अपुन का मंटो: पाकदिल, सियाहक़लम, अपूर्व, अप्रतिम, अखंड / रविकान्त

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मंटो ने रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए कला की कोई भी दिशा चुनी हो, हंगामा किसी न किसी तरह अवश्य हुआ। ---बलराज मेनरा व शरद दत्त

कोई सत्तावन साल पहले महज़ बयालीस की उम्र में तक़सीम-ए-हिन्द और शराबनोशी के मिले-जुले असर से अकालकालकवलित मंटो आज सौ का होने पर भी उतना ही हरदिलअज़ीज़ है, जितना हैरतअंगेज़, उतना ही लुत्फ़अंदोज़ है, जितना तीरेनीमेकश। शायद आज भी उतना ही मानीख़ेज़। बल्कि यूँ मालूम होता है कि वक़्त के साथ उसके अनपढ़ आलोचकों की तादाद कम होती गई है और पिछले दो-तीन दशकों में मुख़्तलिफ़ विधाओं में पसरे उसके लघु-कथाओं व बड़े अफ़सानों, मज़ामीन, रेडियो नाटकों, मंज़रनामों, ख़तों, फ़िल्मी संस्मरणों और अनुवादों के बारीकतरीन पाठों का सिलसिला थमने की जगह ज़ोर पकड़ने लगा है। और पाठ-पुनर्पाठ की ये धारा सिर्फ़ उर्दू या हिन्दी में ही नहीं, बल्कि अंग्रेज़ी में भी मुसलसल बह निकली है। जिसके बूते दक्षिण एशिया का यह अप्रतिम कहानीकार अब समस्त दुनिया की एक नायाब धरोहर बन गया है। यह वाजिब भी है क्योंकि मंटो के अदब व फ़लसफ़े में पश्चिम व पूर्व का अद्भुत संगम हुआ। मोपासाँ, चेखव व गोर्की वग़ैरह से उसने अगर तुला हुआ, मुख़्तसर अंदाज़े-बयान सीखा तो एशियाई माहिरों से रस बरसाने वाली दास्तानगोई का चमत्कार, और तफ़्सीलात का इज़हार। अपनी शैली में आधुनिक होकर भी वह सांस्कृतिक तौर पर लोकस्थित और राजनीतिक तौर पर लोकोन्मुख लेखक था, वैसे ही जैसे लाहौर, पाकिस्तान जाकर भी अनबँटा बंबइया हिन्दुस्तानी रहा। देशभक्ति, तरक़्क़ी, आज़ादी, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान, स्वराज, नवनिर्माण जैसे नारों और तहरीक़ों को उसने नारों और तहरीक़ों की ही तरह लिया, आप्त वाक्य या आख़िरी मंज़िल के रूप में नहीं। पंडित नेहरू और चचा सैम को उसने एक-साथ आड़े हाथों लिया। विचारधाराओं और अस्मिताओं की इतनी बड़ी और बेशुमार आँधियों में उसके अब तक साबुत टिके रहने की यही वजह है कि क़लम चलाते हुए उसकी आत्मा सन्नद्ध रहते हुए भी तटस्थ रही, उसकी नैतिकता चालू नैतिकता नहीं बन पाई, ज़हर-बुझे उसके औज़ार बेशक मारक थे, और उसके वर्णन निहायत ईमानदार और परतदार। उससे भी अहम बात, उसके चरित्र पाखंडी और विषम समाज के लतियाए, दुरदुराए और उठल्लू किए हुए लोग हैं, जिन्हें आज हाशिए के किरदार कहा जाता है। ख़ास तौर पर, तक़सीमे-हिन्द के नए जनवादी या सबॉल्टर्न इतिहास का आलातरीन हमदर्द मसीहा तो मंटो है ही।

