असंभावनाओं और नैराश्य के विरुद्ध संभावनाओं और आशा की कविताएँ / स्मृति शुक्ला

Gadya Kosh से
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संभव के विरुद्ध असंभव नहीं,

खुद आँखें खोलकर, देखा ही नहीं

जीने के लिए मरना कितना जरूरी

कभी मरकर जाना ही नहीं

जन्म से बंद मुट्ठी में

अपना कुछ था नहीं

एक बार खोलते देख लेते

इतना होश था ही नहीं

हिन्दी के प्रतिष्ठित वरिष्ठ कवि अशोक शाह के नये कविता संग्रह 'वसंत का आना तय है' कि ये पंक्तियाँ हर उस मनुष्य के लिए हैं, जो इतना व्यस्त, इतना बेचैन है और भौतिकता की चकाचैंध में आकंठ डूबा हुआ, अधिक से अधिक पा लेने की लालसा में सिर्फ भाग रहा है। उसके पास इतना अवकाश नहीं कि वह एक क्षण ठहरे और होश में यानी चेतना सम्पन्न बनकर जीना सीखे। इस संग्रह की कविताएँ हमें बताती हैं कि हम बिना भ्रम के जीना कैसे और क्यों सीखें।

वस्तुतः अशोक शाह की कविता सत्य की खोज की कविता है उनकी कविता में न तो कल्पना के ताने-बाने हैं और न शब्दों की बाजीगिरी है। काव्य विषयों और अनुभवों की विपुलता और वैविध्य उनकी कविता की खासियत है। उनकी कविता में एक साथ कई ध्वनियाँ हैं। कविता के प्रचलित ढाँचे से निकलकर वे अपनी राह स्वयं बनाने वाले कवि हैं। बिम्ब, प्रतीक, रस, ध्वनि और अलंकारों के साथ ही वे संवेदनाओं के नये क्षितिज खोलकर कविता को आत्म साक्षात्कार का माध्यम बनाते हैं।

अशोक शाह समकालीन कविता के उन विरल कवियों में से एक हैं जिन्होंने पास प्रकृति और परिवेश के प्रति चौकन्नी दृष्टि है। उन्होंने दर्शन और अध्यात्म की गूढ़ता से सिक्त तथा प्रकृति के राग से रंजित और विनष्ट होते पर्यावरण की चिंता को अभिव्यक्त करने वाली सशक्त कविताओं से अपनी एक मुकम्मल पहचान बनाई है। विगत तीस वर्षों से हिन्दी साहित्य-जगत् में लगातार सर्जन कर रहे अशोक शाह की कविताओं का वलय खूब विस्तारित है। 1996 में प्रकाशित उनके कविता संग्रह 'माँ के छोटे घर के लिए' के बाद अशोक शाह का चौदहवाँ कविता-संग्रह 'वसंत का आना तय है' 2021 में समय प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की भूमिका में वे लिखते हैं-

