अपराध और दंड / अध्याय 1 / भाग 4 / दोस्तोयेव्स्की

Gadya Kosh से
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अपनी माँ के पत्र से उसे बेहद तकलीफ हुई थी। लेकिन जहाँ तक उसमें कही गई मुख्य बात का सवाल था, उसके बारे में उसे एक पल के लिए भी कोई कशमकश नहीं हुई, उस समय भी नहीं जब वह पत्र पढ़ रहा था। उसके दिमाग ने बुनियादी सवाल का फैसला कर लिया था, और अटल फैसला किया था, 'जब तक मैं जिंदा हूँ, यह शादी कभी नहीं हो सकती; भाड़ में जाएँ मिस्टर लूजिन!'

अपने फैसले की कामयाबी का पहले से ही अनुमान करके वह द्वेषभरी मुस्कराहट के साथ मन-ही-मन बुदबुदाया : 'बात बिलकुल साफ है। नहीं माँ, नहीं दूनिया, तुम लोग मुझे धोखा नहीं दे सकतीं! और ऊपर से ये लोग मुझसे इस बात की माफी भी माँगती हैं कि उन्होंने मेरी सलाह नहीं ली और बिना मेरे, फैसला कर लिया! वे और कर भी क्या सकती थीं! सोचती हैं कि अब सारी बात तय हो चुकी है और यह शादी तोड़ी नहीं जा सकती; लेकिन हम देखेंगे कि तोड़ी जा सकती है या नहीं! क्या अच्छा बहाना है : 'प्योत्र पेत्रोविच इतने व्यस्त आदमी हैं कि उनकी शादी भी फौरन से पेशतर होनी चाहिए, बिलकुल डाकगाड़ी की रफ्तार से।' नहीं दुनेच्का, सब समझता हूँ मैं, मुझे मालूम है कि तुम मुझसे क्या कहना चाहती हो। और मैं यह भी जानता हूँ कि जब तुम रात-भर इधर-से-उधर टहलती रही थीं तो तुम क्या सोच रही थीं और माँ के सोने के कमरे में कजान की देवी1 की जो प्रतिमा रखी हुई है, उसके सामने तुमने क्या प्रार्थना की होगी। बलिवेदी तक पहुँचने की चढ़ाई बड़ी कष्टमय तो होती है। ...हुँह ...तो सब कुछ तय हो गया है। तो अव्दोत्या रोमानोव्ना, तुमने एक समझदार और कामकाजी आदमी से शादी करने का फैसला कर लिया है, जिसके पास बहुत दौलत है (जो बहुत दौलत जमा कर चुका है, जिसकी वजह से उसकी हैसियत कहीं ज्यादा ठोस और रोबदार हो गई है); एक ऐसे आदमी से जो दो-दो ओहदों पर लगा हुआ है, जो हमारी सबसे उभरती हुई पीढ़ी के विचारों से सहमत है, जैसा कि माँ ने लिखा है, और जो स्वभाव का अच्छा मालूम होता है, जैसी कि खुद दुनेच्का की राय है। इस मालूम होता है का भी जवाब नहीं! और वही दूनिया इसी मालूम होता है के चलते उससे शादी कर रही है! वाह, क्या कहने!

'...लेकिन मैं जानना चाहूँगा कि माँ ने मुझे 'हमारी सबसे उभरती हुई पीढ़ी' के बारे में क्यों लिखा सिर्फ मुझे यह बताने के लिए कि मिस्टर लूजिन किस तरह के आदमी हैं या उनके मन में कोई और बात थी या यह सोच कर कि पहले से ही मुझ पर मिस्टर लूजिन की अच्छी छाप डाल सकें ओह, कितने काइयाँ हैं ये लोग! मैं एक बात और जानना चाहूँगा : उस दिन और उस रात और उसके बाद दोनों ने एक-दूसरे से कितने

1. (कजान शहर में विशेष श्रद्धा के साथ पूजी जाने वाली देवी। वैसे उसकी तस्वीरें पूरे देश में मिल जाती थीं।)

खुल कर बातें कीं? क्या हर बात शब्दों में कही गई थी, या दोनों ने यह समझ लिया था कि दोनों के दिल और दिमाग में एक ही बात है और इसलिए उसके बारे में जोरों से बातें करने की कोई जरूरत नहीं है, और उसकी चर्चा न करना ही बेहतर है? सबसे ज्यादा संभव यही है कि कुछ हद तक यही बात हो। जैसा कि माँ के खत से साफ जाहिर है, वह उन्हें थोड़ा अक्खड़ लगे, और अपने भोलेपन में माँ ने अपनी राय दूनिया को बताई। दूनिया को परेशान तो होना ही था और उसने 'उन्हें बहुत गुस्से से जवाब दिया'। स्वाभाविक-सी बात थी। और गुस्सा किसे न आता जबकि भोलेपन के सवाल पूछे बिना भी यह बात स्पष्ट थी और यह बात पहले से समझ ली गई थी कि उसके बारे में बहस करना बेकार है और उन्होंने मुझे यह क्यों लिखा कि 'रोद्या, दूनिया को प्यार करना, और वह तुम्हें अपने आप से भी बढ़ कर प्यार करती है।' क्या उनका जमीर अंदर-ही-अंदर उन्हें धिक्कार तो नहीं रहा कि अपने बेटे की खातिर उन्होंने अपनी बेटी को बलि चढ़ा दिया 'तुम्हीं हमारा अकेला सहारा हो, तुम्हीं हमारा सब कुछ हो।' ओह, माँ!'

