अध्याय 3: यम नियम : नैतिक उत्थान हेतु पातंजलयोग के प्रारम्भिक चरण / कविता भट्ट

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आठ अभ्यासों के रूप में आठ अंगों से युक्त होने के कारण पातंजल योगदर्शन को अष्टांग योग कहा जाता है; ये आठ अभ्यास- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि हैं। इन आठ अभ्यासों में से प्रथम दो अभ्यास ऐसे हैं; जो व्यक्तिगत रूप से उपयोगी होने के साथ ही सामाजिक रूप से भी उपयोगी हैं। समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के अनुसार व्यक्ति समाज की ईकाई माना जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार यदि प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक ईकाई के रूप में स्वस्थ, क्षमतावान एवं सशक्त होगा तो समाज भी स्वस्थ, दृढ़, एवं सशक्त होगा।

सामान्य रूप से व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों ही प्रकार के अनुशासन एवं उत्थान हेतु यम एवं नियम का अभ्यास अनिवार्य हैं। आजकल प्रायः देखा जा रहा है कि योग के नाम पर मात्र कुछ आसन एवं व्यायाम आदि ही करवाये जा रहे हंै; इसके स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभांे को देखते हुए आधुनिक युग में वैश्विक स्तर पर योग अत्यंत लोकप्रिय हुआ है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसकी स्वास्थ्य सम्बन्धी उपयोगिताओं के साथ ही इसका सर्वांगीण अध्ययन एवं अभ्यास आवश्यक है। वस्तुतः महर्षि पतंजलि योग का श्रीगणेश यम तथा नियम से करते हैं। उनका मानना है कि आसन आदि अभ्यासों को प्रारम्भ करने से पूर्व व्यक्ति का नैतिक नियमों में बंधा होना आवश्यक है; जिससे कि योगाभ्यास में कोई भी मानसिक एवं नैतिक बाधा उपस्थित न हो। वस्तुतः जब तक ये बाधाएँ बनी रहेंगी; साधक आगे के अभ्यासों में यदि प्रवृत्त होगा भी तो उनका अपेक्षित लाभ प्राप्त नहीं होगा। इसलिए सर्वप्रथम योगाभ्यास में प्रवृत्त होने हेतु व्यक्ति का चरित्र पवित्र होना चाहिए। योगाभ्यास में प्रस्तुत होने वाली चरित्र सम्बन्धी मुख्य बाधाएँ निम्न हैं-

योगाभ्यास में प्रस्तुत होने वाली चरित्रगत बाधाएँ

हिंसा- अपनी इच्छा के अनुरूप कार्य न होने से मन में क्रोध का भाव उत्पन्न होता है। क्रोध उत्पन्न होने से व्यक्ति अपने वश में में नहीं रहता है। घटना पर अपनी प्रतिक्रिया तथा प्रतिशोध के भाव से व्यक्ति तीन प्रकार से हिंसा का सहारा लेता है। हिंसा का अर्थ है किसी भी प्राणि को किसी भी प्रकार से पीड़ा पहंुचाना। ऐसा नहीं कि मात्र मार-पिटाई ही हिंसा है; बल्कि हिंसा मन, वचन एवं कर्म तीनों प्रकार से हो सकती है। मन में किसी के लिए बुरे भाव लाना, उन भावों के अनुसार किसी को बुरे वचन बोलना और कोई भी ऐसा कार्य करना जिससे किसी भी प्राणि को मानसिक या शारीरिक किसी भी प्रकार की पीड़ा पहंुचे; यह सब हिंसा ही कहलाता है। हिंसा तीन प्रकार की है।

कृत हिंसा- स्वयं ही हिंसा करना।

कारित हिंसा- दूसरों से हिंसा करवाना।

अनुमोदित हिंसा- दूसरों के द्वारा की गई हिंसा का अनुसरण करना।

उपर्युक्त सभी प्रकार की हिंसा क्रोध नामक मानसिक विकार का परिणाम है। उल्लेखनीय है कि क्रोध से अन्य प्राणियों को तो हानि पहंुचती ही है; क्रोध करने वाले व्यक्ति को सबसे पहले हानि पहंुचती है। क्रोध एवं इससे उत्पन्न हिंसा के द्वारा सम्बन्धित व्यक्ति का मानसिक संतुलन सर्वप्रथम बिगड़ता है। परिणाम स्वरूप अनेक मानसिक एवं शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैं। साथ ही समस्त वातावरण एवं समाज भी इससे प्रभावित होते है। समाज में भय, अशान्ति, असुरक्षा, संशय तथा वैमनस्य आदि नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न होते हैं। किसी भी प्रकार की हिंसा; सामान्य रूप से घातक होने के साथ ही योग मार्ग में भी बाधक है। इसलिए योग मार्ग में प्रथम यम हिंसा का निर्देश है।

असत्य- तथ्यों और घटनाओं को यथार्थ अर्थात् जैसे हैं उसी रूप में प्रस्तुत न करके अपनी ओर से तोड़-मरोड़ कर कुछ अन्य प्रकार से प्रस्तुत करना ही असत्य है। असत्य मात्र बोलने का ही विषय नहीं अपितु मन, वचन और कर्म से किसी भी प्रकार हो सकता है। हिंसा के समान ही यह भी तीन प्रकार का होता है-

