अपराध और दंड / अध्याय 1 / भाग 7 / दोस्तोयेव्स्की

Gadya Kosh से
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इस बार भी पहले की ही तरह दरवाजे में एक पतली-सी दरार खुली, और दो तेज, संदेह भरी आँखों ने उसे अँधेरे में घूरा। रस्कोलनिकोव अपना मानसिक संतुलन खो बैठा और एक बहुत बड़ी गलती करते-करते बचा।

इस डर से कि अकेले होने की वजह से बुढ़िया घबरा जाएगी, और इस उम्मीद के बिना कि उसे देख कर उसके सारे शक दूर हो जाएँगे, उसने दरवाजा पकड़ कर अपनी और खींचा, ताकि बुढ़िया उसे फिर से बंद करने की कोशिश न कर सके। यह देख कर बुढ़िया ने दरवाजा अपनी ओर तो नहीं खींचा लेकिन दरवाजे का हत्था भी नहीं छोड़ा। नतीजा यह हुआ कि वह उसे दरवाजे के साथ लगभग घसीटता हुआ सीढ़ियों तक चला गया। यह देख कर कि वह दरवाजे के बीच में खड़ी है और उसे अंदर आने नहीं देगी, वह सीधे उसकी ओर बढ़ा। वह सहम कर पीछे हट गई, उसने कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन लगा कि वह बोल नहीं पा रही थी, और उसे फटी-फटी आँखों से घूर रही थी।

'नमस्कार, अल्योना इवानोव्ना,' उसने सहज भाव से बोलने की कोशिश की। लेकिन उसकी आवाज साथ नहीं दे रही थी, और उखड़ी-उखड़ी, भर्रायी हुई निकल रही थी। 'मैं आया हूँ... मैं कुछ लाया हूँ... लेकिन अंदर आ जाएँ तो ठीक रहेगा... रोशनी में...' फिर उसे वहीं छोड़ कर वह बिन बुलाए, सीधा कमरे में घुस गया। बुढ़िया उसके पीछे लपकी; उसकी जबान चल निकली थी।

'हे भगवान! यह है क्या कौन हैं आप आप चाहिए आपको?'

'आह अल्योना इवानोव्ना, तुम मुझे पहचानती नहीं हो क्या? ...रस्कोलनिकोव ...यह देखो, मैं तुम्हारे पास यह चीज गिरवी रखने लाया हूँ, जिसका मैंने उस दिन वादा किया था...' यह कह कर उसने पैकेट उसके सामने कर दिया।

बुढ़िया ने पैकेट को एक नजर देखा, फिर फौरन ही अपने बिन-बुलाए मेहमान की आँखों में आँखें डाल कर उसे घूरने लगी। वह बड़े गौर से, कीना और शक भरी नजरों से उसे देख रही थी। एक पल इसी तरह बीत गया। उसे लगा बुढ़िया की आँखों में तिरस्कार का भाव भी था, जैसे उसने सब कुछ भाँप लिया है। रस्कोलनिकोव को लगा कि उसके होश गुम होते जा रहे हैं, कि वह डर-सा रहा है, इतना डर रहा था कि अगर वह आधे पल तक और इसी तरह देखती रही और कुछ भी न कहा तो शायद वह उसके पास से भाग जाएगा।

'मुझे तुम इस तरह क्यों देख रही हो जैसे मुझे जानती ही नहीं,' उसने भी अचानक चिढ़ के साथ कहा। 'जी चाहे तो रख लो, नहीं तो मैं कहीं और ले जाऊँ। मुझे जल्दी है।'

उसने यह बात कहने के बारे में सोचा भी नहीं था, लेकिन अचानक यह अपने आप ही उसके मुँह से निकल गई। बुढ़िया ने अपने आपको सँभाला, लगा कि मेहमान के सख्त लहजे की वजह से उसमें फिर आत्मविश्वास पैदा हो गया।

'लेकिन इतनी जल्दबाजी क्यों जनाब... क्या है यह?' उसने पैकेट की ओर देख कर पूछा।

'चाँदी का सिगरेट-केस। मैंने पिछली बार इसकी ही बात की थी, याद है न।'

बुढ़िया ने अपना हाथ बढ़ा दिया।

'लेकिन तुम इतने पीले क्यों पड़ रहे हो और तुम्हारे हाथ भी तो काँप रहे हैं! कहीं नहाने गए थे, क्या?'

'बुखार,' उसने झट से जवाब दिया। 'आदमी के पास खाने को कुछ न हो तो पीला तो पड़ ही जाएगा...' उसने बड़ी मुश्किल से अपने शब्दों को उच्चारण करते हुए इतना जोड़ दिया। उसकी ताकत एक बार फिर जवाब देने लगी थी, लेकिन उसके उत्तर में सच्चाई मालूम हो रही थी। बुढ़िया ने पैकेट ले लिया।

'क्या है यह?' रस्कोलनिकोव को ध्यान से देखते हुए और पैकेट को हाथ में तोलते हुए उसने एक बार फिर पूछा।

'है एक चीज... सिगरेट-केस... चाँदी का... देख तो लो।'

'मगर चाँदी का तो नहीं लगता... लपेट कैसे रखा है!'

