो पल तक न पहचान सकें एक दूसरे को, फिर मैं पूछूँ : "कहिए, आपका जीवन कैसा बीता?" "मेरा...आपका कैसा रहा?" "मेरा..." और पोत डूब जाए।"