कृत असत्य- स्वयं ही असत्य आचरण करना।

कारित असत्य- दूसरों से असत्य आचरण करवाना।

अनुमोदित असत्य- दूसरों द्वारा किये गये असत्य आचरण का अनुसरण करना।

किसी भी प्रकार का असत्य सामान्य जीवन मेंतो अत्यंत घातक है ही; परन्तु इसके साथ ही यह योगमार्ग की द्वितीय सबसे बड़ी बाधा है; अतः योगशास्त्र में द्वितीय यम सत्य का प्रतिपादन किया गया है।

चोरी (स्तेय)- बिना पूछे किसी अन्य के अधिकार वाले द्रव्य (किसी भी प्रकार की सम्पत्ति-वस्तु आदि) को लेना/ग्रहण करना ही चोरी है। चोरी मात्र कोई छोटी-सी वस्तु ले लेना भर नहीं अपितु आजकल देश में जो सारी विसंगतियाँ हैं; इसी का परिणाम हैं। इनकम टैक्स चोरी, रिश्वत, कामचोरी, भ्रष्टाचार तथा जमाखोरी आदि सभी चोरी के ही अलग-अलग रूप हैं। मन, वचन और कर्म किसी भी प्रकार से; यह भी कृत, कारित और अनुमोदित तीन प्रकार की हो सकती है। किसी भी प्रकार और किसी भी मात्रा में की गई चोरी व्यक्ति एवं समाज दोनों हेतु अत्यंत घातक है; साथ ही योगसाधक के मार्ग में तृतीय बड़ी बाधा भी यही है। इसीलिए योगशास्त्र में अस्तेय या अचैर्य का निर्देश दिया गया है।

कामेच्छा- यह एक बड़ी चारित्रिक बाधा है। माना गया है कि काम मनुष्य का सबसे बड़ा योगशास्त्र में माना गया है कि काम ( सेक्स) मात्र सन्तानोत्पत्ति हेतु ही होना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी आवश्यक है कि शारीरिक सम्बन्ध मात्र अपने जीवन साथी के साथ ही हों अन्यत्र नहीं। एड्स जैसे घातक रोग अनियन्त्रित कामेच्छा का ही परिणाम हैं। साथ ही अनियन्त्रित कामेच्छा से वैयक्तिक पतन एवं अनेक सामाजिक विसंगतियाँ; जैसे- बलात्कार, बाल-हिंसा, महिला-हिंसा, समलैंगिकता, यौन-उत्पीड़न, महिला तथा अवैध सम्बन्ध आदि। कामेच्छा का अनियन्त्रित होना व्यक्ति एवं समाज दोनों हेतु अत्यंत घातक है; इसके अतिरिक्त योग मार्ग की चतुर्थ बाधा है। इसके निवारण स्वरूप योगशास्त्र अस्तेय को निर्देशित करता है।

अनावश्यक वस्तु-धन आदि का संग्रह (परिग्रह)- मात्र उतना ही धन और भौतिक वस्तुएँ व्यक्ति के पास होनी चाहिए; जितनी उसकी मूलभूत आवश्यकता की हों। मात्र लालच के लिए अनावश्यक द्रव्य-संग्रह से लालसा बढ़ती हैं और अन्य मानसिक विकार भी। मानवीय प्रवृत्ति इतनी विकृत है कि जैसे-जैसे संग्रह बढ़ता जाता है; और भी अधिक संग्रह हेतु उसका लोभ बढ़ता रहता है। यह मृगतृष्णा के समान है; और यह श्रृंखला कभी भी समाप्त नहीं होती। यदि व्यक्ति ऐसा करता रहता है तो कहीं न कहीं और किसी न किसी प्रकार वह अन्य व्यक्तियों के लाभ को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। ऐसा होना सामान्य व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों प्रकार से अनुचित है। इस प्रवृत्ति के कारण व्यक्ति की मानसिकता कुंठित होने के साथ ही समाज में एक असंतुलन की स्थिति भी उत्पन्न होती है। साथ ही योग के मार्ग में यह प्रवृत्ति पंचम बाधा है; अतः योगदर्शन अनावश्यक संग्रह को अनुचित मानते हुए अपरिग्रह का निर्देश देता है।

शारीरिक-मानसिक अशुद्धियाँ- योगशास्त्र के अनुसार मानव व्यक्तित्व के संघटक तत्त्व त्रिगुण (सत्त्व, रज एवं तम) हैं। इसके साथ ही आयुर्वेद में माना गया है कि शरीर उपस्थित त्रिदोष (वात, पित्त एवं कफ) शरीर के स्थूल संघटक तत्त्व हैं। इन त्रिगुणों एवं त्रिदोषों का आपस में गहरा सम्बन्ध है। सामान्य रूप से स्वस्थ व्यक्तित्व में ये त्रिगुण एवं त्रिदोष यथोचित अनुपात में होते हैं; परन्तु अनियमित दिनचर्या, अनुचित आहार-विहार, मानसिक एवं शारीरिक व्यवधानों तथा दूषित वातावरण के कारण त्रिगुणों एवं त्रिदोषों का अनुपात असंतुलित हो जाता है। इसके कारण व्यक्तित्व में विकार या अशुद्धियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। शरीर में अनेक व्याधियों के साथ ही यह मानसिक रोगों को भी जन्म देती हैं। यदि अशुद्धियों को समय रहते दूर नहीं किया जाता है; तो यह अत्यंत विकराल रूप धारण कर लेती हैं और अनेक बार असाध्य रोगों का कारण बन जाती हैं। ये रोग सामान्य व्यक्ति हेतु तो घातक हैं ही इसके अतिरिक्त योग-साधना के मार्ग में एक बड़ी बाधा हैं। इसलिए योगशास्त्र में व्यक्तित्व को स्वस्थ रखने हेतु आन्तरिक और बाह्य शुद्धि (शौच) को विशेष महत्त्व दिया गया है और इसे प्रथम नियम के रूप में निर्देशित किया गया है। शुद्धि शारीरिक एवं मानसिक दोनों स्तरों पर की जाती है।

