अपराध और दंड / अध्याय 1 / भाग 6 / दोस्तोयेव्स्की

Gadya Kosh से
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रस्कोलनिकोव को बाद में किसी तरह मालूम हो गया कि फेरीवाले और उसकी औरत ने लिजावेता को किसलिए बुलाया था। बहुत मामूली-सा काम था और उसमें कोई ऐसी असाधारण बात नहीं थी। एक परिवार, जो उस शहर में रहने आया था और कंगाल हो गया था, अपने घर का सामान और कपड़े-लत्ते बेच रहा था। सब चीजें औरतों के मतलब की थीं। चूँकि बाजार में उन चीजों के बहुत थोड़े दाम मिलते, इसलिए वे लोग किसी ऐसे आदमी की तालाश में थे जो उनका यह सारा सामान बिकवा दे। लिजावेता यही काम करती थी। वह ऐसे कामों की जिम्मेदारी ले लेती थी और लोग अकसर उसे इस काम के लिए रख लेते थे क्योंकि वह बहुत ईमानदार थी और हमेशा मुनासिब दाम लगा कर उस पर टिकी रहती थी। वह हमेशा बहुत कम बोलती थी और, जैसा कि हम कह चुके हैं, वह बहुत दब्बू और डरपोक थी।

लेकिन रस्कोलनिकोव इधर कुछ अरसे से अंधविश्वासी हो गया था। अंधविश्वास के ये चिह्न उसमें बहुत बाद तक बाकी रहे और लगभग अमिट हो गए। इन सब बातों में उसे बाद में चल कर कोई विचित्र और रहस्यमय बात देखने की प्रवृत्ति पैदा हो गई थी, गोया कुछ अनोखे प्रभाव तथा संयोग उनके पीछे काम कर रहे हों। पिछले जाड़े में उसकी जान-पहचान के एक छात्र ने, जिसका नाम पोकोरेव था और जो खार्कोव चला गया था, यूँ ही बातों-बातों में उसे उस बुढ़िया अल्योना इवानोव्ना का पता दे दिया था, जो चीजें गिरवी रखने का काम करती थी, कि शायद कभी उसे कोई चीज गिरवी रखने की जरूरत पड़े। वह बहुत दिनों तक उसके पास नहीं गया क्योंकि उसके पास पढ़ाने का काम था और वह किसी तरह अपनी गाड़ी चला ही रहा था। उसे वह पता छह हफ्ते पहले याद आया। उसके पास गिरवी रखने लायक दो चीजें थीं : एक तो उसके बाप की पुरानी चाँदी की घड़ी और दूसरी चलते समय उसकी बहन की दी हुई, छोटी-सी सोने की अँगूठी, जिसमें तीन लाल नग जड़े हुए थे। उसने अँगूठी ले जाने का फैसला किया। जब उसने उस बुढ़िया को ढूँढ़ निकाला तो देखते ही उसके मन में उसके लिए बेपनाह नफरत पैदा हुई, हालाँकि वह उसके बारे में कोई खास बात नहीं जानता था। उसे उस बुढ़िया से दो नोट मिले थे और घर वापस जाते हुए वह एक छोटे-से फटीचर ढाबे में घुस गया। चाय मँगा कर वह वहाँ बैठ गया और गहरे सोच में डूब गया। एक अजीब विचार उसके दिमाग को कचोट रहा था, जैसे अंडे के अंदर मुर्गी का बच्चा चोंच मारता है, और वह उस विचार में पूरी तरह उलझ गया।

लगभग उसकी बगल में ही अगली मेज पर एक छात्र बैठा था, जिसे वह जानता नहीं था। उसके साथ एक नौजवान अफसर था। वे बिलियर्ड खेल कर आए थे और चाय पीने बैठे थे। अचानक उस लड़के ने उस अफसर से चीजें गिरवी रखनेवाली अल्योना इवानोव्ना की चर्चा की और उसे उसका पता दिया। यह बात अपने आपमें रस्कोलनिकोव को कुछ अजीब मालूम हुई; वह अभी-अभी उसी के यहाँ से आया था और आते ही यहाँ उसके नाम की चर्चा सुनाई पड़ी थी। जाहिर है कि यह संयोग की बात थी, लेकिन उसके दिमाग पर जो असाधारण छाप पड़ी थी, उसे वह किसी तरह दूर नहीं कर पा रहा था। गोया यहाँ कोई आदमी उसी को सुनाने के लिए सब कुछ कह रहा था। वह छात्र अपने दोस्त को अल्योना इवानोव्ना के बारे में बहुत-सी ब्योरे की बातें बताने लगा।

'उसका मुआमला पक्का है,' वह बोला। 'उससे किसी भी वक्त पैसा मिल सकता है। यहूदियों जैसी अमीर है, एक साथ पाँच हजार रूबल तक दे सकती है। लेकिन उसे एक रूबल की चीज गिरवी रखने में भी कोई खास एतराज नहीं है। उसके साथ हमारे कई साथियों को व्यवहार रह चुका है। लेकिन बुढ़िया है बला की खूसट...'

फिर वह बताने लगा कि वह कैसी कमीनी है और उसके बारे में भरोसे के साथ कुछ कहा ही नहीं जा सकता। अगर सूद चुकाने में एक दिन की भी देर हो जाए तो गिरवी रखा हुआ माल गया समझो। वह तो माल की बस चौथाई कीमत देती है और उस पर हर महीने पाँच ही नहीं बल्कि कभी-कभी तो सात फीसदी तक सूद लेती है। वगैरह-वगैरह। वह छात्र लगातार बोलता रहा। उसने बताया कि बुढ़िया की एक बहन लिजावेता है, जिसे यह कमबख्त ठिगनी बुढ़िया हर वक्त पीटती रहती है और बिलकुल बच्चों की तरह अपने शिकंजे में जकड़ कर गुलामों की तरह रखती है, हालाँकि लिजावेता पाँच फुट दस इंच की तो होगी ही।