डोरी खोलने की कोशिश करते हुए वह खिड़की की ओर, रोशनी की तरफ मुड़ी। (दमघोंटू गर्मी के बावजूद सारी खिड़कियाँ बंद थीं) रस्कोलनिकोव को कुछ पलों के लिए उसने एकदम अकेला छोड़ दिया और उसकी तरफ पीठ करके खड़ी हो गई। रस्कोलनिकोव ने कोट का बटन खोल और कुल्हाड़ी को फंदे में से छुड़ा लिया। लेकिन उसने उसे पूरी तरह बाहर नहीं निकाला, बस उसे कोट के नीचे अपने दाहिने हाथ में पकड़े रहा। उसके हाथ बेहद कमजोर थे; ऐसा लग रहा था हर पल वे और भी कमजोर और बेजान, लकड़ी जैसे होते जा रहे हैं। उसे डर लग रहा था कि कुल्हाड़ी कहीं फिसल कर गिर न पड़े... अचानक उसका सर चकराने-सा लगा।

'इतना कस कर क्यों बाँध रखा है?' बुढ़िया झुँझला कर चिल्लाई और उसकी ओर बढ़ी।

अब उसके पास एक पल का भी समय खोने के लिए नहीं था। उसने कुल्हाड़ी पूरी तरह बाहर निकाल ली, दोनों हाथों में फिराया, उसे खुद भी एहसास नहीं था कि वह कर क्या रहा है, और लगभग बिना किसी कोशिश के एकदम मशीन की तरह, कुल्हाड़ी का कुंद सिरा बुढ़िया के सर पर दे मारा। कहीं से ऐसा नहीं लग रहा था कि इस काम में वह अपनी खुद की ताकत इस्तेमाल कर रहा है। पर एक बार कुल्हाड़ी चलाते ही उसकी सारी ताकत लौट आई।

बुढ़िया हमेशा की तरह नंगे सर थी। उसके पतले, छितरे बाल, जिनमें कहीं-कहीं सफेदी की धारियाँ थीं और जिनमें उसने ढेर-सा तेल चुपड़ रखा था, चूहे की दुम जैसी एक चोटी में गुँथे हुए थे और उन्हें सींग की एक टूटी कंघी से अटका दिया गया था जो उसकी गुद्दी पर ऊपर को उभरी हुई थी। चूँकि वह छोटे कद की थी इसलिए कुल्हाड़ी का वार सीधा उसकी खोपड़ी पर पड़ा। वह चीखी, लेकिन बहुत कमजोर आवाज में, और अपने हाथ सर की ओर उठाती हुई वहीं फर्श पर ढेर हो गई। अपने एक हाथ में वह अब भी वही 'गिरवी की चीज' पकड़े हुए थी। रस्कोलनिकोव ने कुल्हाड़ी के कुंद सिरे से एक और वार उसी जगह किया; फिर एक और। खून इस तरह बह निकला जैसे कोई गिलास उलट गया हो। शरीर पीछे की ओर लुढ़क गया। रस्कोलनिकोव पीछे हटा, उसके शरीर को नीचे गिरने दिया और फौरन उसके चेहरे की ओर झुका। वह मर चुकी थी। लग रहा था उसकी आँखें अभी अपने कोटरों में से बाहर निकल आएँगी। उसके माथे और पूरे चेहरे की खाल तन गई थी और वह इस तरह विकृत हो गया था जैसे उसे कोई दौरा पड़ा हो।

उसने कुल्हाड़ी लाश के पास डाल दी और इस बात की कोशिश करते हुए कि बहते हुए खून से बचा रहे, वह फौरन बुढ़िया की जेब टटोलने लगा। वही दाहिने हाथवाली जेब जिसमें से पिछली बार उसके यहाँ आने पर बुढ़िया ने चाभी निकाली थी। उसके हवास सही-सलामत थे। वह न बौखलाया हुआ था न उसे चक्कर आ रहा था, हालाँकि हाथ अब भी काँप रहे थे। बाद में उसने अकसर याद किया कि उस समय वह खास तौर पर सुलझा हुआ और सावधान था और सारे वक्त यही कोशिश करता रहा था कि उसे खून का एक धब्बा भी न लगने पाए... उसने चाभियाँ फौरन बाहर निकाल लीं; पहले की ही तरह वे सब लोहे के एक छल्ले में पिरोई हुई थीं। उन्हें ले कर वह फौरन भागता हुआ सोने के कमरे में पहुँचा। यह बहुत छोटा-सा कमरा था जिसमें मूर्तियों की एक पूरी वेदी बनी हुई थी। दूसरी दीवार के किनारे एक बड़ा-सा पलँग था। साफ-सुथरा और उस पर एक रेशमी लेवा जैसी रजाई बिछी हुई थी। तीसरी दीवार के साथ दराजोंवाली बड़ी अलमारी थी। अजीब बात थी कि जैसे ही उसने अलमारी में चाभियाँ लगाना शुरू किया, उसे एक झनकार सुनाई पड़ी और उसके पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई। अचानक फिर एक बार जी चाहा कि सब कुछ छोड़ कर चला जाए। लेकिन यह भावना केवल पल भर रही। वापसी के लिए अब बहुत देर हो चुकी थी। वह अपने आप पर मुस्कराया भी पर एकाएक एक भयानक विचार उसके दिमाग में आया। वह अचानक कल्पना करने लगा कि कौन जाने बुढ़िया अभी जिंदा हो और फिर होश में आ जाए। चाभियाँ अलमारी में लगी छोड़ कर वह लाश के पास भाग कर पहुँचा, झपट कर कुल्हाड़ी उठाई और एक बार फिर उसे बुढ़िया के ऊपर ताना, लेकिन उसे चलाया नहीं। इसमें कोई शक नहीं था कि वह मर चुकी थी। नीचे झुक कर उसे गौर से एक बार फिर देखने पर साफ नजर आता था कि उसकी खोपड़ी फट गई थी और एक तरफ अंदर भी धँस गई थी। वह उसे अपनी उँगली से छू कर देखनेवाला था, लेकिन अपना हाथ पीछे खींच लिया। बिना छूए भी यह बात साफ नजर आ रही थी। इसी बीच वहाँ खून का एक अच्छा खासा ढेर बन गया था। एकाएक उसे बुढ़िया के गले में एक डोरी पड़ी दिखाई दी। उसने उसे खींचा, लेकिन डोरी मजबूत थी और टूटी नहीं। इसके अलावा वह खून में भी तर-बतर थी। उसने उसे उसकी पोशाक के अंदर से खींच कर निकालने की कोशिश की लेकिन वह किसी चीज में अटकी हुई थी और बाहर नहीं निकली। उसने बेसब्री में डोरी को ऊपर से, उसके शरीर पर ही काट देने के लिए फिर कुल्हाड़ी उठाई लेकिन उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। बड़ी मुश्किल से, कुछ देर जूझने के बाद और अपना हाथ और कुल्हाड़ी खून में सान लेने के बाद, उसने लाश को कुल्हाड़ी से छूए बिना डोरी को काट दिया और उसे बाहर खींच लिया। उसका अनुमान गलत नहीं था। वह बटुआ ही था। डोरी में दो सलीबें बँधी - एक साइप्रस की लकड़ी की प्रतिमा थी और दूसरी ताँबे की, चाँदी के तार के कामवाली एक छोटी-सी प्रतिमा थी। साथ में चमड़े का एक छोटा-सा; चीकटदार मखमली बटुआ था जिस पर लोहे का छल्ला लगा हुआ था। बटुआ ठसाठस भरा हुआ था। रस्कोलनिकोव ने देखे बिना ही उसे अपनी जेब में ठूँस लिया। दोनों सलीबें उसने बुढ़िया के सीने पर फेंक दीं और भाग कर सोने के कमरे में वापस चला गया। इस बार कुल्हाड़ी भी अपने साथ लेता गया।