उसकी कड़वाहट लगातार और गहरी होती गई, और अगर उसी क्षण मि. लूजिन से उसकी मुलाकात हो जाती, तो वह उन्हें जान से मार देता।

'हुँह... यह सच है,' जो विचार उसके दिमाग में तूफान की तरह मँडराते हुए एक-दूसरे का पीछा कर रहे थे, उनका सिलसिला पकड़ कर वह बुदबुदाता रहा, 'यह सच है कि किसी आदमी को 'समझने में समय लगता है और सावधानी बरतनी पड़ती है', लेकिन मिस्टर लूजिन के बारे में कोई गलती नहीं हो सकती। खास बात यह है कि वह 'कारोबारी आदमी हैं और बहुत भले मालूम होते हैं' : तो बड़ा कमाल किया उन्होंने, जो उन लोगों का सारा सामान और बड़ा संदूक भिजवा दिया! सचमुच बहुत भले आदमी हैं कि उन्होंने इतना कर दिया। लेकिन उनकी दुल्हन और उसकी माँ को बोरे से ढँके हुए छकड़े में बैठ कर सफर करना होगा (मैं भी तो उसमें बैठ कर सफर कर चुका हूँ)! कोई बात नहीं है! कुल नब्बे ही वेर्स्त तो है और फिर एक हजार वेर्स्त तक वे 'तीसरे दर्जे में बड़े आराम से सफर कर सकती हैं!' ठीक ही तो है : चादर जितनी हूजियो उतना पैर पसार। लेकिन आप अपनी बात सोचिए, लूजिन साहब। वह आपकी दुल्हन है... सो आपको यह भी तो मालूम होगा कि उसकी माँ को इस सफर के लिए अपनी पेंशन गिरवी रख कर पैसा जुटाना पड़ेगा। जाहिर है यह व्यापार का मामला है, ऐसी साझेदारी जिसमें दोनों का फायदा हो, जिसमें दोनों के हिस्से बराबर हों और खर्च भी दोनों बराबर उठाएँ। जैसा कि रूसी भाई लोग कहते हैं : खाने-पीने को तो मिलेगा, लेकिन तंबाकू का पैसा देना पड़ेगा। यहाँ भी व्यापारी उन्हें दाँव दे गया। सामान पहुँचवाने का खर्च किराए से कम होगा और मुमकिन है मुफ्त ही चला जाए। ये सारी बातें उन दोनों की समझ में कैसे नहीं आतीं या वे इसे समझना ही नहीं चाहतीं या वे खुश हैं, इसी बात पर खुश हैं! और जरा सोचिए, यह तो अभी बौर ही लगा है, असली फल तो बाद में लगेंगे! लेकिन असली सवाल कंजूसी का नहीं है, कमीनेपन का भी नहीं है, बल्कि इस पूरे मामले की भावना का है। शादी के बाद भी क्या यही भावना रहेगी; अभी तो यह सिर्फ बानगी है। और माँ भी... वह पानी की तरह क्यों पैसा बहा रही हैं पीतर्सबर्ग पहुँचने तक उनके पास क्या बच रहेगा चाँदी के तीन रूबल या दो नोट1, जैसा कि वह सूदखोर बुढ़िया कहती है... हुँह! वे पीतर्सबर्ग में बाद में रहेंगी काहे के सहारे? अभी से उनको अंदाजा हो चला है कि शादी हो जाने के बाद वे दूनिया के साथ नहीं रह सकतीं, शुरू के कुछ महीने भी नहीं। उस भले आदमी ने लगे हाथ इसके बारे में भी कुछ कह दिया होगा, हालाँकि माँ इस बात को मानेंगी नहीं, कहती हैं : 'मैं खुद मना कर दूँगी,' फिर वह किसका आसरा लगाए हुए हैं? क्या अफानासी इवानोविच का कर्ज चुकाने के बाद उनकी एक सौ बीस रूबल की पेन्शन में से जो कुछ बचेगा, उसके भरोसे बैठी हैं ऊनी शालें बुन-बुन कर, कफ काढ़-काढ़ कर अपनी बूढ़ी आँखें खराब कर रही हैं। और जितनी शालें वे बुनती हैं, उनसे उनकी एक सौ बीस रूबल सालाना की आमदनी में बीस रूबल से ज्यादा की बढ़त नहीं होती, यह बात मैं जानता हूँ। इसलिए हर जगह वे मि. लूजिन की उदारता के बल पर ही सारी उम्मीदें बाँधे हुए हैं : 'वह खुद अपनी तरफ से कहेंगे, वह मेरे ऊपर इसके लिए दबाव डालेंगे'। आँखें पथरा जाएँगी इसका इंतजार कर-करके! इन शिलर के पात्रों जैसे नेकदिल लोगों का हमेशा यही हाल होता है; आखिरी वक्त तक उन्हें हर बत्तख हंस दिखाई देती है, आखिरी दम तक वे अच्छी-से-अच्छी बात की उम्मीद लगाए रहते हैं, उन्हें कोई खराबी दिखाई नहीं देती। हालाँकि उन्हें तस्वीर के दूसरे रुख का थोड़ा-बहुत अंदाजा जरूर होता है लेकिन जब तक उन्हें मजबूर न कर दिया जाए, वे सच्चाई का सामना करने को तैयार नहीं होते; उसकी बात सोच कर ही काँप उठते हैं; दोनों हाथों से सच्चाई को दूर ढकेलते रहते हैं, जब तक कि वह आदमी, जिसे वे झूठे रंग-रूप में सजा-सँवार कर पेश करते हैं, खुद अपने हाथों से उन्हें बेवकूफोंवाली टोपी न पहना दें। मैं जानना चाहूँगा क्या लूजिन साहब को कभी कोई सनद मिली है? मैं दावे से कह सकता हूँ कि उनके पास कालर पर फूल के काज में लगाने के लिए सेंट एन का तमगा जरूर होगा और जब वह ठेकेदारों या व्यापारियों के साथ दावतें खाने जाते होंगे, तो उसे लगा लेते होंगे। मुझे यकीन है, अपनी शादी के मौके पर भी वह उसे लगाएँगे! मैं तो तंग आ गया उनसे, भाड़ में जाएँ वह!...