'बिलकुल बच्ची चीज है वह,' छात्र ने ऊँचे स्वर में कहा और हँस पड़ा।

वे लिजावेता के बारे में बातें करने लगे। छात्र उसकी बातें खास चटखरा ले कर कर रहा था और लगातार हँसे जा रहा था। अफसर उसकी बातें बड़ी दिलचस्पी से सुन रहा था। छात्र से उसने कहा कि लिजावेता को कुछ कपड़ों की मरम्मत के लिए उसके पास भेज दे। रस्कोलनिकोव एक शब्द भी सुनने से नहीं चूका और उसके बारे में सब कुछ जान लिया। लिजावेता उम्र में बुढ़िया से छोटी थी और उसकी सौतेली बहन थी; वह दूसरी माँ से थी और पैंतीस साल की थी। रात-दिन वह अपनी बहन का काम-काज करती थी, खाना पकाने और कपड़े धोने के अलावा सीने-पिरोने और दूसरों के यहाँ झाड़ू-बुहारू का काम भी करती थी और जो कुछ कमाती थी, सब ला कर अपनी बहन को दे देती थी। अपनी बहन से पूछे बिना किसी भी तरह का काम लेने या कोई नौकरी पकड़ने की हिम्मत उसे नहीं होती थी। बुढ़िया अपनी वसीयत लिख चुकी थी, और लिजावेता को यह बात मालूम थी। इस वसीयत के अनुसार उसे एक दमड़ी भी मिलनेवाली नहीं थी। घर के सामान, कुर्सियों वगैरह के अलावा कुछ भी नहीं। सारा पैसा न. प्रांत के एक मठ के नाम कर दिया गया था ताकि उसके मरने के बाद हर बरसी पर उसके वास्ते प्रार्थना की जाए। लिजावेता अपनी बहन से कम हैसियत की थी, बिनब्याही थी, और सूरत-शक्ल की बेहद भोंडी थी। बेहद लंबा कद। उसकी लंबी-लंबी टाँगें देखने में ऐसी लगती थीं, गोया बाहर की ओर मुड़ी हुई हों। हमेशा बकरी की खाल के फटे-पुराने जूते पहने रहती थी और खुद बहुत साफ-सुथरी रहती थी। उस छात्र ने जिस बात पर सबसे अधिक आश्चर्य प्रकट किया और जो बात उसे सबसे ज्यादा मजेदार लगी, यह थी कि लिजावेता हमेशा पेट से रहती थी।

'लेकिन तुमने तो कहा कि वह बेहद बदसूरत है,' अफसर ने अपनी राय जाहिर की।

'उसका रंग गहरा जरूर है और देखने में लगती है गोया किसी सिपाही को जनाने कपड़े पहना दिए गए हों, लेकिन वह बदसूरत एकदम नहीं है। उसके चेहरे पर और उसकी आँखों में बहुत ही रहम है। हद से ज्यादा। इसका सबूत यह है कि बहुत से लोग उस पर रीझ जाते हैं। इतने कोमल और अच्छे स्वभाव की औरत है कि पूछिए ही नहीं। सब कुछ हँसी-खुशी सहती है, हर बात मान लेती है, कुछ भी मान लेने को तैयार रहती है। और उसकी मुस्कराहट तो सचमुच ही मीठी है।'

'लगता है तुम खुद उस पर रीझे हुए हो,' अफसर हँस कर बोला।

'उसके अनोखेपन की वजह से। मैं बताऊँ बात क्या है। मैं तो उस कमबख्त बुढ़िया को जान से मार दूँ, उसका सारा पैसा ले कर चंपत हो जाऊँ और मैं आपसे सच कहता हूँ, इस पर मेरी आत्मा को जरा भी दुख नहीं होगा,' लड़के ने अपनी बात जारी रखते हुए बहुत जोश के साथ कहा।

अफसर फिर हँसा और रस्कोलनिकोव काँप उठा। कैसी अजीब बात थी!

'मैं, तुमसे एक संजीदा सवाल पूछना चाहता हूँ,' छात्र ने उत्तेजित हो कर कहा। 'जाहिर है मैं तो मजाक कर रहा था, लेकिन एक बात बताओ : एक तरफ तो वह बेवकूफ, नासमझ, निकम्मी, सबका बुरा चाहनेवाली, बीमार, बेहूदा बुढ़िया है, जो न सिर्फ बेकार है बल्कि जान-बूझ कर दूसरों को नुकसान पहुँचाती है, जिसे खुद नहीं पता है कि वह किसलिए जी रही है, और जो दो-चार दिन में यूँ भी मर जाएगी। समझ रहे हो न!'

'हाँ, समझ रहा हूँ,' अफसर ने अपने गरमाए हुए साथी को ध्यान से देखते हुए जवाब दिया।

'अच्छा तो और सुनो। दूसरी ओर, हजारों की तादाद में नई नौजवान जिंदगियाँ हर तरफ मदद की कमी की वजह से तबाह हो रही हैं! उस बुढ़िया के पैसे से, जो जा कर किसी मठ में दफन हो जाएगा, सैकड़ों नेक काम किए जा सकते हैं, हजारों नेक कामों में मदद पहुँचाई जा सकती है। सैकड़ों, शायद हजारों लोगों को सही रास्ते पर लगाया जा सकता है। दर्जनों परिवारों को कंगाली से, तबाही से, बदकारी से, गुप्त रोगों के अस्पतालों से बचाया जा सकता है - और यह सब कुछ उसके पैसे से। उसे मार डालो, उसका पैसा ले लो और उसकी मदद से मानवता की सेवा में और सभी लोगों की भलाई के लिए अपना जीवन अर्पित कर दो। क्या राय है तुम्हारी, क्या हजारों नेक कामों से यह एक छोटा-सा अपराध नहीं धुल जाएगा एक जान ले कर हजारों लोगों को भ्रष्ट और पतित होने से बचाया जा सकेगा। एक मौत, और उसके बदले सैकड़ों जिंदगियाँ - सीधा-सादा हिसाब है! इसके अलावा, जिंदगी के तराजू पर तोल कर देखें तो उस मरियल, बेवकूफ, चिड़चिड़ी बुढ़िया के जीवन की कीमत ही क्या है एक जूँ से या एक तिलचट्टे से अधिक कुछ भी नहीं, बल्कि उससे कुछ कम ही होगा क्योंकि वह जहरीली है। दूसरों की जिंदगियों को वह खोखला बना रही है। अभी उस दिन उसने महज जलन के मारे लिजावेता की उँगली पर काट लिया। बाल-बाल बच गई बेचारी नहीं तो उँगली ही काटनी पड़ती।'