मंटो से मेरी पहली मुलाक़ात युवावस्था की दहलीज़ पर हुई, उस कमबख़्त उम्र में, जब आप किसी मांसल और लज़ीज़ किताब पर आँख फेरने की जुगत में होते हैं। होशियार प्रकाशकों को भी हमारे-जैसे ग्राहकों के अस्तित्व का इल्म रहा होगा, वरना 'मंटो की बदनाम कहानियों' का रेलवे स्टेशनों पर मिलना क्या इतना आसान होता। बहरहाल उनका शुक्रिया कि मंटो से त'आरुफ़ करवाया, भले ही मंटो ने अपने पाकिस्तानी जीवन-काल में ही हिन्दुस्तान में अपनी रचनाओं की चोरी की शिकायत प्रधानमंत्री नेहरू से लगा दी थी, जो ज़ाहिर है बेअसर रही। अगर आप भी मेरी दशा में मंटो के पास गए होंगे तो शायद सहमत होंगे कि प्यास तो ख़ैर मंटो जगाता है, बुझाता नहीं। लिहाज़ा बतौर पाठक मुझे जिस्मानी ज़रूरियात के लिए साहित्य की दीगर तरह की 'पंक पयोधि' में डूबना पड़ा, जिससे बतौर लेखक महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी जवानी में बड़ी सफ़ाई से बच निकले थे। लेकिन मंटो को पढ़के दो ख़ास फ़ायदे ज़रूर हुए: 1. जिन्सी मसायल पर बुज़ुर्गाना वर्जनात्मक संस्कारों का जो अपराधबोधनुमा साया था, वह कट गया, ज़ाहिर हुआ कि यह बिल्कुल नैसर्गिक चीज़ है, इससे कोताही की कोई ठोस वजह नहीं। 2. समझ में आया कि शरीर से मुताल्लिक़ कहानियाँ सिर्फ़ शरीर की नहीं होतीं: वह प्रकारान्तर से समाज, परिवार, धर्म, जाति, नस्ल, राष्ट्र, स्त्री-पुरुष संबंधों, और सत्ता आदि की कहानियाँ होती हैं। चाहे वह शरीर टेटवाल के कुत्ते का ही क्यों न हो, ये अहसास तो कई साल बाद जाकर हुआ जब विभाजन के दरमियान लोगों पर क्या गुज़री, यह जानने के लिए हिन्दी-उर्दू के बाक़ी कहानीकारों-उपन्यासकारों के साथ मंटो को दुबारा पढ़ने-गुनने लगा। शुक्रिया एक बार फिर उपेन्द्र नाथ अश्क(संस्मरण), देवेन्द्र इस्सर (मंटो की राजनीतिक कहानियाँ), नरेन्द्र मोहन(कहानियाँ, संस्मरणों, व मुक़द्दमों की किताबें) व बलराज मेनरा तथा शरद दत्त (दस्तावेज़, 5 खंड) जैसे संपादकों का कि वे नागरी में मंटो को पुस्तकाकार लेकर आते रहे, क्योंकि उर्दू पढ़ना तो बाद में सीख पाया, और कुछ हद तक मंटो से मोहब्बत के असर में भी। अंग्रेज़ी में उपलब्ध मंटो-साहित्य तब तक मुख़्तसर, बुरी तरह अनूदित और नाकाफ़ी ही था, बल्कि आज भी है। फिर जब हमारी दोस्त फ़रीदा मेहता ने काली शलवार बनाने की ठानी तो मंटो का एक बार फिर पारायण किया गया, और सामूहिक कोशिश से उस पुरानी कहानी में नई अर्थ-छायाएँ हासिल की गईं। आजकल जब भी सिनेमा या रेडियो पर कुछ सोचने या लिखने बैठता हूँ, तो बरबस याद आ जाता है कि जहाँ मैं बैठा हूँ, यानि सिविल लाइन्स में, वहीं ऑल इंडिया रेडियो का दफ़्तर होता था, जहाँ से पाँचवें दशक में मंटो और कृष्ण चंदर के लिखे नाटक प्रसारित होते थे, वे यहाँ आसपास रहते भी थे। और मंटो ने फ़िल्मिस्तान से जुड़कर सिनेमा के लिए भी ख़ूब लिखा - अफ़सोस कि उसकी लिखीं ज़्यादातर फ़िल्में फ़िलहाल गुमशुदा हैं, लेकिन कटारी पढ़कर ये अहसास होता है कि क्या कसा हुआ मंज़रनामा है। और सिनेमाई संस्मरणों की किताब मीनाबाज़ार तो मंटो की पैनी नज़र और साफ़गोई के लिए मशहूर है ही।

ग़रज़ ये कि मंटो ने जिस विधा को चुना, उसमें शिल्प या कथानक के लिहाज से कुछ न कुछ नया जोड़ा, कुछ नए लेखकीय प्रतिमान गढ़े, नई ज़मीनें तोड़ीं। किंवदंती है कि फ़रमाइशी कहानियाँ तो वह अमूमन एक ही बैठक में, कभी-कभार तो कहवाघर में बाज़ी लगाकर कॉफ़ी की चुस्की लेते हुए, लिख मारता था। एक ज़माने में पापी पेट के लिए लगभग रोज़ाना लिखता था। मेनरा व दत्त के अनुसार, दिल्ली में मंटो की रिहाइश और ऑल इंडिया रेडियो में मुलाज़िमत तक़रीबन उन्नीस महीने की है। इस छोटी अवधि में उसने कोई सौ रेडियो नाटक व फ़ीचर लिखे, जो एक रिकॉर्ड होगा। बक़ौल मंटो ये ऐसे नाटक थे, जिन्हें पढ़कर लोगों को भले ही हँसी आती हो, उसे तो कतई नहीं आती थी। इंपले को बहुत हँसी तो नहीं आती लेकिन मुस्कुराए बिना भी नहीं रह पाता। अपनी बात समझाने के लिए 'आओ...' शृंखला के रेडियो नाटक लिए जा सकते हैं। अव्वल तो, नाम बड़े दिलचस्प हैं: 'आओ कहानी लिखें', 'आओ ताश खेलें', 'आओ चोरी करें', 'आओ झूठ बोलें', 'आओ अख़बार पढ़ें', 'आओ बहस करें', वग़ैरह-वग़ैरह। इस शृंखला में अपवादों को छोड़ दें तो मूल किरदार तीन ही हैं - पति किशोर, जो किसी दफ़्तर में काम करता है, उसकी पत्नी लाजवंती जो घर संभालती हैं, और उनका दोस्त नारायण, जो मूलत: किशोर का ही दोस्त है, जो ठुकुरसुहाती तो भाभी की करता है, लेकिन अंतिम विश्लेषण में पक्ष किशोर का ही लेता है। दोनों मिलकर कभी-कभी लाजवंती को उल्लू बनाकर अपना काम निकाल लेते हैं, लेकिन दीगर मौक़ों पर बातचीत में माहिर लाजवंती उनसे एक-दूसरे का भाँडा फुड़वाकर अपनी ज़हानत का लोहा मनवा लेती है।

