अपराध और दंड / अध्याय 1 / भाग 5 / दोस्तोयेव्स्की

Gadya Kosh से
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'अरे हाँ, कुछ दिनों से तो मैं कोई काम माँगने के लिए रजुमीखिन के पास जाने का इरादा कर ही रहा था, यह कहने कि वह मुझे कहीं पढ़ाने का या कोई दूसरा काम दिलवा दे...' रस्कोलनिकोव ने सोचा, 'लेकिन वह मेरी अब क्या मदद कर सकता है मान लिया कि उसने कहीं पढ़ाने का काम दिलवा दिया, मान लिया कि अगर उसके पास कुल एक दमड़ी हो और उसमें से भी वह आधी मुझे दे दे, ताकि मैं अपने लिए जूते खरीद सकूँ और अपने को इतना सजा-सँवार सकूँ कि कहीं पढ़ाने जाने लायक बन जाऊँ... हुँह... तो, तो फिर क्या मुझे जो थोड़े से कोपेक सिक्के मिलेंगे, उनसे मैं करूँगा क्या इस वक्त क्या मुझे इसकी जरूरत है मेरा रजुमीखिन के पास जाना तो सरासर बकवास है...'

इस वक्त वह रजुमीखिन के पास किसलिए जा रहा था इस सवाल ने उसे जितना एहसास था, उससे भी ज्यादा बेचैन कर रखा था। वह अपनी इस हरकत में, जो देखने में बहुत ही मामूली लगती थी, बड़ी बेचैनी से कोई मनहूस अहमियत देखने की कोशिश कर रहा था।

'कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं अकेले रजुमीखिन के सहारे सब कुछ ठीक कर लेने की आस लगाए बैठा था, कोई हल ढूँढ़ निकालने की उम्मीद कर रहा था?' उसने परेशान हो कर अपने आपसे सवाल किया।

वह सोच में डूबा अपना माथा रगड़ता रहा और अजीब बात यह थी कि बहुत देर सोचते रहने के बाद अचानक गोया अपने आप और संयोग से उसके दिमाग में एक अनोखा विचार आया।

'हुँह... उसके पास,' उसने एकाएक बड़े शांत भाव से कहा, मानो वह किसी आखिरी अटल फैसले पर पहुँच गया हो। 'जाऊँगा मैं रजुमीखिन के पास, जरूर जाऊँगा, लेकिन... अभी नहीं, मैं उसके पास जाऊँगा... उसके अगले दिन, जब वह काम पूरा हो जाएगा और हर चीज फिर नए सिरे से शुरू होगी...'

अब उसे अचानक महसूस हुआ कि वह क्या सोच रहा था।

'उसके बाद,' वह बेंच से चीख कर उछला, चीखा, 'लेकिन वह सचमुच होनेवाला है क्या? क्या यह मुमकिन है कि वह सचमुच हो जाए?'

बेंच छोड़ कर वह उठ खड़ा हुआ और लगभग दौड़ पड़ा। उसका इरादा पीछे मुड़ कर घर जाने का था, लेकिन घर जाने के विचार से ही अचानक उसे गहरी नफरत होने लगी - उस बिल में अपने उस छोटे से मनहूस दड़बे में जहाँ पिछले एक महीने से यह सब उसके अंदर-ही-अंदर पक रहा था वह बेमकसद चलता रहा।