'जाहिर है उसे जिंदा रहने का कोई हक नहीं है,' अफसर बोला, 'लेकिन यह तो प्रकृति का मामला है।'

'सो तो ठीक है दोस्त, लेकिन हमें प्रकृति को भी ठीक करना होगा, उसे सही दिशा में ले जाना होगा, और अगर हमने यह न किया तो हम दुराग्रहों के बोझ तले दब जाएँगे। अगर ऐसा न किया जाता तो कभी कोई बड़ा आदमी होता ही नहीं। लोग कर्तव्य की, अंतरात्मा की बातें करते हैं। मैं कर्तव्य और अंतरात्मा के खिलाफ कुछ नहीं कहना चाहता, लेकिन सवाल यह है कि उनसे हमारा अभिप्राय क्या है। ठहरो, मुझे तुमसे एक और सवाल पूछना है। सुनो!'

'नहीं, तुम ठहरो। पहले मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूँ। सुनो!'

'वह क्या?'

'तुम बहुत बातें कर रहे हो और भाषण झाड़ रहे हो, लेकिन यह बताओ, क्या तुम खुद उस बुढ़िया को जान से मारने को तैयार हो?'

'हरगिज नहीं! मैं तो बस यह कह रहा था कि ऐसा करना ही इन्साफ की बात होगी... इसका मुझसे कोई संबंध नहीं...'

'लेकिन मैं समझता हूँ कि तुम खुद अगर यह काम करने को तैयार नहीं तो इसमें इन्साफ की कोई बात नहीं! आओ, एक बाजी और खेलें!'

रस्कोलनिकोव बेहद बेचैन हो उठा। जाहिर है ये सब आए दिन की वही नौजवानी की बातें थीं और नौजवानी के विचार थे, जो वह पहले भी अलग-अलग शक्लों में और अलग-अलग विषयों पर सुन चुका था। लेकिन यह संयोग क्यों हुआ कि इस तरह की बातचीत और इस तरह के विचार उसे ठीक उसी पल सुनने को मिले, जब खुद उसके दिमाग में ठीक वही विचार पनप रहे थे और ऐसा क्यों था कि जब वह उस बुढ़िया के यहाँ से अपने इस विचार का अंकुर ले कर आया, ठीक उसी पल उसे उसके बारे में बातचीत सुनने का संयोग हुआ था यह संयोग उसे हमेशा बहुत विचित्र लगता था। बाद में चल कर उसने जो कुछ किया उस पर ढाबे की इस मामूली बातचीत का बहुत गहरा असर पड़ा। गोया उसमें सचमुच कोई मार्गदर्शक संकेत था, कुछ ऐसा था जो पूर्व-निर्धारित था...।

भूसामंडी से लौट कर वह सीधा सोफे पर ढेर हो गया और घंटे भर तक बिना हिले-डुले वहीं बैठा रहा। इसी बीच अँधेरा हो गया। उसके पास कोई मोमबत्ती भी नहीं थी लेकिन होती तो भी रोशनी करने की बात उसे सूझती भी नहीं। बाद में भी उसे कभी यह याद नहीं आया कि वह उस वक्त किसी चीज के बारे में सोच भी रहा था या नहीं। आखिरकार उसे अपने पहलेवाले बुखार और कँपकँपी का एहसास हुआ, और उसने बड़ी राहत के साथ महसूस किया कि वह सोफे पर लेट सकता था। जल्दी ही उसे गहरी और बोझल नींद आ गई, गोया वह किसी भारी चीज के नीचे कुचल गया हो।

वह बहुत देर तक सोता रहा और कोई सपना भी नहीं देखा। अगले दिन सुबह दस बजे जब नस्तास्या उसके कमरे में आई, तो वह भी उसे बड़ी मुश्किल से जगा पाई। वह उसके लिए चाय और रोटी लाई थी। चाय इस बार भी पत्तियाँ दोबारा उबाल कर बनाई गई थी और इस बार भी वह उसे अपनी ही चायदानी में लाई थी।

'हे भगवान, कैसी नींद है!' वह गुस्से से चिल्लाई। 'जब देखो, सोता ही रहता है!'

वह कोशिश करके उठा। उसका सर दर्द कर रहा था। वह उठ कर खड़ा हुआ, अपनी कोठरी में एक चक्कर लगाया और फिर धम से सोफे पर गिर पड़ा।

'फिर सोने जा रहे हो!,' नस्तास्या जोर से चिल्लाई। 'कुछ बीमार हो क्या?'

उससे कोई जवाब नहीं दिया।

'चाय चाहिए?'

'बाद में,' उसने काफी कोशिश के बाद, फिर से अपनी आँखें बंद करते हुए और दीवार की ओर करवट बदलते हुए कहा।

नस्तास्या उसके ऊपर झुक कर खड़ी हो गई।

'हो सकता है सचमुच बीमार हो,' वह बोली, और मुड़ कर बाहर चली गई।

दो बजे वह फिर सूप ले कर आई। वह पहले की ही तरह लेटा हुआ था। चाय वैसी ही रखी थी। नस्तास्या को सचमुच बुरा लगा और वह गुस्सा हो कर उसे जगाने लगी।

'इस तरह क्यों पड़े हो?' वह चिढ़ के साथ उसे देखते हुए जोर से चिल्लाई।

वह उठ कर बैठ गया, लेकिन कुछ बोला नहीं। फर्श को घूरता रहा।

'जी अच्छा है, कि नहीं' नस्तास्या ने पूछा और इस बार भी उसे कोई जवाब नहीं मिला। 'बाहर जा कर थोड़ी हवा खा आओ, ठीक हो जाओगे,' उसने कुछ देर रुक कर कहा। 'कुछ खाना भी है कि नहीं?'

