अरे….चौकसे जी अब नहीं लिखेंगे ! / कीर्ति राणा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यूक्रेन-रूस युद्ध होने के तो आसार तो लगातार बनते ही जा रहे थे।मिसाइलों बमों के धमाके से तो दिल नहीं दहला, लेकिन सुबह ‘जंग रसिया’ से पहले दैनिक भास्कर की इस खबर को पढ़कर दिल धक से रह गया कि “परदे के पीछे” कॉलम की आज आखिरी किस्त है।इसके साथ सुधीर जी की सूचना थी जिसे पढ़ते हुए लगा कि ये पीड़ा भास्कर ग्रुप के एमडी की नहीं मुझ जैसे असंख्य पाठकों की है।

जैसी कि शुरु से आदत रही है अखबार में प्रकाशित चौकसे जी का कॉलम और शवयात्रा-उठावने वाला पेज सबसे पहले पढ़ने की आदत रही है। ज्यादातर दिन जब सुबह सिटी कवरेज के लिए जल्दी निकल जाता तब भी अखबार सहेज कर रखता कि चौकसे जी का कॉलम पढ़ना है।रसरंग भी पुराने अखबारों के ढेर में तब तक नहीं जाता था जब तक ‘आपस की बात’ पूरी न हो जाए।अखबार की भाषा में जिसे यूएसपी (यूनीक सेलिंग प्वाइंट) कहा जाता है वो पहचान रही है इन कॉलम की।ऐसे कई पाठक मिल जाएंगे जिनके लिए भास्कर का मतलब परदे के पीछे कॉलम रहा है।

नवभारत टाइम्स का दायित्व संभालने के बाद राजेंद्र माथुर जी (रज्जू बाबू) के कहने पर शरद जोशी ‘प्रतिदिन’ लिखा करते थे।तब भी ताज्जुब होता था कि शरद जी हर रोज कैसे लिख लेते हैं। चौकसे जी का 26 साल से हर रोज लिखना ही अपने आप में चुनौती है कि वे कई वर्षों से कैंसर को हराने में भी जुटे रहे हैं। ऐसे में हर रोज ऐसा लिखना कि वह पहले दिन से और बेहतर ही रहे।उनके लिखे कि आलोचना भी इसलिए होती रही कि मोदीराज से अधिक गांधी के स्वराज का जिक्र रहता था।’परदे के पीछे’ में फिल्मी किस्सों के साथ दर्शन, देश दुनिया की हलचल के साथ ही कवियों-शायरों से मुलाकात भी शामिल रहती थी। इंडियन कॉफी हाउस में हम मित्रों के समूह “इराक” में कवि सरोज कुमार के माध्यम से एकाधिक बार चौकसे जी को आमंत्रित किया। अखबारों में जब इस आशय की सूचना प्रकाशित होती की रविवार को चौकसे जी से चर्चा करेंगे तो कॉफी हाउस का वह कमरा छोटा पड़ जाता था-यह उनके लेखन का सम्मोहन ही रहा है कि उस दिन लोग खिंचे चले आते थे। चौकसे जी अपनी लेखन प्रक्रिया के विषय में बताते थे कि पेन-पेड पलंग पर रखा रहता था, कॉलम देर रात लिखते थे।

भास्कर में कभी रसरंग की टीम के आधार स्तंभ चंद्रकांत देवताले, राम विलास शर्मा, श्रीराम ताम्रकार, प्रभु जोशी और जेपी चौकसे जैसे दिग्गज रहे हैं।प्रभु जोशी के संबंधों का ही परिणाम था कि उस दौरान निकली संग्रहणीय किताब ‘समग्र’ के लिए नामचीन लेखक-कलाकार-चित्रकार लिखने को तैयार हुए थे।

चौकसे जी से जुड़ा एक किस्सा है जो बताता है कि अपने लेखन के प्रति कितने निष्पक्ष रहे हैं। ताम्रकरजी और चौकसे जी में पारिवारिक-प्रगाढ़ मित्रता रही है। ताम्रकर जी के निधन पर मैंने उन्हें मैसेज किया, जिसका मजमून कुछ इस तरह था कि राज कपूर के मकान की खिड़की का कांच भी दरक जाए तो आप लिखने से नहीं चूकते लेकिन फिल्मों के जानकार और आप के मित्र श्रीराम ताम्रकार के निधन पर आप ने अपने कॉलम में नहीं लिखा।

कुछ देर बाद ही उनका फोन आ गया, बोले राजकपूर का परिवार टट्टी भी करेगा तो उस पर लिखूंगा। ताम्रकरजी मेरे मित्र रहे यह भी ठीक है लेकिन उनका काम संदर्भ आधारित रहा है, मौलिक लेखन नहीं किया। इसलिए उन पर लिखना सही नहीं लगता। फिर वो बोले हां उन्होंने जो फिल्मी संदर्भ ग्रंथ लिखा है उसके प्रकाशन की मंजूरी छत्तीसगढ़ सरकार जल्दी दे इस का प्रयास जरूर करुंगा।

सुधीर जी ने जिस तरह पेज वन पर अपनी टिप्पणी के साथ उनका कॉलम भी इसी पेज पर प्रकाशित किया है वह करोड़ों पाठकों/प्रशंसकों के दिलों को छूने वाला है।इससे पहले कल्पेश जी के निधन पर उनके साप्ताहिक कॉलम ‘असंभव के विरुद्ध’ वाली पूरी स्पेस खाली छोड़ कर श्रद्धांजलि व्यक्त की थी।आज आखिरी किस्त है, सुबह यह सूचना पढ़ने के बाद से ही उदासी छाई हुई है। रोज जिसे नियमित पढ़ना नशा कहें या आदत बन गई हो, उसका लिखा अब पढ़ने को नहीं मिलेगा-यह पढ़ते हुए लग रहा था कि हम इस कॉलम के कितने आदी हो गए थे कि कभी सोचा ही नहीं कि ऐसा भी हो सकता है।राजकुमार केसवानीजी के जाने के बाद ‘आपस की बात’ बंद हो गई।खानापूर्ति के लिए पंकज राग ‘धुनों की यात्रा’ करा रहे हैं।मैं इस सफर में हम राही नहीं बन पा रहा हूं। शायद इसकी वजह यही होगी कि अपन को राग-सुर-ताल की समझ नहीं है।

चौकसे जी हैं, लेकिन अब लिखेंगे नहीं, यह विचलित करने वाला तो है किंतु उनकी जीवटता को सलाम करता हूं कि सतत कैंसर से जूझने के बाद भी इस कॉलम का लेखन ही उनके लिए कारगर दवाई बना रहा।अस्पताल में भर्ती रहते, दवाई लेते हुए भी उनकी चिंता रहती थी समय पर लिख दूं।वो कैंसर से जूझ रहे हैं और पत्नी भी इसका शिकार हुई लेकिन चौकसे जी का लिखा पढ़ना और मात्राओं की गलती ठीक कर भास्कर के लिए रवाना करना उनकी जिम्मेदारी रही है।

कहीं शेर पढ़ा था, वो कुछ इस तरह है- ‘शाम आती है तो ये सोच के डर जाता हूँ, आज की रात मेरे शहर पे भारी तो नहीं’

चौकसे जी फिर लिखेंगे, इस विश्वास का जिंदा रहना जरूरी है।