अमृतलाल नागर : हम फ़िदाए लखनऊ, लखनऊ हम पे फ़िदा / दयानन्द पाण्डेय

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कहना बहुत कठिन है कि अमृतलाल नागर का दिल लखनऊ में धड़कता था कि लखनऊ के दिल में अमृतलाल नागर धड़कते थे। 'हम फ़िदाए लखनऊ, लखनऊ हम पे फ़िदा' की इबारत दरअसल नागर जी पर ऐसे चस्पा होती है गोया लखनऊ और नागर जी दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हों। हिंदी ही क्या समूचे विश्व साहित्य में कोई एक लेखक मुझे ऐसा नहीं मिला जिस की सभी रचनाओं में सिर्फ़ एक ही शहर धड़कता हो.......एक ही शहर की कहानी होती हो फिर भी वह कहानी सब को ही अपनी ही कहानी लगती हो और कि पूरी दुनिया में छा जाती हो। लिखने को लखनऊ को अपनी रचनाओं में बहुतेरे लेखकों ने रचा है प्रेमचंद से ले कर श्रीलाल शुक्ल, कामतानाथ तक ने। मैं ने खुद भी। पर जैसा नागर जी ने रचा है, वैसा तो न भूतो, न भविष्यति। और उस लखनऊ में भी चौक। चौक ही उन की कहानियों में खदबदाता रहता है ऐसे जैसे किसी पतीली में कोई भोज्य पदार्थ। आते तो वह बनारसी बाग और सिकंदर बाग तक हैं पर लौट-लौट जाते हैं चौक। जैसे करवट में वह जाते तो कोलकाता भी हैं पर बताते लखनऊ और चौक ही हैं। यहीं की यादें हैं। खत्री परिवार की तीन पीढियों की इस कथा में जो बदलाव के कोलाहल का कोलाज वह रचते हैं वह अप्रतिम है। उस अंगरेज मेम के यूज एंड थ्रो की जो इबारत एक अविरल देहगंध की दाहकता और रंगीनी के रंग में रंगते और बांचते हैं, जिस शालीनता और संकेतों की मद्धिम आंच में उसे पगाते हैं, वह देहयात्रा अविस्मरणीय बन जाती है।

गोमती से बरास्ता गंगा नाव यात्रा से कोलकाता पहुंचने के बीच उस नौजवान खत्री के साथ रंगरेलियां मनाती रेजीडेंसी में तैनात किसी बडे़ अंगरेज अफ़सर की वह अंगरेज मैम कोलकाता पहुंच कर कैसे तो उसे न सिर्फ़ पहचानने से कतराती है बल्कि तिरस्कृत भी करती है तो नौकरी की आस में आया यह नौजवान कैसे तो टूट जाता है। फिर वह लखनऊ की यादों और संपर्कों की थाह लेता है। बूंद और समुद्र नागर जी का महाकाव्यात्मक उपन्यास है। पर समूची कथा लखनऊ के चौक में ही चाक-चौबस्त है। बूंद और समुद्र की ताई विलक्षण चरित्र है। ताई के बडे अंधविश्वास हैं। बहुत कठोर दिखने वाली ताई बाद में पता चलता है कि भीतर से बहुत कोमल, बहुत आर्द्र हैं। वनकन्या, नंदो, सज्जन, शीला, महिपाल, कर्नल आदि तमाम पात्र बूंद और समुद्र में हमारे सामने ऐसे उपस्थित होते हैं गोया हम उन्हें पढ़ नहीं रहे हों, साक्षात देख रहे हों। बिल्कुल किसी सिनेमा की तरह। फ़िल्म, रेडियो और फ़िल्मी गानों से तर-बतर मिसेज वर्मा का चरित्र भी तब के दिनों में रचना नागर जी के ही बूते की बात थी। मिसेज वर्मा न सिर्फ़ फ़िल्मों और फ़िल्मी गानों से प्रभावित हैं बल्कि असल ज़िंदगी में भी वह उसे आज़माती चलती हैं। शादी करना और उसे तोड़ कर फिर नई शादी करना और बार-बार इसे दुहराना मिसेज वर्मा का जीवन बन जाता है। कोई बूंद कैसे तो किसी समुद्र में तूफ़ान मचा सकती है यह बूंद और समुद्र पढ़ कर ही जाना जा सकता है। पांच दशक से भी अधिक पुराना यह उपन्यास लखनऊ के जीवन में उतना ही प्रासंगिक है जितना अपने छपने के समय था। अमृत और विष वस्तुत: एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास है। अरविंद शंकर इस उपन्यास में लेखक पात्र है। लखनऊ के अभिजात्य वर्ग की बहुतेरी बातें इस उपन्यास में छ्न कर आती हैं।