'बाद में,' उसने कमजोर आवाज में कहा। 'तुम जाओ!' और उसने हाथ के इशारे से उसे बाहर जाने को कहा।

वह कुछ देर और वहीं खड़ी रह कर बड़ी दया के साथ उसे देखती रही, फिर बाहर चली गई।

कुछ देर बाद उसने आँखें उठाईं और देर तक चाय और सूप को देखता रहा। फिर उसने रोटी उठाई, एक चम्मच लिया और खाना शुरू किया।

उसने भूख न होते हुए भी, गोया कि मशीन की तरह, थोड़ा-सा खाया, कोई तीन-चार चम्मच। सर का दर्द कुछ कम हो गया था। खा कर वह फिर सोफे पर लेट गया, लेकिन अब उसे नींद नहीं आई। तकिए में मुँह छिपा कर वह बेहरकत पड़ा रहा। उसे दिन सपने सताते रहे और वह भी कैसे अजीब-अजीब। ऐसे ही एक दिन सपने में, जो उसे बार-बार आता रहा, उसने कल्पना की कि वह अफ्रीका में था। मिस्र के किसी नख्लिस्तान में। कफिला आराम कर रहा था; ऊँट आराम से लेटे हुए थे; चारों ओर घेरा बनाए खजूर के पेड़ खड़े थे। पूरा काफिला खाना खा रहा था। लेकिन वह एक चश्मे से पानी पी रहा था, जो पास ही कलकल ध्वनि करता हुआ बह रहा था। वह पानी भी बहुत ठंडा था, मजेदार, नीला, ठंडा पानी रंग-बिरंगे पत्थरों और साफ रेत पर से हो कर बह रहा था, जो जहाँ-तहाँ सोने की तरह चमक रही थी। ...अचानक उसे कहीं घड़ियाल बजने की आवाज सुनाई दी। उसने चौंक कर आँखें खोल दीं, सर उठा कर खिड़की के बाहर देखा, और यह देख कर कि कितनी देर हो चुकी थी वह पूरी तरह अचानक उछल कर जाग पड़ा, जैसे किसी ने उसे सोफे पर से खींच कर उठा दिया हो। वह धीरे-धीरे दबे पाँव दरवाजे तक गया, चुपके से उसे खोला, और सीढ़ियों की ओर कान लगा कर सुनने लगा। दिल बुरी तरह धड़क रहा था। सीढ़ियों पर पूरा सन्नाटा था, जैसे हर आदमी सो रहा हो। ...उसे यह बात बहुत अजीब और भयानक लगी कि वह इस तरह सब कुछ भूल कर कल से सो रहा था और कुछ भी नहीं किया था, अभी तक कोई तैयारी नहीं की थी... इसी बीच शायद छह बज गए थे। ऊँघते रहने और कुछ भी किए बिना पड़े रहने के बाद उस पर एक असाधारण, तूफानी, जुनूनवाला, जल्दबाजी का दौरा पड़ा। लेकिन तैयारियाँ कुछ ज्यादा नहीं करनी थीं। उसने अपनी सारी शक्तियाँ हर चीज के बारे में सोचने और कुछ भी न भूलने पर केंद्रित कर दीं। दिल इतनी बुरी तरह धड़कता रहा कि उसके लिए साँस लेना भी मुश्किल हो गया। पहले तो उसे एक फंदा बना कर अपने ओवरकोट के अंदर सी लेना था। यह पलभर का काम था। उसने अपने तकिए के नीचे हर चीज को उलट-पुलट कर देखा और उसके नीचे ठुँसे हुए कपड़ों में से उसने एक फटी हुई, पुरानी मैली कमीज निकाली। उसके चीथड़ों में से उसने एक लंबी-सी धज्जी फाड़ी, कोई दो-तीन इंच चौड़ी और लगभग सोलह इंच लंबी। उसने इस धज्जी को दोहरा तह किया, अपना किसी मजबूत सूती कपड़े का बना, गर्मियों में पहनने का मोटा ओवरकोट निकाला (बाहर पहनने के लिए उसके पास यही एक कपड़ा था) और उस धज्जी के दोनों सिरे उसके अंदर बाईं बाँह के सूराख के नीचे सिलने लगा। सिलाई करते वक्त उसके हाथ काँप रहे थे। फिर भी उसने यह काम इतनी कामयाबी से किया कि जब उस कोट को उसने दोबारा पहना तो बाहर से कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। सुई-धागा उसने बहुत पहले से तैयार कर रखा था और ये दोनों चीजें कागज के एक टुकड़े में लिपटी हुई उसकी मेज की दराज में पड़ी थीं। जहाँ तक फंदे का सवाल था, यह उसकी अपनी सूझ-बूझ से पैदा एक बहुत ही निराली तरकीब थी। यह फंदा कुल्हाड़ी के लिए था। हाथ में कुल्हाड़ी ले कर तो वह सड़क पर निकल नहीं सकता था। लेकिन अगर कोट के अंदर छिपा कर भी ले जाता तब भी उसे अपने हाथ से सहारा देना पड़ता और इस पर किसी की नजर भी पड़ सकती थी। अब उसे सिर्फ कुल्हाड़ी का फाल उस फंदे में फँसा देना था, और वह अंदर उसकी बाँह के नीचे चुपचाप लटकी रहेगी। अपना हाथ कोट की जेब में डाल कर वह उसकी बेंट का सिरा रास्ते भर पकड़े रह सकता था ताकि वह झूले नहीं। कोट तो लंबा और ढीला था ही, बल्कि कोट क्या था, पूरा बोरा था, इसलिए बाहर से कोई यह नहीं देख सकता था कि उसकी जेब में जो हाथ था, उससे उसने क्या कोई चीज पकड़ रखी थी। इस फंदे की रूपरेखा उसने पंद्रह दिन पहले ही सोच ली थी।