असंतोष- पर्याप्त भौतिक संसाधन होते हुए भी हमेशा असंतुष्ट रहना मानवीय प्रवृत्ति है। इसके कारण व्यक्ति हमेशा मानसिक रूप से कष्ट और अशान्ति अनुभव करता है। यह असंतोष ही दुःख बनाये रखता है। यह सामान्य रूप से व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों स्तरों पर घातक है; किन्तु योगमार्ग में तो यह अत्यंत ही घातक है। इसलिए यह भी योगमार्ग की बड़ी बाधा है। यदि असंतुष्टि की प्रवृत्ति पर नियन्त्रण हो जाय तो अधिकांश समस्याओं का निराकरण स्वतः ही हो जाय। इसलिए योगदर्शन में संतोष को तृतीय नियम के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है।

शारीरिक एवं मानसिक सहनशीलता की कमी - व्यक्ति में शारीरिक एवं मानसिक सहनशीलता का स्तर उसकी क्षमता एवं उन्नति को प्रभावित करता है। सामान्य व्यक्तियों में कठिनाइयों को सहन करने की क्षमता अत्यंत कम होती है। इसीलिए वे मनोवांछित लक्ष्य को प्राप्त करने से पूर्व ही हार जाते हैं। परिश्रम नहीं कर पाते और अत्यंत शीघ्र ही धैर्य खो देते हैं। योग मार्ग में तो इसे अत्यंत बाधक माना ही गया है; यह सामान्य जीवन में भी सफलता के मार्ग में बड़ी बाधा है। चूंकि, कठिनाइयों को दृढ़ता के साथ सहन करते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की क्षमता ही व्यक्ति को सफलता की ओर अग्रसर करती है। इसे ध्यान में रखते हुए योगदर्शन में तृतीय नियम के रूप में तप का निर्देश किया गया है।

अज्ञान- अज्ञान सामान्य जीवन तथा योग मार्ग में उपस्थित होने वाली बड़ी बाधा है। ज्ञान के अभाव में जीवन निरर्थक है। सामान्य जीवन में सफलता एवं उन्नति के पथ में अज्ञान सबसे बड़ी बाधा है ही; योगमार्ग की भी यह सबसे बड़ी बाधा है। ज्ञान प्राप्त करने हेतु अध्ययन ही एक मात्र उपाय है। अज्ञान का निवारण ज्ञान के द्वारा ही होता है। उपनिषद् साहित्य मेंइसे विद्या कहा गया है; विद्या दो प्रकार की मानी गई है परा- सांसारिक ज्ञान एवं अपरा- आध्यात्मिक ज्ञान। सांसारिक जीवन मेंउन्नति हेतु जो भी आवश्यक विधाएँ हैं; यथा- विज्ञान तथा तकनीकि आदि; ये सभी परा विद्या में समाहित हैं। इसके अतिरिक्त आत्मोन्नति हेतु जो भी विधाएँ- ध्यान, शास्त्रादि का अध्ययन आदि; सभी अपरा विद्या के भाग हैं।

दोनों ही विद्याओं के द्वारा व्यक्ति सांसारिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार से सुखी होता है। इस दृष्टि से योगशास्त्र चतुर्थ नियम के रूप में स्वाध्याय का प्रतिपादन करता है।

अहंकार या अभिमान- अहंकार सामान्य जीवन में तो अनेक बाधाएँ प्रस्तुत करता ही है; यह योग मार्ग की बहुत बड़ी बाधार है। यदि उपर्युक्त सभी बाधाओं को दूर कर भी दिया जाय और अभिमान दूर न हो सके तो सब निरर्थक। ऐसा होने से योगमार्ग में किसी भी प्रकार की उन्नति असम्भव है। इस बाधा को दूर करने हेतु योगशास्त्र ईश्वर-प्रणिधान का निर्देश देता है। इसके लिए स्वयं का अस्तित्व ईश्वर को पूर्णतः समर्पित करना आवश्यक है।

यम का तात्पर्य, पाँच अभ्यास एवं इनकी उपयोगिता

यम के पांच अंगों का पालन करना योगाभ्यास के अग्रिम चरणों की प्राथमिकता है। यम के अन्तर्गत आचरण गत ऐसे नैतिक निर्देश हैं; जिनका पालन प्रत्येक जाति, देश, काल एवं परिस्थिति में होना अनिवार्य है। ये निरंतर पालनीय होने के कारण सार्वभौम महाव्रत भी कहलाते हंै। ये व्यक्तिगत एवं सामाजिक उत्थान के कारक हैं।

यम में पांँच अभ्यास समाहित हैं-

1.अहिंसा (प्राणिमात्र को किसी भी प्रकार से पीड़ा न पहुँचाना), 2.सत्य (मन, कर्म व वचन से सत्याचरण), 3.अस्तेय (चोरी न करना), 4.ब्रह्मचर्य (कामेच्छा पर नियन्त्रण) 5.अपरिग्रह (अनावश्यक द्रव्य का संग्रह न करना)