उसकी घबराहट की कँपकँपी ने बढ़ते-बढ़ते बुखार का रूप ले लिया था, जिसकी वजह से वह हिलने लगा था। उसे गर्मी के बावजूद ठंड लग रही थी। किसी तरह कोशिश करके वह लगभग अनायास जैसे किसी प्रबल आंतरिक इच्छा से प्रेरित हो कर, अपने सामने आनेवाली हर चीज को घूरने लगा, जैसे अपना ध्यान बँटाने के लिए किसी चीज को तलाश रहा हो। लेकिन वह सफल न हो सका। बार-बार कुछ ही पल बाद वह अपने ही विचारों में डूब जाता था। अचानक चौंक कर वह अपना सर उठाता, चारों ओर नजर दौड़ाता और फौरन भूल जाता कि अभी क्या सोच रहा था। उसे यह तक याद न रहता कि वह जा कहाँ रहा था। इसी तरह चलते-चलते वह पूरा वसील्येव्स्की ओस्त्रोव पार कर गया, छोटी नेवा के पास आ निकला और पुल पार करके द्वीपों की ओर बढ़ा। शहर की धूल-गर्द, पलस्तर और चारों ओर से उसे घेरे हुए, उस पर एक बोझ बने बड़े-बड़े मकानों के बाद यहाँ की हरियाली और ताजगी से शुरू-शुरू में उसकी थकी हुई आँखों को कुछ राहत मिली। न शराबखाने थे यहाँ, न दम घोंट देनेवाला बंद वातावरण, न कोई बदबू। लेकिन जल्द ही ये नई सुखद संवेदनाएँ बीमारों जैसी चिड़चिड़ाहट में बदल गईं। कभी वह हरियाली के बीच चटकीले रंगों में पुते किसी बँगले के सामने ठिठक कर चुपचाप खड़ा हो जाता और अहाते के पार एकटक घूरता वहाँ दूर बरामदों में और छज्जों पर सजी-बनी, अच्छे-अच्छे कपड़े पहने औरतें और बागों में दौड़ते बच्चे नजर आते। फूलों की ओर उसका ध्यान विशेष रूप से जाता; उन्हें वह किसी भी दूसरी चीज के मुकाबले ज्यादा देर तक और ध्यान से देखता रहता। उसे रास्ते में ठाठदार बग्घियाँ, घोड़ों पर सवार औरतें और मर्द भी मिलते; वह उन्हें कौतूहल-भरी दृष्टि से देखता और इससे पहले कि वे उसकी आँखों से ओझल हों, उन्हें भूल भी जाता। एक बार उसने चुपचाप खड़े अपने पैसे गिने, पता चला कि उसके पास तीस कोपेक थे। 'बीस पुलिसवाले को, तीन नस्तास्या को चिट्ठी के लिए, इसका मतलब है कि कल मार्मेलादोव के यहाँ मैं सैंतालीस या पचास छोड़ आया हूँगा,' न जाने क्यों उसने मन-ही-मन हिसाब लगाया। लेकिन जल्द ही वह भूल गया कि उसने जेब से पैसे क्यों निकाले थे। किसी ढाबे या शराबखाने के सामने से गुजरते हुए उसे यह सब याद आया, और लगा कि वह भूखा है। शराबखाने में जा कर उसने एक गिलास वोदका पी और एक पेस्टी खाई। वहाँ से चलने तक वह उसे पूरा खा चुका था। उसने बहुत समय बाद बोदका पी थी और वह उसे फौरन चढ़ गई, हालाँकि उसने सिर्फ एक छोटा-सा गिलास ही पिया था। उसे अपनी टाँगें अचानक भारी लगने लगीं और नींद-सी आने लगी। वह घर की ओर मुड़ा, लेकिन पेत्रोव्स्की ओस्त्रोव के पास पहुँच कर रुक गया। थक कर वह चूर हो चुका था। सड़क से वह झाड़ियों की ओर बढ़ा और घास पर लंबे हो कर फौरन सो गया।

दिमाग जब हो बीमारी की हालत में, तो सपनों में अकसर एक अनोखी वास्तविकता, स्पष्टता, यथार्थ से एक असाधारण समानता पैदा हो जाती है। कभी-कभी भयानक शक्लें भी बनती हैं। लेकिन पूरा वातावरण, पूरा चित्र ऐसा जीता-जागता होता है, ऐसी कोमल, अप्रत्याशित लेकिन कला की दृष्टि से ऐसी सुसंगत बारीकियों से भरा होता है कि सपना देखनेवाला, चाहे वह पुश्किन या तुर्गनेव जैसा कलाकार ही क्यों न हो, जागते में अपनी कल्पना-शक्ति से कभी उनका सृजन नहीं कर सकता था। इस तरह के बीमार सपने बहुत समय तक यादों के झरोखों में सजे रहते हैं और भारी तनाव में जकड़े हुए, उत्तेजित मानसतंत्र पर गहरी छाप छोड़ते हैं।

