आत्मबल / आदर्श जीवन / डेविड ई शी / रामचंद्र शुक्ल

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विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि नम्रता ही स्वतन्त्रता की धात्री वा माता है। लोग भ्रमवश अहंकार वृत्ति को उसकी माता समझ बैठते हैं पर वह उसकी सौतेली माता है जो उसका सत्यानाश करती है। चाहे यह सम्बन्ध ठीक हो या न हो, पर इस बात को सब लोग मानते हैं कि आत्मसंस्कार के लिए थोड़ी बहुत मानसिक स्वतन्त्रता परम आवश्यक है-चाहे उस स्वतन्त्रता में अभिमान और नम्रता दोनों का मेल हो और चाहे वह नम्रता ही से उत्पन्न हो। यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसके लिए वह गुण अनिवार्य है, जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है। युवा पुरुष को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि वह बहुत कम बातें जानता है, अपने ही आदर्श से वह बहुत नीचे है, और उसकी आकांक्षाएँ उसकी योग्यता से कहीं बढ़ी हुई हैं। उसे इस बात का ध्याबन रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का सम्मान करे, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करे। ये बातें आत्ममर्यादा के लिए आवश्यक हैं। यह सारा संसार, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है-हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे कर्म, हमारे भोग, हमारी घर की और बाहर की दशा, हमारे बहुत से अवगुण और थोड़े से गुण-सब इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं कि हमें अपनी आत्मा को नम्र रखना चाहिए। नम्रता से मेरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है जिसके कारण बात बात में मनुष्य दूसरों का मुँह ताकता रहता है, जिससे उसका संकल्प क्षीण और उसकी प्रज्ञा मन्द हो जाती है, जिसके कारण वह आगे बढ़ने के समय भी पीछे रहता है और अवसर पड़ने पर चटपट किसी बात का निर्णय नहीं कर सकता। मनुष्य का बेड़ा अपने ही हाथ में है, उसे चाहे वह जिधार लगावे। सच्ची आत्मा वही है जो प्रत्येक दशा में, प्रत्येक स्थिति के बीच, अपनी राह आप निकालती है।

अब तुम्हें क्या करना चाहिए, इसका ठीक ठीक उत्तर तुम्हीं को देना होगा, दूसरा कोई नहीं दे सकता। कैसा भी विश्वासपात्र मित्र हो, तुम्हारे इस काम को वह अपने ऊपर नहीं ले सकता। हम अनुभवी लोगों की बातों को आदर के साथ सुनें, बुध्दिमानों की सलाह को कृतज्ञतापूर्वक मानें, पर इस बात को निश्चित समझकर कि हमारे कामों ही से हमारी रक्षा वा हमारा पतन होगा, हमें अपने विचार और निर्णय की स्वतन्त्रता को दृढ़तापूर्वक बनाए रखना चाहिए। जिस युवा पुरुष की दृष्टि सदा नीची रहती है, उसका सिर कभी ऊपर न होगा। नीची दृष्टि रखने से यद्यपि हम रास्ते पर रहेंगे, पर इस बात को न देखेंगे कि वह रास्ता कहाँ ले जाता है। चित्त की स्वतन्त्रता का मतलब चेष्टा की कठोरता वा प्रकृति की उग्रता नहीं है। अपने व्यवहार में कोमल रहो और अपने उद्देश्यों को उच्च रखो; इस प्रकार नम्र और उच्चाशय दोनों बनो। अपने मन को कभी मरा हुआ न रखो। जो मनुष्य जितना ही अपना लक्ष्य ऊपर रखता है, उतना ही उनका तीर ऊपर जाता है।

संसार में ऐसे ऐसे दृढ़चित्त पुरुष हो गए हैं जिन्होंने मरते दम तक सत्य की टेक नहीं छोड़ी, अपनी आत्मा के विरुध्द कोई कार्य नहीं किया। राजा हरिश्चन्द्र के ऊपर इतनी इतनी विपत्तियाँ आईं, पर उन्होंने अपना सत्य नहीं छोड़ा। उनकी प्रतिज्ञा यही रही-

चन्द्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार। पै दृढ़ श्री हरिश्चन्द को, टरै न सत्य विचार।।

महाराणा प्रतापसिंह जंगल-जंगल मारे मारे फिरते थे, अपनी स्त्रीा और बच्चों को भूख से पीड़ित देखते थे, पर उन्होंने उन लोगों की बात न मानी जिन्होंने उन्हें अधीनतापूर्वक सन्धि करने की सम्मति दी; क्योंकि वे जानते थे कि अपनी मर्यादा की चिन्ता जितनी अपने को हो सकती है, उतनी दूसरों को नहीं। हकीकतराय नामक वीर बालक को देखो जिसने जल्लाद की चमकती तलवार गरदन पर देखकर भी काजी के सामने अपना धर्म परित्याग करना स्वीकार नहीं किया। सिक्ख गुरु गोविन्दसिंह के दोनों लड़के जीते जी दीवार में चुन दिए गए, पर वे अपना धर्म छोड़कर मुसलमान होने के नाम पर 'नहीं' 'नहीं' करते रहे। एक बार एक रोमन राजनीतिज्ञ बलवाइयों के हाथ में पड़ गया। बलवाइयों ने उससे व्यंग्यपूर्वक पूछा-'अब तेरा किला कहाँ है?' उसने हृदय पर हाथ रखकर उत्तर दिया-'यहाँ।' ज्ञान के जिज्ञासुओं के लिए यही बड़ा भारी गढ़ है। मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि जो युवा पुरुष सब बातों में दूसरों का सहारा चाहते हैं, जो सदा एक न एक नया अगुआ ढूँढा करते हैं और उसके अनुयायी बना करते हैं, वे आत्मसंस्कार के कार्य में उन्नति नहीं कर सकते। उन्हें स्वयं विचार करना, अपनी सम्मति आप स्थिर करना, दूसरों की उचित बातों का मूल्य समझते हुए भी उनका अन्धाभक्त न होना, सीखना चाहिए। तुलसीदासजी को लोक में जो इतनी सर्वप्रियता और कीर्ति प्राप्त हुई, उनका दीर्घ जीवन जो इतना महत्तवमय और शान्तिमय रहा; सब इसी मानसिक स्वतन्त्रता, निर्द्वन्द्वता और आत्मनिर्भरता के कारण। वही उनके समकालीन केशवदास को देखिए जो जीवनभर विलासी राजाओं के हाथ की कठपुतली बने रहे, जिन्होंने आत्मस्वातन्त्रय की ओर कम ध्या न दिया और अन्त में आप अपनी बुरी गति की। एक इतिहासकार कहता है-'प्रत्येक मनुष्य का भाग्य उसके हाथ में है। प्रत्येक मनुष्य अपना जीवननिर्वाह श्रेष्ठ रीति से कर सकता है। यही मैंने किया है और यदि अवसर मिले तो फिर यही करूँ।' इसे चाहे स्वतन्त्रता कहो, चाहे आत्मनिर्भरता कहो, चाहे स्वावलम्बन कहो, जो कुछ कहो, यह वही भाव है जिससे मनुष्य और दास में भेद जान पड़ता है; यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से राम लक्ष्मण ने घर से निकल बडे पराक्रमी वीरों पर विजय प्राप्त की; यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से हनुमान ने अकेले सीता की खोज की; यह वही भाव है जिसकी प्रेरणा से कोलम्बस ने अमेरिका इतना बड़ा महाद्वीप ढूँढ़ निकाला। चित्त की इस वृत्ति के बल पर सूरदास ने अकबर के बुलाने पर फतहपुर सीकरी जाने से इनकार किया था और कहा था-

'कहा मोको सीकरी सों काम?'