'खैर... माँ पर मुझे कोई ताज्जुब नहीं होता, वे तो हैं ही ऐसी, भगवान उन्हें सुखी

1. क्रांतिपूर्व रूस में चाँदी के रूबल और कागज के रूबल के मूल्यों में अंतर था।

रखे, लेकिन दूनिया को क्या कहा जाए? प्यारी दूनिया, क्या मैं तुम्हें जानता नहीं! जब मैं पिछली बार तुमसे मिला था, तुम लगभग बीस साल की थीं : तभी मैं तुम्हें समझ गया था। माँ ने लिखा है कि 'दूनिया बहुत कुछ बर्दाश्त कर सकती है'। मैं यह बात तो बहुत ही अच्छी तरह जानता हूँ। यह बात मुझे ढाई साल पहले ही मालूम थी, और पिछले ढाई साल से मैं इसके बारे में सोचता रहा हूँ, बस इसी के बारे में सोचता रहा हूँ कि 'दूनिया बहुत कुछ बर्दाश्त कर सकती है'। अगर उसने स्विद्रिगाइलोव साहब को और उन बाकी सारी बातों को बर्दाश्त कर लिया, तो वह सचमुच बहुत कुछ बर्दाश्त कर सकती है। और अब माँ ने और उसने अपने मन में यही बात बिठा ली है कि वह लूजिन साहब को बर्दाश्त कर सकती है, जो इस सिद्धांत का बखान करते हैं कि जिन बीवियों को कंगाली से बाहर निकाल कर लाया जाता है और जो हर चीज के लिए अपने शौहरों की मेहरबानी की मोहताज रहती हैं, वे ज्यादा अच्छी होती हैं - और इस सिद्धांत का बखान भी उन्होंने लगभग पहली ही मुलाकात में किया था। माना कि यह बात उनके 'मुँह से निकल गई थी', हालाँकि वह समझदार आदमी हैं (यह भी तो हो सकता है कि बात उनके मुँह से अनजाने न निकली हो, बल्कि वे यही चाहते ही हों कि अपना रवैया जल्दी से जल्दी साफ-साफ बता दें), लेकिन दूनिया... दूनिया को क्या हो गया वह उस आदमी को समझती है, सच है, लेकिन उसे उस आदमी के साथ रहना भी तो होगा। वह रूखी रोटी खा कर और पानी पी कर अपने दिन काट देगी लेकिन अपनी आत्मा कभी नहीं बेचेगी; सुख-सुविधा के बदले अपनी नैतिक स्वतंत्रता का कभी सौदा नहीं करेगी; लूजिन साहब के पैसे की बिसात ही क्या है, वह तो श्लेसविग-हाल्सटाइन की सारी जागीर के बदले भी उसका सौदा नहीं करेगी। नहीं, जब मैं दूनिया को जानता था, तब वह ऐसी नहीं थी और

...यकीनन वह अब भी वैसी ही है! अलबत्ता, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि स्विद्रिगाइलोव परिवार में उसका अनुभव बहुत कड़वा रहा! मुफस्सिल के किसी कस्बे में दो सौ रूबल सालाना पर गवर्नेस का काम करना यूँ भी काफी कड़वा अनुभव होता है। लेकिन मैं जानता हूँ कि वह बागान में हब्शी मजदूरों की तरह काम कर लेगी या किसी जर्मन जमींदार के यहाँ बाल्तिक प्रदेश से आनेवाले खेत-मजदूरों की तरह अपने दिन काट लेगी, लेकिन अपने स्वार्थ की खातिर वह अपनी आत्मा को और अपनी नैतिक प्रतिष्ठा को हमेशा के लिए अपने आपको किसी ऐसे आदमी के साथ बाँध कर नीचे नहीं गिराएगी, जिसकी वह इज्जत न करती हो और जिसकी कोई भी चीज उससे न मिलती हो। और अगर लूजिन साहब एकदम खरा सोना भी होते, या हीरे का बड़ा-सा डला भी होते, तब भी वह उनकी कानूनी रखैल बनने को कभी राजी न होती! फिर वह राजी क्यों हो गई बात क्या है आखिर जवाब इसका क्या है बात काफी साफ है : खुद अपनी खातिर, अपने आराम की खातिर, अपनी जान बचाने की खातिर वह अपने आपको कभी न बेचती, लेकिन किसी और की खातिर वह ऐसा कर रही है! वह किसी ऐसे आदमी की खातिर अपने आपको बेच देगी। जिसे वह प्यार करती है, जिसे वह सराहती है। तमाम बातों का निचोड़ यही है : अपने भाई की खातिर, अपनी माँ की खातिर वह अपने आपको बेच देगी! हर चीज बेच देगी! ऐसी हालत में जरूरत पड़ने पर हम अपनी नैतिक भावना को भी दबा देते हैं; स्वतंत्रता, शांति, यहाँ तक कि अंतरात्मा भी, सब कुछ, हर चीज बाजार में ले आई जाती है। हमारी जिंदगी भले ही तबाह हो जाए, बस हमारे प्रियजन सुखी रहें! इतना ही नहीं, हम धर्म और अधर्म की मीमांसा भी करने लगते हैं, छल-कपट भरी गोल-मोल बातें करना सीख लेते हैं, और कुछ समय के लिए हम अपने आपको तसल्ली दे सकते हैं, अपने मन को समझा सकते हैं कि एक अच्छे लक्ष्य के लिए हमारा कर्तव्य यही है। यह बात सूरज की रौशनी की तरह साफ है कि हम लोग हैं ही ऐसे। यह बात एकदम साफ है कि रोदिओन रोमानोविच रस्कोलनिकोव इस पूरे किस्से का केंद्रीय पात्र है, कोई दूसरा नहीं। जी हाँ, वह उसके जीवन को सुखी बनाने का पक्का बंदोबस्त कर सकती है, यूनिवर्सिटी में उसके पढ़ते रहने का इंतजाम कर सकती है, उसे दफ्तर में साझेदार बना सकती है, उसके पूरे भविष्य को सुरक्षित बना सकती है; शायद आगे चल कर वह धनी भी बन जाए; दौलतवाला, इज्जतवाला, और कौन जाने बहुत मशहूर आदमी हो कर मरे! लेकिन मेरी माँ उसके लिए तो रोद्या ही सब कुछ है, जान से प्यारा रोद्या, उसकी पहली संतान! ऐसे बेटे की खातिर कौन अपनी बेटी की बलि नहीं दे देगा! ओह, प्यार भरे, घोर पक्षपाती हृदय! अरे, उसकी खातिर तो हम सोन्या जैसा जीवन अपनाने में भी संकोच नहीं करेंगे! सोन्या... सोन्या मार्मेलादोवा... जब तक यह दूनिया रहेगी, उसको ही सारी मुसीबतें झेलनी पड़ेंगी! क्या तुमने, तुम दोनों ने, अपनी कुर्बानी की थाह ली है क्या यह सही है क्या तुम इसे झेल सकोगी क्या इसका कोई फायदा है इसकी कोई तुक है क्या और दुनेच्का, मैं तुम्हें इतना बता दूँ कि मिस्टर लूजिन के साथ तुम्हारी जिंदगी जैसी होगी, सोन्या की जिंदगी उससे बदतर नहीं है। 'प्यार-मुहब्बत का तो कोई सवाल ही नहीं हो सकता,' माँ ने लिखा है। और अगर इज्जत भी न मिली तो अगर इसकी बजाय उलटे दुराव, तिरस्कार और नफरत मिली तो फिर तो तुम्हें भी 'बनाव-सिंगार से रहना पड़ेगा'। यही बात है न तुम समझती हो क्या कि उस सज-धज का क्या मतलब होता है तुम इस बात को समझती हो क्या कि लूजिन की सज-धज एकदम वैसी ही चीज है जैसे सोन्या की और शायद उससे भी बदतर, उससे भी निकृष्ट, उससे भी गिरी हुई चीज हो। इसलिए दुनेच्का कि तुम्हारे मामले में तो यह बहरहाल ऐश-आराम का सौदा है, जबकि सोन्या के लिए तो भूखे मरने का सवाल है। इसकी कीमत चुकानी पड़ती है दूनिया, कीमत चुकानी पड़ती है, इस सज-धज की! बाद में चल कर अगर यह सब तुम्हारी बर्दाश्त के बाहर हुआ तो, अगर तुम्हें इसका पछतावा हुआ तो कड़वाहट, व्यथा, तिरस्कार, सारी दुनिया से छिप कर आँसू बहाना, क्योंकि तुम मार्फा पेत्रोव्ना नहीं हो। और तुम्हारी माँ को तब कैसा लगेगा? अभी से उन्हें बेचैनी हो रही है, चिंता लगी हुई है, लेकिन तब क्या होगा जब उन्हें हर बात साफ दिखाई देने लगेगी और मैं हाँ, मुझे, आखिर तुम लोगों ने समझा क्या है मुझे तुम्हारी कुर्बानी नहीं चाहिए दूनिया, मुझे यह कुर्बानी नहीं चाहिए माँ! मेरे जीते जी यह नहीं होगा, कभी नहीं होगा!'