रस्कोलनिकोव ने एक भयानक सपना देखा। देखा कि जिस छोटे से कस्बे में वह पैदा हुआ था, वहीं अपने बचपन के दिनों में वापस पहुँच गया है। लगभग सात बरस का बच्चा बना, वह अपने बाप के साथ एक छुट्टी के दिन, शाम को देहात में घूम रहा था। मौसम धुँधला और बोझिल था। देहात भी वैसा ही था जैसा उसे याद था; अलबत्ता उसकी यादों में देहात का जो चित्र था, उससे कहीं अधिक स्पष्ट वह उसे सपने में नजर आया। वह छोटा-सा कस्बा एक खुले मैदान में आबाद था, जो हथेली की तरह सपाट था। दूर-दूर तक कोई बेद का पेड़ भी नजर नहीं आता था। बहुत दूर पेड़ों का एक झुरमुट दिखाई देता था, क्षितिज के छोर पर गहरी धुंध की तरह। कस्बे के आखिरी बगीचे से कुछ कदम पर एक शराबखाना था, बड़ा-सा उसके सामने से हो कर जब भी वह अपने बाप के साथ गुजरता था, उसे मतली-सी होती थी और डर भी लगता था। वहाँ हरदम भीड़ लगी रहती थी, लोग हमेशा चिल्लाते रहते थे, ठहाकों और गालियों की आवाजें गूँजती रहती थीं, लोग भयानक फटी हुई आवाज में गाते रहते थे और अकसर मारपीट भी होती थी। शराब के नशे में धुत और देखने में भयानक आकृतियाँ शराबखाने के आसपास मँडराती रहती थीं। जब भी उनसे सामना होता था, वह काँप उठता और अपने बाप से चिपक जाता था। शराबखाने के पास पहुँच कर सड़क धूल से अटी एक कच्ची सड़क बन गई थी। वहाँ हमेशा काली गर्द उड़ती रहती थी। यह टेढ़ी-मेढ़ी चक्करदार सड़क कोई तीन सौ कदम आगे जा कर दाहिनी तरफ से कब्रिस्तान के पीछे चली जाती थी। कब्रिस्तान के बीच हरे रंग के गुंबदवाला, पत्थर का एक गिरजाघर था। वहाँ वह अपने माँ-बाप के साथ साल में दो-तीन बार जाता था, जब उसकी दादी की याद में विशेष प्रार्थना का आयोजन होता था। दादी बहुत दिन हुए मर चुकी थीं और उसे उसने देखा भी नहीं था। ऐसे अवसरों पर वे लोग वहाँ सफेद कपड़े में लपेट कर, सफेद तश्तरी में एक खास किस्म की खीर ले जाते थे जिस पर सलीब की शक्ल में किशमिशें चिपकी होती थीं। उस गिरजाघर से उसे बड़ा लगाव था। पुराने ढंग की बिना फ्रेम की मूर्तियाँ और एक बूढ़ा पादरी जिसका सर हमेशा हिलता रहता था। उसकी दादी की कब्र के पास ही, जिस पर निशानी के लिए एक तख्ती लगी हुई थी, उसके छोटे भाई की नन्ही-सी कब्र थी, जो छह महीने का हो कर मर गया था। उसे अपने छोटे भाई की जरा भी याद बाकी नहीं थी, लेकिन उसने दूसरों के मुँह से उसके बारे में सुना था। जब भी वह कब्रिस्तान जाता था, बड़ी आस्था और श्रद्धा के साथ अपनी उँगलियों से सीने पर सलीब का निशान बनाता था और झुक कर उस नन्ही-सी कब्र को चूमता था। सो अब उसने अपने सपने में देखा कि वह अपने बाप के साथ शराबखाने के सामने के कब्रिस्तान की ओर जा रहा था। वह अपने बाप की उँगली पकड़े हुए था और सहमा हुआ शराबखाने को देख रहा था। एक विशेष परिस्थिति ने उसका ध्यान अपनी ओर खींच लिया। लगता था जैसे वहाँ कोई मेला लगा हो; रंग-बिरंगे कपड़े पहने शहरी लोगों, किसान औरतों, उनके मर्दों और हर तरह के फालतू लोगों की भीड़ वहाँ जमा थी। सभी गा रहे थे और सभी ने थोड़ी-बहुत पी रखी थी। शराबखाने के दरवाजे के पास एक गाड़ी खड़ी थी, लेकिन अजीब-सी गाड़ी थी। उसी तरह की बड़ी-सी गाड़ी जिसमें तगड़े घोड़े जोते जाते हैं और जिन पर शराब के पीपे या दूसरा भारी सामान लादा जाता है। उसे गाड़ी खींचनेवाले बड़े-बड़े घोड़ों को देख कर मजा आता था। गर्दन पर लंबे बाल, मोटी टाँगें, और धीमी सधी हुई चाल, पहाड़ जैसा बोझ खींचते हुए, लेकिन देखने से लगता नहीं था कि जरा-सा भी जोर लगाना पड़ रहा हो, गोया बोझ खींचना बिना बोझ के चलने से कहीं ज्यादा आसान हो। लेकिन अजीब बात थी कि इस वक्त इस तरह की गाड़ी के बमों के बीच उसने एक छोटी-सी दुबली-पतली बादामी रंग की घोड़ी जुती हुई देखा। किसानों के उन टट्टुओं जैसी जिन्हें उसने अकसर सारा जोर लगा कर लकड़ी या भूसे का भारी बोझ खींचते हुए देखा था, खास तौर पर उस वक्त जब गाड़ी के पहिए कीचड़ या किसी लीक में फँस जाते थे। तब किसान उन्हें काफी बेरहमी से कभी-कभी तो नाक और आँखों पर भी पीटते थे, और उसे उन जानवरों पर इतना तरस आता था कि उसके आँसू निकलने को आ जाते थे। तब उसकी माँ हमेशा उसे खिड़की के पास से हटा लिया करती थी। अचानक चिल्लाने, गाने और बलालाइका बजाने का जबरदस्त शोर उठा और शराबखाने में से बहुत से लंबे-तगड़े किसान धुत हो कर निकले। लाल और नीली कमीजें पहने हुए अपने-अपने कोट कंधों पर डाले हुए। 'बैठो, बैठ जाओ!' उनमें से एक चिल्लाया; यह एक मोटी गर्दनवाला नौजवान किसान था, जिसका मांसल, फूला हुआ चेहरा गाजर की तरह लाल हो रहा था। 'सबको ले चलूँगा, बैठ जाओ!' लेकिन अचानक भीड़ में ठहाका लगा, लोग फब्तियाँ कसने लगे :

'ऐसा जानवर हम सबको ले जाएगा!'

'अरे ओ मिकोल्का, तुम दीवाने तो नहीं हो गए कि ऐसी गाड़ी में मरियल घोड़ी जोत रखी है!'