इसी चित्तवृत्ति के बल से मनुष्य इसलिए परिश्रम के साथ दिन काटता और दरिद्रता के दु:ख को झेलता है जिसमें उसे ज्ञान के अमित भण्डासर में से कुछ थोड़ा बहुत मिल जाय। इसी चित्तवृत्ति के प्रभाव से हम प्रलोभनों का निवारण करके उन्हें पददलित करते हैं, कुमन्त्रणाओं का तिरस्कार करते हैं और शुध्द चरित्र के लोगों से प्रेम और उनकी रक्षा करते हैं। इसी चित्तवृत्ति के प्रभाव से युवा पुरुष कार्यालयों में शान्त और सच्चे रह सकते हैं और उन लोगों की बातों में नहीं आ सकते जो अपनी मर्यादा खोकर दूसरों को भी अपने साथ बुराई के गङ्ढे में गिराना चाहते हैं। इसी चित्तवृत्ति के प्रताप से बड़े बड़े लोग ऐसे समयों में भी, जब कि उनके और साथियों ने उनका साथ छोड़ दिया है, अपने महत्कार्यों में अग्रसर होते गए हैं और यह सिध्द करने में समर्थ हुए हैं कि निपुण, उत्साही और परिश्रमी पुरुषों के लिए कोई अड़चन ऐसी नहीं जो कहे कि 'बस यहीं तक, और आगे न बढ़ना।' इसी चित्तवृत्ति की दृढ़ता के सहारे दरिद्र लोग दरिद्रता से और अपढ़ लोग अज्ञता से निकलकर उन्नत हुए हैं तथा उद्योगी और अधयवसायी लोगों ने अपनी समृध्दि का मार्ग निकाला है। इसी चित्तवृत्ति के अवलम्बन से पुरुषसिंहों को यह कहने की क्षमता हुई है कि 'मैं राह ढूँढूँगा या राह निकालूँगा।' यही चित्तवृत्ति थी जिसकी उत्ते जना से शिवाजी ने थोड़े से वीर मरहठे सिपाहियों को लेकर औरंगजेब की बड़ी भारी सेना पर छापा मारा और उसे तितरबितर कर दिया। यही चित्तवृत्ति थी जिसके सहारे से एकलब्य बिना किसी गुरु संगीसाथी के जंगल के बीच निशाने पर तीर पर तीर चलाता रहा और अन्त में एक बड़ा धनुर्धार हुआ। यही चित्तवृत्ति है जो मनुष्य को सामान्य जनों से उच्च बनाती है, उसके जीवन को सार्थक और उद्देश्यपूर्ण करती है तथा उसे उत्तम संस्कारों को ग्रहण करने योग्य बनाती है। जिस मनुष्य की बुध्दि और चतुराई उसके दृढ़ हृदय ही के आश्रय पर स्थित रहती है, वह जीवन और कर्मक्षेत्र में स्वयं भी श्रेष्ठ और उत्तम रहता है और दूसरों को भी श्रेष्ठ और उत्तम बनाता है। प्रसिध्द उपन्यासकार स्काट एक बार ऋण के बोझ से बिलकुल दब गया। मित्रों ने उनकी सहायता करनी चाही, पर उसने यह बात स्वीकार नहीं की और स्वयं अपनी प्रतिभा ही का सहारा लेकर अनेक उपन्यास थोड़े ही दिनों के बीच लिखकर लाखों रुपये का ऋण उसने सिर पर से उतार दिया।

घर में, वन में, सम्पद् में, विपद् में, मनुष्य को अपने अन्त:करण ही का सहारा रहता है! अन्त:करण का बल बड़ा भारी बल है जो भौतिक अवस्थाओं की कुछ भी परवाह नहीं करता। जो युवा पुरुष अपना काम अच्छी तरह और ईमानदारी से करता है, जो अपने चित्त में उत्तम विचारों को धारण करता है, जिसमें सत्य और सौन्दर्य के आदर्श का भाव जाग्रत रहता है, जो भरसक मनुष्य जाति के नाना कष्टों को दूर करने का यत्न करता है, जो ज्ञान के प्रकाश के लिए निरन्तर दृढ़ उद्योग करता है, जो संसार के भोगविलास की प्रेरणा का तिरस्कार करता है, जो उपस्थित वस्तुओं के गुणदोष की जाँच करने में बेधड़क रहता है, जिसका हृदय अबलाओं के प्रति कोमल रहता है, जो अपनी बुध्दि और जानकारी बढ़ाने का अखण्ड प्रयत्न करता है, जो परमेश्वर को सर्वत्रा उपस्थित मानता हुआ अपने तथा अपने बन्धु बान्धवों के कल्याण के लिए हाथ जोड़कर प्रार्थना करता है, उसी को मैं स्वतन्त्र कहूँगा। वह जीवनयात्रा में बराबर बढ़ता जायेगा, सहारे के लिए किसी का हाथ न पकड़ेगा और टेकने के लिए किसी की लाठी मँगनी न माँगेगा। मनुष्य को तीन वस्तुओं का अध्येयन करना चाहिए। ईश्वर को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे सृष्टि का अध्यययन करना चाहिए, अपने आपको पहचानने के लिए अपनी आत्मा का अध्यियन करना चाहिए; और अपने निकटवर्ती लोगों से स्नेह करने के लिए धर्मग्रन्थों का पठन-पाठन करना चाहिए। इसी प्रकार के अध्यसयन से स्वतन्त्रता के उच्च भाव की वृध्दि होगी और आशा, विश्वास तथा आश्वासन की प्राप्ति होगी।

अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखना तो युवा पुरुष के लिए अच्छी बात है ही, पर उसे प्रत्येक दशा में वीरव्रती होना चाहिए। उसे अन्याय का विरोध और अत्याचार का अवरोध करना चाहिए, उसे दूसरों का ध्या न पहले और अपना पीछे रखना चाहिए, उसे ऐसे स्थलों पर वीरता दिखानी चाहिए जहाँ शरीर की वा धर्मबुध्दि की हानि का भय हो, उसे आत्मोत्सर्ग का भाव धारण करना चाहिए। मैंने कहीं पर दो राजपूत वीरों का वृत्तान्त पढ़ा था जिसका मेरे चित्त पर बड़ा प्रभाव पड़ा था। इन दोनों राजपूतों में बहुत दिनों का वैर चला आता था। एक दिन की बात है कि इनमें से एक क्रोध के आवेश में दूसरे के प्राण लेने की इच्छा से नगर में निकला। वह थोड़ी दूर गया था कि उसने देखा कि लोग घबराहट के साथ सड़क छोड़कर इधर उधर भागे जा रहे हैं। देखते-देखते सड़क मनुष्यों से खाली हो गई और सामने से एक मतवाला हाथी आता दिखाई पड़ा। राजपूत एक कोने में छिप रहा। हाथी क्रोध से सूँड़ फटकारता चला आता था। संयोगवश भागनेवालों में से किसी का एक बालक सड़क पर छूट गया था। हाथी उसके बिलकुल पास पहुँच गया और उसको चीरकर फेंकना ही चाहता था कि चट किसी ओर से एक मनुष्य फुरती के साथ दौड़ा आया और उस लड़के को गोद में लेकर किनारे निकल गया। जब हाथी दूर निकल गया तब लोग 'धन्य धन्य' कहते हुए उसके पास इकट्ठे हुए। राजपूत भी कोने में से निकलकर वहाँ पहुँचा। निकट जाने पर उसे विदित हुआ कि वह मनुष्य जिसने उस बालक की इस वीरता के साथ प्राणरक्षा की थी, वही दूसरा राजपूत था जिसके वध की इच्छा से वह निकला था। यह देखते ही उसकी ऑंखों में ऑंसू आ गया और वह उसके गले से लिपटकर कहने लगा-'भाई! मैं आज तुम्हारे प्राण लेने के लिए निकला था; पर तुम्हें इस वीरता के साथ जीवनदान देते देख मेरी ऑंखें खुले गईं। तुम्हारे ऐसे धर्मवीर के प्रति दुर्भाव रखना अधर्म है।' मेरी समझ में तो इस राजपूत की वीरता उन राजपूतों से कहीं बढ़ चढ़कर थी जो रणक्षेत्र में गर्व के साथ शत्रुओं के हृदय में चमचमाते हुए भाले भोंकते हैं। दूसरों की रक्षा के लिए अपनी रक्षा का ध्याुन न रखने का जो महत्तवपूर्ण दृष्टान्त इस राजपूत ने दिखलाया, वही धर्मवीरता का चरम लक्षण है। असहाय सीताजी को जब दुष्ट रावण रथ पर चढ़ाकर लिए जा रहा था, तब जटायु से न देखा गया। जब तक उसके शरीर में प्राण रहे, तब तक वह अन्याय का दमन करने के लिए सीताजी को छुड़ाने के लिए लड़ता रहा। इस प्रकार के उत्कट और भयानक रूप में अपनी वीरता प्रकट करने का अवसर तो शायद हमें न मिले, पर यदि हममें उसका भाव है तो हमें उसके प्रदर्शन के बहुत से अवसर घर में, समाज में नित्य के व्यवहार में, मिल सकते हैं।