अमृतलाल नागर नागर जी कोई भी उपन्यास अमूमन बोल कर ही लिखवाते थे। उन का उपन्यास लिखते-लिखते जाने कितने लोग लेखक संपादक हो गए। मुद्राराक्षस उन्हीं में से एक हैं। अवध नारायन मुदगल जो बाद में सारिका के संपादक हुए। ऐसे और भी बहुतेरे लोग हैं। बूंद और समुद्र तो उन्हों ने अपने बच्चों को ही बोल कर लिखवाया। इस की लंबी दास्तान नागर जी के छोटे पुत्र शरद नागर ने बयान की है। कि कैसे रात के तीसरे पहर जब यह उपन्यास लिखना खत्म हुआ जो शरद नागर को ही बोल कर वह लिखवा रहे थे, तब घर भर को जगा कर यह खुशखबरी बांटी थी, नागर जी ने। बा को भी सोते से जगाया था और बताया था बिलकुल बच्चों की तरह कि आज बूंद और समुद्र पूरा हो गया। नागर जी असल में फ़िल्मी कथा-पटकथा लिख चुके थे। सारा नरम गरम देख चुके थे। जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव देख चुके थे सो जब वह बोल कर लिखवाते थे तो ऐसे गोया वह दृश्य उन के सामने ही घटित हो रहा है बिलकुल किसी सिनेमा की तरह। नागर जी तो कई बार चिट्ठियां तक बोल कर लिखवाते थे। ऐसे ही उन की एक और आदत थी कि वह जब कोई उपन्यास लिखते थे तो उस को लिखने के पहले जिस विषय पर लिखना होता था उस विषय पर पूरी छानबीन, शोध करते थे। कई बार किसी अखबार के रिपोर्टर की तरह जांच-पडताल करते गोया उपन्यास नहीं कोई अखबारी रिपोर्ट लिखनी हो। नाच्यो बहुत गोपाल हो या खंजन नयन। उन्हों ने पूरी तैयारी के साथ ही लिखा।सुहाग के नूपुर पौराणिक उपन्यास है जब कि शतरंज के मोहरे ऐतिहासिक। पर इन दोनों उपन्यासों को भी पूरी पड़ताल के बाद ही उन्हों ने लिखा। ये कोठे वालियां तो इंटरव्यू आधारित है ही। गदर के फूल लिखने के लिए भी वह जगह-जगह दौड़ते फिरे। मराठी किताब का एक अनुवाद भी उन्हों ने पूरे पन से किया था- आंखों देखा गदर। नागर जी ने आकाशवाणी लखनऊ में नौकरी भी की और बहुतेरे रेडियो नाटक भी लिखे। नाटकों में वैसे भी उन की गहरी दिलचस्पी थी। नागर जी ने इसी लखनऊ में कई छोटे-मोटे काम किए। मेफ़ेयर के पास डिस्पैचर तक के काम किए। बाद के दिनों में वह पूर्णकालिक लेखक हो गए। 1985 की बात है उन्हों ने एक बार बताया था कि राजपाल प्रकाशन वाले उन्हें हर महीने चार हज़ार रुपए देते हैं और साल के अंत में रायल्टी के हिसाब में एडजस्ट कर देते हैं। तब के दिनों में नागर जी के कई उपन्यास विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में लगे पडे़ थे। वह चौक में तब शाह जी की हवेली में किराएदार थे। और सोचिए कि हिंदी का यह इतना बड़ा लेखक लखनऊ में या कहीं और भी अपना एक घर नहीं बना सका। किराए के घरों में ही ज़िंदगी बसर कर ली। उन को पद्म भूषण भी मिला ज़रुर था पर अंतिम समय में उन के इलाज के लिए इसी मेडिकल कालेज में सिफ़ारिशें लगानी पड़ी थीं। और वह सिफ़ारिशें भी नाकाम रहीं थीं। तब जब कि नागर जी जन-जन के लेखक थे। उन के जाने के बाद लखनऊ क्या अब हिंदी जगत के पास भी कोई एक लेखक नहीं है जिसे देख कर लोग दूर से ही पहचान लें कि देखो वह हिंदी का लेखक जा रहा है। या किसी लेखक के घर का पता आप पूछें तो कोई आप को उस के घर तक पहुंचा भी आए। घर पहुंचाना तो दूर वह उस लेखक को ही न जानता हो। लेखक पाठक का वह जो रिश्ता था वह अब बिसर गया है। जनता लेखक से और लेखक जनता से कट चुका है। कह सकते हैं आप कि अब न रहे वे पीने वाले, अब न रही वो मधुशाला!