वह बेहद जल्दी में था। उसने चाभियाँ झपट कर उठाईं और उन्हें फिर लगा कर देखने लगा। लेकिन काम कुछ बना नहीं। उनमें से कोई भी चाभी तालों में लग ही नहीं रही थी। वजह यह नहीं थी कि उसके हाथ काँप रहे थे, बल्कि इससे भी बड़ी वजह यह थी कि वह हर बार कोई-न-कोई गलती कर देता था। मिसाल के लिए, जब वह देख भी लेता था कि कोई चाभी ठीक नहीं है और लगेगी नहीं, तब भी उसे फिर लगाने की कोशिश करता था। अचानक उसे खयाल आया कि गुच्छे में छोटी चाभियों के साथ गहरे खाँचोंवाली जो बड़ी चाभी लगी हुई थी, वह दराजोंवाली अलमारी की नहीं हो सकती (जब वह यहाँ पिछली बार आया था, तभी उसे यह बात खटकी थी), बल्कि वह किसी तिजोरी की होगी, और शायद सब कुछ उसी तिजोरी में छिपा कर रखा गया होगा। उसने दराजोंवाली अलमारी को छोड़ दिया और फौरन पलँग के नीचे टटोलने लगा, क्योंकि उसे पता था कि बूढ़ी औरतें अपनी तिजोरियाँ आम तौर पर पलँग के नीचे रखती हैं। यह बात थी भी। पलँग के नीचे एक बड़ा-सा संदूक था। कम-से-कम गज भर लंबा रहा होगा, उसके मेहराबी ढक्कन पर लाल चमड़ा मढ़ा हुआ था और उसमें लोहे की कीलें जड़ी थीं। वह खाँचेदार चाभी फौरन चादर के नीचे खरगोश की खाल का एक कोट था जिसमें लाल जरी की गोट लगी हुई थी। उसके नीचे एक रेशमी पोशाक थी, फिर एक शाल। लग रहा था नीचे भी कपड़ों के अलावा कुछ नहीं है। उसने सबसे पहला काम यह किया कि लाल जरी से अपने हाथों पर लगे खून के धब्बे पोंछ डाले। 'इसका रंग लाल है,' यह विचार उसके दिमाग में आया, फिर अचानक उसे होश आया। लानत है, मेरा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है' उसने भयभीत हो कर सोचा।

उसने कपड़ों को हाथ लगाया ही था कि फर के कोट के नीचे से सोने की एक घड़ी गिरी। उसने जल्दी-जल्दी सारे कपड़े खँगाल डाले। कपड़ों के बीच सचमुच सोने की बनी बहुत-सी चीजें रखी थीं। शायद ये सब गिरवी रखी हुई चीजें थीं जिन्हें या तो छुड़ाया नहीं गया था या जिन्हें अभी छुड़ाने का वक्त नहीं आया था - कंगन, जंजीरें, कान की बालियाँ, पिनें और ऐसी ही बहुत-सी दूसरी चीजें। कुछ डिब्बों में रखी थीं तो कुछ अखबारी कागज को बड़ी सावधानी से तह करके उसमें लपेट दी गई थीं और ऊपर से फीता बाँध दिया गया था। जरा भी देर किए बिना वह पैकेटों और डब्बों को खोल कर देखे बिना ही अपने पतलून और ओवरकोट की जेबों में भरने लगा। पर उसके पास बहुत ज्यादा चीजें ले जाने का चारा भी तो नहीं था।

अचानक उसे उस कमरे में, जहाँ बुढ़िया पड़ी हुई थी, किसी के कदमों की आहट सुनाई दी। वह चौंका और सन्नाटे में आ गया, जैसे साँप सूँघ गया हो। लेकिन हर तरफ खामोशी थी। शायद उसे वहम हुआ हो। इतने में उसे किसी की हलकी-सी चीख साफ सुनाई दी, जैसे किसी न धीमी-सी उखड़ी हुई सिसकी ली हो। फिर एक-दो मिनट तक पूरा-पूरा सन्नाटा रहा। वह संदूक के पास उकड़ूँ बैठा, दम साधे इंतजार करता रहा। यकबयक वह उछल कर खड़ा हो गया, कुल्हाड़ी उठा ली, और सोने के कमरे के बाहर निकला।

