अपराध और दंड / अध्याय 6 / भाग 8 / दोस्तोयेव्स्की

Gadya Kosh से
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उसने जब सोन्या के कमरे में कदम रखा तो अँधेरा हो चला था। दिनभर सोन्या बेचैनी से उसकी राह देखती आ रही थी। उसके साथ दूनिया भी उसकी राह देख रही थी -स्विद्रिगाइलोव की यह बात याद करके कि 'सोन्या को सब कुछ मालूम है', वह सबेरे ही वहाँ आ पहुँची थी। हम उन दोनों लड़कियों की बातचीत का या उनके आँसुओं का वर्णन नहीं करेंगे, न ही इसका कि उन दोनों में कितनी गहरी दोस्ती को गई। इस मुलाकात से दूनिया को कम-से-कम एक बात की तसल्ली तो हो गई थी, कि उसका भाई अकेला नहीं रहेगा। वह अपना अपराध स्वीकार करने सबसे पहले उसी के पास, सोन्या के पास, गया था। जब उसे इस बात की जरूरत महसूस हुई कि कोई इनसान उसके साथ हो तो उसको वह इनसान उसी की शक्ल में मिला था। लिहाजा वह जहाँ भी जाएगा, वह उसके साथ रहेगी। उसने यह बात पूछी तक नहीं : वह जानती थी कि ऐसा ही होगा। उसके मन में सोन्या के लिए एक तरह की श्रद्धा थी। शुरू में जब उसने सोन्या के प्रति अपनी श्रद्धा दिखाई थी तो सोन्या के कुछ अटपटा भी महसूस हुआ था, यहाँ तक कि उसकी आँखें भर आई थीं। इसलिए कि वह अपने आपको इस लायक भी नहीं समझती थी कि आँख उठा कर दूनिया की ओर देख भी सके। जब रस्कोलनिकोव के कमरे में पहली बार उन दोनों की मुलाकात हुई थी, दूनिया का उस वक्त का चित्र उसके मन पर हमेशा के लिए, जब उसने लगाव और सम्मान के भाव से झुक कर उसका स्वागत किया था, अब वह उसके जीवन की सबसे सुंदर सबसे अंतरंग स्मृतियों के रूप में अंकित था।

आखिरकार दूनिया के सब्र ने जवाब दे दिया और वह अपने भाई के ही कमरे में उसकी राह देखने के लिए सोन्या को उसके अपने कमरे में अकेला छोड़ कर चली गई। उसे लग रहा था कि वह पहले वहीं जाएगा। जैसे ही सोन्या अकेली रह गई, यह विचार उसे सताने लगा कि वह आत्महत्या कर लेगा। इसका डर दूनिया को भी था। लेकिन दिनभर वे दोनों एक-दूसरे को तरह-तरह के तर्कों के सहारे ढाँढ़स बँधाती रही थीं कि वह ऐसा नहीं कर सकता। लिहाजा जब तक वे दोनों साथ रहीं, तब तक वे बहुत ज्यादा चिंतित नहीं थीं। लेकिन जैसे ही वे एक-दूसरे से अलग हुईं, दोनों में से कोई भी इसके अलावा कुछ और सोच भी नहीं पा रही थी। सोन्या इस बात को भूल ही नहीं पा रही थी कि स्विद्रिगाइलोव ने कल उससे कहा था कि रस्कोलनिकोव के सामने दो ही रास्ते थे -साइबेरिया का या... इसके अलावा वह यह भी जानती थी कि वह कितना अहंकारी, घमंडी, स्वाभिमानी और अविश्वासी था। 'कहीं ऐसा तो नहीं कि बुजदिली और मौत का डर ही ऐसी चीजें हैं जो उसे जिंदा रख सकती हैं...' आखिरकार उसने घोर निराशा में डूब कर सोचा। इसी बीच सूरज डूब चला था। वह उदास मन से खिड़की के सामने खड़ी बाहर देख रही थी, लेकिन उसे बस सामने के घर की बे-पुती दीवार ही दिखाई दे रही थी। आखिरकार जब उसे उस अभागे की मौत का लगभग पूरा यकीन होने लगा था, तभी उसने उसके कमरे में कदम रखा।

सोन्या के मुँह से खुशी की चीख निकल गई। लेकिन इसके चेहरे को गौर से देखने के बाद उसका रंग अचानक पीला पड़ गया।

'लो,' रस्कोलनिकोव ने मुस्करा कर कहा, 'मैं तुम्हारी सलीबें लेने आ गया, सोन्या। तुम्हीं ने तो मुझसे चौराहे पर जाने को कहा था... इसलिए अब जबकि उसका वक्त आ गया है, तुम डर क्यों रही हो?'