प्रथम यम अहिंसा अहिंसा शब्द हिंसा पद में अ उपसर्ग लगने से बना है। जिसका अर्थ है; हिंसा न करना। इसके अनुसार प्राणिमात्र को मन, कर्म या वचन के द्वारा कृत, कारित या अनुमोदित किसी भी प्रकार से पीड़ा न देना। साररूप में किसी भी प्राणि को किसी भी प्रकार से पीड़ा न पहुंचाना अहिंसा है। अहिंसा के पश्चात् वाले सभी यम के अन्य चार अभ्यास एवं सभी नियम के सभी अभ्यास अहिंसामूलक ही होते हैं। हिंसक प्राणि से सभी वैर रखते हैं। इससे वे सभी प्राणि हिंसक के निकट आने से ही भयभीत होते हैं। किंतु हिंसाभाव त्यागने पर अन्य प्राणि अहिंसक व्यक्ति के प्रति वैर के स्थान पर प्रेमभाव ही रखेंगे। जो भी मनुष्य दुर्भावना से रहित होता है; उससे सभी प्रेमभाव रखते हैं। अहिंसक बनने के लिए वैर-भाव छोड़ना होता है, क्रोध पर नियंत्रण करना होता है, निजी हानि-लाभ की अपेक्षा कुछ ऊँचा उठना पड़ता है, उदार, निष्पक्ष और न्यायमूर्ति बनना पड़ता है, तब उस दृष्टिकोण से जो भी निर्णय किया जाय वह अहिंसा ही होगी।

उल्लेखनीय है कि परमार्थ के लिए की हुई हिंसा को हिंसा नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए डॉक्टर निःस्वार्थ भाव से रोगी की वास्तविक सेवा के लिए फोड़े को चीरता है, एक न्यायमूर्ति जज समाज की व्यवस्था को कायम रखने के लिए डाकू को फाँसी की सजा का हुक्म देता है, एक धर्म प्रचारक अपने जिज्ञासु साधक को आत्म-कल्याण के लिए तपस्या के कष्टकर मार्ग में प्रवृत्त करता है। मोटी दृष्टि से यह हिंसा जैसा प्रतीत होता है परन्तु वास्तव में यह भी अहिंसा है; क्योंकि यहाँ पर कष्ट या पीड़ा दीर्घकालीन लाभ हेतु दी जाती है।

जब व्यक्ति अहिंसा का आचरण करता है तो मन से द्वन्द्व एवं नकारात्मक भाव समाप्त हो जाते हैं। ऐसा होने पर व्यक्ति सामान्य जीवन में संतुलन व नियमन प्राप्त करता है। योगसाधना के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु अहिंसा का अभ्यास प्रथम अनिवार्य नैतिक अभ्यास है।

द्वितीय यम: सत्य

सत्य का अर्थ है जो तथ्य या प्रत्यय यथार्थता/वास्तविकता में जैसा है; मन, कर्म व वचन से उसकों वैसे ही ढंग प्रस्तुत करना। अर्थात् स्वार्थवश प्रत्ययों/वस्तुओं/कथनों आदि को असत्यता/अयथार्थता के साथ प्रस्तुत न करना। जैसा आगम से सुना गया हो, उसे यथार्थ कहते हैं। अर्थात् जैसी वाणी है वैसा ही मन होना चाहिए।

जब साधक सत्य की साधना द्वारा उसमें भली प्रकार स्थित हो जाता है; देश, काल व परस्थिति आदि द्वारा जरा भी विचलित नहीं होता है; तो उसके भीतर एक प्रकार का दिव्य बुद्धि का विकास होना प्रारम्भ होता है। इससे वह अपने कर्मों का इच्छित फल प्राप्त करने में सक्षम होता है। वह जो कुछ भी बोलता है, वह सबका सब पूरी तरह सही साबित होता है और यह कि उसके कार्यों का फल उसकी अपनी इच्छा के अधीन होता है। वह अन्यथा हो ही नहीं सकता।

तृतीय यम : अस्तेय

अस्तेय शब्द स्तेय क्रिया में अ उपसर्ग लगने से बना है, जिसका सामान्य अर्थ चोरी न करना समझा जाता है, परन्तु इसका व्यापक अर्थ इस प्रकार है। किसी भी व्यक्ति से बिना अनुमति लिये उसके किसी भी द्रव्य को लेना स्तेय/चोरी कहलाता है और शास्त्रों में वर्णित विधि से किसी का द्रव्य लेना ही अस्तेय कहते हैं। किसी अन्य की कोई भी वस्तु लेने की मन में भी इच्छा न रखना अस्तेय है। मन, वाणी एवं कर्म से अन्य व्यक्ति के किसी भी प्रकार के अधिकार को, स्वामित्व को या वस्तु को उसकी अनुमति के बिना न चाहना, न कहना, न लेना, न अपहृत करना तथा न चुराना अस्तेय है। इसी प्रकार अपहृत वस्तुओं का संग्रह न करना तथा उपयोग न करना भी अस्तेय की कोटि में ही आता है। जो अस्तेय का पालन करता है; वह व्यक्ति सभी लोगों का वह विश्वासपात्र होता है।

चतुर्थ यम : बह्म्रमचर्य

ब्रह्मचर्य का स्वरूप गुप्त है। जिसने जननेन्द्रिय के आवेगों को नियन्त्रित कर लिया है; वह व्यक्ति भी ब्रह्मचारी/ब्रह्मचारिणी नहीं है, यदि वह विपरीत लिंग को कामेच्छा से देखता है अथवा प्रेमपूर्वक वार्तालाप तथा कामोत्तेजक अंगस्पर्श में आसक्ति रखता है; तो भी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कहलायेगा। इसलिए इन सब प्रेमपूर्ण प्रसंगों के निराकरण के लिए ब्रह्मचर्य के अभ्यासी को जननेन्द्रिय की भांति अन्य सभी इन्द्रियों को भी नियन्त्रित करना चाहिए।