वीरता का एक और दृष्टान्त लीजिए। किसी टापू में एक बड़ी सेना उतरी थी। सेनानायक को मालूम हुआ कि उस टापू में कुछ दिनों से घड़ियाल की तरह एक महा भयंकर जन्तु आता है जो लोगों को पकड पकड़कर खा जाया करता है। सेनानायक ने उसे मारने की आज्ञा दी। बहुत से वीरों ने उसके मारने का उद्योग किया, पर वे सबके सब उसके मुँह में चले गए। अन्त में सेनानायक ने हारकर आज्ञा दी-'जाने दो, उसके मारने का प्रयत्न न करो।' सेना में एक वीर युवक था। उसे यह आज्ञा पसन्द न आई; क्योंकि वह उस भीषण जन्तु को, जिसने इतने मनुष्य के प्राण लिए थे, मारकर यश और अनुग्रह प्राप्त करना चाहता था। उसने उस भीषण जन्तु की एक मूर्ति बनाई, अपने दो कुत्तों को उसके पेट पर आक्रमण करना सिखाया और अपने घोड़े को उसके सामने ठहरने का अभ्यास कराया। जब वह पूरी तैयारी कर चुका, तब वह उस जन्तु की कन्दरा की ओर गया। उसने तुरन्त अपने कुत्तों को उस पर छोड़ दिया और आप भाले से उसे मारने लगा। अन्त में वह जन्तु मर गया। जब यह संवाद उस टापू में फैला, तब वहाँ के निवासी उसे बड़े आदर और धूमधाम के साथ उसके सेनानायक के पास ले गए। सेनानायक उससे कुछ रूखाई के साथ मिला और त्योरी चढ़ाकर बोला-'धर्मवीर का पहलाकर्तव्यय क्या है?' उस युवक ने संकुचित और लज्जित होकर उत्तर दिया-'आज्ञापालन।' सेनानायक ने उसकी वीरता का सम्मान करते हुए कहा-'तुमने मेरी आज्ञा भंग करके उससे बढ़कर शत्रु खड़ा किया, जिसे तुमने मारा। तुमने नियमभंग और व्यवस्थाविरोध का सूत्रपात्र किया।'

अस्तु; यह समझ रखना चाहिए कि वीरत्व के लिए स्वार्थत्याग के अतिरिक्त आज्ञापालन की भी आवश्यकता है। सब गुणों में भी यही एक ऐसा गुण है जिसका सम्पादन करना नवयुवकों को बहुत जहर लगता है। हम लोगों में मनमानी करने की इच्छा स्वाभाविक होती है और हम समझते हैं कि जो हम करते हैं, वह सबसे अच्छा है। जहाँ हमने थोड़ी-बहुत जानकारी प्राप्त की कि हम अपने को और लोगों से बढ़कर समझने लगते हैं और अभिमान के मद में चूर इतराए फिरते हैं। हमारा यह मोह बहुत दिनों तक प्राय: नहीं रहता; और जिस समय यह दूर होता है, हमें अपने ऊपर बड़ा दु:ख होता है। अत: हमें पहले ही से यह समझ रखना चाहिए कि जो फूल तोड़ना चाहता है, उसे पहले काँटे मिलते हैं, जो हुक्म चलाना चाहता है, उसे पहले हुक्म मानने का अभ्यास करना पड़ता है। बड़ों के आदेश का जो बहुत से नवयुवक विरोध करते हैं, उसका आधार बहुत तुच्छ होता है और अन्त में उन्हें हार माननी पड़ती है। जैसे कि नीति और धर्म में वैसे ही विज्ञान और कला-कौशल में बुध्दिमानी की बात यही है कि पहले हम धीर, जिज्ञासु और विनीत विद्यार्थी के रूप में सन्तोष के साथ काम करें, फिर ज्ञान और अनुभव का संचय करने का अधिकार प्राप्त करें। जिस स्वाधीनता का मैंने ऊपर उल्लेख किया है, उससे इस उचित और युक्तिसंगत अधीनता का कुछ विरोध नहीं है। जो सिपाही आज्ञाभंग करता है उसे लोग स्वाधीन नहीं कहते, बागी कहते हैं। प्रतिष्ठित नियम और मर्यादा का पालन करने ही से किसी मनुष्य की स्वाधीनता की, उसकी इच्छा और प्रयत्न की स्वतन्त्रता की, हानि नहीं होती।