'यह घोड़ी भी तो बीस साल से एक दिन कम की नहीं होगी।'

'चढ़ जाओ, सबको ले चलूँगा,' मिकोल्का फिर चिल्लाया और सबसे पहले कूद कर गाड़ी पर चढ़ गया। उसने रास अपने हाथ में थाम ली और गाड़ी के सामनेवाले हिस्से पर तन कर सीधा खड़ा हो गया। 'वह कत्थई घोड़ा मत्वेई ले गया है,' उसने गाड़ी पर से चीख कर कहा, 'और भैया, इस डाइन से तो मैं तंग आ चुका हूँ। जी चाहता है, इसे जान से मार दूँ। बस खाए चली जाती है। चढ़ जाओ, मैं कहता हूँ! सरपट भगाऊँगा! सरपट दौड़ेगी!' यह कह कर उसने चाबुक उठाई और चटखारा ले कर उस घोड़ी को मारने के लिए तैयार हुआ।

'चलो बैठ ही जाते हैं!' भीड़ ठहाका मार कर हँसी। 'सुनते हो इसकी बातें सरपट भागेगी!'

'दस बरस से तो इसमें सरपट भागने का दम रहा नहीं है!'

'दुलकी चल ले तो गनीमत समझो!'

'उसकी चिंता मत करो भैया, तुम लोग अपने-अपने चाबुक के साथ तैयार हो जाओ!'

'ठीक है! लगाओ कसके!'

हँसते और मजाक करते हुए वे सब मिकोल्का की गाड़ी पर चढ़ गए। छह आदमी जब चढ़ गए तो भी कई लोगों की जगह और थी। उन लोगों ने एक मोटी, गुलाबी गालोंवाली औरत को भी ऊपर खींच लिया। वह लाल रंग की मलमली पोशाक, सर पर कढ़ाई के काम की नोकदार टोपी और चमड़े के फर लगे जूते पहने थी; वह पिंघलफली खा रही और हँस रही थी। उनके चारों ओर की भीड़ भी हँस रही थी, और हँसे बिना वह रहती भी कैसे कि उस मरियल घोड़ी को, उस पूरी गाड़ी के बोझ को सरपट चाल से खींच कर ले जाना था। गाड़ी पर बैठे दो नौजवान मिकोल्का की मदद करने के लिए अपनी चाबुकें उठा चुके थे। 'चल' की आवाज सुनते ही घोड़ी ने पूरा जोर लगा कर गाड़ी खींचने की कोशिश की लेकिन सरपट भागना तो दूर, आगे ही खिसक नहीं पाई। वह पैर जमा कर पूरा जोर लगा रही थी, हाँफ रही थी और तीन चाबुकों की ओलों की बौछार जैसी मार से बचने की कोशिश कर रही थी। गाड़ी में और चारों ओर खड़ी हुई भीड़ में हँसी के फव्वारे दोगुने जोर से फूट पड़े। लेकिन मिकोल्का को ताव आ गया और वह बेतहाशा घोड़ी की धुनाई करने लगा, मानो वह सचमुच सरपट भाग सकती हो।

'मुझे भी आने दो यार,' भीड़ में से एक बंदा चिल्लाया। उसे भी जोश आ गया था।

'आओ, सब आओ,' मिलोल्का चिल्लाया। 'सबको खींच कर ले जाएगी। मैं तो मार-मार कर जान निकाल दूँगा इसकी!' फिर गुस्से में आपे से बाहर हो कर वह घोड़ी को बुरी तरह पीटने पर आ गया।

'बाबा, बाबा,' बच्चा चिल्ला कर बाप से बोला, 'ये लोग क्या कर रहे हैं बाबा बाबा, बेचारी घोड़ी को ये लोग मार रहे हैं!'

'चलो, आओ चलें!' बाप ने कहा। 'शराब पिए हुए हैं और इस वक्त मस्ती में हैं बेवकूफ। चलो, उधर मत देखो!' यह कह कर बाप ने उसे वहाँ से खींच ले जाने की कोशिश की। लेकिन उसने बाप के हाथ से अपना हाथ छुड़ा लिया और इस भयानक दृश्य को देख कर घोड़ी की ओर बेकाबू भागा। बेचारी का बुरा हाल था। वह खड़ी हाँफ रही थी। उसने एक बार फिर गाड़ी खींचने के लिए जोर लगाया और गिरते-गिरते बची।

'मारो कचूमर निकाल दो इसका,' मिकोल्का चिल्लाया। 'और कोई चारा ही नहीं है। मैं अभी इसकी खबर लेता हूँ!'

'क्या करना चाहता है तू? अपने को ईसाई कहता है, कसाई कहीं का!' भीड़ में से एक बूढ़ा चिल्लाया।

'कभी देखा है किसी ने कि ऐसी मरियल घोड़ी इतना गाड़ी भर बोझ खींचे?' दूसरा बोला।

'मर जाएगी,' तीसरा चिल्लाया।

'बीच में तुम टाँग न अड़ाओ! मेरा माल है, मैं जो चाहूँ करूँ। आओ, और आओ! सब आ जाओ! मैं इसे सरपट भगा कर ही दम लूँगा!'

एकाएक हँसी की गूँज उठी और हर चीज पर छा गई। चाबुकों की बौछार झेलने में नाकाम हो कर घोड़ी ने अपनी बेजान टाँगों में दुलत्ती झाड़नी शुरू कर दी। बूढ़ा भी मुस्कराए बिना न रह सका। सोचो तो सही, ऐसा छोटा-सा मरियल जानवर और दुलत्ती झाड़ने की कोशिश करे!