सोन्या ने उसे हैरत से देखा। उसका लहजा कुछ अजीब-सा लगा। सोन्या की रीढ़ में सिहरन की एक लहर दौड़ गई। लेकिन पलभर बाद ही उसने महसूस किया कि न उसका लहजा सच्चा था, और न उसके शब्द। वह उससे बातें भी आँखें चुरा कर कर रहा था और कोशिश कर रहा था कि सीधे उसके चेहरे की ओर न देखना पड़े।

'देखो सोन्या, मैं तो इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि यह रास्ता शायद मेरे लिए ज्यादा फायदेमंद रहे। अलबत्ता एक बात है... लेकिन वह एक लंबी कहानी है और उसकी चर्चा से अब कोई खास फायदा भी नहीं। जानती हो, मुझे किस बात पर गुस्सा आ रहा है... मुझे इस बात पर झुँझलाहट हो रही है कि सारे बेवकूफ जंगली जानवर मुझे घेर कर खड़े हो जाएँगे, मुझे घूरेंगे, मुझसे अपने बेवकूफी भरे सवाल पूछेंगे, जिनका जवाब मुझे देना ही पड़ेगा - मुझ पर उँगलियाँ उठाएँगे... उफ! जानती हो, मैं पोर्फिरी के पास नहीं जा रहा हूँ; मैं उससे बेजार हो चुका हूँ। मैं समझता हूँ, बेहतर तो यही रहेगा कि मैं अपने पुराने दोस्त, उस लेफ्टिनेंट बारूदी के पास चला जाऊँ। कैसे चकराएगा वह मुझे देख कर! कैसी सनसनी फैलेगी! लेकिन मुझे शांत रहना होगा। मैं इधर कुछ दिनों से चिड़चिड़ा हो रहा हूँ। जानती हो, अभी-अभी मैंने अपनी बहन को लगभग मुक्का दिखा कर इसलिए धमकाया कि उसने आखिरी बार मुड़ कर मेरी ओर देखा था। ऐसी हालत में रहना ही कितना भयानक है! उफ, कितना पतन हो चुका है मेरा! तो लाओ, कहाँ हैं तुम्हारी सलीबें...'

लग रहा था वह अपने होश में नहीं है। वह किसी एक जगह मिनट भर शांत खड़ा भी नहीं रह सकता था और न ही किसी बात पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकता था। उसके विचार एक-दूसरे को दबोच कर आगे निकलते जा रहे थे। वह ऐसी बातें कह रहा था जो उसे नहीं कहनी चाहिए थीं। हाथ थोड़े काँप रहे थे।

सोन्या ने चुपचाप एक दराज में से दो सलीबें निकालीं। एक साइप्रेस की लकड़ी की और दूसरी ताँबे की। उसने उँगलियों से अपने सीने पर सलीब का निशान बनाया, फिर उसके सीने पर सलीब का निशान बनाया, और साइप्रेस की लकड़ी का सलीब उसे पहना दिया।

'तो यह प्रतीक है मेरे सलीब उठाने का हा-हा! जैसे मैंने अभी तक काफी मुसीबतें नहीं झेली हैं! साइप्रेस की लकड़ी का सलीब - जैसी कि आम लोग पहनते हैं। ताँबेवाली लिजावेता की है, और उसे तुम अपने लिए रखोगी! लाओ, देखूँ तो जरा। यानी कि इसे वह पहने हुए थी... उस वक्त इस वक्त मुझे ऐसी ही दो चीजों की याद आ रही है - एक चाँदी का सलीब और एक छोटी-सी मूर्ति। उस दिन उन्हें मैंने उस बुढ़िया की लाश पर फेंक दिया था। दरअसल इस वक्त तो मुझे उन्हें ही पहनना चाहिए था... लेकिन मैं बकवास कर रहा हूँ। असल बात मुझे नहीं भूलनी चाहिए। शायद मैं पूरी तरह खब्तुलहवास होता जा रहा हूँ! देखो सोन्या, मैं तुम्हें पेशगी बताने आया हूँ ताकि तुम्हें मालूम रहे... बस इतना ही कहना है मुझे... मैं इसीलिए आया था। (मैं सच-सच बता दूँ, मैंने सोचा था कि वैसे कुछ और भी कहूँगा।) लेकिन तुम तो खुद ही चाहती थीं कि मैं चला जाऊँ। तो मैं जेल भेजा जाऊँगा, और तुम जो चाहती थीं वह पूरा हो जाएगा। तुम भी रो रही हो... रहने भी दो! रोओ मत। उफ कितनी नाकाबिले-बर्दाश्त बात है!'

लेकिन उसकी भावनाएँ उबल पड़ीं; सोन्या को देख कर उसका दिल खून के आँसू रो उठा। 'आखिर क्यों,' उसने सोचा, 'वह आखिर इतनी परेशान क्यों है? उसका मैं कौन हूँ? भला वह रो क्यों रही है? मेरी माँ या दूनिया की तरह मुझसे विदा क्यों ले रही है? आगे चल कर वही तो मेरी देखभाल करेगी!'

'अपने सीने पर सलीब का निशान बना कर कम-से-कम एक बार तो प्रार्थना कर लो,' सोन्या ने काँपती हुई, डरी-डरी आवाज में उससे विनती की।

'क्यों नहीं, जरूर, तुम जितनी बार कहो! और बड़ी ईमानदारी से सोन्या, सच्चे दिल से...'