बाहरवाले कमरे के बीच में लिजावेता एक पोटली लिए हुए खड़ी थी और हक्का-बक्का अपनी बहन की लाश को घूरे जा रही थी। चेहरा बिलकुल सफेद पड़ गया था और लग रहा था कि उसमें चीखने की ताकत भी नहीं रही। उसे भाग कर सोने के कमरे से बाहर आता देख कर वह पत्ते की तरह थर-थर काँपने लगी, चेहरे पर सिहरन दौड़ गई। हाथ उठा कर उसने मुँह तो जरूर खोला लेकिन चीख नहीं निकली। वह धीरे-धीरे उससे दूर, कोने की ओर खिसकने लगी। वह उसे एकटक घूरे जा रही थी, फिर भी उसके मुँह से कोई आवाज नहीं निकली, गोया चीखने के लिए उसके सीने में दम ही न रहा हो। रस्कोलनिकोव कुल्हाड़ी ले कर उसकी ओर झपटा। लिजावेता के होठ दयनीय ढंग से फड़कने लगे, जैसे बच्चों के तब फड़कते हैं जब उन्हें डर लगता है। तब वे भी उस चीज को, जिससे उन्हें डर लगता है, एकटक घूरते रहते हैं, और चीखने के करीब पहुँच जाते हैं। फिर यह बेचारी लिजावेता तो इतनी सीधी थी, इतनी बुरी तरह दबी-सहमी रहती थी कि उसने अपना चेहरा बचाने के लिए हाथ तक नहीं उठाया, हालाँकि उस क्षण उसके लिए यही सबसे आवश्यक और स्वाभाविक होता, क्योंकि कुल्हाड़ी ठीक उसके चेहरे के ऊपर तनी हुई थी। उसने बस अपना खालीवाला हाथ ऊपर उठाया, लेकिन चेहरे तक नहीं, और धीरे-धीरे उसे इस तरह सामने की ओर बढ़ाया जैसे उसे दूर हटने का इशारा कर रही हो। कुल्हाड़ी की तेज धार ठीक उसकी खोपड़ी पर पड़ी और एक ही बार में पूरी खोपड़ी खुल गई। वह फौरन वहीं, कटे पेड़ की तरह ढेर हो गई। रस्कोलनिकोव के होश उड़ गए। उसने झपट कर उसकी पोटली उठाई लेकिन फौरन ही उसे फेंक दिया और ड्योढ़ी की तरफ भागा।

धीरे-धीरे खौफ उसे अपने शिकंजे में और भी मजबूती से जकड़ता गया, खास तौर पर इस दूसरे कत्ल के बाद, जिसका उसने गुमान तक नहीं किया था। वह जल्दी से जल्दी उस जगह से भाग जाना चाहता था। उस पल अगर उसमें चीजों को सही-सही देखने और उनके बारे में विवेक से सोचने की क्षमता होती, अगर वह अपनी स्थिति की सारी कठिनाइयों को, उसकी बेबसी को, उसकी भयानकता को, उसके बेतुकेपन को महसूस कर सकता और साथ ही यह समझ सकता कि उस जगह से निकलने के लिए और घर तक पहुँचने के लिए उसे अभी कितनी और अड़चनें पार करनी होंगी या कितने और अपराध करने होंगे, तो बहुत मुमकिन है कि उसने सब कुछ को फौरन अलविदा कह दिया होता और सीधे जा कर अपने आपको पुलिस के हवाले कर देता, डर के मारे नहीं बल्कि जो कुछ उसने किया था, उससे सीधी-सादी बेजारी और नफरत की वजह से। नफरत की यह भावना उसके अंदर खास तौर पर उभरी और हर पल गहरी होती रही। अब वह किसी भी कीमत पर उस बक्से के पास या कमरों में ही जाने को तैयार न था।

लेकिन धीरे-धीरे एक तरह का खालीपन आने लगा, बल्कि ऊँघ भी उस पर छाने लगी। कुछ पल ऐसे आते थे, जब वह अपने को भूल जाता था। या यह कहना ज्यादा सही होगा कि वह यह भूल जाता था कि महत्वपूर्ण कौन-सी बात है और छोटी-छोटी महत्वहीन बातों को पकड़ कर बैठ जाता था। लेकिन रसोई में नजर डालने पर जब उसे एक बेंच पर पानी से आधी भरी बाल्टी नजर आई तो उसने सोचा कि अपने हाथ और कुल्हाड़ी धो डाले। उसके हाथ खून से चिपचिपे हो रहे थे। उसने कुल्हाड़ी का फाल पानी में डाल दिया, खिड़की पर एक टूटी हुई तश्तरी में रखा साबुन का टुकड़ा झपट कर उठाया और बाल्टी में ही अपने हाथ धोने लगा। हाथ धो कर उसने कुल्हाड़ी बाल्टी में से निकाली, उसका फाल धोया और काफी समय, कोई तीन मिनट, लगाया उसकी लकड़ी की बेंट को साबुन से मल-मल कर धोने में, जिस पर खून के कुछ धब्बे थे। फिर उसने रसोई में सूखने के लिए फैलाए गए एक कपड़े से हर चीज को अच्छी तरह पोंछा और देर तक खिड़की के पास खड़ा, कुल्हाड़ी को उलट-पुलट कर अच्छी तरह देखता रहा। उस पर कोई धब्बा बाकी नहीं था; बस लकड़ी थोड़ी गीली थी। बड़ी सावधानी से कुल्हाड़ी उसने अपने कोट के नीचे फंदे में लटका ली। फिर उसने अपने ओवरकोट, पतलून और जूतों को रसोई की मद्धिम रोशनी में जहाँ तक हो सका, अच्छी तरह देखा। पहली नजर में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा, बस जूते पर कुछ धब्बे थे। उसने कपड़ा भिगो कर जूते को अच्छी तरह रगड़ा। लेकिन उसे एहसास था कि वह अच्छी तरह नहीं देख रहा है, कि शायद कोई ऐसी चीज हो जो आसानी से देखी जा सकती हो और जिसकी ओर उसका ध्यान न गया हो। विचारों में डूबा हुआ वह कमरे के बीच में खड़ा रहा। उसके दिमाग में एक मनहूस, तकलीफदेह विचार उठ रहा था - यह कि वह पागल है और उस पल अपनी विवेक-बुद्धि खो चुका है, कि वह अपने आपको बचा नहीं सकता, कि इस वक्त वह जो कुछ कर रहा है, उससे शायद एकदम अलग किस्म का कोई कदम उठाना चाहिए। 'हे भगवान!' वह बुदबुदाया, 'भाग जाना चाहिए मुझे, भाग जाना चाहिए,' और यह सोचते ही वह भाग कर ड्योढ़ी में पहुँच गया। लेकिन वहाँ पहुँच कर उसे ऐसा भयानक सदमा पहुँचा, जैसे इससे पहले उसने कभी नहीं झेला था।