अब 'आओ रेडियो सुनें' की थोड़ी तफ़सील में जाएँ, इसलिए कि ये दौर हिन्दुस्तान में रेडियो के लिए बुनियाद डालने का दौर था, जब बीबीसी से आए लायनेल फ़ील्डेन की अगुआई में पितरस बुख़ारी और उनके छोटे भाई ज़ुल्फ़िक़ार बुख़ारी ऑल इंडिया रेडियो का संजाल बिछाने में जी-जान से लगे हुए थे। एक ओर उदारवादी फ़ील्डेन कोशिश कर रहा था कि रेडियो का इस्तेमाल कॉन्ग्रेसी नेता भी अपनी जनता से मुखामुखम होने में करें, दूसरी ओर गांधी व नेहरू जैसे नेता और महाकवि निराला-जैसे हिन्दी कार्यकर्ता इस माध्यम को साम्राज्यवादी भोंपू, इसलिए कलंक और छूत की निशानी मानते हुए इससे एक सुरक्षित दूरी बनाए रखने के पक्ष में थे। लेकिन साथ ही प्रसारण की अंतर्वस्तु व उसकी ज़बान को लेकर रेडियो के अंदर और बाहर हिन्दी व उर्दू वालों के बीच बाक़ायदा एक अखाड़ा खुला हुआ था। हिन्दी वाले इसे 'बीबीसी' यानि 'बुख़ारी ब्रदर्स कॉरपोरेशन' के ख़िताब से नवाज़ते नहीं थकते थे, और रविशंकर शुक्ल जैसे नेता इसकी ज़बान यानि हिन्दुस्तानी को अपदस्थ कर शुद्ध हिन्दी की ताजपोशी के हामी थे। इस प्रसंग में रेडियो के लिए मंटो, कृष्ण चंदर, इम्तियाज़ अली ताज जैसे लेखकों का ख़ूब लिखना रेडियो के लिए निहायत फ़ायदेमंद साबित हुआ। अपने रेडियो-नाटकों में, और कटारी-जैसे दूसरे नाटकों में भी, मंटो रेडियो-जैसे अपेक्षाकृत नए माध्यम के प्रचार-प्रसार में कार्यकर्तानुमा मुस्तैदी दिखाता है, क्योंकि उसके लिखे कई अप्रत्याशित प्रसंगों में रेडियो की बात घूम-फिरकर आ ही जाती है। एक और ग़ौरतलब बात यह है कि मंटो के रेडियो-नाटकों की ज़बान उसके अफ़सानों से अलहदा, अर्थात आमफ़हम, सरल-सहज-सुबोध है, जो कि उसके फ़िल्मी मंज़रनामों के लिए भी बिला शक कही जा सकती है। हर माध्यम के लिए माक़ूल भाषा के प्रयोग का नुस्ख़ा मंटो ने पारसी नाटकों के सुपरस्टार लेखक आग़ा हश्र कश्मीरी-जैसे अग्रजों की मिसाल से सीखा होगा, जिनके लिए उसके मन में अगाध श्रद्धा-मिश्रित-श्लाघा है। इसके अलावा, जैसा कि उसने ऑल इंडिया रेडियो में अपनी नौकरी की दरख़्वास्त को मज़बूती देने के उद्देश्य से लिखा था: कि उसके पास रंडियों और उनके ग्राहकों, भड़वों और उनके तौर-तरीक़ों, देह-व्यापार और उसके वातावरण के बारे में पूरा ज्ञान मौजूद है। याद रखने की ज़रूरत है - और इस बात की ताईद उस समय कार्यरत रेडियोकर्मियों की कई आत्मकथाओं से होती है - कि उस दौर में पारसी नाटक, सिनेमा और रेडियो में काम करने को भले घरानों के लड़के-लड़कियों (लड़कियों पर ज़्यादा ही सख़्ती थी) के लिए उचित नहीं माना जाता था। तो मंटो की उस 'दरख़्वास्त' को ऐसे माहौल बनाने वाले दकियानूसी समाज पर छोड़ा गया व्यंग्य-बाण भी माना जा सकता है, जिससे पहले फ़ील्डेन और बाद में बुख़ारी-बंधु अपने-अपने तरीक़ों से जूझते रहे थे, और जिन्हें मंटो का यह तुर्श हास्य सहज भाया होगा, तभी तो उसे रेडियो की मुंशीगिरी मिली। दावे चाहे जो हों, देखने लायक़ बात यह है कि 'आओ...' शृंखला कितनी घरेलू है - ज़्यादातर बातचीत किशोर-लाजवंती के घर, उनके ड्राइंग रूम में होती है, बड़ी अंतरंग होती है, रोज़ाना की गृहस्थी के नून-तेल-लकड़ी के मसलों से दो-चार, मियाँ-बीवी के झगड़ों-उलाहनों-प्यार-दुलार-मनुहार से लबरेज़। ऐसा लगता है मानो मंटो बहुसंख्यक मध्यवर्गीय हिन्दू आबादी को उसके अपने ही घर की तस्वीर दिखाकर उसके मन से रेडियो की गँदली छवि मिटाकर, उसकी जगह एक मोहक और स्वीकार्य छवि की प्राण-प्रतिष्ठा करना चाहता है। लेकिन इसके लिए वह कभी अपने कथ्य से समझौता नहीं करता। उसकी लाजवंती आधुनिका है, वाक्चातुरी और तर्कणा में शौहर से बराबरी की टक्कर लेने वाली, और बाज़ दफ़े बीस पड़ जाने वाली, जबकि किशोर के पास सूचनाएँ और बहाने ज़्यादा हैं, क्योंकि वह बाहर की दुनिया से ज़्यादा वाक़फ़ियत रखता है। दोनों की संगीताभिरुचियों में भी फ़र्क़ साफ़ है। तो बीवी थके-माँदे पति के घर आते ही रेडियो सुनने का प्रस्ताव रखती है। अख़्तरी बाई की ग़ज़ल सुनवाना चाहती है, लेकिन पति मानता नहीं। फिर ताने-उलाहने का सिलसिला शुरू होता है, जो पूरी तरह मौसिक़ी के मुहावरे में ही कसा हुआ है। जब रेडियो सुनने पर सहमति होती है तो देहली सुना जाए या लाहौर, इस पर विवाद ठन जाता है। किशोर शास्त्रीय सुनना चाहता है, जिसपर लाजवंती कहती है:

"न बाबा, मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है ऐसे भारी-भरकम गाने सुनने की। तौबा, क्या हाल करते हैं ये ख़ाँसाहब...ये भला क्या गाना हुआ कि सुननेवाले समझें कि कोई घायल दम तोड़ता है।" किशोर: तुम्हें तो बस सहगल का गाना पसंद है...."बालम आय बसो मेरे मन में..."जैसे डूबने वाले के मुँह में पानी कभी अंदर जाता है, कभी बाहर आता है...तौबा कैसी मिट्टी पलीद की है इन्होंने राग की...जो उस्ताद हैं, उनको कोई पूछता ही नहीं...तुम ख़ामोश बैठी रहो, मुझे सुन लेने दो, ख़ाँ साहब का गाना।

लेकिन झगड़ा निबटने से पहले ख़ाँ साहब का गायन ख़त्म हो जाता है, और रेडियो पर बाज़ार भाव आने लगता है। सूई हटाकर बंबई स्टेशन लगाया जाता है, जिसपर मराठी तक़रीर समाप्त हो चुकी है, मंटो का नाटक 'रेडियो' चल रहा है, जिसमें रेडियो की तकनीकी जानकारी की आड़ में बीवी का मज़ाक उड़ाया जा रहा है जो सजग-सुपठित लाजवंती के लिए नाक़ाबिले-बर्दाश्त है, वह यह कहते हुए रेडियो बंद कर देती है:

बेहूदा, वाहियात, नामाकूल...कोई शर्म हया नहीं रही इन मरदुओं को...बीवियों को तो बस खिलौना समझ लिया गया है...फ़िल्मों में उनके साथ मज़ाक़, नाविलों में बेचारियों के साथ छेड़-छाड़, नज़्मों में उनकी मिट्टी पलीद...अब यह रेडियो बाक़ी रह गया था, सो इस पर भी उनको बुरा-भला कहना शुरू कर दिया...मेरे बस में हो तो ऐसे तमाम मर्दों की एक गर्दन बनाकर फाँसी के फ़ंदे में दे दूँ।(मेनरा व दत्त, मंटो: दस्तावेज़-3)

किशोर को नाटक में लुत्फ़ आ रहा है, वह और सुनना चाहता है, इस बात पर लाजवंती ग़ुस्सा होकर रूठ जाती है। वह मनाने के लिए सूई घुमाता है तो के.सी. डे का फ़िल्मी गाना आता है: 'बाबा मन की आँखें खोल...'। किशोर रेडियो बंद कर देता है। लाजवंती पेपर वेट से रेडियो को तोड़ डालने की धमकी देती है...उसे पानी पी-पीकर कोसती है कि उसके चलते घर की शांति भंग हो गई। कि तभी नारायण आकर बताता है कि बाहर रेडियो का इंस्पेक्टर खड़ा है, लाइसेन्स की जाँच करने आया है। डरी हुई लाजवंती अपने महीने के ख़र्चे का आख़िरी दस रूपया नारायण को 'घूस देने' के लिए दे देती है(जिससे दोनों दोस्त फ़िल्म देखने चले जाते हैं), लेकिन नारायण से यह कहना नहीं भूलती कि इंस्पेक्टर को जाकर कहे कि अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी रेडियो पर रोज़ गाया करे!