उसके विचारों का सिलसिला अचानक रुक गया और वह चुपचाप खड़ा रहा।

'मैं इसे कबूल करने से रहा।' लेकिन इसे रोकने के लिए तुम करोगे क्या? मना कर दोगे, लेकिन तुम्हें इसका अधिकार क्या है? अपनी ओर से तुम उन्हें किस चीज की उम्मीद दिला सकते हो जो वे तुम्हें इसका अधिकार दें। जब तुम अपनी पढ़ाई पूरी कर लोगे और तुम्हें नौकरी मिल जाएगी, तब अपना सारा भविष्य उन्हें अर्पित कर दोगे अरे, यह सब कुछ तो हम पहले भी सुन चुके हैं; ये सब केवल बाद की बातें हैं। लेकिन इस वक्त कुछ करना होगा, अभी इसी वक्त कर क्या रहे हो तुम उनके सहारे जी रहे हो। वे अपनी सौ रूबल की पेंशन के बूते कर्ज लेती हैं। वे स्विद्रिगाइलोव परिवार से पैसा उधार लेती हैं! और ऐ भावी कुबेर, ऐ उनके भाग्य-विधाता जीयस, तुम उन्हें स्विद्रिगाइलोव जैसे लोगों से, अफानासी इवानोविच बाखरूशिन से कैसे बचाओगे... तुम जो उनकी जिंदगी की सारी व्यवस्था करनेवाले हो अगले दस साल में अगले दस साल में तो माँ शालें बुन-बुन कर अंधी हो जाएँगी, हो सकता है रो-रो कर भी। भूखी रह-रह कर वह सूख कर, तिनका हो जाएँगी। और मेरी बहन एक पल के लिए सोचो तो सही कि दस साल में तुम्हारी बहन का क्या अन्जाम होगा उन दस बरसों में उस पर क्या बीतेगी सोच सकते हो?'

वह इसी तरह अपने आपको यातना देता रहा, इसी तरह के सवालों से उलझता रहा और इसमें उसे एक तरह का मजा आता रहा। फिर भी ये सारे सवाल ऐसे नए सवाल नहीं थे, जो अचानक उसके सामने आ गए हों। ये तो पुराने जाने-पहचाने दर्द थे। बहुत पहले ही इन्होंने उसके दिल को अपने शिकंजे में जकड़ना और कचोके देना शुरू कर दिया था। उसकी आज की तकलीफ बहुत पहले शुरू हुई थी, बढ़ती आई थी, प्रबल होती गई थी, परिपक्व और घनीभूत होती गई थी, यहाँ तक कि उसने एक भयानक और कल्पनातीत प्रश्न का रूप धारण कर लिया था, जो उसके दिल और दिमाग को सालता रहता था और जवाब के लिए बार-बार शोर मचाता रहता था। उसकी माँ का खत बिजली की तरह उसके ऊपर आन टूटा था। स्पष्ट था कि अब वह चुपचाप सब कुछ सहता नहीं रह सकता था; ऐसे सवालों की चिंता में डूबा नहीं रह सकता था, जो हल नहीं हुए थे। उसे बल्कि कुछ करना होगा, फौरन करना होगा, और जल्दी करना होगा। बहरहाल, उसे कुछ-न-कुछ फैसला तो करना ही होगा, वरना... 'वरना जिंदगी से बिलकुल नाता तोड़ लेना होगा!' एकाएक जुनून से बेचैन हो कर वह चिल्लाया, 'अपने मुकद्दर को हमेशा के लिए ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना होगा, अपने अंदर की हर चीज का गला घोंट देना होगा, कुछ करने का, जिंदगी का और मुहब्बत का हर दावा छोड़ देना होगा।'

'आप समझते हैं जनाब, आपको पता है, इसका क्या मतलब होता है, जब किसी के पास जाने को एकदम कोई ठिकाना न हो?' मार्मेलादोव का कल का सवाल अचानक उसके दिमाग में उठा, 'क्योंकि हर आदमी के पास जाने को कोई ठिकाना तो होना ही चाहिए...'