वह खड़ा घूरता रहा और उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं आया। दरवाजा, सीढ़ियों से आने पर बाहरवाला दरवाजा, जहाँ अभी कुछ देर पहले उसने घंटी बजाई थी और जिससे हो कर भीतर आया था, उसकी कुंडी नहीं लगी थी। वह दरवाजा काफी कुछ खुला हुआ था। पूरे वक्त उसमें न ताला लगा था, न कुंडी लगी थी! उसके अंदर आने के बाद उसे बंद नहीं किया होगा! लेकिन, लानत है मुझ पर! उसने लिजावेता को उसके बाद ही तो देखा था! तब वह क्यों नहीं समझ सका, क्यों नहीं सोच सका कि वह अंदर कैसे आई होगी दीवार फाड़ कर तो नहीं आई होगी!

वह झपट कर दरवाजे के पास गया और उसने कुंडी चढ़ा दी।

'लेकिन नहीं, फिर वही गलती! मुझे भाग जाना चाहिए, निकल जाना चाहिए यहाँ से...'

उसने कुंडी सरकाई, दरवाजा खोला और सीढ़ियों की ओर कान लगा कर सुनने लगा।

बड़ी देर तक वह सुनता रहा। कहीं दूर, शायद फाटक के पास से चिल्लाने, लड़ने और डाँटने-फटकारने की दो ऊँची और तीखी आवाजें आ रही थीं। 'ये आवाजें कैसी हैं?' वह धीरज के साथ इंतजार करता रहा। आखिरकार चारों ओर खामोशी छा गई, जैसे किसी ने अचानक आवाजों को काट दिया हो। लड़नेवाले अलग हो गए होंगे। वह अभी बाहर जाने की सोच ही रहा था कि नीचेवाली मंजिल पर जोर से दरवाजा खुलने की आवाज आई। कोई आदमी गुनगुनाता हुआ सीढ़ियाँ उतरने लगा। 'आखिर ये सब लोग इतना शोर क्यों मचाते हैं,' दिमाग में यह बात बिजली की तरह कौंधी। एक बार फिर वह दरवाजा बंद करके इंतजार करने लगा। आखिरकार चारों ओर फिर खामोशी छा गई, पत्ता तक नहीं खड़क रहा था। उसने सीढ़ियों की तरफ कदम बढ़ाया ही था कि फिर उसे किसी के कदमों की आहट सुनाई दी।

यह आहट कुछ दूर से आती मालूम होती थी, सीढ़ियों के एकदम नीचे से, लेकिन यह बात उसे अच्छी तरह और साफ तौर पर याद रही कि पहली आहट सुनते ही न जाने क्यों उसे यह शक हुआ था कि यह कोई ऐसा आदमी था जो वहीं आ रहा था। चौथी मंजिल पर। उसी बुढ़िया के यहाँ। क्यों क्या इन कदमों की आवाज में कोई खास बात थी कोई अहम बात कदम भारी और सधे हुए थे, और उनमें कोई जल्दबाजी नहीं थी। अब वह पहली मंजिल पार कर चुका था, और ऊपर चढ़ रहा था, क्योंकि कदमों की आहट अब ज्यादा साफ होती जा रही थी! उसे उसकी गहरी साँसों की आवाज सुनाई दे रही थी। अब तीसरी मंजिल आ चुकी थी... यहीं आ रहा है! फिर अचानक उसे लगा कि वह पथरा गया है, कि यह एक ऐसा सपना था, जिसमें किसी का पीछा किया जा रहा है, कि वह लगभग पकड़ा जा चुका है और मार डाला जाएगा, कि वह उसी जगह गड़ कर रह गया है और हाथ तक नहीं हिला सकता।

आखिर जब वह नामालूम आदमी चौथी मंजिल की ओर बढ़ने लगा तो रस्कोलनिकोव अचानक चौंक पड़ा। बड़ी फुर्ती के साथ वह वापस फ्लैट में सरक गया और अंदर पहुँच कर दरवाजा बंद कर लिया। फिर उसने हुक उठाया और धीरे-से, कोई आवाज किए बिना, उसे कुंडे में फँसा दिया। सहजबुद्धि काम आई। इतना कर चुकने के बाद वह दम साधे, दरवाजे के पास दुबक गया। नामालूम आनेवाला भी तब तक दरवाजे पर पहुँच चुका था। अब वे दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े थे। ठीक उसकी तरह जैसे कुछ ही देर पहले वह और बुढ़िया खड़े थे जब उनके बीच सिर्फ दरवाजा था और वह कान लगाए सुन रहा था।

आनेवाला कई बार हाँफा। 'कोई बड़े डीलडौल का मोटा आदमी होगा,' रस्कोलनिकोव ने कुल्हाड़ी अपने हाथ में कस कर पकड़ते हुए सोचा। सचमुच यह एक सपना मालूम होता था। आनेवाले ने जोर से घंटी बजाई।

