"स्प्रिंग,समर,ऑटम,विंटर.....एंड स्प्रिंग" चार ऋतुओं में समाया जीवन का चक्र / राकेश मित्तल

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"स्प्रिंग,समर,ऑटम,विंटर.....एंड स्प्रिंग" चार ऋतुओं में समाया जीवन का चक्र
प्रकाशन तिथि : 02 फरवरी 2013


विश्व सिनेमा में कोरियाई फिल्मों ने अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है। आर्थिक धरातल पर फिल्म उद्योग की स्थिति सुदृढ़ न होने के बावजूद कोरिया में कलात्मक दृष्टि से श्रेष्ठ फिल्मों का निर्माण निरंतर होता रहा है। किम-की-डक दक्षिण कोरिया के जाने-माने फिल्मकार हैं। उनकी अधिकांश फिल्में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत सराही गई हैं। 2004 में प्रदर्शित उनकी यह फिल्म ‘स्प्रिंग, समर, ऑटम, विंटर.....एंड स्प्रिंग’ एक बेहतरीन दार्शनिक कृति है।

यह फिल्म अपने शीर्षक के अनुसार पांच खंडों में विभाजित है। इसमें एक बौद्ध भिक्षु के प्रतीक रूप में मनुष्य के जीवन को ऋतुचक्र के माध्यम से देखने की कोशिश की गई है। निर्देशक ने एक झील के बीच में बने बौद्ध मठ और उसके आसपास बिखरी प्रकृति की सुंदर छटा के जरिए मनुष्य, प्रकृति, जीवन तथा लोकाचार को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से चित्रित करने में सफलता पाई है। कम से कम कलाकारों और कम से कम घटनाओं के माध्यम से जीवन के सार तत्व की परतें कुछ इस तरह से उजागर होती हैं, जैसे दर्शक अपने जीवन की पुस्तक के पन्ने एक के बाद एक पलटकर देख रहा हो। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी चमत्कृत करती है। फिल्म देखते हुए कई बार दर्शकों की सांसें बीच में ठहरकर मनोहारी दृश्यों में खो जाती हैं। फिल्म की लोकेशन ऐसे स्थान पर चुनी गई है, जहां हर मौसम में प्रकृति की सुंदरता अपने चरमोत्कर्ष पर रहती है। एक ही स्थान अलग-अलग मौसम में कितने अलग तरह से खूबसूरत लग सकता है, यह आप फिल्म देखकर ही महसूस कर पाएंगे।

फिल्म की शुरूआत ‘स्प्रिंग’ यानी वसंत ऋतु से होती है, जो बचपन का प्रतीक है। मनुष्य जीवन की पहली पायदान। झील के बीच में तैरते लकड़ी के बौद्ध मठ में एक बौद्ध भिक्षु बालक अपने गुरू के साथ प्रशिक्षु का जीवन बिता रहा है। गुरू के साथ प्रार्थना और ध्यान के अलावा वह एक छोटी नाव पर सवार होकर झील के चारों ओर तथा आसपास जंगल में घूमता है, जड़ी-बूटियां इकट्ठा करता है, झील में तैरते जंतुओं और पक्षियों के साथ खेलता है। एक बार वह झील से मछली पकड़कर उसे पत्थर से बांधकर झील के किनारे चट्टान पर छोड़ देता है। मछली को छटपटाते हुए नदी में जाने के लिए संघर्ष करते देख उसे बड़ा मजा आता है। बाद में यही हरकत वह एक मेंढक और छोटे सांप के साथ भी करता है। इन जानवरों को पत्थर के बोझ से छटपटाते और चलने के लिए संघर्ष करते देख वह आनंद से पुलक उठता है। बालक की ये हरकतें उसका गुरू चुपचाप देख रहा होता है। उस रात बालक के सोते हुए गुरू उसके शरीर से एक बड़ा पत्थर बांध देता है। सुबह उठने पर बालक को पत्थर के कारण हिलने-डुलने में बड़ा कष्ट होता है। तब गुरू उससे कहता है कि यह पत्थर तब तक नहीं हटाया जाएगा, जब तक कि तुम उन तीनों जानवरों को ढूंढकर उनके शरीर के पत्थर नहीं हटा दोगे और यदि उनमें से कोई भी जानवर मर गया, तो याद रखो, उसका बोझ तुम्हारे दिल से कभी नहीं उतरेगा। किसी तरह पत्थर के बोझ को लिए वह बालक झील के किनारे तीनों जानवरों को ढूंढने जाता है। वहां वह देखता है कि मछली तड़प-तड़प कर मर चुकी है। मेंढक जिंदा है लेकिन पत्थर बंधा होने से उसी जगह उछल रहा है और मरणासन्न स्थिति में है। सांप एक किनारे लहूलुहान पड़ा है। शायद उसे चील-कौवों ने नोंच डाला है। यह दृश्य देखकर बालक फूट-फूट कर रोने लगता है और ग्लानि बोध से भर जाता है।