साहस वीरता का एक प्रधान अंग है। साहस से मेरा अभिप्राय केवल उस शारीरिक बल वा बहादुरी से नहीं है जो बहुतों को जन्म से प्राप्त होती है; बल्कि उस उच्च और शुध्द वृत्ति से है जिसे नैतिक साहस वा धर्मबल कहते हैं और जो हृदय की पवित्र उच्चता से सम्बन्ध रखती है। नित्य के व्यवहार में हमारे इस साहस की परीक्षा बराबर होती रहती है, समय पड़ने पर लोगों को सोहनेवाली बात का कहना जितना सुगम होता है, उतना सत्य बात का कहना नहीं। इसी से एक नीतिज्ञ ने यहाँ तक कह डाला है कि 'सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्।' इसी प्रकार प्रलोभन में आ जाना जितना सुगम होता है, उतना उसका अवरोध करना नहीं। हम मौका पाने पर झट अपने पड़ोसी की हानि करके स्वयं लाभ उठाने का कारण ढूँढ़ निकालते हैं और लोगों से कहते फिरते हैं कि वह अकर्मण्य है, वह अपना काम-काज सँभालना नहीं जानता, उसे अपना हानि लाभ नहीं सूझता। अपने लोभ और अन्याय के लिए हम अपने को कभी नहीं धिक्कारते। भरत के ऐसे इस संसार में सब नहीं होते कि राजधनी से दूर केवल इसलिए जाकर पड़े रहें जिसमें बड़े भाई के लिए राजसिंहासन खाली रहे। कोई कार्य उचित है, केवल इसी निमित्त उसके करने का धर्मबल वा साहस इस संसार में बहुत कम देखा जाता है। दु:ख में शक्ति, क्षोभ में आत्मनिग्रह, विपत्ति में धैर्य, सम्पद् में मिताचार, धर्मबल के लक्षण हैं। 'बाबू तिरबेनीसहाय देखेंगे तो क्या कहेंगे?' 'दुनिया देखेगी तो क्या कहेगी?' इस बात का भय हमारे हाथों को दुर्बल करके अत्याचारपीड़ित प्राणियों की रक्षा के लिए, सत्य और औदार्य के पालन के लिए, असत्य और विडम्बना के विनाश के लिए, उठने नहीं देता। 'अमुक महाशय देखेंगे तो क्या कहेंगे' इस भय से न जाने कितने ऐसे नवयुवकों का जीवन सत्यानाश हो जाता है जिनमें झूठे घमंडियों के बीच अपना निराला मार्ग निकालने की आत्मिक क्षमता नहीं होती। बुध्दिमान् और अनुभवी लोगों की बात न मानना मूर्खता है; पर दुनिया के हँसने और भला बुरा कहने की बराबर चिन्ता करना उससे भी बढ़कर मूर्खता है। लोगों का बहुत सा गुण और चमत्कार थोड़ी सी उचित आत्मिक दृढ़ता के अभाव से यों ही नष्ट हो जाता है। नित्य बहुत से ऐसे लोग चिता पर चढ़ते हैं जो इस कारण हीन दशा में पड़े रहे कि उनकी भीरुता ने उन्हें कोई कार्य आरम्भ ही नहीं करने दिया। यदि वे लोग आरम्भ करने पाते तो बहुत सम्भव था कि वे सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए बहुत कुछ नाम और यश कमाते तथा अपने उद्योगों से अपना और दूसरों का बहुत कुछ भला करते। बात यह है कि इस संसार में किसी करने योग्य काम को करने में हमें कठिनाई और बाधा देख ठिठककर पीछे न हटना चाहिए, बल्कि जहाँ तक हो सके, कूदकर आगे बढ़ना चाहिए। इसी आत्मिक दृढ़ता के बल से, जो कठिनाई और विफलता के समय दूनी हो जाती है, संसार में मनुष्य के ज्ञान और सुख की वृध्दि करनेवाले सुधार हुए हैं, बड़े बड़े आविष्कार हुए हैं तथा मनुष्य जाति उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हुई है; क्योंकि शुरू शुरू में प्रत्येक सुधार स्वभावत: लोगों की रुचि के प्रतिकूल होता है, उनके सुखचैन के भाव में बाधा डालता है और उनके चित्त में कठिनाई और असुविधा का खटका उत्पन्न करता है। जो सुधार पर जोर देता है, उसे चारों ओर का घोर विरोध सहते हुए, बिना किसी के कृतज्ञतासूचक वा उत्साहवर्धक वाक्य के एकान्त में चुपचाप काम करना पड़ता है। जब वह अच्छी बातों का उपदेश करता है, तब लोग उस पर पत्थर फेंकते हैं।

धर्म के हेतु प्राण देनेवाले महात्माओं को इसी आत्मिक दृढ़ता का बल और अवलम्ब था, इसी की गुप्त प्रेरणा से वे धन और मान का तिरस्कार करने में समर्थ हुए थे। इसी आत्मिक दृढ़ता के बल से उन्होंने कारागार और अग्नि की भीषण यन्त्रणा सहन की, पर उस बात का पक्ष न छोड़ा जिसे अधिकांश लोग मिथ्या और अनुचित समझते थे। समरक्षेत्र में जहाँ रणोत्साह से नस नस में रुधिर उमंगें मारता है और पास ही सहस्रों को एक ही उद्देश्य से प्रेरित देख उत्तेधजना बढ़ती है, यश और कीर्ति प्राप्त करना उतना कठिन नहीं है। पर उसकी वीरता अत्यन्त विकट है जो महीनों अत्याचार, घोर साँसत सहकर अपने ऐसे शत्रुओं के सम्मुख लाया जाता है जो उससे कहते हैं कि 'यदि तुम अपनी भूल को स्वीकार कर लो और अधिकारियों के मत के प्रतिकूल बात छोड़ दो, तो मुक्त कर दिए जाओ और फाँसी से बचा दिए जाओ। दो चार अनुकूल शब्द मुँह से निकाल देने ही से उसका छुटकारा हो सकता है। यही असली परीक्षा का समय है। इसमें जो मुँह से 'आह' तक न निकालकर सब कुछ सहे, वही सच्चा वीर है। यदि इस प्रकार का उच्च और उत्कृष्ट साहस नित्य प्रति के जीवन व्यवहार में दिखाया जाय, तो संसार कितना सुखमय और पवित्र हो जाय! जिसे सत्य और न्याय से प्रेम होगा, वह इस प्रकार का साहस दिखलावेगा। समाज के संस्कार के लिए जिस वस्तु की बहुत बड़ी आवश्यकता है, वह आत्मिक बल है जो बुराई की छाया तक को पास नहीं फटकने देता, जो सब प्रकार के दम्भ, पाखण्ड और भ्रम को दूर फेंकता है, जो नम्रतापूर्वक महात्माओं के उपदेश और आदर्श पर चलने की सामर्थ्य प्रदान करता है, जो चित्त में पवित्रता, सचाई, उदारता और भ्रातृस्नेह की स्थापना करता है। क्या इस उच्चकोटि का आत्मोत्सर्ग और आत्मतुष्टि असम्भव है? हाँ, दुर्बलचित्त और स्वार्थियों के लिए अवश्य असम्भव है, जिन्होंने लड़कपन से कभी प्रलोभनों का शासन नहीं किया, जिनका आशय सदा नीच रहा, जिन्होंने कभी उच्च उद्देश्य की भावना नहीं की, जो समाज के कहने सुनने का ही सदैव ध्याजन रखते हैं, यह नहीं देखते कि उनकी आत्मा क्या कहती है, जो चिर अभ्यास के कारण संसार की तुच्छ वस्तुओं और वासनाओं से चित्त को हटाकर अपने विचारों को उन्नत करने में असमर्थ हैं। पर ऐसे लोगों के लिए असम्भव नहीं है जो एक महान् लक्ष्य की ओर अपनी सारी बुध्दि और बल लगाते हुए अग्रसर हो रहे हैं। जुआरियों, शराबियों, आलसियों, लम्पटों, अश्रध्दालुओं, झूठों, घमण्डियों, बेईमानों और विषयासक्तों के लिए तो अवश्य असम्भव है, पर ऐसे लोगों के लिए जो महात्माओं के पथ पर चलते हैं, जो सत्य का अनुसरण करते हैं, जो प्रलोभनों का दमन करते हैं, जो ईश्वर पर भरोसा करते हुए नि:शंक भाव से अपना कर्तव्य पालन करते हैं, यह बात कठिन चाहे हो, पर असम्भव नहीं है।