जापान में शेक्सपीयर को ले कर एक सर्वे हुआ था। एक जापानी से पूछा गया कि शेक्सपीयर यहां क्यों इतना लोकप्रिय हैं? तो उस जापानी का सीधा सा जवाब था - क्यों कि शेक्सपीयर जापानियों के बारे में बहुत अच्छा लिखते हैं। नागर जी के बारे में भी यह बात कही जा सकती है। क्यों कि नागर जी भी भले लखनऊ को ही अपनी कथावस्तु बनाते थे, पर वह कथा तो सभी शहरों की होती थी। उन से एक बार मैं ने पूछा था कि, 'आप गांव के बारे में भी क्यों नहीं लिखते?' वह बोले, 'अरे मैं नागर हूं, गांव के बारे में मुझे क्या मालूम? फिर कैसे लिखूं?' करवट में देह प्रसंगों को ले कर एक बार मैं ने उन से संकोचवश ज़िक्र किया और पूछा कि, ' यह दृश्य रचना कैसे संभव हुआ आप के लिए?' पान कूंचते हुए वह मुस्‍कुराए और बोले, 'क्या हम को एकदम बुढऊ समझते हो? अरे हमने भी दुनिया देखी है और तरह-तरह की? तुम लोग क्या देख-भोग पाओगे जो हमने देखी-भोगी है।' कह कर वह फिर अर्थपूर्ण ढंग से मुस्‍कुराए।

वह अकसर सब के बारे में बहुत विनय और आदर भाव रखते थे पर पता नहीं क्यों जब कभी श्रीनारायण चतुर्वेदी की बात आती तो वह भड़क जाते। एक श्रीनारायण चतुर्वेदी और दूसरे महंगाई दोनों से वह बेतरह भड़कते। नागर जी से पहली बार मैं 1979 में मिला था। तब विद्यार्थी था। पिता जी के साथ दिल्ली घूमने जा रहा था। तब गोरखपुर से दिल्ली की सीधी ट्रेन नहीं हुआ करती थी। लखनऊ आ कर ट्रेन बदलनी होती थी। सुबह गोरखपुर से आया। रात को काशी विश्वनाथ पकड़नी थी। वेटिंग रूम में बैठे-बैठे मैं ने पिता जी से कहा कि मैं नागर जी से मिलने जाना चाहता हूं। पिता जी ने अनुमति दे दी। मैं स्टेशन से बाहर निकला। एक टेलीफ़ोन बूथ पर जा कर टेलीफ़ोन डायरेक्ट्री में नागर जी का नंबर ढूंढा। नंबर मिलाया। नागर जी ने खुद फ़ोन उठाया। उन से मिलने की इच्छा जताई और बताया कि गोरखपुर से आया हूं। स्टेशन से बोल रहा हूं। उन्हों ने स्टेशन से आने के लिए बस कहां मिलेगी बताया और कहा कि बस चौक चौराहे पर रुकेगी वहां उतर कर ऐसे-ऐसे चले आना मेरा घर मिल जाएगा। मैं चौक चौराहे पर उतर कर जब नागर जी के बारे में पूछने लगा तो हर कोई नागर जी का पता बताने लगा। जैसे होड़ सी लग गई। और अंतत: एक सज्जन नहीं माने मुझे ले कर नागर जी के घर पहुंचा आए। दोपहर हो चली थी। नागर जी ऐसे ठठा कर मिले जैसे कितने जन्मों से मुझे जानते हों। अपने बैठके में बिठाया। हाल चाल पूछा। फिर पूछा कैसे आना हुआ। मैं उन से कहना चाहता था कि आप से मिलने आया हूं पर मुंह से निकला आप का इंटरव्यू करना चाहता हूं। वह अचकचाए, 'इंटरव्यू?' फिर बोले,' ठीक है। ले लो इंटरव्यू।' मैं ने इंटरव्यू शुरु किया बचकाने सवालों के साथ। पर वह जवाब देते गए। थोड़ी देर बाद बोले, 'बेटा थोड़ी जूठन गिरा लो फिर इंटरव्यू करो।' मैं उन का जूठन गिराने का अभिप्राय समझा नहीं। तो वह बोले, 'अरे दो कौर खा लो।' असल में मैं खुद भूख से परेशान था। पेट में मरोड़ उठ रही थी। छूटते ही बोला, 'हां-हां।' शरद जी की पत्नी को नागर जी ने बुलाया और कहा कि कुछ जूठन गिराने का बंदोबस्त करो। वह जल्दी ही पराठा सब्जी बना कर ले आईं। खा कर उठा तो वह बोले, 'दरअसल बेटा तुम्हारे चेहरे पर लिखी भूख मुझ से देखी नहीं जा रही थी।' मैं झेंप गया।