भीड़ में से दो छोकरे चाबुकें उठा कर घोड़ी को पसलियों पर मारने के लिए बढ़े। दोनों ने एक-एक तरफ की जिम्मेदारी सँभाल ली।

'मुँह पर मारो, और आँखों पर भी!' मिकोल्का जोर से चिल्लाया।

'कोई धुन छेड़ो, साथियो,' गाड़ी में से कोई चिल्लाया और उसमें बैठे सब लोग हंगामा मचा देनेवाले गीत में शामिल हो गए। खंजरी खड़की और सीटियाँ बजने लगीं। गाड़ी पर बैठी हुई औरत पिंघलफली खाती रही और हँसती रही।

...वह घोड़ी की बगल में और उसके सामने दौड़ा। वह उसकी आँखों के आर-पार, ठीक आँखों पर, चाबुक पड़ते देख रहा था! वह रो रहा था, उसका गला रुँधा जा रहा था, आँखों से आँसू बह रहे थे। एक आदमी का चाबुक उसके चेहरे पर लगा, लेकिन उसे कुछ महसूस नहीं हुआ। अपने हाथ मलता हुआ और चीखता हुआ वह भाग कर सफेद बालों और सफेद दाढ़ीवाले बूढ़े के पास पहुँचा। बूढ़ा सर हिला रहा था, उसे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था। एक औरत ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसे वहाँ से खींच कर अलग ले जाना चाहती थी, लेकिन वह हाथ छुड़ा कर फिर दौड़ कर सीधे घोड़ी के पास पहुँच गया। वह दम तोड़ रही थी, लेकिन वह फिर भी दुलत्ती झाड़ने की कोशिश कर रही थी।

'मैं अभी तेरी खबर लेता हूँ,' मिकोल्का खूँखार जानवर की तरह चिल्लाया। उसने चाबुक फेंक दी और आगे झुक कर गाड़ी में से एक मोटी-सी लंबी बल्ली निकाली। दोनों हाथों से उसका एक सिरा पकड़ कर उसने, पूरा जोर लगा कर, घोड़ी के ऊपर बल्ली चलाई।

'अरे, उसकी हड्डी-पसली एक कर देगा क्या,' चारों ओर से लोग चिल्लाए। 'उसे मार डालेगा क्या!'

'मेरी चीज है,' मिकोल्का चिल्लाया और हाथ घुमा कर बल्ली से भरपूर वार किया। एक जोर की थप हुई।

'मारो इसे, रुको मत,' भीड़ में से कुछ आवाजें आईं।

मिकोल्का ने फिर एक बार बल्ली घुमाई और एक और चोट उसी अभागी घोड़ी की कमर पर पड़ी। वह कूल्हों के बल ढेर हो गई, लेकिन झटके से उठते हुए उसने पूरा जोर लगा कर बोझ खींचना शुरू किया। पहले एक ओर झुक कर खींचा, फिर दूसरी ओर झुक कर। वह गाड़ी को किसी तरह आगे खिसकाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उस पर चारों ओर से छह चाबुकों की मार पड़ रही थी। बल्ली एक बार फिर ऊपर उठी और नपे-तुले वार के साथ तीसरी बार उस पर पड़ी। फिर चौथी बार। मिकोल्का इसलिए आग-बगूला हो रहा था कि अपने पहले ही वार में उसे जान से क्यों नहीं मार सका।

'बड़ी दमदार है,' भीड़ में से किसी ने जोर से कहा।

'अभी ढेर हुई जाती है यार, उसका काम तमाम होते देर नहीं लगेगी,' भीड़ में से किसी तमाशाई की जोश भरी आवाज आई।

'कुल्हाड़ी लो और सफाया कर दो इसका,' एक और शख्स चिल्लाया।

'मैं अभी दिखाता हूँ! पीछे हट जाओ!' मिकोल्का दीवानों की तरह चिल्लाया। उसने बल्ली नीचे फेंक दी और झुक कर गाड़ी में से लोहे की एक मोटी-सी छड़ निकाली। 'देखते जाओ,' वह चिल्लाया और अपनी सारी ताकत लगा कर बेचारी घोड़ी पर भरपूर वार किया। वार निशाने पर पड़ा। घोड़ी लड़खड़ाई और बैठ गई। उसने गाड़ी खींचने की कोशिश की, लेकिन घुमा कर चलाई गई छड़ का वार फिर उसकी पीठ पर पड़ा और वह जमीन पर गिर पड़ी जैसे कि चारों पैर काट दिए गए हों।

'खतम कर दो!' मिकोल्का चिल्लाया और आपे से बाहर हो कर गाड़ी से नीचे कूद पड़ा। नशे में चूर कई दूसरे नौजवान भी, जो कुछ हाथ लगा-चाबुकें, लाठियाँ, बल्लियाँ-ले कर दौड़े और दम तोड़ती घोड़ी की तरफ लपके। मिकोल्का एक ओर खड़ा, अंधाधुंध लोहे की छड़ से उस पर वार किए जा रहा था। घोड़ी ने अपनी गर्दन आगे तानी, एक लंबी साँस ली, और दम तोड़ दिया।

'काम तमाम कर दिया न उसका,' भीड़ में से कोई चिल्लाया।

'आखिर वह सरपट भागी क्यों नहीं?'