अचानक वह चौंका। एक और विचार, जो कल उसके मन में उठा था, चुपके से उसके दिमाग में वापस आ गया। लेकिन वह इस बात पर नहीं चौंका कि यही विचार दोबारा उसके दिमाग में उठा था, क्योंकि वह जानता था, वह पहले ही महसूस कर चुका था कि वही विचार लौट कर फिर आएगा। वह उसकी राह देख रहा था। अलावा इसके, वह महज कल का ही विचार नहीं था। फर्क बस इतना था कि एक महीना पहले तक, बल्कि कल तक भी, यह विचार केवल एक सपना था, लेकिन अब... अब वह सपना बिलकुल नहीं मालूम होता था। उसने एक नया, खतरनाक और एकदम अपरिचित रूप धारण कर लिया था, और एकाएक उसे इस बात का स्वयं आभास हो चला था... उसे लगा जैसे कोई उसके सर के अंदर हथौड़ा चला रहा है। आँखों के आगे अँधेरा छा गया।

उसने चारों ओर जल्दी-जल्दी नजर दौड़ाई। वह कोई चीज ढूँढ़ रहा था। वह बैठना चाहता था और कोई बेंच खोज रहा था; वह ह. बूलेवार पर चला जा रहा था। उसके सामने कोई सौ कदम की दूरी पर एक बेंच थी। जितनी तेजी से हो सका, वह उसकी ओर लपका। लेकिन बीच में ही अकस्मात एक ऐसी छोटी-सी घटना हो गई, जिसने उसका सारा ध्यान अपनी ओर खींच लिया।

बेंच ढूँढ़ते समय उसने देख लिया था कि एक औरत उससे कोई बीस कदम आगे चली जा रही थी, लेकिन शुरू में उसने उसकी तरफ रास्ते में आनेवाली दूसरी चीजों के मुकाबले कुछ ज्यादा ध्यान नहीं दिया था। घर जाते हुए पहले भी कितनी ही बार उसके साथ ऐसा हो चुका था। जिस रास्ते से जाता था उसकी तरफ ध्यान नहीं देता था, और वह इसी तरह चलने का आदी हो गया था। लेकिन आज एक ही बार देखने पर आगे जाती इस औरत में ऐसी कुछ अजीब बात नजर आई कि धीरे-धीरे उसका ध्यान उस पर जम कर रह गया; शुरू में तो अनमनेपन से और गोया एक चिढ़ के साथ लेकिन बाद में अधिकाधिक एकाग्रता के साथ। अचानक उसमें यह पता लगाने की इच्छा जागी कि उस औरत में ऐसी विचित्र क्या बात थी। पहली बात तो यह थी कि वह देखने में बिलकुल नौजवान लगती थी, और उस सख्त गर्मी में भी नंगे सर चली जा रही थी। न छतरी थी न दस्ताने, और वह चलते हुए अपनी बाँहें बड़े बेतुके ढंग से हिला रही थी। वह किसी हलके रेशमी कपड़े की पोशाक पहने थी, लेकिन उसने उसे कुछ अजीब उलटे-सीधे तरीके से पहन रखा था। बटन भी ठीक से नहीं लगे हुए थे और कमर के पास स्कर्ट से ऊपर वह फट कर खुली हुई थी; उसका एक बड़ा-सा टुकड़ा जगह छोड़ कर नीचे लटक आया था। नंगी गर्दन में एक छोटा-सा रूमाल पड़ा हुआ था लेकिन वह एक ओर को कुछ तिरछा हो गया था। उस लड़की के पाँव भी सीधे नहीं पड़ रहे थे, वह लड़खड़ाती और कुछ झूमती हुई चल रही थी। आखिरकार उसने रस्कोलनिकोव का सारा ध्यान अपनी ओर खींच लिया। बेंच तक पहुँचते-पहुँचते वह उस लड़की के बिलकुल बराबर आ चुका था। लेकिन वहाँ पहुँच कर वह बेंच के एक कोने में गिर पड़ी; बेंच की पुश्त पर अपना सिर टिका दिया और आँखें मूँद लीं। साफ मालूम होता था कि वह थक कर निढाल हो गई है। गौर से उसे देखने पर फौरन वह समझ गया कि वह शराब के नशे में चूर है। बहुत अजीब, दिल को धक्का पहुँचानेवाला मंजर था। उसे यकीन नहीं आ रहा था कि वह जो कुछ देख रहा था, वह सच था। आँखों के सामने एक बिलकुल कमसिन, सुनहरे बालोंवाली लड़की का चेहरा था - सोलह की रही होगी या शायद पंद्रह से ज्यादा की न हो। सुंदर भोला-सा चेहरा, लेकिन तमतमाया हुआ। देखने में कुछ भारी-सा जैसे जरा सूजा हुआ हो। लगता था उस लड़की को कुछ भी होश नहीं कि वह क्या कर रही है। उसने बड़े भोंदे ढंग से एक टाँग उठा कर दूसरी पर चढ़ा ली। उसके व्यवहार में इस बात के सभी संकेत मौजूद थे कि उसे अपने सड़क पर होने का कोई एहसास नहीं था।

रस्कोलनिकोव बैठा नहीं, न उसे वहीं छोड़ जाने का मन हुआ; वह बस दुविधा में पड़ा उसके सामने खड़ा रहा। इस सड़क पर कभी भी बहुत आवाजाही नहीं रहती थी; और अब दो बजे, इस घुटन भरी गर्मी में तो वह एकदम सुनसान थी। फिर भी सड़क की दूसरी तरफ कोई पंद्रह कदम की दूरी पर, फुटपाथ की कगार पर एक सज्जन खड़े थे और साफ जाहिर था कि वे अपने किसी निजी स्वार्थ से उस लड़की के पास आना चाहते थे। शायद उन्होंने भी उस लड़की को दूर से देखा हो और उसका पीछा करते हुए आ रहे हों, लेकिन रस्कोलनिकोव उनके रास्ते में आ गया था। उन्होंने रस्कोलनिकोव को गुस्से से देखा, हालाँकि उसकी नजरों से बचने की पूरी कोशिश करते रहे। वे बड़ी बेचैनी से मौके की ताक में खड़े रहे कि कबाब में हड्डी की तरह बीच में आनेवाला यह चीथड़ों में लिपटा शख्स आदमी वहाँ से टले तो सही। उनकी नीयत के बारे में किसी तरह का संदेह नहीं था। वे सज्जन भरे बदन के, गठे हुए शरीरवाले आदमी थे, यही कोई तीस के लगभग। फैशनेबुल कपड़े पहने हुए, लाल होठ औ मूँछें रखे हुए। रस्कोलनिकोव को बेहद गुस्सा आया; अचानक उसके जी में आया कि किसी तरह इस मोटे छैले का अपमान तो करे। पल-भर के लिए लड़की को वहीं छोड़ कर वह उन जनाब की ओर बढ़ा।

'अरे ओ स्विद्रिगाइलोव! यहाँ क्या कर रहा है तू?' उसने मुस्कराते हुए मगर मुट्ठियाँ भींच कर, जोर से चिल्ला कर कहा। गुस्से के मारे उसके होठ टेढ़े हो रहे थे।

'क्या मतलब?' उन सज्जन ने बड़ी सख्ती से हैरान हो कर त्योरियों पर बल लिए हुए पूछा।

'चले जाओ यहाँ से; मतलब बस यही है!'