जीवन की अगली पायदान की शुरूआत ग्रीष्म ऋतु से होती है, जहां हम उस बालक को किशोर रूप में देखते हैं। एक महिला अपनी युवा खूबसूरत बेटी को लेकर मठ में आती है। लड़की को कोई बीमारी है, जो ठीक नहीं हो पा रही है। मां उसे इलाज के लिए मठ में छोड़ जाती है। किशोर लड़के को अब एक साथी मिल गया है। वह धीरे-धीरे उस लड़की के प्रति आकृष्ट होने लगता है और उस पर पूरी तरह आसक्त हो जाता है। कुछ समय बाद जब लड़की ठीक होकर मठ से जाने लगती है तो लड़का भी जिद करके उसके साथ मठ छोड़कर चला जाता है।

कई साल बीतने के बाद हम देखते हैं कि वह लड़का जवान आदमी के रूप में मठ की ओर फिर लौट आया है। इस समय वह निराशा, तनाव और गुस्से से भरा हुआ है। लड़की ने उसे धोखा दिया है और वह आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हो चुका है। उसका मन बहुत अशांत है और वह शांति की खोज में पुनः मठ आया है। यह ऑटम या फॉल (पतझड़) का समय है। चारों ओर एक सूनापन और घनी उदासी छाई है। गुरू उसे शांत करने के लिए बौद्ध धर्म के सूत्र मठ के फर्श पर चाकू से उकेरने के लिए कहता है। कुछ समय बाद पुलिस उसे ढूंढते हुए मठ पहुंचती है और गिरफ्तार करके ले जाती है।

कुछ साल और बीत जाते हैं। हम देखते हैं कि वह बौद्ध भिक्षु अधेड़ और परिपक्व हो चुका है और पुनः मठ की ओर आया है। उसका गुरू मर चुका है और मठ खाली है। भीषण सर्दी के कारण चारों ओर बर्फ जमी है। भिक्षु वहां बैठकर चाकू से स्वयं द्वारा उकेरे गए सूत्र देखता है। पूरे जीवन का घटनाक्रम उसकी आंखों के सामने घूम रहा है। पश्चाताप स्वरूप वह अपने शरीर से एक बढ़ा पत्थर बांधकर मठ के निकट पहाड़ की चोटी की तरफ चल पड़ता है। इसके पूर्व एक महिला अपनी गोद में छोटे-से बच्चे को शॉल में लपेटकर लाती है और मठ के दरवाजे पर छोड़कर चली जाती है। लौटते हुए वह महिला झील की बर्फ तड़क जाने से उसमें डूबकर मर जाती है। दर्शक उस महिला का चेहरा नहीं देख पाते।

अंत में हम देखते हैं कि एक बार फिर वसंत का मौसम आया है। ऋतुचक्र पूरा हो चुका है। चिड़ियाएं चहचहा रही हैं। प्रकृति की सुंदर छटा बिखरी हुई है। मठ में एक नया गुरू आ चुका है और वह छोटा बालक उसका शिष्य बन झील के जंतुओं से खेल रहा है। समय अपनी गति से चल रहा है...।

ऋतुओं को जीवन के रूपक की तरह इस्तेमाल करना कोई नया प्रयोग नहीं है किंतु निर्देशक ने जिस कुशलता और खूबसूरती से इसे चित्रित किया है, वह इस फिल्म को असाधारण बना देता है। इस फिल्म को विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए हैं, जिनमें बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज फिल्म का गोल्डन सैटेलाइट अवॉर्ड और बेस्ट फिल्म का स्क्रीन इंटरनेशनल अवॉर्ड शामिल है।