दरअसल वह कुछ और ही कहना चाहता था।

उसने अपने सीने पर सलीब का निशान कई बार बनाया। सोन्या ने झपट कर शाल उठा ली और अपने सर पर डाल ली। हरे रंग की ऊनी शाल थी-शायद वही जिसका जिक्र मार्मेलादोव ने रस्कोलनिकोव से किया था, 'उस परिवार की शाल।' यह विचार बिजली की तरह रस्कोलनिकोव के दिमाग में कौंधा, लेकिन उसने कुछ पूछा नहीं। सचमुच वह खुद ही महसूस करने लगा था कि वह कितना अनमना और किसी वजह से काफी चिंतित रहने लगा था। वह डर गया। अचानक उसके दिमाग में यह बात भी आई कि सोन्या उसके साथ जाने का इरादा रखती है।

'कहाँ? तुम कहाँ जा रही हो? यहीं रहो तुम, मैं अकेला ही जाऊँगा!' उसने झुँझला कर डूबते दिल के साथ कहा और जोश में आ कर दरवाजे की ओर लपका। 'मैं वहाँ पूरी फौज ले जा कर क्या करूँगा...' बाहर जाते-जाते वह बुदबुदाया।

सोन्या कमरे के बीच में खड़ी रही। रस्कोलनिकोव ने उससे विदा तक नहीं ली। वह गोया उसे भूल चुका था। एक कड़वाहट में डूबी विद्रोही और शंका उसे झिंझोड़ रही थी।

'मैं ठीक कर रहा हूँ क्या? यह सब मुझे करना चाहिए क्या?' सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए उसके मन में ये सवाल उठे। 'क्यों न मैं यहीं रुक कर सारा किस्सा निबटा लूँ... और न जाऊँ?'

लेकिन इसके बावजूद वह गया। अचानक यह विश्वास उसके मन में बैठ चुका था कि सवालों का समय बीत चुका है। बाहर सड़क पर पहुँच कर उसे याद आया कि उसने सोन्या से विदाई का सलाम भी नहीं कहा था और उसे हरी शाल ओढ़े कमरे के बीच में खड़ा छोड़ आया था। बेचारी की हिलने तक की हिम्मत नहीं हुई थी क्योंकि वह उस पर चीख पड़ा था। यह याद आते ही वह पल भर को ठिठका। लेकिन उसी पल उसके दिमाग में एक और विचार उठा। लगा कि यह विचार उस पर अंतिम और घातक वार करने की ताक में दुबका बैठा था।

'भला इस वक्त मैं उससे मिलने गया ही क्यों? मैंने उससे कहा कि मैं काम से आया हूँ। भला कौन-सा काम? उससे काम तो मुझे कोई भी नहीं था! यह बताने के लिए कि मैं जा रहा हूँ... क्यों? यह जरूरी था क्या? क्या मैं उसे प्यार करता हूँ? एकदम नहीं! अभी तो मैं उसे कुत्ते की तरह दुतकार कर आया हूँ। या मैं सचमुच ही वे सलीबें लेना चाहता था उफ, मैं भी कितना पतित हो चुका हूँ! नहीं! मुझे जरूरत थी तो उसके आँसुओं की। मैं उसको दहशत में गिरफ्तार देखना चाहता था; यह देखना चाहता था कि उसका दिल कैसे दुखता है और कैसे खून के आँसू रोता है! मुझे किसी ऐसी चीज की जरूरत थी, जिससे मैं चिपक सकूँ ताकि मुझे कुछ और मोहलत मिल सके, ताकि मैं किसी इनसान को देख सकूँ! और मुझे अपने आप पर इतना भरोसा था! मैं अपने आपको भल समझता क्या था। मैं हूँ एक भिखारी, एक नीच अभागा जो किसी काम का नहीं है, जो कमीना है।'

वह नहर के बंध के किनारे-किनारे चला जा रहा था। उसे अब बहुत दूर नहीं जाना था। लेकिन पुल पर पहुँच कर वह एक पल के लिए रुका और इरादा बदल कर, पुल पार करके भूसामंडी पहुँच गया।

वह उत्सुकता से चारों ओर देख रहा था। कभी दाहिनी ओर देखता, कभी बाईं ओर। रास्ते में पड़नेवाली हर चीज को वह गौर से देखने की कोशिश कर रहा था, लेकिन किसी भी चीज पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा था। हर चीज उसकी पकड़ से निकल जाती थी। 'हफ्तेभर में या महीनेभर में मुझे जेल की गाड़ी में बिठा कर इसी पुल से हो कर कहीं ले जाया जाएगा... तब मैं इस नहर को किस तरह देखूँगा... क्या यह सब मुझे याद आएगा?' उसके दिमाग में यह विचार बिजली की तरह कौंधा। 'मिसाल के लिए, वह साइनबोर्ड। उन अक्षरों को उस वक्त मैं किस तरह पढूँगा उस पर लिखा है : कंपनी। अगर मैं इस अक्षर क को याद कर लूँ, और महीनेभर बाद इसी को, इसी अक्षर क को, फिर देखूँ तो उस वक्त इसे मैं किस तरह देखूँगा मैं तब क्या महसूस कर रहा हूँगा और क्या सोच रहा हूँगा... हे भगवान, यह सब कुछ कितना तिरस्कार योग्य लगेगा। इस वक्त की ये सारे... अंदेशे कैसे लगेंगे। अलबत्ता यह सब काफी दिलचस्प है... एक तरह से (हा-हा-हा! जिन चीजों के बारे में मैं इस वक्त सोच रहा हूँ) ...मैं भी एक बच्चे की तरह हूँ - अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बन रहा हूँ। लेकिन अपने आपको मैं ताना किस बात का दे रहा हूँ? हे भगवान, ये लोग धक्का क्यों देते हैं! उस मोटे ने - शायद जर्मन है - अभी मुझे धक्का दिया - उसे मालूम है क्या कि उसने किसे धक्का दिया? बच्चे के साथ उस किसान भिखारिन को देखो, शायद वह मुझे अपने से ज्यादा भाग्यशाली समझ रही होगी। इसे कुछ दे क्यों न दूँ, बस यह देखने के लिए कि वह करती क्या है अच्छा, यह रहा पाँच कोपेक का सिक्का मेरी जेब में। समझ में नहीं आता कि यहाँ पहुँचा कैसे... लो माई, यह लो!'