विलायत में जार्ज स्टिफेंसन नामक एक व्यक्ति ने देखा कि खान के भीतर काम करने वालों के लिए एक लालटेन की बड़ी आवश्यकता है जिसके प्रकाश में लोग आराम के साथ काम करें। पर खानों के भीतर एक प्रकार की जहरीली हवा (गैस) होती है जिससे आग लगने का भय होता है। अत: लालटेन ऐसी होनी चाहिए थी जिसकी लपट से खान के भीतर की जहरीली हवा न भभके। स्टिफेंसन ने एक लालटेन तैयार की। पर उसे काम में लाने के पहले उसकी परीक्षा आवश्यक थी। पर ऐसी भयंकर परीक्षा करे कौन? अन्त में अपने पुत्र और दो मित्रों को साथ लेकर स्वयं स्टिफेंसन अपनी बनाई लालटेन की परीक्षा के लिए आधी रात को खान के मुँह पर पहुँचा। चारों आदमी धीरे धीरे खान में उतरे और एक ऐसे ऍंधोरे गङ्ढे की ओर बढ़े जहाँ बाहर की हवा बिलकुल नहीं पहुँचती थी और अत्यन्त जहरीली गैस निकल रही थी। स्टिफेंसन का एक साथी उस गङ्ढे को देखकर लौटा और कहने लगा कि जहाँ वहाँ जलती बत्ती पहुँची कि गैस भभक उठेगी, सारी खान में आग लग जायगी और चारों में से एक भी जीता न बचेगा। पर स्टिफेंसन अपने संकल्प से रत्ती भर भी विचलित न हुआ। एक हाथ में लालटेन लेकर वह बड़ी धीरता के साथ गङ्ढे की ओर बढ़ा। उस समय यही जान पड़ता था कि मानो वह मृत्यु के मुख में जा रहा है; पर उसकी आकृति से किसी प्रकार की व्यग्रता नहीं झलकती थी। उस गङ्ढे के पास पहुँचकर चट उसने अपनी लालटेन वहाँ रख दी और खड़ा होकर परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा। थोड़ी देर बत्तील भभकी, फिर झलमलाने लगी और बुझ गई। इससे यह बात भलीभाँति सिध्द हो गई कि उस लालटेन से खान में आग लगने की कोई आशंका नहीं है। यहाँ पर पाठकों के ध्याान देने की बात स्टिफेंसन का आत्मिक बल है जिसके कारण वह अकेले एक बड़े भारी उद्देश्य के साधन के लिए एक भय के स्थान में कूद पड़ा।

आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द का आत्मिक बल भी ध्या न देने योग्य है। उनका आशय जैसा उच्च था वैसा ही उनका परिश्रम भी असाधारण था। विलक्षण विवादपटुता और अद्भुत साहस के साथ उन्होंने उन बुराइयों का दिग्दर्शन कराया जो हिन्दू धर्म की शक्ति का अपहरण कर रही हैं। उन्होंने पूर्ण निर्भीकता और सचाई के साथ समाज की प्रचलित विलासप्रियता और भोगाडम्बर का विरोध किया। उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंह बहादुर स्वामीजी का बड़ा आदरसम्मान करते थे। एक दिन स्वामीजी दरबार में पहुँचे, तो क्या देखते हैं कि एक वेश्या वहाँ बैठी हुई है। महाराणा साहब स्वामीजी को लेने के लिए उठे। पर स्वामीजी तुरन्त वहाँ से उलटे पाँव यह कहते हुए फिरे-'जहाँ वेश्याओं को यह स्थान मिलता है, वहाँ एक क्षण भी ठहरना उचित नहीं। ऐसे दरबार को दूर से नमस्कार!' महाराणा साहब ने उस वेश्या को निकलवा दिया, सब कुछ किया, पर स्वामीजी फिर लौटकर न गए। उन्होंने लोभी पंडों, पुरोहितों के आचरण की घोर निन्दा की, उनके स्वार्थमय व्यापार का खूब भण्डा फोड़ा। स्वार्थियों ने उन्हें भाँतिभाँति के प्रलोभन दिखाए, बड़ी बड़ी धमकियाँ दीं, पर वे अपने पथ से विचलित न हुए। यदि वे चाहते तो लोगों की रुचि के अनुकूल चलकर, उनकी हाँ में हाँ मिलाकर, बड़े चैन के साथ मठधारी महन्तों की तरह दिन बिताते; पर उन्होंने इस प्रकार बुराइयों पर परदा डालना, सत्य का अपघात करना, उचित नहीं समझा। जिन लोगों के हित के लिए वे प्रयत्न करते थे, उन्हीं से अपनी कटूक्तियों के कारण गालियाँ खाकर, अनेक प्रकार के अपमान सहकर अन्त में उन्होंने वह विष का घूँट पीया जिसे उनके खरेपन ने उनके लिए प्रस्तुत किया था। स्वामी दयानन्द की विद्वत्ता आदि के विषय में चाहे जो कुछ कहा जाय, पर उनका उद्देश्य उच्च और दृढ़ था, उनमें चरित्रबल पूरा था। स्वामी दयानन्द ने जो जो कठिनायाँ सहीं, उन्हें समाज ने देखा, उनके बहुत से पक्षपाती हुए तथा साधुवाद देने के लिए बहुत से श्रध्दालु प्रस्तुत हुए। जो कुछ उन्होंने किया, वह संसार और समाज के सामने था, इससे उन्हें सहारा देनेवाले और उनसे सहानुभूति रखनेवाले बहुत से मिल गए। पर इस संसार कानन में ऐसे बहुत से साधु-महात्मा पड़े हैं जिन्होंने अपने को कभी किसी प्रकार प्रसिध्द नहीं किया, जिन्होंने अपनी वाणी का विकास कभी नहीं किया, जिन्होंने अपनी एकान्तता परित्याग करके कभी अपनी चर्चा लोक में नहीं फैलाई, जिनका देवतुल्य श्रेष्ठ जीवन सदा अर्न्तरव्यािप्ती ही रहा और जिनके अन्त:करण का सौन्दर्य उसी प्रकार लोगों से छिपा रहा जैसे निर्जन वन में खिली हुई कमलिनी का। जिनका जी चाहे वे रणरक्तरंजित विजयी योध्दाओं की प्रशंसा करें, तथा अपनी नीति द्वारा निर्बल जातियों के सुख और स्वातन्त्रय का अपहरण करनेवाले राजनीतिज्ञों को धन्य धन्य कहें, पर जो सत्यप्रिय और ज्ञानार्थी हैं वे उसी आत्मिक बल का बखान करते हैं जो संसार के दु:ख और झंझट को, निन्दा और उपहास को, अभाव और दरिद्रता को कुछ नहीं समझता। यही आत्मिक बल संसार की कठिन कसौटी पर ठहर सकता है।

आजकल उन्नति और विद्याप्रचार के जितने साधन हैं, उतने पहले समय में न थे। प्राचीन काल में न छापे की कलें थीं; न स्थान स्थान पर बड़े-बड़े पुस्तकालय थे, न सामयिक पत्र पत्रिाकाएँ थीं, न डाक विभाग था, न वैज्ञानिक परीक्षालय थे, पर ऐसे ऐसे अधयवसायी, मेधावी और प्रतिभाशाली विद्वान् होते थे जिनकी कृतियों को देख आजकल के लोगों को भी चकित होना पड़ता है। शारीरिक वीरता लोगों को तोप के मोहड़े के सामने ले जाकर खड़ा कर सकती है, क्योंकि वे एक दूसरे की देखादेखी तथा प्रतिहिंसा, विजय और लूट की आशा से उत्ते जित रहते हैं। पर भूख प्यास का वेग, शीतताप की व्यथा, उध्दतों का कुव्यवहार, धानियों द्वारा अपमान सहने के लिए एक और ही उच्च प्रकार की प्रेरणा की आवश्यकता होती है। ज्ञान के गुप्त रहस्यों का उद्धाटन और आत्मा की उन्नति करने के लिए एकान्त में, अकेले और अज्ञात भाव से परिश्रम करना पड़ता है। जिस समय लिखने पढ़ने की सामग्रियों और पुस्तकों का अभाव था, विद्यार्थी गुरुकुलों में कुशासन पर सोते, वन वन लकड़ी चुनते और कन्द मूल उखाड़ते थे, उस समय भी ऐसे प्रकाण्ड आचार्य हुए जिन्होंने ज्ञान की ज्योति को निरन्तर प्रज्वलित रखा और भावी सन्तति की ओर बढ़ाया। आत्मसंस्कार में रत युवा पुरुष जितनी प्रशंसा ऐसे लोगों के धर्मबल की करेंगे, उतनी प्रशंसा उन योध्दाओं के बाहुबल की नहीं, जो तलवार और भाले लेकर विजय और कीर्ति की लिप्सा से संग्रामभूमि में अग्रसर हुए हैं। इसी एक धर्मबल के सहारे संसार के बड़े बड़े महात्माओं ने ज्ञान की खोज में अनेक आपत्तियाँ उठाईं और अनेक संकट सहे। लोग कह सकते हैं कि जो काम उन्होंने किए , उनका महत्तव उन्हें अवश्य विदित था। पर महत्तव विदित होने पर भी यदि उनमें ज्ञान की नि:स्वार्थ चाह न होती तो वे इस वीरता के साथ और इस अटल भाव से अपने व्रत का पालन करते हुए अपने विकट और कण्टकमय मार्ग में अग्रसर न हो सकते।