"किसी भी प्रकार की यांत्रिकता हिंसक सभ्यता को ही जन्म देती है जिसमें महत्त्वाकांक्षा होती हैं, सफलता का मंत्र होता है, दुविधा होती है, विरोधाभास होते है और अनेक प्रकार के संघर्ष होते हैं। सफलता क्या है-एक यांत्रिक उपलब्धि? महत्त्वाकांक्षा हिंसा है और इसी हिंसा का उपयोग कर हम सफल होना चाहते हैं। पर किसलिए? ... हमारा जीवन प्रतिक्रियाओं की रस्मों से भरा हुआ है। एक दिन, एक पल भी ऐसा नहीं बीतता जो प्रतिक्रिया से भरा न हो। हम महज प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं इसलिए सर्जन की कोई गुंजाइश बची ही नहीं है। खाली ढोल की तरह हम बजते हैं जितना पीटो उतना ही। क्रिया करना सर्जन करना है। ... हम उतना ही ज्ञान हासिल कर सकते हैं, जिनता पहले ही कहा या लिखा जा चुका है; इसलिए पढ़ा-लिखा महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति सबसे बड़ा अज्ञानी है। वह कुछ भी सीखने के काबिल नहीं रहता। वह पात्रता खो चुका होता है; लेकिन जिन्हें हम अनपढ़ कहते हैं, उनके पास सीखने की काफी संभावना रहती है। उन संभावना में रचना की क्षमता है। हम शब्दों के माध्यम से उसे जान नहीं सकते। कबीर और रैदास इसके उदाहरण हैं।" इस संग्रह की कविताओं में कवि ने हमें पुनर्नवा होने का संदेश दिया है। ये कविताएँ बताती हैं कि पुनर्नवा कैसे हुआ जा सकता है। कवि अशोक शाह अपनी कविताओं में समय-स्मृति, प्रकृति-पर्यावरण, प्रेम-स्नेह, सुख-दुख, गाँव-नगर, परिवार-समाज, किसान-मजदूर के साथ दर्शन और अध्यात्म की घनीभूत अभिव्यक्ति करते हैं। उनकी प्रारंभिक कविताओं में भी दर्शन एक बीज की तरह है और यही बीज बाद में उनकी कविताओं में पल्लवित और पुष्पित हुआ है। 'वसंत का आना तय है' संग्रह की एक कविता है-'अँधेरे को जानना प्रकाश है।' उनका मानना है कि अंधकार को समझ लेने पर ही प्रकाश को जाना जा सकता है, ठीक उसी प्रकार मृत्यु को जान लेने पर ही हम जीवन को जान सकते हैं। अंधकार को जान लेने और समझ लेने की यह जिज्ञासा उनके प्रथम संग्रह में भी दिखाई देती है जिसमें वे 'सघनतम तिमिर-घन ओढे श्यामल पट-वसन, कुछ कह तो' कहते हुए अंधकार से बातचीत करते हुए नजर आते हैं। उनकी इस कविता में दर्शन और विज्ञान का संश्लेष है। उनका प्रश्नाकुल मन कहता है कि क्या हमारे साँस लेने या छोड़ने का कोई सम्बंध ब्रह्माण्ड के लगातार विस्तारित होते रहने से है। हमारी हिंसा, द्वेष और प्रपंच से क्या होता होगा आकाश गंगा में या क्या हमारे सत्य बोलने से एक फूल के खिलते समय उसकी पंखुड़ियाँ कुछ अधिक आह्लादित होकर फैलती होंगी। इस निरंतर विस्तारित होते असीम ब्रह्माण्ड में हम क्या है? हमारी स्थिति क्या हैं? हम कितना कम जानते हैं फिर भी झूठे अहंकार में डूबे हुए है। कवि कहते हैं-

खड़े हमी हैं बने अपारदर्शी दीवार

सत्य और आभास के मध्य

और हमें ही जानना है उस पार

जैसे कि अँधेरे को जानना है

प्रकाश होता है क्या?

अशोक शाह का मानना है कि जगत् में यदि अंधकार नहीं होता तो शायद प्रकाश को नहीं समझा जा सकता था। सुख-दुख, पाप-पुण्य, अच्छाई-बुराई, रात-दिन, अंधकार और प्रकाश एक दूसरे के विपरीत गुण धर्म वाले युग्म हैं। लेकिन इनकी विपरीताओं में एक उभयनिष्ठता है। एक को पहचानने के लिए दूसरा आवश्यक है। कवि अशोक शाह सत्य के मार्ग का अनुसरण करने वाले पथिक हैं। उन्होंने अपने पिछले कविता संग्रहों की भूमिका में लिखा है-" कविता और प्रकृति दोनों ही सत्य को उद्भाषित करते हैं। प्रकृति विविध रूपों के माध्यम से स्थूल जगत का जीवित और निर्जीव रूप हमारे सामने उपस्थित करती है। इसका आभास हम भौतिक रूप से अपनी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से करते हैं। ... कविता को हमेशा सत्य कहना चाहिए। जिस कविता में सत्य न हो, वह कविता नहीं और वह साहित्य और श्रद्धा का हिस्सा नहीं बन सकती। 'वसंत का आना तय है' संग्रह की कविताएँ मनुष्य को आत्म साक्षात्कार के लिए प्रेरित करती हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति है तरह-तरह के विचारों, स्मृतियों, घटनाओं को संचित करते जाना, धन का संग्रह और अपनी लालसाओं की पूर्ति को ही जीवन का लक्ष्य बना लेना। इस मृगतृष्णा में उलझ कर हम जीवन का सच्चा आनंद नहीं ले पाते। कवि अशोक शाह लिखते हैं-