यह काम पूरा करने के बाद उसने अपना हाथ सोफे और फर्श के बीच की पतली-सी जगह में डाला और बाएँ कोने में टटोल कर गिरवी रखने की बीच निकाली, जिसे उसने बहुत पहले ही तैयार करके वहाँ छिपा दिया था। लेकिन जो चीज वह गिरवी रखनेवाला था वह चाँदी के सिगरेट-केस की लंबाई-चौड़ाई और उतनी ही मोटाईवाली लकड़ी की एक तख्ती थी, जिसे रंदा चला कर खूब चिकना कर दिया गया था। लकड़ी की यह तख्ती उसने एक दिन किसी अहाते में टहलते हुए उठा ली थी, जहाँ किसी किस्म का छोटा-मोटा कारखाना था। बाद में उसने लकड़ी की इस तख्ती के साथ लोहे की पतली-सी चादर का एक चिकना टुकड़ा जोड़ दिया था; लोहे का यह टुकड़ा भी उसने उसी वक्त कहीं सड़क पर से उठाया था। लोहे का टुकड़ा आकार में थोड़ा छोटा था और उसे लकड़ी की तख्ती पर रख कर उसने दोनों को आर-पार धागा लपेट कर कस कर बाँध दिया था। फिर उसने बड़ी सावधानी और सफाई से इनको एक साफ, सफेद कागज में लपेटा था और इस तरह बाँध दिया था कि वह आसानी से खुल न सके। ऐसा इसलिए किया गया था कि गाँठ खोलने की कोशिश करते समय बुढ़िया का ध्यान उधर ही लगा रहे, और इस तरह उसे कुछ समय मिल जाए। लोहे की पट्टी उसे भारी बनाने के लिए जोड़ दी गई थी, ताकि उस औरत को छूटते ही यह अंदाजा न हो पाए कि वह रेहन का 'माल' लकड़ी का बना हुआ है। ये सारी चीजें उसने पहले ही से सोफे के नीचे जमा कर रखी थीं। उसने गिरवी रखने की चीज अभी निकाली ही थी कि अचानक उसे नीचे अहाते में से किसी के जोर से चिल्लाने की आवाज सुनाई दी :

'छह बजे तो कितनी ही देर हो गई!'

'सचमुच! हे भगवान!'

वह दरवाजे की तरफ लपका, कान लगा कर सुना, झपट कर अपनी टोपी उठाई और बड़ी होशियारी से, कोई आवाज किए बिना, बिल्ली की तरह अपने तेरह जीने उतरने लगा। सबसे जरूरी काम अभी बाकी ही था - रसोई में से कुल्हाड़ी चुराने का काम। वह काम कुल्हाड़ी से ही अन्जाम देना है; यह उसने बहुत पहले तय कर लिया था। उसके पास खटकेदार चाकू भी था, लेकिन वह चाकू पर भरोसा नहीं कर सकता था, अपनी ताकत पर उसे और भी कम भरोसा था, और इसीलिए आखिर में उसने कुल्हाड़ी के इस्तेमाल का फैसला किया था। लगे हाथ हम उन सभी आखिरी फैसलों के बारे में, जो उसने इस सिलसिले में किए थे, एक और विचित्र बात का उल्लेख कर दें। उनमें एक अजीब विशेषता थी : किसी काम का फैसला जितना ही पक्का होता जाता था, उसकी नजरों में वह फौरन उतना ही अधिक बीभत्स, उतना ही अधिक बेतुका मालूम होने लगता था। अपने समस्त कष्टदायक आंतरिक संघर्ष के बावजूद उसने इस पूरे अरसे में कभी एक पल के लिए भी अपनी योजना की व्यावहारिकता पर विश्वास नहीं किया था।

यूँ अगर कभी ऐसा हो जाता कि हर चीज की छोटी-से-छोटी बारीकी पर भी विचार कर लिया गया होता, उसे अंतिम रूप से तय कर लिया गया होता और किसी तरह की कोई दुविधा बाकी न रहती, तो भी वह लगता है इस पूरे मामले को बेतुका, दानवीय और असंभव कह कर त्याग देता। लेकिन ऐसी बहुत सारी छोटी-छोटी बातें और दुविधाएँ बाकी रह गईं, जिनके बारे में कोई फैसला नहीं किया जा सका। जहाँ तक कुल्हाड़ी हथियाने का सवाल था, इस मामूली से काम की वजह से उसे कभी कोई चिंता नहीं हुई, क्योंकि इससे आसान कोई और काम हो भी नहीं सकता था। नस्तास्या हर वक्त घर के बाहर रहती थी, खास तौर पर शाम को। वह अकसर भाग कर पड़ोसियों के यहाँ या किसी दुकान पर चली जाती और हमेशा दरवाजा खुला छोड़ जाती। मकान-मालकिन बस इसी एक बात के लिए उसे हमेशा डाँटती रहती थी। इसलिए वक्त आने पर उसे बस चुपके से रसोई में जा कर कुल्हाड़ी उठा लानी थी, और घंटे भर बाद (सारा काम पूरा हो जाने पर) उसे जा कर वापस रख देना था। लेकिन ये सब बातें ऐसी थीं जिनमें शक की गुंजाइश थी। मान लीजिए, घंटे भर बाद वह उसे वापस रखने गया और उस वक्त तक नस्तास्या लौट आई और वहाँ पर मौजूद हुई तो जाहिर है उसे वहाँ से गुजर जाना होगा और उसके दोबारा बाहर जाने का इंतजार करना होगा। लेकिन मान लीजिए कि इसी बीच उसे कुल्हाड़ी की जरूरत पड़ी और वह उसे न मिली; उसने उसे ढूँढ़ा और एक बखेड़ा खड़ा कर दिया तो... इसका मतलब होगा शक। कम-से-कम शक की गुंजाइश तो जरूर ही होती।