'मेरी चीज थी!' मिकोल्का चिल्लाया। लोहे की छड़ उसके हाथों में चमक रही थी और आँखों में खून उतर आया था। वह वहाँ ऐसे खड़ा था गोया उसे इस बात का बड़ा दुख हो कि अब उसके पास पीटने के लिए कुछ भी नहीं बचा था।

'तुम किसी काफिर से बेहतर नहीं हो,' भीड़ में से कई लोग चिल्लाए।

लेकिन वह बेचारा लड़का बेकाबू हो कर, रोता-बिलखता, भीड़ को चीरता हुआ बादामी रंग की उस घोड़ी के पास पहुँच गया। उसने उसके मुर्दा, लहूलुहान सर पर बाँहें डाल कर उसे प्यार किया, उसकी आँखों पर प्यार किया, उसके होठों पर प्यार किया... फिर उछल कर खड़ा हो गया और पागलों की तरह अपनी नन्ही-नन्ही मुट्ठियाँ तान कर मिकोल्का पर झपटा। उसी पल उसके बाप ने, जो देर से उसके पीछे पड़ा था, लपक कर उसे उठा लिया और ले कर भीड़ के बाहर चला गया।

'आओ चलें! घर चलें,' उसने अपने बेटे से कहा।

'बाबा! उन लोगों ने... बेचारी घोड़ी को... मार क्यों डाला?' उसने सिसकते हुए पूछा। उसकी आवाज उखड़ रही थी और हाँफते हुए सीने में से शब्द चीख़ों की शक्ल में निकल रहे थे।

'पिए हुए हैं, सब जानवर हैं, बेवकूफ... लेकिन हमें क्या लेना उनसे!' बाप ने कहा। बच्चे ने अपनी बाँहें बाप के गले में डाल दीं, लेकिन ऐसा लग रहा था कि उसका दम घुटा जा रहा है। उसने लंबी साँस लेने की कोशिश की, चीखना चाहा, और जाग पड़ा।

आँख खुली तो वह हाँफ रहा था। उसकी साँस ठहर नहीं रही थी; बाल पसीने में तर थे। वह सहम कर उठ खड़ा हुआ।

'हे भगवान, तेरी दया यह सपना ही था।' उसने उठ कर एक पेड़ के नीचे बैठते हुए और लंबी साँसें लेते हुए कहा। 'लेकिन यह क्या, मुझे बुखार चढ़ रहा है क्या? ऐसा भयानक सपना!'

उसे ऐसा लगा कि वह एकदम टूट गया है : अँधेरा और उलझन उसकी आत्मा में समाए हुए थे। उसने अपनी कुहनियाँ घुटनों पर टिका लीं और सर अपने हाथों पर झुका लिया।

'हे भगवान!' वह चिल्लाया, 'क्या यह हो सकता है, क्या यह संभव है कि मैं सचमुच कुल्हाड़ी उठाऊँ, उसे सर पर मारूँगा, उसकी खोपड़ी खोल दूँ... कि मैं चिपचिपे गर्म खून में चलूँ, ताला तोड़ूँ, चोरी करूँ और थरथर काँपूँ; सर से पाँव तक खून के धब्बों से अटा हुआ कहीं छिप जाऊँ... कुल्हाड़ी के साथ... हे भगवान, ऐसा हो सकता है क्या?'

यह कहते हुए वह पत्ते की तरह काँप रहा था।

'लेकिन मैं इस चक्कर में क्यों हूँ?' एक बार फिर सीधे बैठते हुए गोया गहरी हैरानी के साथ वह कहता रहा। 'मुझे पता था कि मैं कभी यह सब बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा, तो फिर मैं अभी तक अपने आपको क्यों सताता रहा कल, अभी कल, जब मैं इसकी कोशिश करने गया था, तो मुझे पूरी तरह अंदाजा हो गया था कि ऐसी करनी मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकूँगा... फिर मैं दोबारा उसकी बात को क्यों दोहरा रहा हूँ? मैं अभी तक दुविधा में क्यों हूँ? कल जब मैं सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था तो मैंने अपने आपसे कहा था कि यह कमीनापन है, घिनौना काम है, नीचता है, पाप है... इसकी बात सोच कर ही मुझे मितली होने लगी थी और मुझे मेरा रोम-रोम धिक्कारने लगा था।

'नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकूँगा, नहीं कर सकूँगा! माना कि इस सारे हिसाब-किताब में कहीं कोई खराबी नहीं है, कि इस पिछले एक महीने में मैं जिस नतीजे पर भी पहुँचा हूँ वह आईने की तरह साफ है, गणित की तरह सीधा-सादा है। हे भगवान! फिर भी यह काम मुझसे नहीं हो सकेगा! मैं नहीं कर सकूँगा, नहीं कर सकूँगा! फिर क्यों, मैं क्यों अभी तक...'