'जुग-जुग जियो साहब, भगवान तुम्हारा भला करे!' भिखारिन की काँपती आवाज सुनाई पड़ी।

वह भूसामंडी में गया। उसे लोगों के बीच घिरे होने से चिढ़ थी... सख्त चिढ़। लेकिन इस वक्त वह जान-बूझ कर उसी जगह गया जहाँ सबसे ज्यादा भीड़ थी। तनहाई पाने के लिए वह सारी दुनिया की दौलत लुटा सकता था, लेकिन अभी वह यही महसूस कर रहा था कि वह एक मिनट के लिए भी तनहाई को झेल नहीं सकता था। भीड़ में एक आदमी, शराब के नशे में चूर, अपनी हरकतों से सबका ध्यान अपनी ओर खींचे हुए था। वह नाचने की कोशिश कर रहा था, लेकिन हर बार जब वह ठुमका लगाने के लिए पाँव चलता था, तो धड़ाम से गिर पड़ता था। लोग उसके चारों ओर भीड़ लगाए खड़े थे। रस्कोलनिकोव भीड़ को चीरता हुआ आगे बढ़ा, कई मिनट तक उस शराबी को देखता रहा, और अचानक जरा-सा हँसा। एक ही पल बाद वह उसके बारे में सब कुछ भूल चुका था और वह उसे दिखाई भी नहीं दे रहा था, हालाँकि वह अपनी नजरें उसी पर जमाए हुए था । आखिरकार वह वहाँ से चला गया... उसे यह भी याद नहीं था कि वह कहाँ था। लेकिन जब वह चौक के बीच में पहुँचा तो यकबयक उसे एक जोरदार जज्बे ने आ दबोचा और पूरे शरीर पर उसकी आत्मा पर छा गया।

अचानक उसे सोन्या के शब्द याद आए : 'जाओ, चौराहे पर खड़े हो जाओ, लोगों के आगे सर झुकाओ, धरती को चूमो क्योंकि तुमने उसे अपवित्र किया है और फिर सारी दुनिया के सामने चीख कर कहो कि मैं हत्यारा हूँ!' ये शब्द याद आते ही वह सर से पाँव तक काँप उठा। तब वह अपनी निराशा और अपनी तनहाई की भावना के, उन तमाम दिनों के लेकिन खास तौर पर पिछले कुछ घंटों की उस गहरी चिंता के भारी बोझ के नीचे इस कदर दब चुका था कि उसने झपट कर इस नए और अदम्य जज्बे की पनाह ले ली। इस जज्बे ने उसे इस तरह यकायक दबोच लिया था जैसे उसे कोई दौरा पड़ा हो। यह उसकी आत्मा में एक चिनगारी की तरह भड़का और फिर एक शोले की तरह उसके पूरे शरीर में छा गया। उसके अंदर हर चीज अचानक पिघल गई और उसकी आँखों में आँसू उबल पड़े। वह जहाँ खड़ा था, वहीं जमीन पर धड़ाम हो गया...

उसने चौक के बीच घुटनों के बल बैठ कर धरती पर सर झुकाया और आनंद और मस्ती में आ कर वहाँ की गंदी धरती को चूम लिया। फिर वह उठा और एक बार फिर सर झुकाया।

'पिए हुए है,' पास खड़े एक लड़के ने कहा।

लोग कहकहे मार कर हँस पड़े।

'यरूशलम जा रहा है, छोकरो, और अपने बच्चों से और अपने देश से विदा ले रहा है। सारी दुनिया के आगे सर झुका रहा है और राजधानी सेंट पीतर्सबर्ग को, उसकी धरती को चूम रहा है,' एक शराबी ने मस्ती में आ कर टुकड़ा लगाया।

'अभी तो कमउम्र नौजवान ही है!' कोई तीसरा बोला।

'लगता तो किसी शरीफ घर का है,' किसी ने गंभीर स्वर में कहा।

'कोई नहीं बता सकता आजकल कि शरीफ घर का कौन है और कौन नहीं है।'

इन सब टिप्पणियों और वक्तव्यों को सुन कर रस्कोलनिकोव रुक गया, और उसके मुँह से 'मैं हत्यारा हूँ' के जो शब्द निकलनेवाले थे वे उसके होठों तक आ कर ही दम तोड़ बैठे। फिर भी वह इन टिप्पणियों को सुन कर शांत रहा, और अपने चारों ओर देखे बिना ही वह थाने की ओर एक गली में मुड़ गया। रास्ते में उसकी नजर किसी ऐसी चीज पर पड़ी जिससे उसे कोई हैरानी नहीं हुई। उसे पहले से ही एहसास था कि ऐसा ही होगा। भूसामंडी में जब वह दूसरी बार धरती पर झुका था तब उसने बाईं ओर निगाह जाने पर देखा था कि सोन्या कोई पचास कदम पर खड़ी थी और चौक में बनी लकड़ी की झोंपड़ियों में से एक की आड़ ले कर उसकी नजरों से छिपने की कोशिश कर रही थी। तो वह उसके इस पूरे दुखदायी रास्ते में उसके साथ-साथ रही! उसी पल रस्कोलनिकोव ने महसूस किया और समझ लिया कि सोन्या हमेशा उसके साथ रहेगी, कि उसकी किस्मत उसे दुनिया के जिस कोने में भी ले जाए, सोन्या उसके पीछे-पीछे आएगी। उसका दिल मसोस उठा... लेकिन - अब वह अपनी मंजिल पर पहुँच चुका था...