'कमीने, तेरी यह मजाल!'

यह कह कर उन्होंने अपना बेंत उठाया। रस्कोलनिकोव मुट्ठियाँ भींच कर उनकी ओर झपटा; उसने यह भी न सोचा कि वह तगड़ा आदमी उसके जैसे दो आदमियों के लिए काफी था। लेकिन उसी पल पीछे से आ कर किसी ने उसे धर दबोचा। अब उन दोनों के बीच एक पुलिसवाला खड़ा था।

'बस, साहब, बस सड़क पर कोई झगड़ा नहीं। तुम्हें चाहिए क्या? तुम हो कौन?' उसने रस्कोलनिकोव के फटे-पुराने कपड़े देख कर उससे सख्ती से पूछा।

रस्कोलनिकोव ने उसे गौर से देखा। सीधा-सादा, समझदार, सिपाहियों जैसा चेहरा। सफेद मूँछें और गलमुच्छे।

'मुझे तुम्हारे ही जैसे आदमी की तलाश थी,' रस्कोलनिकोव ने उसकी बाँह पकड़ कर ऊँची आवाज में कहा। 'मैं कॉलेज में पढ़ता था, नाम मेरा है रस्कोलनिकोव... आप भी जानना चाहें तो जान लीजिए,' उसने उन जनाब को संबोधित करते हुए इतना और जोड़ दिया। 'आओ, तुम्हें एक चीज दिखाऊँ।'

इतना कह कर उसने पुलिसवाले का हाथ पकड़ा और उसे बेंच की ओर ले चला।

'इसे देखो, यह बुरी तरह शराब पिए हुए है। अभी इसी बड़ी सड़क से इधर आई है। न जाने कौन है और क्या करती है, देखने में तो पेशेवाली नहीं मालूम होती। मुझे तो लगता है कि किसी ने शराब पिला कर इसे धोखा दिया है... पहली बार... समझते हो न और फिर उन लोगों ने इसे सड़क पर इस हालत में छोड़ दिया है। देखो तो, इसके कपड़े कैसे फटे हुए हैं, और किस तरह इसने उन्हें पहन रखा है। इसने खुद कपड़े नहीं पहने हैं, किसी ने उसे पहनाए हैं, और जिसने भी पहनाए हैं उसे इसकी आदत नहीं रही होगी। साफ जाहिर है किसी मर्द ने पहनाए हैं। और अब उधर देखो : वह छैला जिससे मैं लड़ने जा रहा था, मैं उसे जानता तक नहीं हूँ; उसे पहली बार अभी देखा है; लेकिन उसने भी इस लड़की को सड़क पर देखा है, अभी-अभी, शराब पिए हुए, एकदम असहाय, और वह इसे अपने कब्जे में करने के लिए बेताब है, कि उसे इसी हालत में कहीं ले जाए... इसमें तो जरा भी शक नहीं है। मेरी बात मानो, मैं गलत नहीं कह रहा हूँ। मैंने खुद उसे इस लड़की को घूरते हुए, इसका पीछा करते हुए देखा है, लेकिन मैं उसकी राह में आ गया, और अब वह इस ताक में है कि मैं कब यहाँ से टलूँ। अब वह वहाँ से हट कर जरा दूर चला गया है और चुपचाप खड़ा है, जैसे सिगरेट बना रहा हो... कोई तरकीब आती है तुम्हारी समझ में कि कैसे इसे उसके पंजे से बचाया जाए और किस तरह इसे इसके घर पहुँचाया जाए?'

पलक झपकते भर में पुलिसवाले की समझ में सब कुछ आ गया। गठे हुए शरीरवाले उन छैले के इरादों को समझना कोई मुश्किल काम नहीं था, पर सवाल उस लड़की के बारे में सोचने का था। पुलिसवाला झुक कर उसे और करीब से देखने लगा। उसके चेहरे पर सचमुच दया का भाव उभर आया।

'आह, कितने अफसोस की बात है!' उसने सर हिलाते हुए कहा। 'अभी एकदम बच्ची है। किसी ने इसे बहला-फुसला कर धोखा दिया है, इतना तो साफ दिखाई देता है। 'सुनिए मिस,' उसने उस लड़की से कहना शुरू किया, 'आप रहती कहाँ हैं?' लड़की ने थकी हुई उनींदी आँखें खोलीं, बोलनेवालों को शून्य भाव से एकटक देखा, और अपना हाथ हवा में घुमा दिया।

'यह लो,' रस्कोलनिकोव ने अपनी जेब टटोल कर उसमें से बीस कोपेक निकाला और बोला, 'यह लो, एक गाड़ी बुला कर इसे इसके पते पर पहुँचवा दो। सवाल बस इसका पता मालूम करने का है।'

'मिस साहिबा, मिस साहिबा,' पुलिसवाले ने पैसे ले कर फिर कहना शुरू किया, 'मैं गाड़ी लिए आता हूँ, आपको मैं खुद घर पहुँचा आऊँगा। कहाँ पहुँचा दूँ, बोलिए आप कहाँ रहती हैं?'

'जाओ, चले जाओ! किसी तरह पीछा ही नहीं, छोड़ते,' लड़की बुदबुदाई और फिर एक बार हवा में हाथ घुमाया।

'छिः कितनी बुरी बात है! कोई क्या कहेगा, मिस साहिबा, बड़ी शर्म की बात है!' उसने एक बार फिर दुख, सहानुभूति और क्रोध के मिले-जुले भाव से अपना सर हिलाया। 'बड़ा मुश्किल काम है,' पुलिसवाले ने रस्कोलनिकोव से कहा और यह कहते हुए उसने बड़ी तेजी से अपनी नजर ऊपर-नीचे दौड़ाई। रस्कोलनिकोव भी उसे बड़ा अजीब आदमी लगा होगा : खुद तो फटे-पुराने चीथड़े पहने था और उसे पैसे थमा रहा था!