पंचम यम : अपरिग्रह

अपरिग्रह शब्द परिग्रह का विलोम है। परिग्रह का का तात्पर्य है जीवन के लिए जितना पदार्थ संग्रह आवश्यक नहीं भी है उसे भी लोभ-मोह पूर्वक अर्जित/संग्रहित करना। अपरिग्रह का स्वरूप इस प्रकार समझा जा सकता है। बारम्बार भोगों को भोगने से व्यक्ति की भोगेच्छा या राग और इन्द्रियों की भोगविषयिणी पटुता बढ़ती है। प्राणियों की हिंसा किये बिना विषयों का उपभोग सम्भव नहीं है। इसके द्वारा विषयभोग में हिंसासम्बन्धी दोष बताये हैं। भ्रम, प्रमाद, संशय, आलस्य आदि दोषों का त्याग करना भी अपरिग्रह है। इसकी सिद्धि से मन संयमित होता है।

यम की व्यक्तिगत एवं सामाजिक उपयोगिता

व्यक्ति एवं समाज का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है; अतः व्यक्ति एवं समाज की एक दूसरे के अभाव में कल्पना भी नहीं की जा सकती। व्यक्ति एक ईकाई है तथा समाज उसका सामूहिक रूप है। यह समूह तभी आदर्श हो सकता है; जब व्यक्ति आदर्श होगा। योगदर्शन वैयक्तिक उत्थान पर बल देता है। यद्यपि योगदर्शन में यम का निर्देश व्यक्तिगत साधना की दृष्टि से दिया गया है; तथापि ये सामाजिक उद्देश्यों से भी परिपूर्ण हैं। समाज शास्त्र के सिद्धान्त यह मानते हैं कि यदि समूह का प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को अनुशासित कर ले तो समूह तो स्वयं ही अनुशासित हो जाएगा। इस सिद्धान्त के अनुसार यम व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोणों से उपयोगी है। यम के सभी अभ्यासों के पालन द्वारा मानव समाज की चरित्रगत बुराइयों दूर होनी सुनिश्चित हैं। ऐसा होने से समाज से अनैतिकता को समाप्त किया जा सकता है। इस प्रकार नैतिक एवं स्वस्थ समाज का निर्माण सम्भव है। साररूप में यम के सभी अभ्यासों के पालन की निम्न वैयक्तिक एवं सामाजिक उपयोगिताएँ हैं।

1.अहिंसा पालन द्वारा वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रेम, आत्मभाव, भाईचारा एवं समरसता - अहिंसा के पालन से व्यक्ति का समस्त प्राणियों में प्रेम भाव जागृत होता है। ऐसा होने से समस्त प्राणियों को वह आत्मवत् देखना प्रारम्भ करता है। मानव समाज के प्रति भाईचारे का भाव होने आपसी वैमनस्यता व वैरभाव समाप्त होता है। आतंकवाद, अशान्ति, अराजकता तथा वर्ग संघर्ष आदि जैसी ज्वलंत समस्याओं को अहिंसा के सामूहिक पालन द्वारा समाप्त किया जा सकता है। इस प्रकार समाज में समरसता अर्थात् पारस्परिक प्रेम, संतुलन एवं सामंजस्य का वातावरण निर्मित होता है।

2.सत्य पालन द्वारा वैयक्तिक एवं सामाजिक निष्ठा, विश्वास तथा सौहार्द- अहिंसा एवं सत्य के संयुक्त पालन से असुरक्षा एवं भय दोनों ही समाप्त हो जाते हैं। एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति में निष्ठा भी उत्पन्न होती है। ऐसा होने से आपसी विश्वास का वातावरण बनता है और आपसी सौहार्द का भाव बढ़ता है। 3.अस्तेय पालन द्वारा सुरक्षा-भाव तथा अभय- प्रत्येक व्यक्ति यदि अस्तेय का पालन करे तो इससे समाज में कोई भी स्वयं को असुरक्षित अनुभव नहीं करेगा। अपने से सम्बन्धित किसी भी द्रव्य की चोरी को लेकर की जाने वाली चिंता समाप्त हो जायेगी तथा भय समाप्त हो जायेगा।

4.ब्रह्मचर्य द्वारा कामेच्छा नियमन तथा स्वस्थ समाज की स्थापना- मानव की अनियन्त्रित कामेच्छा ने सम्पूर्ण समाज को शारीरिक एवं मानसिक रोगों की गर्त में धकेल दिया है। आजकल एड्स जैसा घातक रोग भी अनियन्त्रित कामेच्छा का ही परिणाम है। साथ ही कामेच्छा के पूर्ण न होने से व्यक्ति अवसाद आदि मानसिक रोगों से भी घिर जाता है। इसके अतिरिक्त अनेक अपराध जैसे बलात्कार, हत्या, बाल-महिला शोषण तथा वेश्यावृत्ति आदि भी इन अनियन्त्रित योनेच्छाओं का ही परिणाम हैं। यम का तीसरा अभ्यास ब्रह्मचर्य इन सब सामाजिक विकृतियों को समाप्त करने का श्रेष्ठ साधन है। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। यदि व्यक्ति गृहस्थ है तो वह मात्र अपने ही जीवन-साथी से सम्बन्ध रखे अन्य किसी से नहीं। वे सम्बन्ध भी अनुशासित होने चाहिए।

