आँख की किरकिरी / खंड 4 / पृष्ठ 7 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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अगले दिन महेंद्र ने माँ से कहा - 'माँ, पढ़ने-लिखने के लिए मुझे कोई एकांत कमरा चाहिए। मैं चाची वाले कमरे में रहूँगा।'

माँ खुश हो गई, 'तब तो महेंद्र अब घर में ही रहा करेगा। लगता है, बहू से सुलह हो गई। भला अपनी ऐसी अच्छी बहू की सदा उपेक्षा कर सकता है। ऐसी लक्ष्मी को छोड़ कर उस मायाविनी डायन के पीछे वह कब तक भूला रह सकता है?'

माँ ने झट कहा - 'हर्ज क्या है, रहो!'

उन्होंने तुरंत कुंजी निकाली, ताला खोला और झाड़-पोंछ की धूम मचा दी- 'बहू, अरी ओ बहू, कहाँ गई?' बड़ी कठिनाई से घर के एक कोने में दुबकी हुई बहू को बरामद किया गया - 'एक धुली चादर ले आओ! इस कमरे में मेज नहीं है, लगानी पड़ेगी। इस रोशनी से काम नहीं चलेगा, ऊपर से अपना वाला लैंप भिजवा दो।' इस तरह दोनों ने मिल कर उस घर के राजाधिराज के लिए अन्नपूर्णा के कमरे में राज-सिंहासन तैयार कर दिया। महेंद्र ने सेवा में लगी हुई माँ-बहू की तरफ ताका तक नहीं, वहीं किताब लिए जरा भी समय बर्बाद न करके गंभीर हो कर पढ़ने बैठ गया।

शाम को भोजन के बाद वह फिर बैठा। सोना ऊपर के कमरे में होगा या वहीं, कोई न समझ सका। बड़े जतन से राजलक्ष्मी ने आशा को मूरत की तरह सजा कर कहा - 'बहू, महेंद्र से पूछ तो आओ, उसका बिस्तर क्या ऊपर लगेगा?' इस प्रस्ताव पर आशा का पाँव हर्गिज न हिला, वह सिर झुकाए चुपचाप खड़ी रही। नाराज हो कर राजलक्ष्मी खरी-खोटी सुनाने लगीं। बड़े कष्ट से आशा दरवाजे तक गई, पर उससे आगे न बढ़ सकी। दूर से बहू का वह रवैया देख कर राजलक्ष्मी नाराज हो कर इशारे से निर्देश करने लगीं। मरी-सी हो कर आशा कमरे में गई। आहट पा कर किताबों से सिर न उठा कर ही महेंद्र ने कहा - 'मुझे अभी देर है - फिर तड़के से ही उठ कर पढ़ना है - मैं यहीं सोऊँगा।' शर्म की हद हो गई! आशा महेंद्र को ऊपर सुलाने के लिए थोड़े ही गिड़गिड़ाने आई थी।

वह निकली। निकलते ही खीझ कर राजलक्ष्मी ने पूछा - 'क्यों, क्या हुआ?'

आशा बोली - 'अभी पढ़ रहे हैं। वे यहीं सोएँगे।'

कह कर वह अपने अपमानित शयन-कक्ष में चली गई। कहीं उसे चैन नहीं - मानो सब कुछ दोपहर की धरती-सा तप उठा है।

कुछ रात बीती, तो उसके कमरे के दरवाजे पर थपकी पड़ी - 'बहू, बहू, दरवाजा खोलो!'

आशा ने झट-पट दरवाजा खोल दिया। दमे की मरीज राजलक्ष्मी सीढ़ियाँ चढ़ कर तकलीफ से साँस ले रही थीं। कमरे में जा कर वह बिस्तर पर बैठ गईं और वाक्-शक्ति लौटते ही बोलीं - 'तुम्हारी अक्ल की बलिहारी! ऊपर कमरा बंद किए पड़ी हो! यह क्या राग-रोष का समय है! इस मुसीबत के बाद भी तुम्हारे भेजे में बुद्धि नहीं आई! जाओ नीचे जाओ!'

आशा ने धीमे से कहा - 'उन्होंने कहा है, एकांत में रहेंगे।'

राजलक्ष्मी - 'कह दिया और हो गया। गुस्से में जाने क्या कह गया, उसी पर तुम तुनक बैठोगी। ऐसी तुनक-मिजाज होने से काम नहीं चलेगा। जाओ, जल्दी जाओ।'

दु:ख के दिनों में सास को बहू से लाज नहीं। जो भी तरकीब उन्हें आती है, उसी से महेंद्र को किसी तरह बाँधना पड़ेगा। आवेग से बातें करते हुए राजलक्ष्मी का फिर से दम फूलने लगा। अपने को थोड़ा-बहुत सँभाल कर उठीं। आशा भी आजिज न हो कर पकड़ कर उन्हें नीचे लिवा ले गई। उनके सोने के कमरे में आशा ने उन्हें बिठा दिया और पीठ की तरफ तकिए लगाने लगी। राजलक्ष्मी बोलीं - 'रहने दो बहू, किसी को भेज दो। तुम जाओ!'