काफी तेजी से चलता हुआ वह दालान में जा पहुँचा, जहाँ से उसे सीढ़ियाँ चढ़ कर तीसरी मंजिल पर जाना था। 'ऊपर जाने में तो और भी वक्त लगेगा,' उसने सोचा। आमतौर पर उसे लग रहा था कि वह जानलेवा पल अभी बहुत दूर है, कि अभी उसके पास बहुत सारा वक्त है, और यह कि इसी बीच वह सारे किस्से पर सोच-विचार करके अपना इरादा बदल सकेगा।

फिर वही कचरा, चक्करदार सीढ़ियों पर फिर वही अंडों के छिलके, फिर वही फ्लैटों के पूरे खुले हुए दरवाजे, फिर वही रसोईघर जिनसे खाना पकाने की बदबू और भभक आ रही थी। रस्कोलनिकोव उस दिन के बाद से यहाँ नहीं आया था। उसकी टाँगें सुन्न पड़ गईं और जवाब देने लगीं। लेकिन वह आगे बढ़ता रहा। दम लेने के लिए, अपने आपको सँभालने के लिए, मर्द की तरह अंदर जाने के लिए वह एक पल को रुका। 'लेकिन क्यों? किसलिए?' यह महसूस करके कि वह किसलिए रुका था, उसने अचानक सोचा। 'अगर मुझे जहर का प्याला ही पीना है, तो क्या फर्क पड़ता है जितनी ही दुर्गति हो, उतना ही अच्छा।' एक पल के लिए लेफ्टिनेंट बारूदी की शक्ल बिजली की तरह उसके दिमाग में उभरी और गायब हो गई। 'क्या मुझे सचमुच उसके पास जाना चाहिए? क्या मैं किसी और के पास नहीं जा सकता मिसाल के लिए, पुलिस सुपरिंटेंडेंट के पास क्यों न मैं अभी लौट पड़ूँ और सीधा पुलिस सुपरिंटेंडेंट के घर चला जाऊँ... कम-से-कम, वहाँ सब कुछ दीवारों के पीछे तो होगा... नहीं! बारूदी... लेफ्टिनेंट बारूदी के पास! अगर उसे पीना ही है, तो यह सारा जहर एक ही घूँट में पीना होगा...'

कातर भाव से उसने थाने का दरवाजा खोला। उसे ठीक से पता भी नहीं था कि वह क्या कर रहा है। उस वक्त वहाँ कम ही लोग थे - बस एक दरबान और एक मजदूर। चौकीदार ने अपनी ओट के पीछे से झाँक कर भी नहीं देखा। रस्कोलनिकोव अगले कमरे में चला गया। 'शायद अब भी मौका है कि मैं कुछ न कहूँ,' वह सोचता रहा। फ्राककोट पहने वहाँ का एक क्लर्क यानी कि जो पुलिस की वर्दी में नहीं, मेज पर बैठा कुछ लिख रहा था। कमरे में कोने में एक दूसरा क्लर्क अपनी मेज पर बैठने जा रहा था। जमेतोव वहाँ नहीं था, और जाहिर है पुलिस सुपरिटेंडेंट भी वहाँ नहीं था।

'कोई नहीं है क्या?' रस्कोलनिकोव ने उस क्लर्क से पूछा जो मेज पर बैठा कुछ लिख रहा था।

'मिलना किससे है?'

'आ-ह! किसी ने उसे कभी सुना नहीं, कभी देखा नहीं, लेकिन रूसी अंतरात्मा ...परियों की कहानी में यह बात कैसे कही गई है ...मैं भूल गया!'

'कैसे हो तुम?' एक जानी-पहचानी आवाज ने अचानक जोर से कहा।

रस्कोलनिकोव चौंका। लेफ्टिनेंट बारूदी उसके सामने खड़ा था। वह तीसरे कमरे से निकल कर वहाँ आया था। 'इसे होनी कहते हैं!' रस्कोलनिकोव ने सोचा। 'यह यहाँ क्यों है?'

'तुम? क्या काम है?' सहायक सुपरिंटेंडेंट ऊँची आवाज में बोला। (वह बहुत जोश में मालूम होता था; शायद उसने थोड़ा-सी पी हुई भी थी।) 'अगर किसी काम से आए हो, तब तो अभी समय भी नहीं हुआ। मैं तो यहाँ इत्तफाक से ही मौजूद हूँ... लेकिन मैं खुशी से कोई भी मदद करने को तैयार हूँ। एक बात माननी पड़ेगी, मैं... क्या था... क्या था माफ करना, मैं...'

'मैं रस्कोलनिकोव...'

'जानता हूँ, तुम रस्कोलनिकोव हो! तुम समझे कि मैं तुम्हें भूल गया यह न समझना कि मैं ऐसा हूँ... आँ... रोदिओन रो... रो... रोदिओनिच, यही नाम है न?'