लब्बेलुवाब यह कि लाजवंती मंटो की औरत है, और वह किसी किशोर की उच्च-भ्रू धौंस में नहीं आनेवाली। दूसरी ख़ास बात यह कि इस नाटक में मंटो ने रेडियो के बारे में, इसके मुख़्तलिफ़ स्टेशनों के बारे में, नानाविध भाषायी कार्यक्रमों के बारे में, कार्यक्रमों की अग्रिम सूचना देने वाले बुलेटिन 'इंडियन लिस्नर' के बारे में, और लाइसेन्स-प्रणाली के बारे में तमामतर ज़रूरी जानकारियाँ मुहैया करा दी हैं, वह भी शौहर-बीवी के मनोरंजक झगड़े में लगा-लपेट कर। यक़ीन मानिए कोई और लेखक ऐसी इश्तिहारबाज़ी करता तो पूरा नाटक सरकारी विज्ञापन बन कर रह जाता।

आइए, अब मंटो की विभाजन-संबंधी कुछेक कहानियों को फिर पढ़ें। जैसा कि मैंने ऊपर अर्ज़ किया कि मंटो तक़सीमे-हिन्द से ऊपजे हालात को बयान करनेवाला दर्दमंद अफ़सानानिगार है। गुज़िश्ता सदी की आख़िरी दहाई में जब इतिहास से पारंपरिक तौर पर बहिष्कृत एहसासात(आशिस नंदी) की फिर बहाली हुई, और 'ग़ैरियत का गद्य'(ज्ञान पांडे) तलाशा जाने लगा तो मंटो की कहानियों को जैसे नया जीवन मिला। 'खोल दो' जैसे अफ़सानों को यह समझने के लिए पढ़ा गया कि वह ऐसा दौर था जब ज़बान के साथ जो इंसान का क़ुदरती रिश्ता था, वही दरक गया था - वीणा दास के अल्फ़ाज़ में, "गूँगापन उस दौर की मनोदशा का ख़ास दस्तख़त है।" ज़ुल्म की ऐसी आँधी आई थी, इंसान द्वारा इंसान पर अत्याचार की कहानियों का ऐसा सैलाब उमड़ा‌ चला आता था कि मंटो ने भी अपने ज़ेहन की खिड़कियाँ बंद कर ली थीं। जब झाँकने-भर के लिए दरवाज़ा थोड़ा खोला तो 'सियाह हाशिए' नमूदार हुए, काले लिबास में सभ्यता के अधोपतन पर डरावना अट्टहास करते हुए। हम यह भी जानते हैं कि जिस दौर को बुद्धिवादियों ने दौरे-वहशियाना और 'पागलपन' का पर्याय मान कर उससे पल्ला झाड़ लिया था, उसे मंटो ने मिशेल फ़ूको से बहुत पहले टोबा टेक सिंह की ज़िन्दादिल दानिशमंदी, और ऐन नोमैन्सलैण्ड में उसकी 'राष्ट्र'-विरोधी ज़िद्दी मौत का आईना दिखा दिया था।

लेकिन चूँकि मंटो बहिष्कृत व पतित जगहों, लोगों, और स्थितियों का लेखक है, इसलिए बंबई शहर की एक मूतरी की दीवारों पर लिखी इबारतों से जो कहानी उसने रची, उसे देखें। अगर आपने मंटो का 'दीवारों पर लिखना' शीर्षक लेख पढ़ा है, तो आप समझ सकते हैं कि संवादधर्मी नस्ल के नुमाइंदे होने के नाते लोग हर दीवार पर कुछ-न-कुछ लिखते चलते हैं, ग्राफ़िती बनाते चलते हैं, जिसकी सुलभ सुविधा सार्वजनिक मूत्रालय की दीवार मुहैया कराती है। तो पहली बार जब हमारा नैरेटर मूतरी में फ़ारिग़ होने हेतु दाख़िल हुआ तो उसे तेज़ बदबू और ग़लाज़त के साथ-साथ खल्ली से लिखी यह इबारत मिली: “मुसलमानों की बहन का पाकिस्तान मारा!" दूसरी बार जाने पर इस नारे का ज़बर्दस्त रद्दे-अमल मिला: “हिन्दुओं की माँ का अखंड हिन्दुस्तान मारा!" फिर उसका जाना काफ़ी वक़्फ़े के बाद होता है। इस बीच महात्मा गांधी जेल से छूट जाते हैं, जिन्ना साहब पंजाब में शिकस्त खाते हैं, लेकिन कॉन्ग्रेस भवन और जिन्ना हाउस पर पार्टियों का क़ब्ज़ा बरक़रार रहता है, और मूतरी पर बदस्तूर बदबू का। लेकिन नैरेटर मूतरी के अपने तीसरे चक्कर में उस असमाप्त संवाद की तीसरी कड़ी देखता है: “दोनों की माँ का हिन्दुस्तान मारा!” इस बार: "जब वह आहिस्ता-आहिस्ता बाहर निकला तो उसे यूँ लगा कि बदबुओं के उस घर में एक बेनाम-सी महक आई थी, सिर्फ़ एक लम्हे के लिए।" कितनी सादा, कितनी छोटी, कितनी मारक है यह कहानी, क्योंकि यह हमें बताती है कि वह कौन-सी संस्कृति थी, जिसने उस तरह की सामूहिक हिंसा को जन्म दिया। मूतरी में मर्द अपने सपनों, अपनी फ़ंतासियों को पुरुष व मादा नामों व कामांगों के उत्कीर्णन के ज़रिए चित्रित व अभिलिखित करते हैं। यहाँ यह सपना दुश्मन की औरत के बलत्कृत शरीर से मिले प्रतिशोधाकांक्षी विजय-सुख के माध्यम से पूरा होते हुए भी 'अंतत: एक कॉमन गाली की शक्ल में झन्नाटेदार वापसी का अहसास कराते हुए एक दु:स्वप्न, या कहें, वृहत्तर सत्य का अहसास बन जाता है।

