आजादी की लड़ाई और उसका नेतृत्व / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती

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कांग्रेस की दो बातें बुनियादी तौर पर महत्वपूर्ण रही हैं─ आजादी की लड़ाई और उसका नेतृत्व। नागपुर में कांग्रेस ने जब करवट बदली , तो जंगे आजादी को साम्राज्यशाही के विरोध में सीधी लड़ाई और प्रत्यक्ष युध्द को-आगे रखा। यह परंपरा 1949 तक चली आई। यह बात 1921, 1930, 1932 और 1942 में साफ देखी गई। 1934 और 1934-39 में उसने अप्रत्यक्ष या वैधानिक संघर्ष की ओर पाँव बढ़ाया सही , फिर भी यही कहकर कि यह उसी प्रत्यक्ष युध्द का पोषक है , अंग है─ उसी की तैयारी है। यह जंगे आजादी उसकी पहली बुनियादी और मौलिक चीज रही है। इसी के साथ नेतृत्व का भी प्रश्न रहा है। इस युध्द का कांग्रेस का और इसीलिए उसके द्वारा मुल्क का नेतृत्व किसके हाथों में रहे, कौन , कब , किस ओर मुल्क को , और कांग्रेस को भी , कैसे चलाए , यह सवाल उसकी दूसरी बुनियादी बात रही है। एक ही विचारधारावाला झमेला इसी दूसरी बात का बाहरी रूप था , जो उठकर दब गया और पहली ही आगे रही─ ऊपर रही 1945 वाले असेंबली के चुनावों के पूरे होने तक। इसको कहने में अत्युक्ति नहीं है कि इन 25 वर्षों के दरम्यान सब मिलाकर कांग्रेस एक योग-संस्था रही है , योगियों की चीज रही है─ उन धुनी मतवाले और लगन के पक्के लोगों की जमात रही है , जिनने मुल्क की आजादी अपने सामने रखी और उसके लिए सर्वस्व स्वाहा कर दिया , प्राणों तक की बाजी लगा दी और यम यातनाएँ झेलीं। योगी और साधक भी कभी-कभी चूकते हैं। मगर इससे क्या ? योगी , योगी ही होते हैं। इस बीच भोगी लोग भी उसमें आसन जमाने की कोशिश करे थे , आ घुसते थे। फिर भी वह बेशक योग-संस्था ही रही।