जबकि उस समय के लोग इतना कर गए, तब क्या आजकल के लोग सब कुछ सुबीता रहते हुए भी अपना जीवननिर्वाह उसी योग्यता के साथ नहीं कर सकते? क्या आजकल के लोग उन प्राचीनों से भी गए बीते बनना चाहते हैं जिनके पास उन्नति के साधन इतने अल्प थे? एक बात जो आत्मा में भलीभाँति अंकित कर रखने की है, वह यह है कि मनुष्य का जीवन केवल एक ही गुण से उच्च और महान् हो सकता है। वह गुण सत्यबल है। सत्यबल योग से प्राप्त होता है। सत्यबल धर्मबल ही का नाम है। यदि तुम यह समझते हो कि पोथियों, पाण्डित्यपूर्ण शास्त्रर्थों, तथा तर्कवितर्क से ही तुम सब कुछ कर लोगे, तो यह तुम्हारी बड़ी भारी भूल है। पुस्तकें तुम्हें जाग्रत और उत्तेथजित कर सकती हैं तथा उँगलियों का इशारा कर सकती हैं कि इधर उधर न भटको, पर वे तुम्हें पथ पर अग्रसर नहीं कर सकतीं। पथ पर अग्रसर तुम्हारे पैर ही करेंगे। यह करने धारने की बात है, केवल जानने की बात नहीं है। उँगलियों के इशारे मिलते रहें तो अच्छी बात है, पर यदि उनके बिना काम चले तो और भी अच्छी बात है; क्योंकि यह निश्चय समझो कि जीवनयात्रा में थोड़ी दूर आगे चलकर तुम्हें फिर उजाड़ मैदान और दलदल मिलेगी; सो यदि तुम्हें पग पग पर दूसरों ही के इशारे पर चलने का अभ्यास रहेगा, तो किमकर्तव्यहविमूढ़ होकर तुम फटफटाते रह जाओगे। तुम्हारा पथप्रदर्शन तुम्हारी आत्मा में होना चाहिए, अन्यथा तुम्हें उध्दार के लिए ऐसों का मुँह ताकना पड़ेगा जिनकी दशा तुमसे कदाचित् ही कुछ अच्छी होगी। अत: कमर कसकर उठो और इस बात को प्रमाणित कर दो कि जिस तरह तुम्हें चलना रहता है तो चलते हो, कूदना रहता है तो कूदते हो, उछलना रहता है तो उछलते हो, उसी प्रकार तुम श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने के लिए प्रत्येक अवसर पर श्रेष्ठ आचरण करते हो। आत्मबल का सम्पादन करो, हृदय और बुध्दि को परिष्कृत करो और अपना संकल्प दृढ़ रखो। तुम दुनिया में रहकर भी बिलकुल दुनियादारी ही का व्यवहार न करो, इन्द्रियों से कार्य लेते हुए भी इन्द्रियासक्त न हो जाओ, बल्कि अपना संकल्प उच्च और आशय गम्भीर रखो। जब तुम भाँति भाँति के प्रलोभनों वा आपदाओं के बीच पड़ोगे अथवा विरोधियों से घिर जाओगे, तब तुम्हें अपनी आत्मा ही की शरण रहेगी, अपने दृढ़ संकल्प का ही सहारा रहेगा। ऐसे अवसरों पर तुम तिलभर भी न डिगना। जब सिपाही गढ़ के द्वार में घुसता है, तब वह या तो बराबर आगे बढ़ता जाता है और विजय प्राप्त करता है अथवा पीठ दिखाता वा मारा जाता है। जब तक समुद्र वा नदी का बाँध मजबूत रहता है, तब तक उसके पीछे की भूमि रक्षित रहती है; पर जहाँ उसमें कोई छेद हुआ कि जल वेग के साथ उसे तोड़ फोड़ देता है और बढ़कर सब कुछ सत्यानाश कर देता है। पवित्रता और शुध्दता का आदर्श सदैव अपने सामने रखो जिसमें तुम्हारे संकल्प और भाव आत्मबल के सहारे उसके निकट तक पहुँचें। इस पृथ्वी पर मनुष्य या तो इन्द्रियों का सुख भोगे अथवा आत्मा की शान्ति प्राप्त करे। यदि आत्मा की शान्ति प्राप्त करनी है, यदि अपने मानव जीवन को देवजीवन बनाना है, यदि इस मर्त्यलोक में निर्द्वन्द्व भाव से रहना है तो इस भावकानन के कुफल न चखो। बाहरी सौन्दर्य से नेत्राों को आनन्द मिल सकता है, पर काल की गति के साथ यह क्षणिक आनन्द भी देखते ही देखते बदल जाता है। द्रव्य ही परिवर्तनशील है, आत्मा का आदर्श भाव, जिसे सौन्दर्य और उत्तमता की अगोचर अवस्था कह सकते हैं, लौकिक से परे एक दिव्य ज्योतिर्मय सृष्टि से सम्बन्ध रखता है। क्या इस आदर्श भाव के सहारे तुम ऊँचे उठना चाहते हो? यदि चाहते हो तो पार्थिव को छोड़ो और इस क्षुद्र अन्धकारमय जीवन से निकलकर आदर्श भावमय राज्य में प्रवेश करो। वहीं परमात्मा का वह रूप दिखाई पड़ेगा जिसका जीवात्मा एक अंश है। उस दिव्य रूप में जीवात्मा पूर्ण, शुध्द, बुध्द और नित्य देख पड़ेगा, जैसा कि भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-

न जायते म्रियते व कदाचि-

न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।

अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो,

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।

नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:।।

अस्तु हमें चाहिए कि हम विषयादि में नितान्त लिप्त न होकर शुध्द आत्मा की शान्ति का सुख भोगें; क्योंकि-

अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वापि विषयान्

वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून्।

व्रजंत: स्वातन्त्रायादतुलपरितापाय मनस:

स्वयं त्यक्त्वा ह्येते शमसुखमनंतं विदधाति।।

चाहे हम कितने ही दिनों तक क्यों न रहें, विषयादि एक दिन अवश्य जाने वाले हैं; इसलिए चाहे हम स्वयं उनका त्याग करें अथवा वे हमारा त्याग करें, उनके हमारे वियोग में किसी प्रकार का संशय नहीं। पर संसारी मनुष्य फिर भी स्वयं उनका परित्याग नहीं करते। जब आप ही आप विषयादि हमारा त्याग करते हैं, तब हमें अत्यन्त दु:ख होता है; पर जब हम स्वयं उनका परित्याग कर देंगे, तब अनन्त शान्ति सुख का लाभ कर सकेंगे।