घंटी की टनटनाहट सुनते ही रस्कोलनिकोव को लगा कि कमरे में कोई चीज हिल-डुल रही है। कुछ सेकंडों तक वह बहुत ध्यान से सुनता रहा। नामालूम आदमी ने फिर घंटी बजाई, कुछ देर इंतजार किया और अचानक बड़ी अधीरता से दरवाजे का हत्था जोर से खींचा। रस्कोलनिकोव दहशत से कुंडे में फँसे हुक को हिलता हुआ देखता रहा, और आतंकित हो कर हर पल यही सोचता रहा कि कुंडा अब उखड़ा कि तब उखड़ा। वह उसे इतनी जोरों से हिला रहा था कि यह बात एकदम संभव लग रही थी। उसका जी चाहा कि कुंडा पकड़ ले, लेकिन फिर तो उसे पता लग जाएगा। उसे फिर चक्कर आने लगा। 'मैं गिर पड़ूँगा!' यह विचार उसके दिमाग में बिजली की तरह कौंधा, लेकिन वह नामालूम आदमी बड़बड़ाने लगा और रस्कोलनिकोव फौरन सँभल गया।

'बात क्या है, सो रही है या किसी ने मार डाला? भ-भ-भाड़ में जाएँ!' वह मोटी आवाज से दहाड़ा। 'ऐ, अल्योना इवानोव्ना, चुड़ैल! अरे ओ लिजावेता इवानोव्ना, जान! दरवाजा तो खोलो! दोनों जाएँ जहन्नुम में! सो रही हैं क्या?'

एक बार फिर तैश में आ कर उसने पूरी ताकत से कोई दस बार घंटी बजाई। जरूर कोई रोबदार, गहरी जान-पहचानवाला आदमी होगा।

उसी क्षण सीढ़ियों पर कहीं पास से ही, किसी के जल्दी-जल्दी, फुर्तीले कदमों से चलने की आहट आई। कोई और आ रहा था। पहले रस्कोलनिकोव ने इन कदमों की आहट नहीं सुनी थी।

'क्या सचमुच घर पर कोई नहीं है?' नवागंतुक ने पहले आए हुए उस शख्स को खिली हुई, गूँजती आवाज से संबोधित करते हुए कहा, जो अभी तक घंटी बजाए चला जा रहा था। 'नमस्ते कोख!'

'आवाज से लगता है कि नौजवान होगा,' रस्कोलनिकोन ने सोचा।

'भगवान जाने! मैं तो दरवाजा खींच-खींच कर थक गया, ताला टूटने में बस थोड़ी ही कसर रह गई है,' कोख ने जवाब दिया। 'लेकिन तुम मुझे कैसे जानते हो?'

'अरे! 'गैंब्रिनुस' में अभी परसों ही तो लगातार तीन बार तुम्हें बिलियर्ड में हराया था।'

'अरे, हाँ!'

'सो ये लोग घर पर नहीं हैं क्या अजीब बात है, हालाँकि बेतुका मालूम होता है। बुढ़िया आखिर कहाँ गई होगी मैं तो काम से आया था।'

'हाँ, मुझे भी उससे काम है!'

'तो अब क्या किया जाए मैं समझता हूँ वापस चलना चाहिए! बेड़ा गर्क हो इसका। मैं तो यह उम्मीद ले कर आया था कि कुछ पैसा मिल जाएगा!' वह नौजवान ऊँचे स्वर में बोला।

'जाहिर है, अब तो मन मार कर वापस ही जाना होगा, लेकिन उसने यह वक्त तय ही क्यों किया था उस चुड़ैल ने खुद मुझसे इसी वक्त आने को कहा था। फिर यह जगह मेरे रास्ते में भी नहीं पड़ती। समझ में नहीं आता, कमबख्त कहाँ गई होगी। वैसे वह खूसट बुढ़िया तो साल के बारहों महीने यहीं जमी रहती है। उसकी टाँगें ठीक नहीं हैं और फिर भी न जाने क्या सूझी कि टहलने चल पड़ी!'

'चल कर दरबान से न पूछें?'

'क्या?'

'यही कि कहाँ गई है और कब लौट कर आएगी।'

'हुँह... जहन्नुम में जाए! ...मगर वह तो कभी कहीं जाती नहीं है।' और उसने एक बार फिर दरवाजे का हत्था पकड़ कर जोर से खींचा। 'लानत है! कुछ नहीं किया जा सकता, चलो चलें!'

'जरा ठहरो!' नौजवान अचानक चीखा। 'देख रहे हो न, तुम जब दरवाजे को खींचते हो तो यह किस तरह हिलता है।'

'तो?'

'इससे लगता है कि इसमें ताला नहीं बंद है! सुनो तो सही, हुक किस तरह खनकता है'

'तो?'

'अरे, नहीं समझे इससे पता चलता है कि दोनों में से एक तो जरूर घर पर है। दोनों बाहर होतीं तो बाहर दरवाजे में चाभीवाला ताला लगाया होता, अंदर से हुक लगा कर दरवाजा न बंद किया होता। सुनो, तो सही, हुक किस तरह खनक रहा है। अंदर से हुक लगाने का मतलब यह हुआ कि वे घर पर ही होंगी, समझे बस, अंदर बैठी हैं और दरवाजा नहीं खोलतीं!'

'हाँ! ऐसी ही बात होगी!' कोख ताज्जुब से चिल्लाया। 'लेकिन अंदर आखिर कर क्या रही हैं' यह कह कर उसने जोर से दरवाजा भड़भड़ाना शुरू किया।

'ठहरो!' नौजवान फिर चिल्लाया। 'दरवाजा मत खींचो! कोई न कोई गड़बड़ जरूर है... इतनी देर से तो तुम घंटी बजा रहे हो, दरवाजा भड़भड़ा रहे हो, और फिर भी नहीं खोलतीं! इसलिए या तो दोनों बेहोश हैं या फिर...'