वह उठ कर खड़ा हो गया, चारों ओर हैरानी से देखा, गोया उसे अपने आपको इस जगह पा कर आश्चर्य हो रहा है, और त. पुल की ओर चल पड़ा। उसका रंग पीला पड़ गया था, आँखें अंगारों की तरह दहक रही थीं, अंग-अंग थकन से चूर था, लेकिन लग रहा था उसे साँस लेने में अब उतनी कठिनाई नहीं हो रही है। ऐसा महसूस हो रहा था कि अचानक उसने वह भयानक बोझ उतार फेंका है जो अब तक उस पर पहाड़ की तरह लदा हुआ था। एकाएक उसे राहत और आत्मा में शांति का एहसास हुआ। 'भगवान,' उसने प्रार्थना करते हुए कहा, 'मुझे रास्ता दिखाओ... मैं अपने उस... मनहूस सपने से कोई भी नाता नहीं रखना चाहता!'

पुल पार करते हुए वह चुपचाप और शांत भाव से नेवा नदी को और दहकते आकाश पर डूबते हुए सूरज की लाली को एकटक देखता रहा। कमजोरी के बावजूद उसे थकान का एहसास नहीं हो रहा था। लग रहा था पिछले एक महीने से उसके दिल में जो फोड़ा पक रहा था, वह अचानक फूट गया हो। छुटकारा! आजादी! उस सम्मोहन से, उस जादू से, उस सनक से उसे छुटकारा मिल चुका था।

बाद में जब उसने उस समय का, और उन दिनों के दौरान उसके साथ जो कुछ हुआ था उसके एक-एक मिनट का, एक-एक बात का, लेखा किया तो एक घटना का उस पर अंधविश्वास जैसा गहरा प्रभाव पड़ा। हालाँकि अपने आपमें वह घटना बहुत असाधारण नहीं थी, लेकिन बाद में चल कर उसे हमेशा यही लगा कि वह उसकी नियति का एक पूर्व-निर्धारित और निर्णायक मोड़ थी। यह बात उसकी समझ में कभी नहीं आई और वह खुद को कभी इसका कारण नहीं समझा सका कि जब वह थका हुआ और एकदम निढाल था, जब उसके लिए अधिक सुविधाजनक यही होता कि सबसे छोटे और सबसे सीधे रास्ते से अपने घर चला जाए, तो फिर वह भूसामंडी के रास्ते क्यों लौटा था, जहाँ जाने की उसे कोई जरूरत नहीं थी। चक्कर ज्यादा लंबा तो नहीं था लेकिन बेमतलब और अनावश्यक जरूर था। यह सच है कि उसके साथ दर्जनों बार ऐसा हो चुका था कि वह बिना इस बात की ओर ध्यान दिए घर वापस पहुँच जाता था कि वह किन सड़कों से हो कर गुजरा था। लेकिन वह हमेशा अपने आपसे यह सवाल पूछता रहता था कि इसका क्या कारण था कि ऐसी महत्वपूर्ण, ऐसी निर्णायक और साथ ही ऐसी एकदम अप्रत्याशित मुलाकात भूसामंडी में (जहाँ उसके जाने की कोई वजह भी नहीं थी) ठीक उसी घड़ी में जीवन में ठीक उसी पल हुई थी, जब उसकी मनोदशा और उसकी परिस्थितियाँ एकदम ऐसी थीं जिनमें वह मुलाकात उसकी पूरी नियति पर सबसे गंभीर और सबसे निर्णायक प्रभाव डाल सकी गोया वह इसी काम के लिए वहाँ घात लगाए बैठी हो!

जब वह उस चौक से हो कर गुजरा लगभग नौ बज रहे थे। खोखों में और दुकानों में बाजार के सभी लोग अपना कारोबार समेट रहे थे, अपना माल बटोर कर बाँध रहे थे और अपने गाहकों की ही तरह घर जाने की तैयारी कर रहे थे। भूसामंडी से लगे मकानों की निचली मंजिलों के ढाबों के पास, गंदे और बदबूदार अहातों में और खास कर शराबखानों में तरह-तरह के कबाड़ी और फेरीवाले जमा हो रहे थे। रस्कोलनिकोव जब सड़कों पर बेमतलब फिरता रहता था, तब उसे यह जगह और इसके आसपास की गलियाँ खास तौर पर बहुत अच्छी लगती थीं। यहाँ उसके चीथड़ों पर किसी की अपमान-भाव से भरी नजर नहीं टिकती थी। यहाँ कोई किसी भी तरह के कपड़े पहन कर घूम सकता था और किसी का जरा भी ध्यान नहीं जाता था। क. गली के नुक्कड़ पर एक फेरीवाले और उसकी घरवाली ने फीते, धागे, सूती रूमाल वगैरह दो मेजों पर सजा रखे थे। वे भी घर जाने के लिए उठे तो सही लेकिन जान-पहचान की एक औरत आ गई थी और वे उससे बातें करने में लग गए थे। यह औरत थी लिजावेता इवानोव्ना, या सिर्फ लिजावेता, जैसा कि सभी लोग उसे कहते थे। वह सामान गिरवी रखने का धंधा करनेवाली उसी बुढ़िया अल्योना इवानोव्ना की छोटी बहन थी, जिसके यहाँ रस्कोलनिकोव अभी कल ही अपनी घड़ी गिरवी रखने और वह कोशिश करने गया था... उसे लिजावेता के बारे में पहले से सब कुछ मालूम था और उसे वह भी थोड़ा-बहुत जानती थी। वह लगभग पैंतीस साल की बिनब्याही औरत थी - लंबी, फूहड़, दब्बू, डरपोक और लगभग पूरी तरह बौड़म। वह पूरी तरह अपनी बहन की चाकर थी और उसके डर से हरदम थरथर काँपती रहती थी। उससे उसकी बहन दिन-रात काम लेती थी और उसे पीटती भी थी। वह एक पोटली लिए उस फेरीवाले और उसकी औरत के सामने खड़ी थी और बड़े ध्यान से उनकी बातें सुन रही थी। वे उसे बड़े जोश के साथ किसी चीज के बारे में समझा रहे थे। ज्यों ही रस्कोलनिकोव की नजर उस पर पड़ी, उसे गोया गहरे, विचित्र आश्चर्य ने आ दबोचा, हालाँकि इस मुलाकात में आश्चर्य की कोई बात नहीं थी।