5.अपरिग्रह द्वारा अनुशासित जीवन चर्या तथा व्यक्तिगत-सामाजिक उत्थान- अपरिग्रह यम का ऐसा अभ्यास है जिसमें अनावश्यक संग्रह को निषेध किया गया है। आज मानव समाज विभिन्न वर्गो में विभाजित है। इसका कारण यह है कि सम्पत्ति के अनुसार वर्ग निर्धारण होता है। साथ ही अत्यधिक लालसा के कारण उच्च वर्ग को धन-सम्पत्ति संचय का अत्यंत मोह है। यदि व्यक्ति अनावश्यक संग्रह के स्थान पर कुछ उदार हो जाय तो समाज से वर्ग-संघर्ष भी समाप्त हो जायेगा। धनाढ्य वर्ग अपनी आय का कुछ भाग निज स्वार्थ हेतु संचय करने के स्थान पर परोपकार हेतु उपयोग में लाये तो समाज कितना आदर्श हो जाय। एक ओर अनावश्यक संग्रह न होने से व्यक्ति आवश्यकता और लालच में भेद करके संयमित रहेगा और धन कमाने के अनैतिक ढंगों से बचेगा। साथ ही समाज में अनुशासन एवं प्रेरणा भी बनी रहेगी।

नियम का तात्पर्य, इसके पाँच अभ्यास एवं इनकी उपयोगिता

पातंजलयोग के अन्य अभ्यासों में प्रवृत्त होने हेतु सर्वप्रथम एक ईकाई के रूप में व्यक्ति के सामाजिक अनुशासन को आवश्यक माना गया। इस प्रकार के अनुशासन को यम के द्वारा निर्देशित करने के उपरांत पातंजलयोग में वैयक्तिक उत्थान हेतु पांच नियमों का पालन आवश्यक बताया गया है। इन नियमों का व्यक्तिगत स्वच्छता, संयम, धैर्य, सहनशीलता, अध्ययन तथा आत्मसुरक्षा जैसे भावों को विकसित करने में विशेष योगदान है। इन नियमों का पालन करने से व्यक्ति के व्यक्तित्व का आन्तरिक एवं बाह्य विकास होता है। उसका तन एवं मन निर्मल, दृढ़ तथा बुद्धि अभिमान रहित हो जाती है। नियमों के अभ्यास से व्यक्ति अग्रिम योगांगों के हेतु तैयार हो जाता है। साथ ही ये नियम सामान्य जीवन में भी अत्यंत उपयोगी हैं। नियम में पांँच अभ्यास समाहित हैं-

1.शौच (शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि या स्वच्छता का अभ्यास)

2.सन्तोष (जितना अपने पास है; उसी में प्रसन्न रहने का अभ्यास)

3.तप (अधिकतम कठिनाइयों और विषम परस्थितियों को सहने का अभ्यास)

4.स्वाध्याय (लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति हेतु अनुकूल शास्त्रादि तथा आत्मगत अध्ययन का अभ्यास

5.ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर के चरणों में पूर्ण समर्पण)

प्रथम नियम: शौच

शौच का अर्थ है सम्पूर्ण शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि या स्वच्छता। इसके लिए महर्षि पतंजलि ने मात्र सूत्र के द्वारा निर्देश दिया है; इसी को ध्यान में रखते हुए हठयोग के ग्रन्थों जैसे- स्वामी स्वात्माराम कृत हठप्रदीपिका एवं घेरण्ड मुनि कृत घेरण्ड संहिता आदि में षट्कर्म के द्वारा शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि की अत्यंत व्यवस्थित विधि प्रस्तुत की गई है। इसका विवेचन हम षट्कर्म नामक अध्याय में करेंगे। यहाँ हम शुद्धि की उपयोगिता साररूप में प्रस्तुत करेंगे। आयुर्वेद त्रिदोषों अर्थात् वात, पित्त एवं कफ को शरीर के तत्त्व मानता है। साथ ही त्रिगुण अर्थात् सत्त्व, रज एवं तम से व्यक्तित्व के विकास को स्वीकार करता है। इस सिद्धान्त को योगदर्शन भी मानता है। योगदर्शन में माना गया है कि इन तत्त्वों का एक निर्धारित अनुपात व्यक्तित्व में होता है। अनुचित आहार-विहार तथा प्रदूषित वातावरण से इस अनुपात मेंकुछ असंतुलन आने पर व्यक्तित्व मेंशारीरिक एवं मानसिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं। इन विकारों के द्वारा मन तथा शरीर अस्वस्थ हो जाते हैं। इससे बचने हेतु शुद्धि ही एक मात्र उपाय है। इसलिए स्वच्छता एवं स्वस्थता हेतु प्रथम नियम शौच को आवश्यक बताया गया है।