'क्या?'

'मैं बताता हूँ। चलो, चल कर दरबान को ले आएँ। वही आ कर इन्हें जगाएगा।'

'अच्छी बात है!' दोनों फिर नीचे जाने लगे।

'ठहरो! तुम यहीं रुको, मैं भाग कर दरबान को बुलाए लाता हूँ।'

'मैं किसलिए यहाँ ठहरूँ?'

'यही अच्छा रहेगा।'

'शायद तुम्हारी बात ठीक हो।'

'मैं वकालत पढ़ रहा हूँ, जानते हो! यह बात एकदम साफ है, एक...दम सा...फ कि कोई न कोई गड़बड़ है!' नौजवान जोश में आ कर जोर से बोला और भाग कर सीढ़ियाँ उतरने लगा।

कोख वहीं रुक गया। उसने एक बार फिर धीरे-से घंटी को छुआ जो एक बार टुनटुनाई। फिर उसने बड़ी नर्मी से, मानो कुछ सोच रहा हो, और दरवाजे को देखते हुए हत्था पकड़ कर उसे खींचना और छोड़ना शुरू किया। वह एक बार फिर इस बात का पक्का यकीन कर लेना चाहता था कि उसे सिर्फ हुक लगा कर अटकाया गया है। फिर हाँफते हुए झुक कर वह चाभी के सूराख में से देखने लगा। लेकिन ताले में अंदर से चाभी लगी हुई थी, इसलिए कुछ नजर नहीं आ रहा था।

रस्कोलनिकोव कुल्हाड़ी को कस कर पकड़े हुए खड़ा रहा। उस पर एक तरह की मदहोशी छाई हुई थी। वह उन लोगों के अंदर आने पर उनसे लड़ने तक की तैयारी कर रहा था। जब वे दोनों दरवाजा खटखटा रहे और आपस में बातें कर रहे थे तो उसके दिमाग में अचानक कई बार यह खयाल आया कि वह दरवाजे से निकल कर उनसे चिल्ला कर सब कुछ कह डाले और इस पूर किस्से को खत्म कर दे। उनसे जब दरवाजा नहीं खुल रहा था, बीच-बीच में कई बार उसका जी चाहा कि उन्हें गाली दे और उनका मजाक उड़ाए। 'बस, किसी तरह जल्दी से यह किस्सा खत्म हो!' उसके दिमाग में यह विचार बिजली की तरह कौंधा।

'अब यह कमबख्त...' कोख बुदबुदाया।

एक मिनट बीता, फिर दूसरा मिनट... कोई नहीं आया। कोख बेचैन होने लगा।

'भाड़ में जाए!' अचानक उसने जोर से कहा, बेचैन हो कर अपनी पहरा देने की जिम्मेदारी को सलाम किया और जल्दी-जल्दी भारी जूतों से, सीढ़ियों पर धप-धप की आवाज करता, नीचे उतर गया। उसके कदमों की आहट आनी बंद हो गई।

'हे भगवान! मैं अब क्या करूँ।'

रस्कोलनिकोव ने कुंडे में से हुक निकाला और दरवाजा खोला। कहीं कोई आवाज नहीं थी। एक झटके से, कुछ भी सोचे बिना, वह बाहर निकला और दरवाजा जितनी भी मजबूती से हो सका, बंद करके सीढ़ियों से नीचे उतरने लगा।

वह अभी तीन ही सीढ़ियाँ उतरा था कि अचानक उसे नीचे भारी शोर सुनाई दिया। अब वह कहाँ जाए छिपने की कोई जगह नहीं थी। उसे उसी फ्लैट में अब फिर वापस जाना था।

'वो रहा! पकड़ो बदमाश को।'

नीचेवाले फ्लैट से निकल कर कोई चिल्लाता हुआ भागा। लग रहा था कि वह भाग कर सीढ़ियाँ नहीं उतर रहा बल्कि उन पर से लुढ़क रहा है। वह अपनी पूरी आवाज से चिल्ला रहा था :

'मित्या! मित्या! मित्या1! रुक जा शैतान कहीं का।'

चिल्लाने की आवाज एक चीख में बदल कर खत्म हो गई। आखिरी आवाजें नीचे आँगन में से आईं और चारों तरफ शांति छा गई। लेकिन उसी पल कई लोग ऊँची आवाज में और जल्दी-जल्दी बातें करते हुए सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। तीन-चार आदमी थे। उसने नौजवान की गूँजती हुई आवाज पहचानी। 'वही लोग हैं!'

बच निकलने का कोई रास्ता न पा कर वह जान हथेली पर रखे सीधे उनकी तरफ बढ़ता रहा। यह सोच कर कि अब जो कुछ होना हो, हो ले! अगर उन लोगों ने उसे रोका तो बचने की कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि उन्हें उसकी सूरत तो याद ही रहेगी। वे पास आते जा रहे थे। अभी उससे एक ही मंजिल नीचे रह गए थे कि अचानक बचने की राह निकल आई! कुछ ही कदमों की दूरी पर दाहिनी ओर एक खाली फ्लैट था जिसका दरवाजा पूरा खुला हुआ था। दूसरी मंजिल का वही फ्लैट जहाँ पुताई करनेवाले काम कर रहे थे और गोया उसी की निजात के लिए, अभी-अभी वहाँ से चले गए थे। तय था कि अभी-अभी वे ही लोग चिल्लाते हुए भाग कर नीचे गए थे। उस मंजिल की अभी-अभी पुताई हुई थी, कमरे के बीच में एक बाल्टी थी और एक टूटा बर्तन रखा था, जिसमें रंग और ब्रश थे। चुटकी बजाते वह खुले हुए दरवाजे से अंदर जा पहुँचा और दीवार के पीछे छिप गया। पल भर की देर भी होती तो वह मारा जाता; वे लोग उस मंजिल पर पहुँच