'तुमको अपना मन पक्का करना होगा लिजावेता इवानोव्ना,' फेरीवाला ऊँचे स्वर में कह रहा था। 'कल छह बजे के बाद हमारे यहाँ आना। वे लोग भी होंगे।'

'कल' लिजावेता ने धीरे-धीरे, कुछ सोचते हुए कहा, गोया वह फैसला न कर पा रही हो।

'सच कहती हूँ, तुम तो अल्योना इवानोव्ना से सचमुच डरी रहती हो,' फेरीवाले की औरत बड़बड़ाई। वह बहुत चुस्त-चालाक औरत थी। 'तुम्हें देखती हूँ तो लगता है जैसे तुम कोई नन्ही बच्ची हो। बहू तुम्हारी सगी बहन तो है नहीं, सौतेली ही तो है, पर कैसा कस कर रखती है तुम्हें अपनी मुट्ठी में!'

'लेकिन इस बार अल्योना इवानोव्ना से कुछ न कहना,' उसका पति बीच में बोल पड़ा, 'मेरी यही सलाह है। बस उससे पूछे बिना हमारे पास चली आना। कुछ भला ही होगा तुम्हारा। बाद में तुम्हारी बहन को भी इसका कुछ पता हो ही जाएगा।'

'तो फिर मैं आऊँ?'

'कल छह के बाद वे लोग यहाँ होंगे। तुम खुद फैसला कर लेना।'

'हम इस मौके पर समोवार भर चाय भी तैयार रखेंगे,' उसकी घरवाली ने बात जोड़ी।

'अच्छी बात है, मैं आ जाऊँगी,' लिजावेता ने अभी भी कुछ सोचते हुए कहा। फिर वह धीरे-धीरे वहाँ से जाने लगी।

रस्कोलनिकोव उसी वक्त उधर से गुजर रहा था और उसने इसके अलावा कुछ नहीं सुना था। वह दबे पाँव, सबकी नजरें बचा कर एक-एक शब्द अच्छी तरह सुनने की कोशिश करता हुआ वहाँ से गुजर गया। शुरू-शुरू में उसे हैरानी हुई थी, उसके बाद उसने भयानकता के रोमांच का एहसास किया। उसे पता लग गया था, अचानक और पहले से किसी उम्मीद के बिना ही पता लग गया था, कि अगले दिन ठीक सात बजे उस बुढ़िया की बहन और उसकी एकमात्र साथी, लिजावेता घर पर नहीं होगी। यानी कि उस वक्त बुढ़िया वहाँ अकेली होगी।

अभी वह अपने घर में कुछ ही कदम की दूरी पर था। वह घर में एक ऐसे आदमी की तरह घुसा जिसे मौत की सजा दी गई हो। उसने किसी भी बात के बारे में नहीं सोचा; उसमें सोचने की सकत भी बाकी नहीं थी। लेकिन अचानक उसने अपने रोम-रोम में अनुभव किया कि अब उसके पास सोचने की स्वतंत्रता रह ही नहीं गई थी, जरा भी इच्छा-शक्ति नहीं रह गई थी और यह कि हर बात का अचानक और अटल फैसला हो चुका था।

इसमें शक नहीं कि अगर वह उचित अवसर की प्रतीक्षा में कई वर्ष भी लगा देता तो वह अपनी योजना की सफलता के लिए उससे अधिक सुनिश्चित स्थिति की कल्पना कर सकता था, जो अभी उसके सामने अपने आप आ गई थी। पहले से और गहरे भरोसे के साथ, इससे ज्यादा सही तौर पर कम जोखिम के साथ, खतरनाक पूछताछ और छानबीन के बिना, यह पता लगाना कठिन होता कि अगले दिन एक बुढ़िया, एक खास वक्त पर जिसे कत्ल करने की योजना बनाई जा रही थी, घर पर और निपट अकेली होगी भी या नहीं।