बटवारे के पहले के एक सार्वजनिक शौचालय का जायज़ा लेने के बाद आइए देखें बटवारे के बाद एक पूरे शहर का क्या होता है। 'कल सवेरे जो [मंटो की] आँख खुली' तो उसने क्या देखा?

पाकिस्तान तो पहले का देखा-भाला था, लेकिन जबसे ज़िन्दाबाद हुआ, कल देखा। बिजली के खंभे पर देखा, परनाले पर देखा, छज्जे पर देखा; जहाँ न देखा, वहाँ देखने की हसरत लिए घर लौटा।

पाकिस्तान ज़िन्दाबाद – ये लकड़ियों का टाल है -
पाकिस्तान ज़िन्दाबाद! फटाफट मुहाजिर हेयर कटिंग सैलून -
पाकिस्तान ज़िन्दाबाद! यहाँ ताले मरम्मत करवाए जाते हैं -
पाकिस्तान ज़िन्दाबाद! गर्मागर्म चाय – पाकिस्तान ज़िन्दाबाद!
बीमार कपड़ों का हस्पताल – पाकिस्तान ज़िन्दाबाद! (देवेन्द्र इस्सर, मंटो की राजनीतिक कहानियाँ)

मूतरी की ही तरह, ये भी राष्ट्र की इबारते हैं। नवसृजित राष्ट्र शहर के हर मकान, हर दफ़्तर, हर नुक्कड़-चौक-चौराहे पर ख़ुद का हस्ताक्षर कर इतिहास में अमर हो जाना चाहता है। वह उत्कंठित है, कृतज्ञ है, चिंतित है, भविष्याकुल है, इसीलिए पाकिस्तान, या क़ायदे-आज़म, या जिन्ना साहब के नामों से दुकानों को पुनर्नामित किया जा रहा है। इस राष्ट्रवादी उत्साहातिरेक पर मंटो की हालत 'देख कबीरा रोया' वाली हो जाती है - जगहें और तख़्तियाँ तो आख़िर देखी-भाली हैं, नाम अलबत्ता अभिनव - और वह विडंबनातिरेक में पाकिस्तान ज़िन्दाबाद! कह उठता है।