लेकिन ये सब बहुत छोटी-छोटी, मामूली बातें थीं जिनके बारे में उसने सोचना शुरू भी नहीं किया था, और न ही उसके पास वक्त था। वह सबसे खास बात के बारे में सोच रहा था और छोटी-छोटी बातों को उस वक्त तक के लिए टालता जा रहा था, जब तक कि वह पूरे मामले के बारे में विश्वस्त न हो जाए। लेकिन ऐसा होना असंभव लगता था। कम-से-कम उसे तो ऐसा ही लगता था। मिसाल के तौर पर, वह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि कभी यूँ भी होगा कि वह सोचना छोड़ दे, उठ खड़ा हो और बस सीधा वहाँ चला जाए... उसकी कुछ दिन पहले की कोशिश भी (अर्थात उस जगह को पक्के ढंग से अच्छी तरह, देख आने के मकसद से उसका वहाँ जाना भी) असली चीज से कोसों दूर की महज एक आजमाइश थी, जैसे कोई कहे कि 'आओ, चलें और आजमा कर देख तो लें - खाली-खूली सपने देखने में क्या फायदा' - तब उसका मनोबल फौरन चूर हो गया था और वह वहाँ से कोसता हुआ, अपने आप पर झुँझलाता हुआ भाग खड़ा हुआ था। इसी बीच, जहाँ तक नैतिक प्रश्न की बात थी, लगता है उसके बारे में उसका विश्लेषण पूरा हो चुका था; उसकी भलाई-बुराई की परख की क्षमता उस्तरे की धार की तरह तेज हो गई थी और उसे अपने अंदर कोई तर्कसंगत आपत्ति नहीं मिल सकी थी। लेकिन आखिरी सहारे के तौर पर उसने अपने आप पर भी विश्वास करना बंद कर दिया था और वह पूरी तरह जुट कर, गुलामी के बंधनों में जकड़े हुए किसी मजबूर आदमी की तरह, हर दिशा में आपत्तियाँ खोजता फिरता था, उनके लिए हर चीज को टटोलता रहता था, गोया कोई उसे इस काम के लिए मजबूर कर रहा हो और जबरदस्ती उसकी ओर खींच रहा हो। लेकिन इस आखिरी दिन का, जो इस तरह अचानक आ गया था और जिसने आनन-फानन हर बात का फैसला कर दिया था, लगभग अपने आप ही उस पर असर पड़ा था। लगता था कोई उसका हाथ पकड़ कर उसे अंधों की तरह, अदम्य शक्ति से, किसी पारलौकिक बल के सहारे अपने पीछे खींचे लिए जा रहा था और वह कोई आपत्ति भी नहीं कर पा रहा था। लगता था उसके लिबास का किनारा मशीन के पहिए में फँस गया था और वह मशीन में खिंचा चला जा रहा था।

शुरू में - वास्तव में बहुत पहले - वह महज एक सवाल से बेहद हैरान रहता था : ऐसा क्यों कि लगभग सभी अपराध बहुत फूहड़पन से छिपाए जाते हैं और बहुत आसानी से उनका पता भी लग जाता है या ऐसा क्यों कि लगभग सभी अपराधी अपने पीछे एकदम खुले सुराग छोड़ जाते हैं धीरे-धीरे वह कई अलग-अलग और विचित्र निष्कर्षों पर पहुँचा था, और उसकी राय में इसका मुख्य कारण इस बात में उतना निहित नहीं था कि अपराध को छिपाना भौतिक दृष्टि से असंभव था, जितना कि स्वयं अपराधी में। ठीक उसी पल जब समझदारी और होशियारी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, बच्चों जैसी और हद दर्जे की लापरवाही की वजह से लगभग हर अपराधी इच्छा-शक्ति और विवेक-बुद्धि के लोप का शिकार हो जाता है। उसे इसका पक्का विश्वास था कि विवेक-बुद्धि और इच्छा-शक्ति के लोप का यह हमला मनुष्य पर एक ऐसी बीमारी की तरह होता है, जो धीरे-धीरे बढ़ कर अपराध किए जाने से ठीक पहले अपने चरम-बिंदु पर पहुँच जाती है, अपराध के पल में और अलग-अलग मिसालों में उसके बाद भी अधिक या कम समय तक उतनी ही उग्रता से जारी रहती है, और फिर किसी भी दूसरी बीमारी की तरह धीरे-धीरे ठीक हो जाती है। अभी तक वह इस सवाल का जवाब देने की क्षमता अपने अंदर महसूस नहीं करता था कि वह बीमारी अपराध को जन्म देती है या स्वयं अपराध के विशिष्ट लक्षण के कारण उसके साथ ही बीमारी के कुछ लक्षण भी पाए जाते हैं।

जब वह इन नतीजों पर पहुँच चुका तो उसने फैसला किया कि उसके अपने मामले में इस तरह की विकार से पैदा उथल-पुथल नहीं होगी। अपनी योजना पूरी करते समय उसकी विवेक-बुद्धि तथा इच्छा-शक्ति केवल इस कारण ज्यों की त्यों बनी रहेगी कि उसकी योजना 'अपराध नहीं' थी... हम उस पूरी प्रक्रिया को अभी छोड़ देंगे जिसके जरिए वह इस अंतिम निर्णय तक पहुँचा था; हम यों भी जरूरत से ज्यादा आगे निकल आए हैं। ...हम केवल इतना और बता दें कि उसके दिमाग में इस मामले की व्यावहारिक और शुद्ध रूप से भौतिक कठिनाइयों का बस एक गौण स्थान था। 'उनसे निबटने के लिए आदमी को बस अपनी इच्छा-शक्ति और अपनी विवेक-बुद्धि पर काबू रखना चाहिए। आदमी ने जहाँ अपने आपको इस कारोबार के छोटे से छोटे ब्यौरे से परिचित कर लिया कि फिर तो समय आने पर वे सभी दूर हो जाते हैं।' लेकिन यह कारोबार शुरू भी तो नहीं हो रहा था। अपने आखिरी फैसलों पर उसे सबसे कम भरोसा रह गया था, और जब वह घड़ी आई तो सब कुछ एकदम ही दूसरे ढंग से, गोया आकस्मिक और प्रत्याशित रूप से हुआ।

वह अभी सीढ़ियाँ पूरी तरह उतरा भी नहीं था कि एक छोटी-सी बात ने उसका सारा हिसाब गड़बड़ा दिया। वह जब मकान-मालकिन की रसोई के पास पहुँचा, जिसका दरवाजा हमेशा की तरह खुला हुआ था, तो उसने बड़ी चालाकी से अंदर नजर डाली कि नस्तास्या के मौजूद न होने पर कहीं मकान-मालकिन खुद तो वहाँ नहीं है, या अगर वह वहाँ नहीं है तो उसके अपने कमरे का दरवाजा तो बंद है, ताकि जब वह कुल्हाड़ी लेने अंदर जाए तो वह कहीं बाहर न झाँकने लगे। लेकिन अचानक यह देख कर उसके आश्चर्य की सीमा न रही कि नस्तास्या न सिर्फ रसोई में थी, बल्कि वहाँ काम में व्यस्त थी। वह एक पिटारी में से कपड़े निकाल कर अलगनी पर फैला रही थी! उसे देख कर वह, कपड़े फैलाना बंद करके, उसकी ओर मुड़ी तब तक उसे घूरती रही, जब तक वह वहाँ से गुजर न गया। उसने अपनी आँखें फेर लीं और वहाँ से इस तरह गुजर गया जैसे कुछ देखा ही न हो। लेकिन अब तो सारा किस्सा ही खलास हो चुका था। उसके पास कुल्हाड़ी ही नहीं थी! उसके होश उड़ गए।