द्वितीय नियम : सन्तोष

सन्तोष का अर्थ है इच्छाओं को नियन्त्रित करना और जितने भौतिक संसाधन हैं; उन्हीं में प्रसन्न रहना। अनियन्त्रित इच्छाएँ व्यक्तित्व को विकृत एवं समाज को असंतुलित करती हैं। ये इच्छाएँ किसी भी विषय और प्रकार की हो सकती हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि इच्छाएँ अनन्त होती हैं। एक इच्छा पूर्ण होने पर स्वयं ही दूसरी इच्छा जागृत हो जाती है। ये दो प्रकार से घातक हैं। एक तो ये व्यक्ति को हमेशा ही दुःखी बनाये रखती हैं तथा दूसरे व्यक्ति की इच्छाएँ जब उचित मार्ग से पूर्ण नहीं हो पाती तो वह समाज के अन्य व्यक्तियों को हानि पहुँचाकर अपनी इच्छाओं को अनुचित ढंग से पूर्ण करता है। इस प्रकार ये व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों ही प्रकार से घातक सिद्ध होती हैं। इस दृष्टि से सन्तोष सुख प्राप्त करने का अचूक साधन है। व्यक्तिगत रूप से यह आत्म-नियन्त्रण के द्वारा योग मार्ग हेतु उपयोगी है तथा सामाजिक रूप से यह एक संतुलित विकास हेतु उपयोगी है। योगशास्त्र में इसका विधान आत्म-नियन्त्रण के लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया गया है। यदि सन्तोष का पालन नहीं होगा तो मन भौतिक संसाधनों की प्राप्ति में ही भटकता रहेगा और आत्मोन्नति हेतु मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा।

तृतीय नियम : तप

तप का अर्थ है- शरीर एवं मन को तपाना या कष्ट देना अर्थात् इन दोनों को विपरीत परस्थितियाँ सहने के लिए तैयार करना। शारीरिक निर्बलता एवं मानसिक अपरिपक्वता दोनों ही सामान्य जीवन तथा योगाभ्यास के मार्ग की बड़ी बाधाएँ हैं। ये बाधाएँ तप के अभ्यास के बिना दूर नहीं हो सकती हैं। तप हेतु योगशास्त्र में प्राणायाम को सबसे बड़ा साधन बताया गया है। इससे हमारे शरीर एवं मन की क्षमताओं में वृद्धि होती है। इसके साथ ही व्रत एवं उपवास आदि का भी निर्देश दिया गया है। विशेष तिथियों या सप्ताह, पक्ष, माह आदि में निराहार अथवा निर्जल (जैसा भी विधान हो) रहकर ईश्वर के निमित्त शरीर एवं मन को समर्पित करना। प्राणायाम तथा व्रत आदि से मन एवं शरीर स्वस्थ, सुदृढ़, शक्तिशाली तथा किसी भी प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक कष्ट को सहने के लिए सामथ्र्यवान बनते हैं। यह योग के अग्रिम अभ्यासों के लिए आवश्यक है। साथ ही सामान्य जीवन में भी यह कठिन एवं विपरीत परस्थितियों के लिए व्यक्ति को तैयार करने का साधन है।

चतुर्थ नियम : स्वाध्याय'

स्वाध्याय दो पदों का मेल है- स्व एवं अध्याय अर्थात् अपना अध्ययन। इसका वास्तविक अर्थ तो अपनी अन्तरात्मा से जुड़ने हेतु वेद-शास्त्रों या धार्मिक ग्रन्थों यथा गीता आदि का अध्ययन करने से है; किन्तु सामान्य रूप से इसका अर्थ है पुस्तकों का अध्ययन करके ज्ञान अर्जन करना। अज्ञान आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक दोनों ही मार्गाें की बहुत बड़ी बाधा है। इसलिए नियमित रूप से अच्छी पुस्तकों तथा नैतिक नियमों का भी अध्ययन कर ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। साथ ही बार-बार उस ज्ञान का स्मरण करना चाहिए। सत्मार्ग हेतु उस ज्ञान का स्मरण आवश्यक है।

पंचम नियम : ईश्वर-प्रणिधान

ईश्वर-प्रणिधान का अर्थ है- स्वयं को ईश्वर के लिए पूर्णतः समर्पित कर देना। अपने आप को मन, वचन एवं कर्म से पूर्णतः ईश्वर का बनाये रखना। सारे कर्म ईश्वर को समर्पित करते हुए करना। उनमें अभिमान न आने देना। यम के सारे अभ्यास तथा नियम के चारों अन्य अभ्यास ईश्वर-प्रणिधान के अभाव में निरर्थक हैं; क्योंकि यदि व्यक्ति में ईश्वर शरणागति का अभाव हो तो वह सभी कर्मों का कत्र्ता स्वयं को मानकर घमण्ड में चूर होकर अन्य प्राणियों को कुछ भी नहीं समझेगा और एक प्रकार का असंतुलन उत्पन्न करेगा। इतिहास साक्षी है कि इस प्रकार का अभिमान विध्वंशकारी ही होता है। साथ ही इसका अन्य पक्ष यह है कि यदि व्यक्ति बुरे समय और परिस्थिति के वश हो तो वह ईश्वर का स्मरण करते हुए आत्म-सुरक्षा के भाव से भरा हुआ होता है। ऐसा करने से नकारात्मक विचार नहीं आते। व्यक्ति अपने ऊपर हमेशा किसी सर्वशक्तिमान सत्ता को अनुभव करके आशावादी बना रहता है। निराश नहीं होता; ईश्वर को वह एक छाते के समान मानता है; ऐसा छाता जो तेज धूप एवं वर्षा में उसके ऊपर अपनी छत्रछाया बनाये रखेगा। वह सोचता है कि ईश्वर उससे कभी भी छल नहीं करेगा और हर प्रकार से उसकी सहायता एवं रक्षा करेगा।