जो जिया नहीं गया

संग्रह सबूत है उसी का

एक नासमझ आदमी गिनता रहता है

गिनती करता आदमी हिसाबी-किताबी और मजहबी होता है

पर आदमी धरती का मुनीम भर तो नहीं।

कवि का मूल स्वर यही है कि मैं की जगह समष्टि को रख लिया जाये, कुछ नया किया जाए और अपने अंतर को शून्य से तदाकार कर लिया जाए।

कवि अशोक शाह मानते हैं कि जब हम केवल अपने लिए जीते हैं, केवल अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए कार्य करते हैं तब हम संकुचित होकर जीते हैं और बहुत जल्दी थक जाते हैं, स्वार्थ में अकेले हुए हम बहुत जल्दी थक जाते हैं, कई बार तो अकेले इतना अधिक टूट जाते हैं कि आत्महत्या तक के विषय में सोचने लगते हैं। कवि ने 'थकान' शीर्षक कविता दिखने में छोटी-छोटी किन्तु महत्त्वपूर्ण बातों पर गौर किया है। ये वे बाते हैं जो हमें मनुष्य के दर्जे से नीचे गिराती हैं और थकाती है। उदाहरण के लिए-

जीने लगा जब से सिर्फ अपने लिए

और रोपने लगा पेड़

अपने ही सीमित आँगन में

थकने लगा है आदमी।

यहाँ कवि जैसे पूरे समाज की तासीर को, सामूहिक अवचेतन को व्यक्त कर रहा है। चीटियों और मधुमक्खियों का उदाहरण देते हुए उनके संगठन, प्रेम और आपसी सहयोग की महत्ता भी कविता में व्यक्त हुई है। विवेच्य संग्रह की कविताएँ अन्तःप्रज्ञा और मानवीय उष्मा से भरी हुई एक नैतिक बोध की कार्यवाही इसलिये हैं क्योंकि अशोक शाह मनुष्य की गरिमा और मनुष्यता के सौन्दर्य को बचाए रखने वाली सजग चेतना के कवि हैं। इस संग्रह की कविताएँ मानवीयता से सम्बलित हैं। भटके हुए मनुष्यों की दिग्दर्शक हैं और सत्य का संधान करने वाली हैं। विवेच्य संग्रह की कविताएँ मौजूदा दौर के व्यापक फलक को समेटती हैं, अपने समय के संकटों से मुखातिब हैं, पूँजी, बाज़ार और तकनीक आवश्यक होते हुए भी हमें किस तरह संवेदनहीन बना रहे हैं। मनुष्य ने तरह-तरह की मशीने ईजाद की और खुद इनका गुलाम बनता चला गया। अपने को सभ्य बनाने के लिए हमने धरती को उजाड़ दिया। हवा, पानी, मिट्टी सभी को प्रदूषित कर दिया, वृक्ष काट दिये पर्यावरण को क्षति पहुँचाई, कवि अशोक शाह ऐसी हिंसक सभ्यता के विरुद्ध हैं-

आदमी के ऐसे सभ्य होने में कुल्हाड़ी का ही रहा हाथ

वृक्ष हमेशा दिए गए जंगली करार

कुल्हाड़ी के बिना क्या मनुष्य सभ्य नहीं हुआ होता

या कुल्हाड़ी नहीं होती तो आदमी एक वृक्ष की तरह सभ्य हुआ होता।

सभ्य होने के हो सकते थे कई-कई सुन्दर विकल्प

इस धरती पर आदमी शायद चूक गया है।

कवि अशोक शाह के काव्य संग्रह 'वसंत का आना तय है' में एक ओर जहाँ नगरीय जीवन की अकुलाहटें है तो दूसरी ओर ग्राम्य जीवन की कसमसाहटें है। इन कविताओं में बहुत कुछ बहुमूल्य खो जाने का विशाद भी घुला है, तो अनुराग का आह्लाद भी किलकता है। उनकी कविता में सत्ता के सामने निहत्था और निष्कपट खड़ा सच्चा व्यक्ति भी है तो स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक नीचे गिर कर दाँत निपोरने वाला वेशर्म व्यक्ति भी है। कवि अशोक शाह की जीवन -दृष्टि उनका नजरिया अलग है तभी वे सौन्दर्य को नए दृष्टिकोण से परिभाषित करते हैं-