'रोदिओन रोमानोविच।'

'अरे हाँ, रोदिओन रोमानोविच... रोदिओन रोमानोविच! यही मैं याद करने की कोशिश कर रहा था! जानते हो, मैं तुम्हारे बारे में जाँच भी कर चुका। सचमुच मुझे बेहद अफसोस है कि तब हम-तुम... आँ... बात मुझे बाद में समझाई गई, मेरा मतलब है, मैंने पता लगाया कि तुम एक नौजवान लेखक हो... और विद्वान भी हो... मैं समझता हूँ, अभी शुरू ही कर रहे हो... भगवान जानता है, कौन-सा साहित्यकार... आँ... विद्वान ऐसा है, जिसने शुरू-शुरू में कोई ऐसा काम न किया हो! तो साहब, मेरी बीवी और मैं साहित्य को इज्जत की नजर से देखते हैं और मेरी बीवी पर तो उसका काफी जोश सवार रहता है! ...साहित्य और कला की! असल शर्त तो बस यह है साहब कि आदमी शरीफ घर का हो, बाकी सब कुछ तो बड़ी आसानी से प्रतिभा, विद्या बुद्धि और मेधा से हासिल किया जा सकता है! मेरा मतलब... मिसाल के लिए हैट को ही ले लीजिए। हैट क्या चीज है कुछ भी नहीं। आप जिस हैट का भी नाम लें, मैं जिम्मरमान के यहाँ से खरीद सकता हूँ। लेकिन जो चीज हैट के नीचे होती है, साहब हैट जिस चीज को ढक कर और सुरक्षित रखता है, उसे मैं नहीं खरीद सकता... सच बताऊँ, मैं तुम्हारे यहाँ आ कर तुमसे माफी भी माँगना चाहता था, लेकिन... आँ... सोचा कि शायद तुम... आँ... लेकिन, भगवान जाने, मैं तुमसे यह क्यों नहीं पूछता कि तुम भला किसलिए आए हो... सचमुच तुम्हें कुछ चाहिए? मैंने सुना है कि तुम्हारे परिवारवाले तुमसे मिलने आए हैं।'

'जी हाँ, मेरी माँ और बहन।'

'तुम्हारी बहन से मिलने का सौभाग्य मुझे मिल चुका है... बहुत ही सुशील, पढ़ी-लिखी और खूबसूरत लड़की है। सच कहता हूँ, मुझे बेहद अफसोस है कि उस दिन हमारी झड़प हुई। बहुत ही अजीबोगरीब बात थी! और फिर मैं... आँ... तुम्हें गश आ जाने की वजह से एक अजीब-सी बात मेरे दिमाग में बैठ गई और मैं तुम्हें कुछ... आँ... बहरहाल, बाद में सारी गुत्थियाँ काफी अच्छी तरह सुलझ गईं। जुनून और कट्टरता! तुम्हारा गुस्सा मैं पूरी तरह समझ रहा हूँ। परिवार के लोगों के आने की वजह से पता बदलवाने तो नहीं आए?'

'न-हीं, मैं तो यूँ ही आ गया था... मैं पूछने आया था... सोचा था, जमेतोव शायद यहीं हो।'

'ओह, तो यह बात है! तुम्हारी और उसकी दोस्ती हो गई है, है न मैंने सुना था इसके बारे में। मगर जमेतोव तो यहाँ नहीं है। तुम जरा देर से आए। मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि वह अब हमारे यहाँ काम नहीं करता। कल से उसने यहाँ काम करना छोड़ दिया। उसने अपनी बदली करवा ली... और मुझे अफसोस के साथ यह भी कहना पड़ रहा है कि जाने से पहले वह जम कर यहाँ सबसे लड़ा... एक ही बौडम आदमी था, और कुछ नहीं। पर एक बात है, आदमी था होनहार... लेकिन बस! बस हमारे आजकल के इन होनहार नौजवानों का कोई क्या करे! सुना है वह किसी इम्तहान में बैठना चाहता है; लेकिन मैं समझता हूँ कि वह इसकी चर्चा कर-करके सबका दिमाग चाटेगा, इसके बारे में डींग हाँकता फिरेगा और फिर यहीं उसका इम्तहान खत्म हो जाएगा। हाँ... तुम्हारी या तुम्हारे मिस्टर रजुमीखिन दोस्त की बात दूसरी है! तुम लोगों को आगे चल कर विद्वानों का जीवन बिताना है... एक या दो बार नाकाम हो जाने से यकीनन तुम लोगों की हिम्मत नहीं टूटेगी! तुम लोगों के लिए जिंदगी की... आँ... ये सारी सजावटी चीजें गोया कि हैं ही नहीं कि नहीं, जिसे कहते हैं तुम लोग जोगी हो, साधु-संन्यासी हो! ...तुम्हें तो बस इसकी फिक्र रहती है कि किताब हो, कान पर कलम हो, और शोध का काम हो, यहीं तो तुम्हारी आत्मा को उड़ानें भरने का मौका मिलता है! मैं खुद थोड़ा-थोड़ा... तुमने लिविंगस्टन का यात्रा-वृत्तांत पढ़ा है?'

'नहीं।'

'मैंने पढ़ा है। मगर आजकल बहुत से शून्यवादी घूमते रहते हैं। लेकिन, जाहिर है, और उम्मीद ही क्या की जाए मैं तुमसे कहता हूँ, हम लोग जिस तरह के जमाने में रहते हैं उसे देखो। फिर भी, मैं तुमसे एकदम साफ कहता हूँ... आँ ...तुम खुद तो शून्यवादी नहीं हो? मुझे साफ-साफ बता दो, एकदम साफ-साफ!'

'न-हीं...'