'तुम्हारी इससे मुलाकात यहाँ से काफी दूर हुई थी क्या?' पुलिसवाले ने उससे पूछा।

'मैंने बताया न, यह मेरे सामने लड़खड़ाती हुई चल रही थी। इसी सड़क पर। इस बेंच के पास पहुँच कर धम से इस पर गिर पड़ी।'

'आह, आजकल दुनिया में कैसा-कैसा पाप हो रहा है, भगवान ही बचाए! ऐसी मासूम बच्ची और अभी से शराब पीने लगी है। इसमें तो कोई शक नहीं, इसे धोखा दिया गया है। देखो, इसके कपड़े कितनी बुरी तरह फटे हुए हैं... आजकल कैसा-कैसा कुकर्म देखने को मिलता है! यह किसी शरीफ घर की लगती है, भले ही गरीब हो... आजकल ऐसी कितनी ही लड़कियाँ हैं और देखने में शरीफ भी लगती हैं, जैसे कोई रईसजादी हो,' यह कह कर वह एक बार फिर झुक कर उसे देखने लगा।

शायद उसकी अपनी बेटियाँ भी इसी तरह बड़ी हो रही होंगी। 'देखने में रईसजादियाँ और शरीफ,' जो अपने बनाव-सिंगार और रख-रखाव से भले, शरीफ घर की होने का दावा करती होंगी...

'असली काम तो यह है,' रस्कोलनिकोव अपनी बात कहता रहा, 'कि इसे किस तरह उस बदमाश के पंजे से बचाया जाए! उसे क्यों इसकी लाज लूटने का मौका मिले यह बात तो एकदम साफ है कि वह किस फेर में है। हरामजादा किसी तरह यहाँ से टलता ही नहीं!'

रस्कोलनिकोव ने यह बात ऊँची आवाज में कही और उसकी ओर इशारा किया। उस छैले ने उसकी बात सुन ली और लगा कि उनका गुस्सा फिर भड़कने वाला था। लेकिन कुछ सोच कर वह रुक गया और उसने बस तौहीन की नजर इस पर डाल कर उसे देख कर संतोष कर लिया। इसके बाद वह धीरे-धीरे चलते हुए वहाँ से दस कदम और दूर बढ़ गया और वहाँ जा कर रुक गया।

'उससे हम इसे बचा तो सकते हैं,' पुलिसवाला विचारमग्न हो कर बोला, 'लेकिन यह कुछ बताए तो सही कि इसे कहाँ जाना है।' लेकिन इस तरह तो... 'मिस साहिबा, ऐ मिस साहिबा!' वह एक बार फिर उसकी ओर झुका।

लड़की ने अचानक अपनी आँखें पूरी खोल दीं, गौर से चारों ओर देखा, गोया कुछ उसकी समझ में आया हो और बेंच से उठ कर उसी तरफ चल पड़ी जिधर से आई थी।

'ये नीच लोग किसी तरह पीछा ही नहीं छोड़ते!' वह एक बार फिर हवा में अपना हाथ घुमा कर बोली। वह तेज कदम बढ़ाती हुई चली जा रही थी, हालाँकि अब भी पहले की ही तरह लड़खड़ा रही थी। वह छैला भी उसके पीछे चला लेकिन छायादार पेड़ों के बीच दूसरे रास्ते पर। उसकी नजरें लगातार उस लड़की पर थीं।

'आप फिक्र न करें, मैं ऐसा नहीं होने दूँगा,' मूँछदार पुलिसवाले ने दोनों के पीछे बढ़ते हुए मजबूती से कहा।

'आह, आजकल कैसा-कैसा कुकर्म देखने को मिलता है!' उसने आह भर कर फिर एक बार जोर से कहा।

अचानक ऐसा लगा गोया किसी चीज ने रस्कोलनिकोव को डंक मारा हो। एक पल में ही वह घृणा की भावना से भर उठा।

'ऐ, सुनो,' उसने पुलिसवाले को पुकारा।

पुलिसवाले ने मुड़ कर देखा।

'छोड़ो भी उनको! तुमसे क्या मतलब लूटने दो मजा उसको।' (उसने उस छैले की तरफ इशारा किया) : 'तुम्हें भला क्या मतलब?'

पुलिसवाला चकरा गया और उसे आँखें फाड़ कर घूरने लगा। रस्कोलनिकोव हँस पड़ा।

'अच्छा!' पुलिसवाला बड़े तिरस्कार के भाव से हैरान हो कर बोला और उस छैले और लड़की के पीछे चला। हो सकता है उसने रस्कोलनिकोव को पागल समझा हो या उसके बारे में कोई इससे भी बुरी सोची हो।

'मेरे बीस कोपेक भी मार ले गया,' रस्कोलनिकोव जब अकेला रह गया तो गुस्से से बुदबुदाया। 'खैर, चाहे तो वह उससे भी लड़की को उसके हवाले कर देने का जितना चाहे ऐंठ ले और मुआमला खत्म हो। लेकिन मैं भला क्यों बीच में पड़ना चाहता था मुझ जैसा आदमी मदद भी करना चाहे तो क्या सकता है क्या मुझे उसकी मदद करने का कोई अधिकार है वे चाहें तो एक-दूसरे को कच्चा चबा जाएँ - मुझे क्या और मैंने उसे बीस कोपेक देने की हिम्मत कैसे की? क्या वे मेरे थे?'

ऐसी उखड़ी-उखड़ी अजीब बातें सोचने के बावजूद उसका मन उसे अंदर ही अंदर धिक्कार रहा था। वह खाली बेंच पर बैठ गया। उसके विचार बेमकसद भटकने लगे... उस पल उसे किसी भी बात पर अपना ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई हो रही थी। बुरी तरह उसका जी चाह रहा था कि वह अपने आपको भूल जाए, हर चीज को भूल जाए, फिर जागे और जीवन नए सिरे से शुरू करे...

'बेचारी!' उसने बेंच के उस खाली कोने को देखते हुए कहा, जहाँ वह लेटी थी। 'कुछ देर में उसे होश आएगा और वह रोएगी। और फिर उसकी माँ को पता लगेगा... वह उसे पीटेगी, बुरी तरह धुन कर रख देगी, फिर शायद उसे घर से भी निकाल देगी... या अगर न भी निकाले तो दार्या फ्रांत्सोव्ना जैसी किसी औरत को इसकी भनक मिलेगी, और फिर यही लड़की चोरी-छिपे इधर-उधर जाने लगेगी। फिर सीधे अस्पताल का रास्ता (शरीफ माँओं की ऐसी बेटियों का, जो चोरी-छिपे गलत रास्ते पर चल पड़ती हैं, यह अन्जाम होता है), और फिर... फिर अस्पताल... शराब... शराबखाना... और फिर वही अस्पताल... दो-तीन साल में बिखर जाएगी चूर-चूर हो कर और अठारह-उन्नीस की उम्र में जिंदगी उसकी खत्म हो जाएगी... क्या मैं ऐसे किस्से पहले नहीं देख चुका और उन सबका सिलसिला शुरू हुआ कैसे तो सबने इसी तरह शुरू किया... उफ, लेकिन क्या फर्क पड़ता है! लोग कहते हैं, ऐसा तो होता ही रहता है। हमको कहा जाता है कि हर साल कुछ प्रतिशत लड़कियों को जाना ही होता है... इसी रास्ते पर... नरक में। शायद इसलिए कि बाकी लड़कियाँ अछूती रहें, कोई उनके साथ छेड़छाड़ न करे। कुछ प्रतिशत! कितने शानदार शब्द हैं इन लोगों के पास! विज्ञान की कसौटी पर कैसे खरे उतरनेवाले, और दिल को तसल्ली देनेवाले। एक बार बस 'प्रतिशत' कह दिया कि फिर किसी बात की कोई चिंता नहीं रहती। अगर कोई दूसरा शब्द होता... तो शायद हमें ज्यादा परेशानी होती... लेकिन अगर इसी प्रतिशत में दुनेच्का हो तो या इस प्रतिशत में न सही, किसी और प्रतिशत में...