'मैंने यह क्यों समझ लिया था,' दालान से गुजरते हुए वह सोचने लगा, 'मैंने यह क्यों मान लिया था कि उस पल वह घर पर नहीं ही होगी क्यों, आखिर क्यों मैंने इस बात को इतने यकीन के साथ मान लिया था' उसका हौसला पस्त हो चुका था और वह अपमानित भी महसूस कर रहा था। क्रोध में उसका जी अपने आप पर हँसने को चाह रहा था... उसके अंदर पशुओं जैसा अंधा क्रोध खौल रहा था।

संकोच में पड़ा वह कुछ देर तक दालान के फाटक में खड़ा रहा। सड़क पर जाना, महज दिखावे के लिए टहलने निकल जाना उसे नापसंद था; अपने कमरे में वापस चला जाना और भी नापसंद था। 'कितना बढ़िया मौका मैंने हमेशा के लिए खो दिया!' दरबान की छोटी-सी अँधेरी कोठरी के ठीक सामने, फाटक के बीच में बेमकसद खड़े-खड़े वह बुदबुदाया। कोठरी का दरवाजा भी खुला हुआ था। अचानक वह चौंक पड़ा। उससे दो कदम की दूरी पर, दरबान की कोठरी में दाहिनी तरफ बेंच के नीचे किसी चमकती हुई चीज पर उसकी नजर पड़ी। ...उसने अपने चारों ओर देखा-कोई नहीं था। पंजों के बल चलता हुआ कोठरी तक गया, दो कदम उसके अंदर घुसा, और दबी जबान से दरबान को पुकारा। 'हाँ, घर पर नहीं है! लेकिन कहीं पास ही होगा अहाते में, क्योंकि दरवाजा पूरा खुला हुआ है।' वह कुल्हाड़ी की ओर झपटा (वह कुल्हाड़ी ही थी), और उसे बेंच के नीचे से खींच कर निकाला जहाँ वह दो चैलों के बीच पड़ी हुई थी। कोठरी से बाहर निकलने से पहले, उसने जल्दी से उसे फंदे में अटका लिया, दोनों हाथ अपनी जेबों में डाले, और कोठरी के बाहर चला गया। किसी ने उसे देखा नहीं था! 'जब अक्ल काम नहीं करती तो शैतान काम करता है!' उसने अजीब-सी मुस्कराहट के साथ सोचा। इस संयोग से उसका हौसला बेहद बढ़ गया।

वह शांत भाव से, कोई जल्दी किए बिना, चुपचाप चलता रहा ताकि किसी को शक न हो। वह आसपास से गुजरनेवालों को भी कम ही देख रहा था। वह उनके चेहरों को देखने से कतराने की कोशिश कर रहा था, और इस बात की भी कि जहाँ तक हो सके, खुद उसकी ओर दूसरों का ध्यान कम-से-कम जाए। अचानक उसे अपने हैट का खयाल आया। 'लानत है! अभी परसों मेरे पास पैसे थे और उनसे पहनने के लिए मैंने एक टोपी भी नहीं खरीदी!' उसकी आत्मा की गहराई से एक गाली निकली।

एक दुकान के अंदर कनखियों से देखते हुए एक दीवार घड़ी पर उसकी नजर पड़ी। वह सात दस का समय बता रही थी। उसे जल्दी करनी थी और साथ ही कुछ चक्कर लगा कर जाना था ताकि उस घर में दूसरी ओर से घुसे...

पहले इन सब बातों की कल्पना करते समय कभी-कभी वह यह भी सोचता था कि उसे डर तो बहुत लगेगा। लेकिन इस वक्त उसे कुछ ज्यादा डर नहीं लग रहा था, बल्कि बिलकुल नहीं लग रहा था। उसका दिमाग बेमतलब चीजों में भी उलझा, लेकिन देर तक किसी भी चीज में नहीं। जब वह युसूपोव बाग के पास से हो कर गुजरा तो बड़े-बड़े फव्वारे बनाने के बारे में गहरे चिंतन में डूबा हुआ था और हर चौक के वातावरण पर उनके सुखद प्रभाव पर विचार कर रहा था। धीरे-धीरे उसे विश्वास होता गया कि इस ग्रीष्म-उद्यान को बढ़ा कर अगर मार्स मैदान तक फैला दिया जाए, और शायद मिखाइलोव्स्की शाही बाग से जोड़ दिया जाए, तो बहुत ही शानदार बात होगी और उससे पूरे शहर में बहुत फायदा होगा। फिर उसे इस सवाल में दिलचस्पी पैदा हुई : क्या वजह है कि सभी बड़े शहरों में लोग सीधे-सीधे आवश्यकता से प्रेरित नहीं होते, बल्कि अजीब बात है कि उनमें शहर के उन हिस्सों में रहने की प्रवृत्ति पाई जाती है, जहाँ न बाग होते हैं न फव्वारे; जहाँ सबसे ज्यादा गर्द, बदबू और हर तरह की गंदगी होती है। फिर उसे किसी जमाने में भूसामंडी से हो कर खुद अपने गुजरने की याद आई, और एक क्षण के लिए सारी वास्तविकता उसके सामने आ गई, जैसे वह अचानक जाग पड़ा हो। 'क्या बकवास है!' उसने सोचा। 'इससे तो बेहतर है किसी बारे में सोचो ही नहीं!'

'इसी तरह शायद जब लोगों को फाँसी के तख्ते की ओर ले जाते हैं तो अपने दिमाग में वे रास्ते में आनेवाली हर चीज को मजबूती से पकड़ लेने की कोशिश करते हैं,' उसके दिमाग में यह विचार कौंधा, लेकिन केवल कौंधा, बिजली की तरह। उसने जल्दी से इस विचार को अपने दिमाग से निकाल दिया... अब वह बिलकुल पास पहुँच गया था। यह रहा घर; यह रहा फाटक। अचानक कहीं घड़ियाल ने एक घंटा बजाया। 'क्या साढ़े सात बज गए नामुमकिन घड़ी तेज होगी!'