इंटरव्यू ले कर जब चलने लगा तो वह बडे मनुहार से बोले, ' बेटा यह इंटरव्यू छपने भेजने के पहले मुझे भेज देना। फिर जब मैं वापस ठीक कर के भेजूं तब ही कहीं छपने भेजना। सवाल तो तब मेरे कच्चे थे ही लिखना भी कच्चा ही था। यह तब पता चला जब नागर जी ने वह इंटरव्यू संशोधित कर के भेजा। दंग रह गया था वह बदला हुआ इंटरव्यू देख कर। एक सुखद अनुभूति से भर गया था तब मैं। समूचे इंटरव्यू की रंगत बदल गई थी। अपने कच्चेपन की समझ भी आ गई थी। नागर जी द्वारा संशोधित वह इंटरव्यू आज भी मेरे पास धरोहर के तौर पर मौजूद है। और छपा हुआ भी। एक बार फिर उन से मिला लखनऊ आ कर। तब प्रेमचंद पर कुछ काम कर रहा था। संपादन मंडल में उन्हों ने न सिर्फ़ अपनी भागीदारी तय की, अपना लेख दिया बल्कि जैनेंद्र कुमार के लिए भी एक चिट्ठी बतौर सिफ़ारिश लिख कर दी। नागर जी की तरह जैनेंद्र जी को भी दिल्ली के दरियागंज में सब लोग जानते थे। नेता जी सुभाष मार्ग पर राजकमल प्रकाशन के पास ही उन के बारे में पूछा। वहां भी सब लोग जैनेंद्र जी के बारे में बताने को तैयार। एक आदमी वहां भी मिला जो जैनेंद्र जी के घर तक मुझे पहुंचा आया। जैनेंद्र जी बहुत कम बोलने वाले लोगों में थे। नागर जी की चिट्ठी दी तो मुस्‍कुराए। कहा कि जब यह चिट्ठी ले कर आए हैं तो 'न' करने का प्रश्न कहां से आता है?' उन्हों ने भी सहमति दे दी संपादक मंडल के लिए। लिखने की बात आई तो वह बोले, 'इतना लिख चुका हूं प्रेमचंद पर कि अब कुछ लिखने को बचा ही नहीं। बात कर के जो निकाल सकें, निकाल लें। लिख लें मेरे नाम से।' खैर, नागर जी से चिट्ठी पत्री बराबर जारी रही। एक बार गोरखपुर वह गए। संगीत नाटक अकादमी के नाट्य समारोह का उद्घाटन करने। मुझे ढूंढते फिरे तो लोगों ने बताया। जा कर मिला। बहुत खुश हुए। बोले, 'तुम मेरे शहर में मिलते हो आ कर तो मुझे लगा कि तुम्हारे शहर में मैं भी तुम से मिलूं।' यह कह कर वह गदगद हो गए।

जब मेरा पहला उपन्यास दरकते दरवाजे छपा तब मैं दिल्ली रहने लगा था। 1983-84 की बात है। यह उपन्यास नागर जी को ही समर्पित किया था। उन्हें उपन्यास देने दिल्ली से लखनऊ आया। मिल कर दिया। वह बहुत खुश हुए। थोड़ी देर पन्ने पलटते रहे। मैं उन के सामने बैठा था। फिर अचानक उन्हों ने मेरी तरफ देखा और बोले, 'इधर आओ!' और इशारा कर के अपने बगल में बैठने को कहा। मैं संकोच में पड़ गया। फिर उन्हों ने लगभग आदेशात्मक स्वर में कहा, 'यहां आओ!' और जैसे जोड़ा, 'यहां आ कर बैठो !' मैं गया और लगभग सकुचाते हुए उन की बगल में बैठा। और यह देखिए आदेश देने वाले नागर जी अब बिलकुल बच्चे हो गए थे। मेरे कंधे से अपना कंधा मिलाते हुए लगभग रगड़ते हुए बोले, 'अब मेरे बराबर हो गए हो !' मैं ने कुछ न समझने का भाव चेहरे पर दिया तो वह बिलकुल बच्चों की तरह मुझे दुलारते हुए बोले. 