'पर मैं जा कहाँ रहा हूँ?' उसने एकाएक सोचा। 'अजीब तो बात है। मैं तो किसी काम से निकला था। खत पढ़ते ही मैं बाहर निकल आया था... मैं वसील्येव्स्की ओस्त्रोव जा रहा था, रजुमीखिन के पास। यही काम था... अब याद आया। लेकिन किसलिए और मेरे दिमाग में रजुमीखिन के पास जाने की बात इस वक्त कैसे आई अजीब बात है।'

उसे अपने आप पर हैरानी होने लगी। रजुमीखिन यूनिवर्सिटी में एक पुराना दोस्त था। मजे की बात यह थी कि यूनिवर्सिटी में रस्कोलनिकोव का शायद ही कोई दोस्त रहा हो। वह सबसे अलग रहता था, किसी से मिलने नहीं जाता था, और अगर कोई उससे मिलने आता था तो उससे तपाक से मिलता भी नहीं था। जाहिर है लोगों ने जल्दी ही उससे मिलना-जुलना छोड़ दिया। वह छात्रों की सभाओं, उनके मनोरंजनों या उनकी बातचीत में भी कोई हिस्सा नहीं लेता था। तन-मन की सुध बिसरा कर वह बड़ी लगन से काम करता था, और इस बात के लिए सब लोग उसकी इज्जत करते थे। पर उसे पसंद कोई नहीं करता था। वह बहुत गरीब था, पर उसमें एक तरह का दंभ और सबसे अलग-थलग रहने का भाव था, मानो वह किसी चीज को अपने तक ही रखना चाहता हो। उसके कुछ साथियों को लगता था कि वह उन सबको अपने सामने बच्चा समझ कर बड़े तिरस्कार से देखता था, गोया विकास, ज्ञान और आस्थाओं के एतबार से वह उनसे बढ़-चढ़ कर हो, गोया उनके विश्वास और उनकी रुचियाँ उसके स्तर के बहुत नीचे हों।

रजुमीखिन से उसकी निभती थी, या कम से कम वह उससे बहुत ज्यादा अलगाव नहीं रखता था और दूसरों के मुकाबले उससे बातचीत भी कुछ ज्यादा कर लेता था। रजुमीखिन के साथ कोई इसके अलावा कोई बर्ताव कर भी नहीं सकता था। वह बेहद खुशमिजाज, खुले दिल का नौजवान था और भोलेपन की हद तक अच्छे स्वभाववाला था, हालाँकि उस भोलेपन में एक गहराई भी छिपी हुई थी और स्वाभिमान भी। उसके ज्यादातर साथी इस बात को समझते थे, और सभी उसे बेहद पसंद करते थे। वह बेहद तेज दिमाग का लड़का था, हालाँकि कभी-कभी वास्तव में भोले बाबा भी नजर आता था। उसका चेहरा-मोहरा और डीलडौल बरबस अपनी ओर खींचते थे-लंबा कद, छरहरा बदन, काले बाल, दाढ़ी हमेशा कुछ बढ़ी हुई। कभी-कभी वह आपे से बाहर हो जाता और मशहूर यह था कि उसके शरीर में काफी बल था। एक रात जब वह कुछ मस्त दोस्तों के साथ बाहर टहल रहा था, उसने एक भारी-भरकम पुलिसवाले को एक ही घूँसे में चित कर दिया था। पीने पर आता तो कोई सीमा नहीं होती थी, और न पिए तो बिलकुल नहीं पीता था। शरारत में कभी-कभी हद से आगे निकल जाता था, लेकिन कभी ऐसा भी होता था कि वह कोई भी शरारत नहीं करता था। रजुमीखिन में एक खूबी और थी : बड़ी-से-बड़ी नाकामी से भी वह मायूस नहीं होता था, और लगता था कोई भी मुसीबत उसका मनोबल नहीं तोड़ सकती। वह छत पर भी सो सकता था; कड़ी-से-कड़ी सर्दी और भूख भी बर्दाश्त कर सकता था। वह बहुत गरीब था और किसी-न-किसी तरह का काम करके जो भी थोड़ा-बहुत कमाता था, उसी में गुजर करता था। पैसा कमाने की उसे कितनी तरकीबें आती थीं, इसका कोई अंत नहीं था। एक बार उसने पूरा जाड़ा कमरा गर्म करने का चूल्हा जलाए बिना काट दिया और कहा करता था कि इस तरह उसे ज्यादा अच्छा लगता है, क्योंकि ठंड में नींद गहरी आती है। हाल में उसे भी मजबूर हो कर कुछ समय के लिए यूनिवर्सिटी छोड़नी पड़ी थी और वह अपना पूरा जोर लगा कर काम कर रहा था ताकि इतना पैसा बचा ले कि फिर से अपनी पढ़ाई जारी रख सके। पिछले चार महीनों से रस्कोलनिकोव उससे मिलने नहीं गया था, और रजुमीखिन को तो उसका पता भी मालूम नहीं था। लगभग दो महीने पहले इत्तफाकन सड़क पर उनका आमना-सामना हो गया था, लेकिन रस्कोलनिकोव मुँह फेर कर सड़क की दूसरी पटरी पर पहुँच गया ताकि उसे वह देख न ले। रजुमीखिन ने उसे देख तो लिया था लेकिन अनजान हो कर आगे बढ़ गया था, क्योंकि वह अपने दोस्त को किसी उलझन में नहीं डालना चाहता था।