नाम महज़ नाम नहीं होते, मिल्कियत की सांस्कृतिक निशानियाँ होते हैं, और न ही नामकरण, नाम मिटाने या पुनर्नामित करने की प्रक्रिया इतनी मासूम होती है। किसी चीज़ को नाम देना उसकी निशानदेही से ज़्यादा उस पर अपना दावा ठोंकने जैसा है। अगर ऐसा नहीं होता तो एक ही ज़बान के इतने नाम नहीं होते, और उन नामों को लेकर इतना वितंडा खड़ा नहीं होता, और न ही दो मुल्क बनते जो ज़बान के नाम पर आख़िरी गिनती पर तीन हो जाएँ। नाम देना, गिनना, कल के बुधुआ-मंगरवा के गले में एक पहचान-पत्र लटका देना, हर इंसान को एक संख्या से पुकारना, ये आधुनिकता के सार्वभौम लक्षण हैं। ये आधुनिकता राष्ट्रवाद से संपृक्त होकर अच्छी-ख़ासी क्रूर हो जाती है, जिसमें भक्ति, निष्ठा, त्याग वफ़ादारी, ग़द्दारी जैसे अल्फ़ाज़ नए मानी ग्रहण करके संपूज्य, अप्रश्नांकित मूल्य बन जाते हैं। तभी तो टेटवाल का वह सड़कछाप, आवारा, शरणार्थी-टाइप कुत्ता विभाजित कश्मीर के दोनों तरफ़ लगे हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी जवानों के कैम्प में बारी-बारी जाकर नया-नया नाम पाता है। यूँ तो दोनों ओर के फ़ौजी भी इंसान ही हैं, सुबह उठकर चाय बनाते हैं, वर्जिश करते हैं, सीमा पर ज़्यादा हलचल नहीं है, इसलिए ऊबे रहते हैं, और दिन तो जैसे-तैसे कट जाता है, लेकिन रात को बीवी या माशूक़ा की याद में तड़पते हुए 'हीर' गाते हैं। फ़ौजी हैं, इसलिए बोरियत का इलाज हवाई फ़ायरिंग में ढूँढते हैं। इंसान ही हैं, इसलिए हिन्दुस्तानी कैम्प का बंता सिंह जब कुत्ते को अपनी ओर आते देखता है, और सबको बताता है तो कुतुहलवश सब के सब उससे खेलने लग जाते हैं, उसे दूध-बिस्किट खिलाते हैं। लेकिन फ़ौजी कुतुहल सजग कुतुहल है, उसको एक नाम – चपड़झुन-झुन – दिया जाता है, और गले में तख़्ती डालकर जमादार हरनाम सिंह के मशविरे पर नीचे यह भी लिख दिया जाता है - 'यह एक हिन्दुस्तानी कुत्ता है'! (एक और जवान बआवाज़ेबुलंद सोचता है: अब कुत्तों को भी हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी होना पड़ेगा!) बहरहाल, कुत्ता तो कुत्ता ठहरा, शाम को टहलता हुआ सीमा पार करके पाकिस्तानी शिविर में जा पहुँचता है, जहाँ बशीरी अपनी ऊब मिटाने के लिए कोई पंजाबी गीत गाता है कि उस कुत्ते के पहचानपत्र को देखकर चौंक उठता है। फ़ौरन 'वॉररूम मीटिंग' की जाती है, गुरमुखी में लिखे संवाद पर नाक-भौं सिकोड़ते हुए माथापच्ची की जाती है कि इन सिखड़ों को कैसे सबक़ सिखाया जाए। नतीजे में हिम्मत ख़ान के कहने पर उस कुत्ते की तख़्ती बदलकर उसका 'नया' नाम गुरमुखी में ही लिख दिया जाता है, ताकि संदेश रसीद होने में कोई ग़लतफ़हमी न हो - 'सपड़सुनसुन; यह एक पाकिस्तानी कुत्ता है'। फिर कुत्ते को बहला-फुसलाकर समझाया जाता है कि उसे वफ़ादारी निभानी होगी, उसने नमक खाया है, अगर ग़द्दारी की तो अंजाम बुरा होगा, वग़ैरह-वग़ैरह। मुतमइन होने के बाद उसे हिन्दुस्तानी ख़ेमे की ओर जाने को प्रेरित किया जाता है। हिम्मत ख़ान गोया दुश्मनों को ललकारते हुए एक हवाई फ़ायर भी करता है। हरनाम सिंह आवाज़ सुनकर बाहर निकलता है, तो कुत्ते के गले में कुछ लटका तो देखता है, पर उसे दुश्मनों के ख़ेमे से आता देखकर आगबबूला हो जाता है, और जवाबी फ़ायर कुत्ते की ओर करता है। सिलसिला चल निकलता है, और इस क़दर क्रॉस-फ़ायरिंग में फँसा हुआ भयाक्रांत कुत्ता 'न ययौ न तस्थौ' की दशा में कभी इधर जाता है, कभी उधर, कि हरनाम की एक गोली उसका काम तमाम कर देती है। टोबा टेक सिंह की याद दिलाते हुए एक बार फिर नो-मैन्स लैण्ड में। दोनों तरफ़ैन के युयुत्सु जवानों ने यूँ मर्सिया पढ़कर उसको श्रद्धांजलि दी:

सूबेदार हिम्मत ख़ाँ ने बड़े अफ़सोस के साथ कहा: “चच-चच...शहीद हो गया बेचारा!”

जमादार हरनाम सिंह ने बंदूक़ की गरम-गरम नाली अपने हाथों में मसली और कहा: “उसी मौत मरा जो कुत्ते की होती है!” (मंटो: दस्तावेज़-2).(इस कहानी के विस्तृत पाठ के लिए देखें: रविकान्त और तरुण सेन्ट (सं.), ट्रांस्लेटिंग पार्टीशन, कथा, 2001.

तल्ख़ी और तुर्शी, व्यंग्य और विडंबना मंटो के लेखकीय बक्से के अनिवार्य हथियार थे। कुत्ते के रूपकार्थ में शरणार्थी का यह हश्र यह इशारा करता है कि अब जब कि राष्ट्र की हदें तय हो गई हैं, नया निज़ाम क़ायम हो गया है, तो बग़ैर पहचान-पत्र, बग़ैर पासपोर्ट आदि के काम नहीं चलने का। तय करो किस ओर हो तुम, अगर दुचित्तापन के शिकार हो, तो बुरा होगा। अब ये नहीं होगा कि हिन्दुस्तान में भी रहो, पाकिस्तान में भी, या खाओ यहाँ का, भजो वहाँ को। इतना ही नहीं, वफ़ादारी सिर्फ़ वर्दियों पर टाँकने की चीज़ नहीं है, उसकी घोषणा अपने आप में ज़रूरी, पर काफ़ी नहीं; तुम्हें अपनी दृढ़ वफ़ादारी का खरा सुबूत भी पेश करना होगा...वरना....।