1. द्मित्री का संक्षेप।

चुके थे। इसके बाद वे लोग मुड़े और जोर-जोर से बातें करते हुए चौथी मंजिल तक चढ़ते चले गए। कुछ देर राह देखने के बाद वह पंजों के बल चल कर बाहर निकला और भाग कर सीढ़ियाँ उतरने लगा।

सीढ़ियों पर कोई भी नहीं था, न कोई फाटक पर था। जल्दी से वह फाटक से बाहर निकला और बाईं ओर सड़क पर मुड़ गया।

वह जानता था, अच्छी तरह जानता था कि उस पल वे लोग उसी फ्लैट में थे, उसे खुला पा कर उन्हें बड़ा आश्चर्य हो रहा था क्योंकि अभी कुछ देर पहले तो दरवाजा अंदर से बंद था, कि अब वे लाशों को देख रहे थे, कि अभी मिनट भर में वे लोग अंदाजा लगा लेंगे और उन्हें पूरी तरह यह बात समझ में आ जाएगी कि हत्यारा अभी कुछ देर पहले वहाँ था, कि वह उन्हें चकमा दे कर भागा और कहीं जा कर छिप गया होगा। बहुत मुमकिन है, वे यह अटकल भी लगा लें कि जिस वक्त वे लोग ऊपर जा रहे थे, वह खाली फ्लैट में था। हालाँकि अगला मोड़ अब भी लगभग सौ गज दूर था, लेकिन उसे अपनी रफ्तार तेज करने का हौसला नहीं हो रहा था। 'क्यों न चुपके से किसी फाटक में घुस जाऊँ और वह हंगामा खत्म होने तक किसी सीढ़ी पर कुछ देर इंतजार करूँ। नहीं, ऐसा करना मुसीबत को बुलाना होगा। कुल्हाड़ी कहीं फेंक दूँ या एक द्राशकी (घोड़ागाड़ी) ले लूँ क्या करूँ!'

आखिर वह गली तक पहुँच गया। जब वह उधर मुड़ा तो जिंदा से ज्यादा मुर्दा था। वह सुरक्षा के सफर का आधा रास्ता तय कर चुका था और यह बात जानता था। यहाँ जोखिम कम था क्योंकि यहाँ बहुत से लोगों की रेलपेल थी, और उसमें वह समुद्र तट पर बालू के कण की तरह खो गया था। लेकिन उस पर जो कुछ बीत गई थी, उससे वह इतना कमजोर हो चुका था कि चला नहीं जा रहा था। पसीना बुरी तरह बह रहा था, गर्दन बिलकुल भीग गई थी। जब वह नहर के किनारे आ पहुँचा तो किसी ने ऊँची आवाज में कहा, 'जी भरके चढ़ा ली है, क्यों?'

अपने बारे में अब उसे बहुत धुँधली-सी चेतना ही रह गई थी। जितना ही वह आगे बढ़ता जा रहा था, उसकी हालत उतनी ही बुरी होती जा रही थी। लेकिन इतना उसे याद था कि जब वह नहर के किनारे पहुँचा तो वहाँ बहुत थोड़े से लोगों को देख कर डर गया था क्योंकि उनके बीच वह ज्यादा आसानी से पहचाना जा सकता था, और इसीलिए उसने गली में वापस लौट जाने की बात सोची थी। हालाँकि वह थकान के मारे निढाल हो रहा था लेकिन उसने काफी लंबा चक्कर लगाया और बिलकुल दूसरी तरफ से घर पहुँचा।

उसे इस बात की भी पूरी-पूरी चेतना नहीं थी कि कब वह अपने घर के फाटक से हो कर गुजरा, जब उसे कुल्हाड़ी का खयाल आया, वह सीढ़ियों पर पहुँच चुका था। लेकिन उसके सामने गंभीर समस्या यह थी कि कैसे उसे इस तरह वापस रखे कि जहाँ तक हो सके, कोई देख न पाए कि वह क्या कर रहा है। जाहिर है उसमें यह सोचने की तो क्षमता भी नहीं बची थी कि कुल्हाड़ी वापस न रख कर बाद में उसे किसी अहाते में फेंक आना कहीं ज्यादा बेहतर होगा।

लेकिन जो कुछ हुआ, अच्छा ही हुआ। दरबान की कोठरी का दरवाजा बंद था पर उसमें ताला नहीं लगा हुआ था। यही लगता था कि दरबान घर पर ही था। लेकिन रस्कोलनिकोव सोचने की शक्ति इस कदर खो चुका था कि सीधे दरवाजे तक पहुँचा और उसे खोल दिया। अगर दरबान पूछता कि 'क्या चाहिए' तो शायद वह उसे कुल्हाड़ी ही थमा देता। लेकिन इस बार भी दरबान घर पर नहीं था। उसने न सिर्फ कुल्हाड़ी बेंच के नीचे रख दी बल्कि पहले की तरह उस पर एक चैला भी रख दिया। बाद में अपने कमरे की ओर जाते हुए उसे कोई भी नहीं मिला, चिड़िया तक नहीं। मकान-मालकिन का दरवाजा भी बंद था। कमरे में पहुँच कर वह उसी तरह सोफे पर ढेर हो गया। सोया नहीं बल्कि खाली-जेहनी के गड्ढे में डूब गया। अगर तब कोई उसके कमरे में आता तो रस्कोलनिकोव उछल पड़ता और चीखने लगता। दिमाग में विचारों की धज्जियाँ झुंड बाँधे इधर-से-उधर मँडरा रही थीं, लेकिन वह लाख कोशिश करके भी किसी एक को पकड़ नहीं पा रहा था, किसी एक पर भी टिक नहीं पा रहा था...