'अरे अब तुम भी उपन्यासकार हो गए हो ! तो मेरे बराबर ही तो हुए ना !' कहते हुए वह हा-हा कर के हंसते हुए अपनी बाहों में भर लिए। आशीर्वादने लगे, 'खूब अच्छा लिखो और यश कमाओ !' आदि-आदि।

बाद के दिनों में मैं लखनऊ आ गया स्वतंत्र भारत में रिपोर्टर हो कर। तो जिस दिन कोई असाइनमेंट दिन में नहीं होता तो मैं भरी दुपहरिया नागर जी के पास पहुंच जाता। वह हमेशा ही धधा कर मिलते। ऐसे गोया कितने दिनों बाद मिले हों। भले ही एक दिन पहले ही उन से मिल कर गया होऊं। हालां कि कई बार शरद जी नाराज हो जाते। कहते यह उन के लिखने का समय होता है। तो कभी कहते आराम करने का समय होता है। एकाध बार तो वह दरवाजे से ही लौटाने के फेर में पड़ जाते तो भीतर से नागर जी लगभग आदेश देते, ' आने दो- आने दो।' वह सब से ऐसे ही मिलते थे खुल कर। सहज मन से। सरल मन से बतियाते हुए। उन से मिल कर जाने क्यों मैं एक नई ऊर्जा से भर जाता था। हर बार उन से मिलना एक नया अनुभव बन जाता था। उन के पास बतियाने और बताने कि जाने कितनी बातें थीं। साहित्य,पुरातत्व,फ़िल्म, राजनीति, समाज, बलात्कार, मंहगाई। जाने क्या-क्या। और तो और जासूसी उपन्यास भी।

शाम को विजया उन की नियमित थी ही। विजया मतलब भांग। खुद बडे़ शौक से घोंटते। जो भी कोई पास होता उस से एक बार पूछ ज़रुर लेते। किसी के साथ ज़बरदस्ती नहीं करते। एक बार मुझे पीलिया हो गया। महीने भर की छुट्टी हो गई। कहीं नहीं गया। नागर जी के घर भी नहीं। उन की एक चिट्ठी स्वतंत्र भारत के पते से आई। लिखा था क्या उलाहना ही था कि बहुत दिनों से आए नहीं। फिर कुशल क्षेम पूछा था और लिखा था कि जल्दी आओ नहीं यह बूढ़ा खुद आएगा तुम से मिलने। अब मैं तो दफ़्तर जा भी नहीं रहा था। यह चिट्ठी विजयवीर सहाय जो रघुवीर सहाय के अनुज हैं उन के हाथ लगी। वह बिचारे चिट्ठी लिए भागे मेरे घर आए। बोले, 'कहीं से उन को फ़ोन कर ही सूचित कर दीजिए नहीं नाहक परेशान होंगे।' मेरे घर तब फ़ोन था नहीं। टेलीफ़ोन बूथ से फ़ोन कर उन्हें बताया तो उन्हों ने ढेर सारी हिदायतें कच्चा केला, गन्ना रस, पपीता वगैरह की दे डालीं।