सुन्दरता क्या होती है पूछो उन हाथों से

श्रम से सींचकर पूरी जिन्दगी, मृत संगमरमर को कर दिया सजीव

बलुआ पत्थरों पर उकेर जीवन-सौन्दर्य

जो सो गए खाली पेट भव्य इमारतों की नंगी फर्श पर

कितने सुंदर थे वे लोग

यहाँ कवि सुन्दर इमारतों में सौन्दर्य नहीं देखता अपितु उन श्रमशील मनुष्यों को सुन्दर कहता है जिन्होंने इन इमारतों को गढ़ा है।

'वसंत का आना तय है' संग्रह की कविताओं की भाषा कृत्रिमता से दूर सहज सरल भाषा है। इसी भाषा से वे दृश्य, श्रव्य, गंध, रूप, रस और स्पर्श को मूर्त करते हैं। उनकी कविता में जो लय है वह केवल ध्वन्यात्मक व्यवस्था भर नहीं है वरन भावना और अर्थ का नियोजन भी इसमें है। अशोक शाह का यह संग्रह उनके जीवनानुभव जो उन्हें सामाजिक परिवेश से मिले हैं उनको अभिव्यक्त करता है। उन्होंने अपनी कविताओं में जिन मुद्दों और सवालों को उठाया है कहीं उनके हल भी सुझाए हैं। जहाँ एक ओर वे सामाजिक यथार्थ का चित्रण करते हैं तो दूसरी ओर प्रकृति से लगाव और कोमल राग का भी चित्रण करते हैं। स्वयं की खोज करते हुए उनके मन की बेचैनी ने उन्हें दर्शन की तरफ उन्मुख किया है तभी वे कह पाते हैं कि-"जीत के लिए हमें सीखना होगा हारना; क्योंकि जो हारते नहीं कभी जीतते नहीं।" इस संग्रह की शीर्षक कविता आशा और उत्साह का संचार करने वाली कलात्मक उत्कर्ष की कविता है जो पतझड़ के बाद आने वाले वसंत की न केवल सूचना दे रही है बल्कि उसके आगमन को सुनिश्चित कर रही है।

संग्रह की एक महत्त्वपूर्ण कविता है 'असंभव के लिये' यह एक गहन भावबोध से भरी अत्यंत अर्थपूर्ण कविता है जो हमारे तमाम विभ्रम, बौनेपन, आलस्य, मोह, अज्ञान और वैयक्तिक वेदना के बरअक्स बताती है कि कैसे दुख की नदी से पार हुआ जाता है, कैसे मृत्यु के भय से उबरकर निर्भय हुआ जा सकता है, कैसे निष्क्रियता को सक्रियता में तब्दील किया जा सकता है, कैसे 'स्व' के घेरे को तोड़कर 'पर' तक पहुँचा जा सकता है और कैसे सीमाओं की बंद चौहद्दी को तोड़कर निस्सीम हुआ जा सकता है कैसे सरल और संभव रास्ता बदलकर असंभव तक पहुँचा जा सकता है-

संभव था दुख को सुख कहना, एक और जन्म की कल्पना करना,

और इस जीवन को मरकर जी लेना

दुख की नदी से निकल पाना भी संभव था

संभव के विरुद्ध असंभव नहीं, खुद आँखे खोलकर देखा ही नहीं

जीने के लिये मरना कितना जरूरी, कभी मरकर जाना ही नहीं।

निःसंदेह अशोक शाह हिन्दी के महत्त्वपूर्ण वरिष्ठ कवि हैं जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से अपने सामाजिक दायित्व का निर्वहन बखूबी किया है। आदिवासी स्त्री 'लेकी' से लेकर मजदूर किसान और आदिवासी सभी उनकी कविता के केन्द्र में है। प्रकृति को बचाने की गहरी चिंता से जन्मी इन कविताओं में मानवीय और सामाजिक सरोकार गुँथे हुए हैं। कोरी भावुकता, कल्पना और झूठ से दूर इन कविताओं में यथार्थ की अभिव्यक्ति है।

वसंत का आना तय है-अशोक शाह, समय प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2021, पृ। 127, मूल्य-250 रुपये

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