'नहीं न! तो देखो, तुम मुझसे खुल कर बातें कर सकते हो। किसी तरह का कोई संकोच महसूस करने की जरूरत नहीं, मुझसे वैसे ही बातें करो जैसे खुद से करते। नौकरी एक चीज है और... तुम समझे, मैं कहने जा रहा हूँ कि दोस्ती है न नहीं, यह बात नहीं है! नहीं, दोस्ती नहीं, बल्कि इनसान की, एक नागरिक की भावना, इनसानियत की भावना और ईश्वर की लगन। भले ही मैं अफसर की हैसियत से ड्यूटी पर हूँ, लेकिन मुझे हमेशा यह बात याद रखनी चाहिए कि मैं भी एक इनसान, एक नागरिक हूँ, और मुझे अपने हर काम के लिए जिम्मेदार होना चाहिए। तुमने अभी-अभी जमेतोव का जिक्र किया। तो जमेतोव के बारे में तो यकीन के साथ कहा जा सकता है कि वह किसी बदनाम अड्डे में शैंपेन या रूसी शराब पीते वक्त फ्रांसीसी ढंग से स्कैंडल जरूर खड़ा करेगा... यह जमेतोव है ही ऐसा! लेकिन मैं, तो जनाब हमेशा, समझ लीजिए, अपने फर्ज का भी पाबंद रहा हूँ और मेरी भावनाएँ भी हमेशा बहुत ऊँचे दर्जे की रही हैं। इसके अलावा मेरी कुछ हैसियत भी है, मेरे पास ओहदा है और नौकरी है! बीवी-बच्चे हैं। मैं एक इनसान की हैसियत से और एक नागरिक की हैसियत से अपना फर्ज निभा रहा हूँ, लेकिन क्या मैं पूछ सकता हूँ कि वह कौन है? मैं यह बात इसलिए कह रहा हूँ कि शिक्षा ने तुम्हारी भावनाओं को निखारा है। इसके अलावा इधर हाल में ये दाइयाँ भी तेजी से बढ़ती जा रही हैं।'

रस्कोलनिकोव ने जिज्ञासा से अपनी भौहें सिकोड़ीं। सहायक सुपरिंटेंडेंट के मुँह से-जाहिर था कि अभी वह खाना खा कर आ रहा था - शब्द इस तरह धाराप्रवाह निकल रहे थे कि रस्कोलनिकोव को ज्यादातर खोखली आवाजों जैसे लग रहे थे। लेकिन उनमें से कुछ का मतलब थोड़ा-थोड़ा उसकी समझ में जरूर आया। उसने अफसर को सवालिया नजरों से देखा क्योंकि वह समझ नहीं पा रहा था कि वह कहना क्या चाहता था।

'मैं छोटे बालोंवाली उन नौजवान लड़कियों की बातें कर रहा हूँ,' बातूनी सहायक बोलता रहा, 'मैंने उनको दाइयाँ नाम दिया हुआ है, और मेरी समझ में यह नाम बेहद मुनासिब है। ही-ही! वे अकादमी में भरती हो जाती हैं और शरीर-रचना विज्ञान पढ़ती हैं। तुम क्या सचमुच यह समझते हो कि मैं कभी बीमार पड़ा तो अपना इलाज कराने के लिए इनमें से किसी को बुलाऊँगा... ही-ही!'

सहायक सुपरिंटेंडेंट दिल खोल कर हँसा। अपने इन छोटे-छोटे मजाकों पर उसे खुद ही बहुत मजा आ रहा था।

'देखो, मैं मानता हूँ कि ज्ञान की प्यास कभी नहीं बुझती; सो थोड़ा-सा ज्ञान प्राप्त करके ही संतोष लेना चाहिए! उसका दुरुपयोग क्यों किया जाए? इज्जतदारों को बेइज्जत क्यों किया जाए, जैसा कि वह लुच्चा जमेतोव करता है मैं पूछता हूँ जनाब, उसने क्यों भला मेरी बेइज्जती की? फिर आए दिन ये खुदकुशी के मामले भी आते रहते हैं... तुम सोच भी नहीं सकते कि इधर हाल में ये कितने बढ़ गए हैं। ये लोग अपनी आखिरी कौड़ी तक फूँक देते हैं और फिर अपने भेजे में गोली मार कर मर जाते हैं। लड़के, लड़कियाँ और बूढ़े, सभी... आज सबेरे ही इसी तरह का एक मामला हमारे सामने आया। एक साहब अभी कुछ ही अरसा हुआ इस शहर में आए थे; निल पेत्रोविच!' उसने दूसरे कमरे में किसी को पुकार कर पूछा, 'निल पेत्रोविच, क्या नाम था उस बंदे का जिन्होंने आज सबेरे पीतर्सबर्गस्की द्वीप में अपने को गोली मार ली थी?'

'स्विद्रिगाइलोव,' किसी ने दूसरे कमरे से लापरवाही के लहजे में, भर्राई हुई आवाज में जवाब दिया।

रस्कोलनिकोव चौंक उठा।

'स्विद्रिगाइलोव!' वह चीखा। 'स्विद्रिगाइलोव ने अपने को गोली मार ली!'

'क्यों?' तुम इस स्विद्रिगाइलोव को जानते थे क्या?

'हाँ... मैं जानता था... वे यहाँ कुछ ही अरसा हुआ आए थे...'