उन दिनों वह करवट लिख रहे थे। बाद में बताने लगे कि, 'उस में एक नए ज़माने का पत्रकार का भी चरित्र है जो तुम मुझे बैठे -बिठाए दे जाते हो इस लिए तुम्हारी तलब लगी रहती है।' वास्तव में वह अपने चरित्रों को ले कर, उपन्यास में वर्णित घटनाओं को ले कर इतने सजग रहते थे, कोई चूक न हो जाए, कोई छेद न रह जाए के डर से ग्रस्त रहते थे कि पूछिए मत। करवट में ही एक प्रसंग में अंगरेजों के खिलाफ एक जुलूस का ज़िक्र है। पूरा वर्णन वह लिख तो गए पर गोमती के किस पुल से होते हुए आया वह जुलूस इस को ले कर उन्हें संशय हो गया। फिर उन्हें याद आया कि हरेकृष्ण अवस्थी भी उस जुलूस में थे। वही हरेकृष्ण अवस्थी जो विधान परिषद सदस्य रहे हैं और कि लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति भी। नागर जी ने वह पूरा अंश अवस्थी जी को एक चिट्ठी के साथ भेजा और अपना संशय बताया और लिखा कि इस में जो भी चूक हो उसे दुरुस्त करें। अवस्थी जी राजनीतिक व्यक्ति थे। जवाब देने में बहुत देर कर बैठे। पर जवाब दिया और जो भी चूक थी उसे बताया और देरी के लिए क्षमा मांगी।

नागर जी ने उन्हें जवाब में लिखा कि देरी तो बहुत हो गई पर चूंकि बिटिया अभी ससुराल नहीं गई है, घर पर ही है। इस लिए कोई देरी नहीं हुई है। पुल तो वही था जो नागर जी ने वर्णित किया था पर कुछ दूसरी डिटेल में हेर-फेर थी। जिसे अवस्थी जी ने ठीक करवा दिया। इस लिए भी कि अवस्थी जी ने इस जुलूस में खुद भी अंगरेजों की लाठियां खाई थीं। नागर जी रचना को बिटिया का ही दर्जा देते थे। बिटिया की ही तरह उस की साज-संभाल भी करते थे। और ससुराल मतलब प्रकाशक। नागर जी का एक उपन्यास है अग्निगर्भा। दहेज को ले कर लिखा गया यह उपन्यास अनूठा है। कथा लखनऊ की ही है। लेकिन इस की नायिका जिस तरह दहेज में पिसती हुई खम ठोंक कर दहेज और अपनी ससुराल के खिलाफ़ अचानक पूरी ताकत से खड़ी होती है वह काबिले गौर है। पर सोचिए कि अग्निगर्भा जैसा मारक और दाहक उपन्यास लिखने वाले नागर जी खुद व्यक्तिगत जीवन में दहेज से अभिशप्त रहे। क्या हुआ कि उन दिनों उन्हें लगातार दो -तीन लखटकिया पुरस्कार मिल गए थे। व्यास सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और बिहार सरकार का भी एक लखटकिया सम्मान। मैं ने उन से मारे खुशी के कहा कि चलिए अब जीवन कुछ आसान हो जाएगा। सुनते ही वह कुपित हो गए। बोले, 'खाक आसान हो जाएगा?' पोतियों की शादी करनी है। जहां जाते हैं लोग मुंह बड़ा कर लेते हैं कि आप के पास तो पैसा ही पैसा है। अग्निगर्भा के लेखक की यह बेचैनी और यातना मुझ से देखी नहीं गई। फिर मुझे उन का ही कहा याद आया। एक बार एक इंटरव्यू में उन से पूछा था कि, 'क्या साहित्यकार भी टूटता है?' तो नागर जी पान की गिलौरी मुंह में दाबे धीरे से बोले थे, 'साहित्यकार भी आदमी है, टूटता भी होगा।' उन का वह कहा और यह टूटना अब मैं देख रहा था। उन को बेतरह टूटते मैं ने एक बार फिर देखा जब बा नहीं रहीं थीं। बा मतलब उन की धर्मपत्नी। जिन को वह अक्सर बात बात में कहते, 'बुढिया कहां गई? अभी आती होगी।' वगैरह-वगैरह कहते रहते थे। उसी बुढिया के न रहने पर इस बूढे को रोता देखना मेरे लिए दुखदाई