अब इसे मंटो की दूरंदेशी ही कही जानी चाहिए कि उस ज़माने में जब राष्ट्रभक्ति बड़ी शै थी, जब राष्ट्रवाद का डंका बज रहा था, जब लोग ग़ुलामी से उबरकर 'हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकालके, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभालके' गा रहे थे, उसकी हाहाकारी ताक़त का अंदाज़ा भी लोगों को नहीं था, तब उसने इंसान को तुच्छ और नाचीज़ बनाने की इसकी क्षमता का क्या ख़ाका खींचा था।

उसी तरह नीचे के दो-एक निहायत परिचित कहानियों के उद्धरणों से साफ़ हो जाएगा कि मंटो न सिर्फ़ तवायफ़ों को विशिष्ट नहीं अपितु आम क़िस्म का मज़दूर मानने का क़ायल था(जिसे आज की दुनिया 'सेक्स वर्कर' कहती है), बल्कि सरकार या रज़ाकार के हाथों अपने देश की आबरू को अपने यहाँ लौटा लाने के लिए, अग़वा महिलाओं की रिकवरी को तेज़ करने के लिए जानकी-हरण के जो प्रसंग संसद में सुनाए जा रहे थे, उसके बारे में वह क्या सोचता था।

....जो इस्मतें लुट चुकी थीं, उनको मज़ीद लूट-खसोट से बचाना चाहता था - किसलिए? इसलिए कि उसका दामन मज़ीद धब्बों और दाग़ो से आलूदा न हो, इसलिए कि वह जल्दी-जल्दी अपनी ख़ून से लिथड़ी उँगलियाँ चाट ले, इसलिए कि वह इंसानियत का सूई-धागा लेकर इस्मतों के चाक-दामन रफ़ू कर दे - कुछ समझ में नहीं आता था, लेकिन उन रज़ाकारों की जद्दोजहद फिर भी क़ाबिले-क़द्र मालूम होती थी।

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मैं उन बरामद की हुई लड़कियों और औरतों के मुताल्लिक सोचता तो मेरे ज़ेहन में सिर्फ़ फूले पेट उभरते - इन पेटों का क्या होगा; इनमें जो कुछ भरा है, उसका मालिक कौन है, पाकिस्तान या हिन्दुस्तान?

                                                                                                            - (ख़ुदा की क़सम, दस्तावेज़ मंटो-2)

हमने अमृता प्रीतम का उपन्यास और उसपर उसी नाम से बनी, चंद्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा निर्देशित फ़िल्म, 'पिंजर' देखी है, जिसमें अग़वा होने के बाद, बलत्कृत होने के बाद भी पूरो की ज़िन्दगी ख़त्म नहीं हो जाती, बल्कि अपने क़ातिल के साथ ही नए सिरे से शुरू होती है। काफ़ी जद्दोजहद के बाद, तन और मन को बहुत हद तक मारके, लेकिन शुरू तो होती है, और एक असाधारण दास्तान बन जाती है, जिसमें एक विक्षिप्त गर्भवती महिला के साथ हमदर्दी का रिश्ता, और अपनी भाभी को बचाने के लिए अपने पति, राशिद, की मदद से अंजाम दी गईं बड़ी-बड़ी बहादुरियाँ शुमार हैं। आख़िर में जब उसे चुनना होता है कि वह किसे चुनेगी, हिन्दुस्तान को या पाकिस्तान में बस चुकी अपनी नयी ज़िन्दगी को, तो वह बाद वाला विकल्प ही चुनती है। उर्वशी बूटालिया की कृतियों में ऐसी और कितनी कहानियाँ हैं, जहाँ स्त्री-देह का उल्लंघन उस स्त्री की ज़िन्दगी का ऐसा कलंक नहीं बन जाता जिसे वक़्त न धो सके या बेहतर परिस्थितियों में, हमदर्द इंसान के सान्निध्य में, या ख़ुद हिम्मत-हौसला जुटाकर जिससे उबरा न जा सके। जानकी-हरण का मुख्यधारा का वह रामायणी रूपक मंटो को भी इतना पाखंडी लगा होगा तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि 'खोल दो' को याद करें तो सकीना के शरीर पर अत्याचार करनेवाले लोग कोई और नहीं, बल्कि ख़ुद धर्म-धुरंधर स्वयंसेवी रज़ाकार ही हैं।

दुआ कीजिए की मंटो की बातें चलती रहें, कम-से-कम तब तक, जब तक यह नाक़ाबिले-बर्दाश्त दुनिया सहने योग्य न हो जाए। पर फ़िलहाल, मुझे इजाज़त।

(मूलत: नया पथ: प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन के 75 बरस , जनवरी-जून, 2012 (पृ. 314-21) में प्रकाशित। फिर काफ़िला, जानकीपुल वग़ैरह चिट्ठों पर भी।)