'ठीक वही। मैं जानता हूँ, वे यहाँ कुछ दिन पहले ही आए थे। उनकी बीवी अभी हाल ही में मरी हैं। सुना है, बहुत बदचलन आदमी थे, और अब अपने को गोली मार ली। सो भी ऐसी शर्मनाक हालत में कि कोई सोच भी नहीं सकता... अपनी नोटबुक में एक छोटा-सा संदेश लिख कर छोड़ गए हैं कि जब मरने जा रहे थे तो पूरी तरह होश में थे। उन्होंने किसी को अपनी मौत के लिए दोषी भी नहीं ठहराया है। सुना है बहुत पैसेवाले आदमी थे। तुम उन्हें कहाँ से जानते हो?'

'मैं... जानता था... मेरी बहन उसके यहाँ बच्चों को पढ़ाने का काम करती थी...'

'खूब! क्या कहने! तब तो हमें तुम उसके बारे में कुछ बता सकते हो। तुम्हें किसी तरह का कोई शक तो नहीं था?'

'मैं उनसे कल ही मिला था... वे... शराब पी रहे थे... मुझे तब इस तरह का कोई खयाल भी नहीं था।'

रस्कोलनिकोव को लगा, कोई भारी बोझ उसके ऊपर आ गिरा है और उसने उसे जमीन पर गिरा कर बुरी तरह दबा रखा है।

'लो, तुम्हारा रंग फिर उड़ गया। यहाँ शायद घुटन काफी है...'

'जी हाँ, मैं समझता हूँ, अब मुझे चलना चाहिए,' रस्कोलनिकोव ने बुदबुदा कर कहा। 'माफ कीजिएगा, मैंने आपको तकलीफ दी...'

'बिलकुल नहीं! मैं तो कहूँगा कि मुझे बड़ी खुशी हुई...' सहायक सुपरिंटेंडेंट ने अपना हाथ तक आगे बढ़ा दिया।

'मैं... मैं तो जमेतोव से मिलने आया था...'

'मैं समझ गया, और मैं... खुशी हुई तुमसे मिल कर।'

'मुझे भी बहुत हुई... तो मैं चला,' रस्कोलनिकोव ने मुस्करा कर कहा।

वह बाहर निकल गया। उससे सीधे चला नहीं जा रहा था। सर चकरा रहा था और टाँगें सुन्न पड़ रही थीं। दाहिने हाथ से दीवार का सहारा ले कर वह सीढ़ियाँ उतरने लगा। उसे एहसास हुआ कि एक दरबान, हाथ में रजिस्टर लिए हुए उसे धक्का दे कर सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ ऊपर थाने की ओर चला गया। उसे यह भी एहसास हुआ कि नीचे कहीं पहली मंजिल पर एक कुत्ता भूँक-भूँक कर कान खाए जा रहा था। एक औरत ने उसे बेलन फेंक कर मारा था और अब चीख रही थी। सीढ़ियाँ उतर कर वह नीचे दालान में पहुँच गया। वहाँ, फाटक के पास, सोन्या खड़ी थी। उसका चेहरा मुर्दों की तरह पीला था और वह फटी आँखों से उसे देख रही थी। वह उसके सामने जा कर रुक गया। सोन्या के चेहरे पर निराशा का दारुण भाव उभरा। वह अपने दोनों हाथ उठा कर रह गई। रस्कोलनिकोव के होठों पर एक फीकी-सी और लिजलिजी मुस्कराहट मँडरा रही थी। वह पलभर चुपचाप खड़ा मुस्कराता रहा, और फिर थाने में चला गया।

सहायक सुपरिंटेंडेंट अपनी मेज पर बैठा कुछ कागज उलट-पुलट रहा था। वही दरबान, जिसने सीढ़ियों पर रस्कोलनिकोव को धक्का दिया था, उसके सामने खड़ा था।

'अ-रे! फिर आ गए! यहाँ कुछ भूल गए थे क्या? लेकिन बात क्या है?'

रस्कोलनिकोव के होठ पीले पड़ रहे थे और वह निश्चल आँखों से सामने घूर रहा था। धीरे-धीरे आगे बढ़ता हुआ वह मेज के पास पहुँचा, एक हाथ उस पर टिका कर झुका, कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन कह न सका। मुँह से कुछ उखड़ी-उखड़ी आवाजें ही निकलीं।

'तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है! कुर्सी! यह लो, कुर्सी पर बैठ जाओ! पानी!'

रस्कोलनिकोव धम से कुर्सी पर बैठ गया, लेकिन उसने अपनी नजरें सहायक सुपरिंटेंडेंट पर से नहीं हटाईं, जिसके चेहरे पर बेजारी और हैरत का भाव झलक रहा था। पलभर दोनों एक-दूसरे को चुपचाप देखते रहे और इंतजार करते रहे। पानी आ गया।

'मैंने ही...' रस्कोलनिकोव ने कहना शुरू किया।

'लो, थोड़ा-सा पानी पी लो।'

रस्कोलनिकोव ने हाथ से गिलास दूर हटा दिया और धीमी आवाज में लेकिन साफ-साफ, हर शब्द पर ठहरते हुए कहा :

'उस सूदखोर बुढ़िया और उसकी बहन लिजावेता का कुल्हाड़ी से खून मैंने ही किया था और उनके यहाँ डाका डाला था।'

सहायक सुपरिंटेंडेंट हक्का-बक्का रह गया। लोग चारों ओर से दौड़ पड़े।

रस्कोलनिकोव ने अपना बयान फिर दोहराया...।