हो गया था तब। तब मैं भी रो पड़ा था। करता भी क्या उन को अपने जीवन में मैं ने पहली बार फूट-फूट कर रोते देखा था। कोई 72-73 वर्ष की उम्र में वह रो रहे थे। तेरही के बाद एक दुपहरिया गया तो वह फिर फूट पडे। रोते-रोते अचानक बा के लिए वह गाने लगे, 'तुम मेरे पास होते हो गोया जब कोई दूसरा नहीं होता।' अदभुत था यह। पतियों के न रहने पर बिलखते-रोते तो मैं ने बहुतेरी औरतों को देखा था पर पत्नी के न रहने पर बिलखते रोते मैं पहली बार ही इस तरह किसी पुरुष को देख रहा था। यह पुरुष नागर जी थे। नागर जी ही लोक लाज तज कर इस तरह रो सकते थे। रोते-रोते कहने लगे- मेरा ज़्यादतर जीवन संघर्ष में बीता। बुढिया ने बच्चों को भले चने खिला कर सुला दिया पर कभी मुझ से कोई उलाहना नहीं दिया। न कभी किसी से कुछ कहने गई, न किसी के आगे हाथ पसारा। कह कर वह फिर उन की याद में रोने लगे।

मैं ने तब स्वतंत्र भारत में ही नागर जी की इस व्यथा को रेखांकित करते हुए एक भावांजलि लिखी। जो संडे को संपादकीय पेज पर छ्पी थी। बाद में यही भावांजलि नागर जी के एक इंटरव्यू के साथ कोलकोता से प्रकाशित रविवार में बाक्स बन कर छपी। अब शरद नागर फिर मुझ पर बेतरह नाराज। कहने लगे, 'पहले आप ने स्वतंत्र भारत में यह सब लिखा तो वह उसे पढ़ कर रोते रहे। अब किसी तरह स्थिर हुए तो अब रविवार पढ़ - पढ़ कर रो रहे हैं। ऐसा क्यों कर रहे हैं आप? बंद कीजिए यह सब !' मैं निरुत्तर था। और देखिए कि बा के जाने के बाद नागर जी सचमुच इस कदर टूट गए थे कि जल्दी ही खुद भी कूच कर गए। वह शायद पीढियां उपन्यास पूरा करने के लिए ही अपने को ढो रहे थे। 74 वर्ष की उम्र में उन का महाप्रयाण सब को तोड़ देने वाला था। उन के 75 वर्ष में अमृत महोत्सव की तैयारियां थीं। जैसे बा के जाने पर नागर जी कहते रहे थे कि, 'ज़्यादा नहीं भगवान से बस यही मांगा था कि दो-तीन साल का साथ और दे देते !' ठीक वैसे ही शरद नागर अब बिलख रहे थे कि बस अमृत महोत्सव मना लिए होते.....!' खैर।

नागर जी जैसे लोग हम तो मानते हैं कि कभी मरते नहीं। वह तो अभी भी ज़िंदा हैं, अपने तमाम-तमाम पात्रों में। अपनी अप्रतिम और अनन्य रचनाओं में। इस लखनऊ के कण-कण में। लखनऊ के लोग अब उन्हें भले बिसार दें तो भी वह बिसरने वाले हैं नहीं। चौक में होली की जब भी बात चलती है, नागर जी मुझे लगता है हर होली जुलूस में खडे़ दीखते हैं अपनी पूरी चकल्लस के साथ। वहां के कवि सम्मेलनों का स्तर कितना भी क्यों न गिर जाए नागर जी की याद के बिना संपन्न होता नहीं। चौक में उन की हवेली को स्मारक का दर्जा भले न मिल पाया हो पर चौक के वाइस चांसलर तो वह आज भी हैं। हकीकत है यह। सोचिए कि एक बार जब उन्हें एक यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर बनाने का प्रस्ताव रखा गया तो उन्हों ने उस प्रस्ताव को ठुकराते हुए