'क्यों बेचैन है दिल, जीवन में क्या है कमी' / जयप्रकाश चौकसे

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'क्यों बेचैन है दिल, जीवन में क्या है कमी'
प्रकाशन तिथि :22 अक्तूबर 2015


अनेक वर्ष पूर्व सुभाष घई की फिल्म 'विधाता' में दिलीप कुमार और शम्मी कपूर रेल के इंजन ड्राइवर हैं और दोनों गहरे दोस्त भी हैं। यकायक दिलीप कुमार नौकरी छोड़ देते हैं और कई वर्षों बाद दोनों की मुलाकात होती है। दिलीप कुमार बड़े प्यार से उसे अपनी भव्य हवेली ले जाता है। शम्मी कपूर का संवाद था, 'लालेे तू इतना अमीर कैसे हो गया।' उस लंबे दृश्य में शम्मी कपूर अपना सवाल दोहराता है परंतु जवाब नहीं मिलता। उत्सव के इस मौसम में सजे-धजे बाजार से गुजरते हुए लोगों की भीड़ दुकानों पर उमड़ी हुई दिखाई देती है। रोशनियों में नहाए हुए जगमग मॉल व अन्य दुकानों पर सेल्समैन को सांस लेने का भी समय नहीं मिलता। आश्चर्य होता है कि इस गरीब देश में कुछ लोग इतने अमीर कैसे हो गए? इन बेहिसाब खरीददारों के खिलाफ कोई बात नहीं की जा रही है और न ही उन्हें भाग्यवान कहकर एक तर्कपूर्ण बात को उलझाए जाने का प्रयास है। सीधा सरल-सा उत्तर यह है कि कुछ वर्ग सचमुच अमीर हो गए हैं और फिल्म 'विधाता' के नायक की तरह ये लोग अपराध जगत से नहीं जुड़े हैं। खरीदने की क्षमता बड़ी है परंतु इन खरीददारों और जगमग दुकानों से पूरे देश का विवरण नहीं मिलता। कुछ दिन पूर्व ही सर्वे की रपट आई है कि गरीबों की संख्या बढ़ी है।

दरअसल, गुलजार बाजार शेष भारत के अंधकार को छिपा नहीं पाता। भारत में फैली बीमारियों के आंकड़ें हाल में प्रकाशित हुए हैं, जिसका सारांश यह है कि भारत बीमार देश है। हमारी स्वास्थ्य सेवाएं आवश्यकता से बहुत कम हैं परंतु रोगियों की संख्या बढ़ने का कारण खाने-पीने की चीजों में मिलावट है और जहरीले फर्टीलाइजर के इस्तेमाल से उपजाया हुआ अनाज है। उत्सव के दिनों में मिठाइयों की बिक्री से यह अनुमान लगाना गलत होगा कि देश में दूध की नदियां बह रही हैं और मावे का उत्पादन बढ़ गया है। मिठाई व्यापारी उत्सव के बहुत पहली मावे को खरीदकर उसे स्टोर करता है परंतु इसके साथ यह भी सच है कि मावे में मिलावट होती है। चाशनी के तारों में उलझाव है और कोई 'केमिकल लोचा' भी इसमें शामिल है। दूसरी और चॉकलेट कंपनियों के विज्ञापन संकेत देते हैं कि उत्सव पर मिठाई के बदले चॉकलेट देना अधिक सेहतमंद हो सकता है। इस प्रचार के बाद भी मिठाई का पर्याय नहीं बन पाता चॉकलेट, क्योंकि मिठाई हमारे अवचेतन में खुशी के प्रतीक की तरह स्थापित है। इसी तरह अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ आंकड़ों के आधार पर विकास का आकलन करते हैं परंतु विकास आकलन में खुशी को शामिल करना जरूरी है। मनुष्य की अभिलाषा आनंदमय जीवन है परंतु हुक्मरानों ने भौतिकता व धन की विपुलता को आनंद का प्रतीक मान लिया है। एक धनवान निहायत तन्हा और व्यथित व्यक्ति हो सकता है और एक गरीब आदमी अपने अभाव भरे जीवन में भी अानंद खोज लेता है। इस वर्ष जिस अर्थशास्त्र को नोबेल पुरस्कार मिला है, उसका मत भी यही है कि सारी नीतियां और दिशाएं मनुष्य के आनंद की ओर जानी चाहिए।

क्लासिकल स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स आंकड़ों पर ध्यान केंद्रित करता है परंतु कलकत्ता स्कूल मनुष्य की खुशी को अर्थनीति केंद्रित मानता है। इस तथाकथित विकास की त्रासदी ही यह है कि मानवीय भावनाओं को इसमें नज़रअंदाज किया है। हमने सारा खेल वस्तु और मूल्य के गिर्द रच लिया है, जबकि मानवीय मूल्यों की अवहेलना की है। 'जिंदगी' चेनल पर प्रसारित 'जैकसन हाइट्स' में प्रस्तुत प्रेम कहानियों में आर्थिक समीकरण महत्वपूर्ण है। अनेक दशकों पूर्व संभवत: राजेंद्र यादव की कथा 'तीसरा कौन' की प्रेम-कथा में धन का अभाव खलनायक है। आज सारी विधाओं में फोकस 'क्या है' पर है, 'क्या होना चाहिए' पर कोई गौर नहीं करना चाहता।

अन्य विधाओं को खारिज करने वाले अर्थशास्त्री वर्ग ने 'मैक इन इंडिया' अवधारणा के दूरगामी खतरों का कभी परीक्षण नहीं किया परंतु भूमि अधिकरण की मुखालफत को संदेह की निगाह से देखा जा रहा है। 'मेक इन इंडिया' अवधारणा से बेरोजगारी कम हो सकती है परंतु प्रयास का मुनाफा वह विदेशी ले जाएगा, जिसने भारत में कोई धंधा विकसित किया है। हम धीरे-धीरे आर्थिक उपनिवेशवाद के शिकार होने जा रहे हैं। इसीलिए बाजार की जगमग विकास क संकेत नहीं है, मुट्‌ठीभर लोगों की खरीदने की ताकत का बढ़ना भी कोई सुखद भविष्य का संकेत नहीं है। जर्मन दार्शनिक वाल्टर बेंजामिन ने जगमग आंखें चौंधिया देने वाले मॉल व बाजार को पूंजीवाद की वह पताका माना, जो उसके विनाश का पहला चरण है।