इस प्रकार ईश्वर-प्रणिधान से अभिमान की समाप्ति भी होती है एवं आत्म-सुरक्षा का भाव भी विकसित होता है। योगमार्ग में अभिमान शत्रु है; क्योंकि इससे साधना मार्ग बाधित होता है। साथ ही सामान्य जीवन में भी यह व्यक्ति के विकास मार्ग में अवरोधक है; क्योंकि अभिमानी व्यक्ति आत्ममोह से ग्रस्त होता है; वह नये ज्ञान व अन्य व्यक्तियों का विकास सहन नहीं कर पाता। सोचता है मैं सबसे बड़ा हूँ और मेरा ज्ञान सबसे बड़ा है। ऐसा होने से अहंकार ही शेष रहता है। वास्तविकता में अहंकारी व्यक्ति खोखला होता है। इसलिए अहंकार को रोकने के लिए ईश्वर-प्रणिधान आवश्यक है।

नियम पालन के व्यक्तिगत एवं सामाजिक लाभ

1.शौच पालन से व्यक्तिगत स्वच्छता, स्वस्थता एवं शान्तचित्तता- शौच का अभ्यास करने से व्यक्ति का शरीर एवं मन शुद्ध होता है। ऐसा होने से वह स्वस्थ एवं प्रसन्न होता है। यह तो इसका व्यक्तिगत पक्ष है; सामाजिक पक्ष यह है कि यदि सभी व्यक्ति इसका पालन करेंगे तो समाज स्वस्थ होगा। इसके अतिरिक्त कुछ रोग ऐसे होते हैं जो संक्रमण से होते हैं। स्वच्छ एवं स्वस्थ रहने से इसके अवसर कम हो जाते हैं तथा ऐसे रोगांे से मुक्ति मिलती है।

2.सन्तोष पालन से इच्छाओं व लोभ पर अंकुश द्वारा आत्म नियन्त्रण- सन्तोष के अभ्यास से सुख प्राप्ति होती है। सारे दुःख का कारण मनुष्य की अनियन्त्रित लालसा ही है। यह लालसा भौतिक संसाधनों से अत्यधिक लगाव का कारण बनती है। इसके कारण व्यक्ति उचित और अनुचित सारी विधियों से धन-संसाधन जुटाने का प्रयास करने लगता है। इसीलिए यह लालच व्यक्ति को अनुशासनहीनता की ओर भी ले जाता है। जिससे व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों प्रकार से व्यवधान उत्पन्न होते हैं। इसलिए सन्तोष ही सुख का वास्तविक साधन है। इसका पालन योगमार्ग एवं सामान्य जीवन दोनों में लाभकारी है।

3.तप पालन से दृढ़ता, अनुशासन एवं कठिनाइयों को सहने की क्षमता में वृद्धि- तप व्यक्ति को विपरीत परस्थितियों को सहने के लिए तैयार करता है। कठिनाइयों को सहने की क्षमता में वृद्धि करता है। यह क्षमता योगमार्ग में इसलिए आवश्यक है क्योंकि योगमार्ग के अग्रिम अभ्यास कठिन हैं। इनके लिए व्यक्ति में विशेष शारीरिक एवं मानसिक क्षमता का होना आवश्यक है। तप अग्रिम अभ्यासों के लिए व्यक्ति को तैयार करता है। इसके अतिरिक्त सामान्य जीवन में व्यक्ति हमेशा अनेक कठिनाइयों से संघर्ष करता रहता है। इस संघर्ष के निर्बाध रूप से चलने के लिए तप का अभ्यास व्यक्ति को तैयार करता है।

4. स्वाध्याय के अभ्यास से विद्वता, तार्किकता आत्मबोध- अच्छे ग्रन्थों का अध्ययन व्यक्ति को विद्वान एवं तार्किक बनाता है। ऐसा होने से व्यक्ति अनेक प्रकार से ज्ञानार्जन करता है। यह ज्ञान जब सांसारिक विषयों का होता है। तो व्यक्ति को विभिन्न विद्याओं में पारंगत बनाता है। साथ ही यदि ज्ञान आध्यात्मिक होता है तो व्यक्ति को आत्मबोध हेतु तैयार करता है। दोनों ही स्थितियों में यह लाभकारी है। योग तो आध्यात्मिक उन्नति हेतु ज्ञानार्जन को आवश्यक मानता है; परन्तु सामान्य व्यावहारिक जीवन में भी स्वाध्याय अत्यंत उपयोगी है।

5.ईश्वर-प्रणिधान से श्रद्धा, आत्मविश्वास, क्षमाभाव, अभय एवं आत्मोन्नति- ईश्वर प्रणिधान के अभ्यास से व्यक्ति में श्रद्धा उत्पन्न होती है; जिससे सकारात्मक विचार उत्पन्न होते हैं। आत्मविश्वास उत्पन्न होता है; कि ईश्वर की शरणागति के कारण उसे कोई भी हानि नहीं होगी। वह व्यक्ति अन्य प्राणियों को भी ईश्वर का प्रतिनिधि मानता है और किसी को भी दोषी नहीं मानता ऐसा होने से दूसरे मनुष्यों और प्राणियों हेतु क्षमाभाव भी उत्पन्न होता है; जिसके कारण आपसी प्रेम विकसित होता है। साथ ही व्यक्ति किसी भी विपरीत परस्थिति में भयभीत नहीं होता। वह अपने ऊपर किसी ईश्वरीय कृपा की छत्रछाया मानकर हमेशा निर्भय रहता है। इसके साथ ही वह आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर होता है।

यम तथा नियम के यथोचित पानल के उपरान्त योग के शरीर-क्रियात्मक अभ्यासों की अपेक्षा है। शौच हेतु अपनाये जाने वाले षटकर्म आसनादि के पूर्वापेक्षा के रूप में आवश्यक हैं। इसलिए अगले अध्याय में षट्कर्म के सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक पक्षों को स्पष्ट करेंगे। -0-