किस्मत ने एक बार फिर उसका साथ दिया। फाटक पर कोई अड़चन नहीं हुई। गोया खास उसी की सुविधा के लिए, ठीक उसी पल भूसे से लदी एक बड़ी-सी गाड़ी फाटक के अंदर आई, जिसने उसे फाटक के दर से गुजरते समय पूरी तरह अपनी आड़ में ले लिया। फिर गाड़ी अभी अहाते में पहुँची भी नहीं कि पलक झपकते वह दाहिनी ओर को हो लिया। गाड़ी की दूसरी ओर उसे चिल्लाने और झगड़ने को आवाजें सुनाई दे रही थीं; लेकिन किसी ने न तो उसे देखा और न ही कोई उसको मिला। बड़े से चौकोर दालान के सामनेवाली बहुत-सी खिड़कियाँ उस समय खुली हुई थीं, लेकिन उसने सिर उठा कर देखा तक नहीं। उसमें इतनी ताकत भी नहीं थी। बुढ़िया के कमरे को जानेवाली सीढ़ियाँ पास ही थीं, फाटक के पल्ले से ठीक दाहिनी ओर। वह सीढ़ियों पर पहुँच चुका था...

एक लंबी साँस खींच कर, धड़कते हुए दिल पर हाथ रख कर, कुल्हाड़ी को एक बार फिर टटोल कर देखने और उसे सीधी कर लेने के बाद, धीरे-धीरे और बड़ी सावधानी से, लगातार कान लगा कर सुनते हुए, उसने सीढ़ियाँ चढ़ना शुरू किया। लेकिन सीढ़ियों पर भी पूरा-पूरा सन्नाटा था। सारे दरवाजे बंद थे। उसे कोई भी नहीं मिला। पहली मंजिल पर अलबत्ता एक फ्लैट का दरवाजा पूरा खुला हुआ था और पुताई मजदूर वहाँ काम कर रहे थे, लेकिन उन्होंने उसकी ओर देखा तक नहीं। वह शांत खड़ा रहा, एक पल कुछ सोचा और आगे बढ़ गया। 'अच्छा तो यही होता कि ये लोग यहाँ न होते, लेकिन... वह जगह तो इन लोगों से दो मंजिल ऊपर है।'

और यह रही चौथी मंजिल, यह रहा दरवाजा, यह रहा सामनेवाला फ्लैट, खालीवाला। बुढ़िया के ठीक नीचेवाला फ्लैट भी देखने में खाली ही लगता था; दरवाजे पर कील से ठुँका हुआ विजिटिंग-कार्ड नोच दिया गया था - वे लोग चले गए थे! ...उसका दम फूल रहा था। 'वापस न चला जाऊँ?' एक पल के लिए यह विचार उसके दिमाग में तैर कर निकल गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया और बुढ़िया के दरवाजे पर कान लगा कर सुनने लगा - मुकम्मल खामोशी थी। इसके बाद उसने एक बार फिर सीढ़ियों की ओर कान लगा कर सुना और बड़ी देर तक ध्यान लगा कर सुनता रहा... फिर उसने आखिरी बार चारों ओर नजर डाली, अपने आपको सँभाला, सीधा तन कर खड़ा हो गया, और फिर एक बार फंदे में अटकी हुई कुल्हाड़ी को हिला-डुला कर देखा। 'मेरे चेहरे का रंग उड़ा तो नहीं' वह सोचने लगा। 'कहीं मैं देखने में बौखलाया हुआ तो नहीं लग रहा हूँ वह बहुत शक्की है... थोड़ी देर और इंतजार न कर लूँ... जब तक मेरा दिल धौंकनी की तरह चलना बंद न कर दे...' लेकिन उसका दिल उसी तरह धड़कता रहा। नहीं, गोया कि उसे चिढ़ाने के लिए, उसकी धड़कन और भी तेज हो गई... वह अब और अधिक सहन नहीं कर सकता था। उसने धीरे से घंटी की ओर हाथ बढ़ाया और उसे बजाया। आधे मिनट बाद उसने फिर घंटी बजाई। इस बार और भी जोर से।

कोई जवाब नहीं। घंटी बजाते रहना बेकार भी था और इसका कोई तुक भी नहीं था। बुढ़िया घर पर तो थी, लेकिन वह शक्की थी और अकेली थी। रस्कोलनिकोव को उसकी आदतों का कुछ-कुछ ज्ञान था। ...उसने एक बार फिर दरवाजे से अपना कान लगाया। या तो उसकी इंद्रियाँ विशेष रूप से सजग थीं (जिस बात को मानना जरा कठिन है) या आवाज सचमुच बहुत साफ थी। बहरहाल, अचानक उसने किसी के बड़ी सावधानी से ताले को छूने की और उसी दरवाजे के पास फ्राक की सरसराहट की आवाज सुनी। कोई चोरी से ताले के पास खड़ा हुआ था और ठीक उसी तरह जैसे वह बाहर खड़ा हुआ कर रहा था, कोई अंदर से छिप कर सुन रहा था। लगता था कि वह भी अपना कान दरवाजे से लगाए हुए है...

वह जान-बूझ कर थोड़ा-सा खिसका और ऊँची आवाज में कुछ बुदबुदाया ताकि यह न मालूम हो कि वह छिपा खड़ा है। फिर उसने तीसरी बार घंटी बजाई, पर धीरे-से गंभीरता से और जरा भी बेसब्री दिखाए बिना। बाद में याद करने पर, वह पल उसके दिमाग में जीता-जागता, एकदम साफ, हमेशा के लिए अंकित हो गया था। उसकी समझ में नहीं आता था कि उसमें इतना काइयाँपन कहाँ से आ गया था, क्योंकि एक तरह से ऐसे पल बीच-बीच में आते थे, जब उसका दिमाग बिलकुल धुँधला हो जाता था और अपने शरीर से वह एकदम बेखबर हो जाता था... एक पल बाद उसने कुंडी खोले जाने की आवाज सुनी।