अबकी आशा जरा भी न हिचकी। सास के कमरे से निकल कर सीधे महेंद्र के कमरे में गई। महेंद्र के सामने मेज पर किताब खुली पड़ी थी - वह मेज पर दोनों पैर रख कर कुर्सी पर माथा टेके ध्यान से न जाने क्या सोच रहा था। उसके पीछे पैरों की आहट हुई। चौंक कर उसने पीछे की ओर देखा। मानो किसी के ध्यान में लीन था - एकाएक धोखा हुआ कि वह आ गई। आशा को देख कर महेंद्र सँभला। खुली किताब को उसने अपनी गोद में खींच लिया।

मन-ही-मन महेंद्र को अचरज हुआ। इन दिनों ऐसे बेखटके तो आशा उसके सामने नहीं आती - अचानक भेंट हो जाती है तो वह वहाँ से चल देती है। आज इतनी रात को वह इस सहज भाव से उसके कमरे में आ गई, ताज्जुब है! किताब से आँखें हटाए बिना ही महेंद्र ने समझा, आज आशा के लौट जाने का लक्षण नहीं। वह महेंद्र के सामने आ कर स्थिर भाव से खड़ी हुई। इस पर महेंद्र से मान करते न बना। सिर उठा कर उसने देखा। आशा ने साफ शब्दों में कहा - 'माँ का दम उखड़ आया है। चल कर एक बार देख लो तो अच्छा हो!'

महेंद्र - 'वे हैं कहाँ?'

आशा - 'अपने सोने के कमरे में हैं। नींद नहीं आ रही है।'

महेंद्र - 'अच्छा, चलो, उन्हें देख आऊँ।'

बहुत दिनों के बाद आशा से इतनी-सी बात करके महेंद्र जैसे हल्का हुआ। किसी दुर्भेद्य किले की दीवार-सी नीरवता मानो उन दोनों के बीच स्याह छाया डाले खड़ी थी - महेंद्र की ओर से उसे तोड़ने का कोई हथियार न था, ऐसे समय आशा ने अपने हाथों किले में एक छोटा-सा दरवाजा खोल दिया। आशा सास के कमरे के दरवाजे पर खड़ी रही। महेंद्र गया। उसे असमय में अपने कमरे में आया देख कर राजलक्ष्मी को डर लगा। सोचा, 'कहीं फिर दोनों में कहा-सुनी हो गई और वह चल देने की कहने आया हो।' पूछा - 'अब तक सोया नहीं, महेंद्र?'

महेंद्र ने कहा - 'क्या दमा उखड़ आया है, माँ?'

जमाने के बाद यह सवाल सुन कर उनके मन में मान हो आया। समझीं, 'जब बहू ने जा कर बताया, तो यह माँ का हाल पूछने आया है।' इस आवेश से उनका कलेजा और भी काँपने लगा। किसी तरह बोलीं - 'तू सो जा कर, यह कुछ नहीं।'

महेंद्र - 'नहीं, नहीं एक बार जाँच देखना अच्छा है। यह बीमारी टालने की नहीं।'

महेंद्र को पता था, माँ को हृदय की बीमारी है। इस वजह से तथा उनके चेहरे का लक्षण देख कर उसे घबराहट हुई।

माँ ने कहा - 'जाँचने की जरूरत नहीं। मेरी यह बीमारी नहीं छूटेगी।'

महेंद्र ने कहा - 'खैर, आज की रात के लिए सोने की दवा ला देता हूँ। सवेरे अच्छी तरह से देखा जाएगा।'

राजलक्ष्मी - 'दवा ढेर खा चुकी, दवा से कुछ होता-जाता नहीं। बहुत रात हो गई, तुम सो जाओ।'

महेंद्र - 'तुम्हें जरा चैन तो मिले।'

इस पर राजलक्ष्मी ने दरवाजे पर खड़ी बहू को संबोधित करके कहा - 'बहू, तुम रात में महेंद्र को तंग करने के लिए यहाँ क्यों ले आईं!'

कहते-कहते उनकी साँस की तकलीफ और भी बढ़ गई। तब आशा कमरे में आई। उसने कोमल किन्तु दृढ़ स्वर में महेंद्र से कहा - 'तुम सोओ जा कर। मैं माँ के पास रहूँगी।'

महेंद्र ने आशा को अलग बुला कर कहा - 'मैंने एक दवा लाने भेजा है। दो खुराक दवा होगी। एक से अगर नींद न आए तो घंटे बाद दूसरी खुराक देना। रात में साँस और बढ़े तो मुझे खबर देना।'

कह कर महेंद्र अपने कमरे में चला गया। आशा आज जिस रूप में उसके सामने प्रकट हुई, उसके लिए वह रूप नया था। इस आशा में संकोच नहीं, दीनता नहीं - यह आशा अपने अधिकार में खड़ी हुई थी। अपनी स्त्री की महेंद्र ने अपेक्षा की थी, मगर घर की बहू के लिए संभ्रम हुआ।

आशा ने जवाब न दिया। पीछे बैठ कर पंखा झलने लगी। राजलक्ष्मी ने कहा - 'तुम सोओ जा कर, बहू।'

आशा धीमे से बोली - 'मुझे यहीं रहने को कह गए हैं।'

आशा समझती थी कि यह जान कर माँ खुश होंगी कि महेंद्र उसे माँ की सेवा के लिए छोड़ गया है।