यही कहा था कि मैं अपनी चौक यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर ही ठीक हूं। क्या उस चौक में उन का दिल अब भी धडकता न होगा? उन के परिवार के लोग भी अब चौक छोड़ इंदिरा नगर, विकास नगर और मुंबई भले रहने लगे हैं पर उन के पात्र? वह तो अभी भी वही रहते हैं। बूंद और समुद्र की ताई को खोजने की ज़रूरत नहीं है न ही करवट के खत्री बंधुओं की न अग्निगर्भा के उस नायिका को, नाच्यो बहुत गोपाल की वह ब्राह्मणी भी अपने सारे दुख सुख संभाले मिल जाएगी आप को इसी लखनऊ के चौक में।और जो सच कहिए तो मैं भी वही गाना चाहता हूं जो नागर जी बा के लिए कभी गा गए हैं, 'तुम मेरे पास होते गोया जब कोई दूसरा नहीं होता !' लेकिन यह तो हमारी या हम जैसे कुछ थोडे़ से लोगों की बात है। खामखयाली वाली। एक कड़वा सच यह है कि इस लखनऊ में लेखन की जो त्रिवेणी थी उस की अजस्र धारा में भीगे लोग अब कृतघ्न हो चले हैं। नागर जी की याद में यह शहर तभी जागता है जब उन के परिवारीजन उन की जयंती और पुण्‍य-तिथि पर कोई आयोजन करते हैं। यही हाल भगवती चरण वर्मा का भी है कि जब उन के परिवारीजन उन की जयंती व पुण्‍य-तिथि पर कोई आयोजन करते हैं तब शहर उन की याद में भी जाग लेता है। अब बचे यशपाल जी। उन के बेटे और बेटी में सुनते हैं कि उन की रायलटी को ले कर लंबा विवाद हो गया और फिर वह लोग देश से बाहर रहते हैं। उन की पत्नी प्रकाशवती पाल भी इलाज के लिए सरकारी मदद मांगते हुई सिधार गईं। सो यशपाल जी को उन की जयंती या पुण्‍य-तिथि पर कोई फूल माला भी नहीं नसीब होती इस शहर में कभी। तब जब कि वह सिर्फ़ लेखक ही नहीं क्रांतिकारी भी थे। और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी के दल में। दुर्गा भाभी के साथ प्रकाशवती पाल भी उस यात्रा में साझीदार थीं और राज़दार भी जिस में भगत सिंह को अंगरेज वेष-भूषा में ट्रेन से निकाल कर ले गई थीं। 'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले/वतन पर मरने वालों का बस यही बाकी निशां होगा !' शायद हम लोग झूठ ही गाते रहे हैं। नहीं अभी वर्ष 2003 में यशपाल और भगवती चरण वर्मा की जन्मशती थी। यह कब निकल गई लखनऊ ने या हिंदी जगत ने जाना क्या? अभी नागर जी की भी जन्मशती करीब है, कोई चार साल बाद। देखना होगा कि कौन सा बाकी निशां होगा! यह कौन सा झूठा सच है मेरे लखनऊ वालो, हिंदी वालो! आखिर कृतघ्नता की भी कोई हद होती है दोस्तो! एक फ़िल्मी गाने के सहारा ले कर ही जो कहूं तो 'जो तुम पर मिटा हो उसे ना मिटाओ !' सचमुच गुजरात से उन के पूर्वज भले आए थे यहां पर नागर जी तो लखनऊ पर मर मिटे। बात यहां तक आई कि एक समय वह तस्लीम लखनवी तक बन बैठे। तो मसला वही था कि हम फ़िदाए लखनऊ, लखनऊ हम पे फ़िदा! आखिर इस तस्लीम लखनवी की याद को लखनऊ भी तस्लीम [स्वीकार] कर ले तो आखिर हर्ज़ क्या है!