युवा पुरुषों के लिए हम यहाँ परिश्रम के महत्तव की लम्बी-चौड़ी व्याख्या की आवश्यकता नहीं समझते। जो परिश्रम करने के लिए उद्यत नहीं, वह आत्मसंस्कार में भला क्या प्रवृत्त होगा? आलसी और अकर्मण्य को अपना हृदय परिष्कृत करने और बुध्दि विवर्ध्दित करने की लालसा ही न होगी। पर अध्यअवसाय की आवश्यकता की ओर मैं विशेष ध्या्न दिलाना चाहता हूँ। मैंने ऐसे बहुत से आरम्भशूर युवा पुरुषों को देखा है जिन्होंने बड़ी धूम और तपाक के साथ कार्य आरम्भ किया, बड़ी बड़ी पुस्तकें इकट्ठी कीं, अध्यदयन की प्रणाली स्थिर की, पर जहाँ उन्होंने दो-चार पृष्ठ पढ़े, या दो चार सवाल लगाए कि उनके सामने भारी कठिनता दिखाई दी। फिर तो पुस्तकें किनारे फेंक सारी पढ़ाई लिखाई उन्होंने यह कहकर छोड़ दी कि 'यह सब हमारे किए न होगा'। आरम्भशूर पुरुषों को थोड़ा ही आगे चलकर यह मालूम होने लगता है कि जो कार्य उन्होंने ठाना है, वह उनकी शक्ति और सामर्थ्य के बाहर है। थोड़ा सोचिए तो कि यह कैसी बात है? उस सेनापति को लोग क्या कहेंगे जिसने शत्रु के दुर्ग को तोड़ने का संकल्प करके उसका नक्शा तैयार किया, जो आक्रमण करने के लिए सिपाहियों को लेकर आगे बढ़ा, पर एक छोटी सी खाई देखकर लौट आया! आत्मसंस्काराभिलाषी पुरुष में अध्यलवसाय अवश्य चाहिए। उसे कठिनाइयाँ पड़ेंगी-एक-दो नहीं सैकड़ों-पर ज्यों ज्यों वह आगे बढ़ता जायेगा, त्यों त्यों उसकी एक एक कठिनाई सुगम होती जायगी और बराबर कृतकार्य होते होते उसे पूरी आशा और हिम्मत बँध जायगी। कठिनाइयाँ तो अवश्य पड़ेंगी, क्योंकि यदि कठिनाइयाँ न हों तो फिर अभ्यास और परिश्रम का महत्तव ही क्या? हम ऐसे वीर सेनानायक की प्रशंसा नहीं करते जो किसी अरक्षित देश में बिना किसी प्रकार की लड़ाई भिड़ाई के प्रवेश करता है। ज्ञान का आधा महत्तव और सौन्दर्य नष्ट हो जाय, यदि वह बिना कठिन और अखण्ड प्रयत्न के प्राप्त हो। पुरुषार्थियों के लिए यथार्थ आनन्द प्रयत्न में है, फल में नहीं। प्रयत्न ही आत्मा की शिक्षा और चरित्र की उन्नति का विधान करता है। प्रयत्न ही मनुष्य को धैर्य और शान्ति रखने की तथाकर्तव्यए स्थिर करने की शिक्षा देता है। प्रयत्न में मनुष्य को कठिनाई अवश्य पड़ती है, पर कोई कठिनाई ऐसी नहीं जो दूर न की जा सके। किसी धीर और पुरुषार्थी के हाथ में एक घन और टाँकी तथा कुछ समय दे दीजिए, वह बड़ी बड़ी चट्टानों को उखाड़कर फेंक देगा। इसी प्रकार आत्मशिक्षाभिलाषी पुरुष अवसर और साधन पाकर जिस काम को करना चाहेगा, कर डालेगा। प्रयत्न और परिश्रम अच्छे गुण हैं, पर अध्यकवसाय सबसे बढ़कर है। कोई मनुष्य परिश्रमी होकर भी विफलता देख शीघ्र हतोत्साह हो सकता है। उसका जी यह देखकर टूट सकता है कि वह अपने काम में बहुत कम आगे बढ़ा है। युवा पुरुष को जिस गुण की बड़ी भारी आवश्यकता है, वह अध्यआवसाय है। इसके बिना वह कुछ नहीं कर सकता। मान लीजिए कि वह कोई काम करता चला जा रहा है। इसी बीच में उसके मन में आया कि 'जितना समय नित्य मैं इस काम में लगाता हूँ, उतने से क्या होगा; काम बहुत है।' अब क्या उसे उस काम को बीच ही में छोड़ देना चाहिए? नहीं कदापि नहीं, उसे अध्यकवसायपूर्वक काम करते चलना चाहिए। उसे किसी बात से हतोत्साह न होना चाहिए; उसे हार मानकर बैठ न रहना चाहिए। यदि तुम्हें प्रतिदिन एक घण्टा ही मिलता है तो उसी एक घण्टे का पूरा उपयोग करो। यदि साहित्य की ओर तुम्हारी रुचि नहीं है तो इतिहास पढ़ो, विज्ञान सीखो, दर्शन में अभ्यास करो, कला-कौशल में निपुणता प्राप्त करो। तात्पर्य यह कि अध्यववसाय न छोड़ो। तुम्हें पहले यह सीखना चाहिए कि किस तरह सीखना होता है। जिस तरह बच्चा जब पैरों के बल चलने का अभ्यास करना सीखने लगता है, तब कई बार गिरता पड़ता है, उसी प्रकार तुम्हें भी गिरना पड़ना पड़ेगा; पर उद्योग न छोड़ना।

प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचै:

प्रारभ्य विघ्नविहता विरमंति मधया:।

विघ्नै: पुन: पुनरपि प्रतिहन्यमाना:

प्रारभ्य चोत्तामजना न परित्यजंति॥

जब वसुदेवजी ऍंधोरी भयानक रात में बालक श्रीकृष्ण को लिए पार जाने के निमित्त बढ़ी हुई जमुना के किनारे पहुँचे, तब वे ठिठककर खड़े हो गए, पार होने का कोई उद्योग उनसे न बन पड़ा। जब देवबल से जमुना का जल कम हुआ, तब वे नदी में हलकर पार हुए। पर साधारण अवस्थाओं में युवा पुरुषों के लिए इस प्रकार ठिठककर खड़ा हो जाना ठीक नहीं। उन्हें चटपट कमर कसकर नदी पार करने के उद्योग में लग जाना चाहिए। संस्कृत साहित्य की ओर योरोप को आकर्षित करनेवाले, एशियाटिक सोसाइटी के संस्थापक सर विलियम जोन्स का यह सिध्दान्त था कि चाहे कितनी ही कठिनाइयाँ पड़ें, जिस कार्य में मनुष्य हाथ डाले, उसे बिना पूरा किए न छोड़े। इसी से उन्होंने अपने अल्प जीवनकाल में आठ भाषाओं में तो पूरी और आठ भाषाओं में उससे कम योग्यता प्राप्त की। इनके अतिरिक्त वे बारह और भाषाओं की थी थोड़ी बहुत जानकारी रखते थे। यह सब अध्यअवसाय के अमोघ बल से हुआ। इसी प्रकार यहाँ पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, जस्टिस महादेव गोविन्द रानडे, अधयापक हरिनाथ दे, रमेशचन्द्र दत्ता, डॉक्टर राजेन्द्रलाल मित्र आदि बहुत से लोगों के वृत्तान्त दिए जा सकते हैं; पर वे इतने प्रसिध्द हैं कि उनके नाम देने ही से काम निकल जायेगा। ये लोग पुकार-पुकारकर इस भारी बात की घोषणा कर रहे हैं कि अध्योवसाय के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। यही राजनीतिज्ञ की बुध्दि है, विजयी का अस्त्र है, विद्वान् का बल है। प्रसिध्द संस्कृत वैयाकरण और ग्रन्थकार बोपदेव के विषय में एक आख्यान प्रसिध्द है। ऐसा कहा जाता है कि जब वे गुरु के समीप विद्याध्ययन के लिए बैठाए गए, तब उनकी बुध्दि अत्यन्त मोटी थी। गुरु जो कुछ समझाते थे, वह उनकी समझ में नहीं आता था। एकदिन उन्होंने अपने मन में निश्चय कर लिया कि अब मुझे पढ़ना न आवेगा और वे घर से निकल पड़े। एक दिन वे घूमते घूमते एक सरोवर के तट पर पहुँचे जिसके चारों ओर पत्थर का घाट बँधा था। वहाँ बैठे ही थे कि इतने में एक स्त्री घड़ा लेकर आई और उसे घाट पर रख नहाने लगी। थोड़ी देर में वह नहा धोकर और घड़े में पानी लेकर चली गई। बोपदेव ने देखा कि जहाँ उस स्त्री ने घड़ा रखा था, वहाँ पत्थर पर एक गङ्ढा पड़ गया है। यह देखकर बोपदेव ने मन में सोचा कि जब पत्थर ऐसी कठोर वस्तु मिट्टी के घड़े की रगड़ से घिस जाती है, तब क्या लगातार परिश्रम करने में मेरी स्थूल बुध्दि भी घिसकर सूक्ष्म न हो जायगी। इस विचार के उठते ही बोपदेव वहाँ से चल पड़े और फिर अपने गुरुजी के पास आकर तन मन से विद्याध्यपयन में लग गए। फिर तो बोपदेव ऐसे भारी पण्डित हुए और उन्होंने ऐसे-ऐसे ग्रन्थ बनाए कि उनका नाम सारे भारतवर्ष में फैल गया। बंगदेश में इन्हीं बोपदेव के व्याकरण को पढ़कर लोग पण्डित होतेहैं।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जिस समय अपने ग्राम की शिक्षा समाप्त करके कलकत्तो के संस्कृत कॉलेज में भरती हुए, उस समय उन्होंने अध्यकवसाय और परिश्रम की पराकाष्ठा कर दी। संस्कृत व्याकरण के साथ उन्होंने स्कूल में अगरेजी पढ़ना भी आरम्भ किया। ईश्वरचन्द्र के पिता अत्यन्त साधारण वित्त के मनुष्य थे, इससे वे पुत्र की विशेष सहायता न कर सकते थे। ईश्वरचन्द्र दिन भर तो कॉलेज और स्कूल में संस्कृत और ऍंगरेजी का पाठ सुनाते और लेते, रात को रसोई बनाकर पढ़ने बैठते और दो दो बजे रात तक बैठे रह जाते। वे कभी कभी एक दिन का बनाया दो दिन खाते। उन दिनों उनका यह हाल था कि वे सबेरे स्नान करके बाजार जाते और तरकारी इत्यादि लेकर डेरे पर लौट आते। फिर अपने हाथों ही से सिल पर हल्दी मसाला पीसते और आग जलाते थे। उनके बासे में चार आदमी भोजन करते थे। सबके लिए वे भात, दाल, मछली, तरकारी आदि बनाते। फिर सबके भोजन कर चुकने पर चौका साफ करते और बरतन माँजते थे। सचमुच बासन माँजते और लकड़ी चीरते चीरते उनके हाथ खुरखुरे हो गए थे और दो एक नख घिस गए थे। इस अपूर्व परिश्रम का विद्यासागर को अपूर्व फल मिला। थोड़े ही दिनों में वे व्याकरण, साहित्य, स्मृति, अलंकार आदि में पारंगत हो गए और उन्होंने उच्च छात्रावृत्ति प्राप्त की। धीरे-धीरे वे विद्यासागर हो गए और उनकी उज्ज्वल कीर्ति सारे भारतवर्ष में फैल गई।

अध्यवसाय मानसिक शिक्षा का एक बड़ा भारी साधन है। मन को व्यर्थ और इधर-उधर बहकने से रोकने के लिए, कल्पना को अनुपयोगी विषयों में लीन होने से बचाने के लिए, मेरी समझ में इससे बढ़कर और कोई उपाय नहीं है कि तर्कविद्या की खरी शैली का अभ्यास किया जाय अथवा प्राचीन और अर्वाचीन भाषाओं का पूर्ण अध्यैयन किया जाय। अध्यावसाय नैतिक शिक्षा का भी साधन है। जब बौध्द-भिक्षुओं को मार के प्रलोभनों का बहुत भय होता है, तब वे अपने धर्मकार्यों में दूनी तत्परता के साथ रत हो जाते हैं। यदि प्रत्येक घड़ी के लिए कोई न कोई काम रहे तो क्षुद्रर् ईर्ष्या , मात्सर्य, अपवित्र वासना आदि के लिए समय न मिले। ऐसे खोटे उद्योगों के लिए अवकाश ही न रहे जिनके द्वारा खाली बैठे हुए निकम्मे लोग अपना सत्यानाश करते हैं। ऍंगरेजी कहावत है कि शैतान ऐसे ही हाथों को खोटे कर्मों की ओर बढ़ाता है जिनमें कुछ कामधन्धा नहीं रहता। अध्य वसाय के महत्तव को समझते हुए भी युवा पुरुष को चाहिए कि वह इस बात में भी आवश्यकता से अधिक न बढ़ जाय। बहुत से युवा पुरुषों के लिए तो इस चेतावनी की कोई आवश्यकता ही नहीं; क्योंकि विरले ही मनुष्यों को परिश्रम वा अध्यकवसाय इतना प्रिय होता है। पर कभी कभी कोई उत्साही छात्रा ज्ञानपिपासा के इतना वशीभूत हो जाता है कि वह उतना समय व्यर्थ नष्ट हुआ समझता है जितना पुस्तकों के अध्य यन में नहीं बीतता। इसी विचार से मैं युवा पुरुषों में एक और गुण का होना आवश्यक समझता हूँ जिसे संयम वा मिताचरण कहते हैं। किसी बात में अति कभी न करनी चाहिए। यह वाक्य सदा ध्याान में रखना चाहिए। 'अति सर्वत्रा वर्जयेत्।' हर एक बात की हद होती है। जिस प्रकार राजाओं को नए नए देशों को जीतकर राज्य में मिलाने की धुन हो जाती है, उसी प्रकार किसी-किसी विद्याव्यसनी को एक शास्त्र से दूसरे शास्त्र, एक विद्या से दूसरी विद्या पर अधिकार प्राप्त करने की धुन हो जाती है। वह कभी इतिहास पढ़ते-पढ़ते दर्शनों की ओर झुकता है; कभी संस्कृत, प्राकृत में प्रवीण होकर अरबी, फारसी सीखने लगता है; रसायन और विज्ञान में पारंगत होकर भूगर्भविद्या और वनस्पतिविद्या में परिश्रम करता है। सच्चे जिज्ञासु और विद्वान् का यही लक्षण है। पर उसे इस बात से भी सावधन रहना चाहिए कि अत्यन्त अधिक परिश्रम से कहीं वह अस्वस्थ न हो जाए और किसी काम के करने लायक ही न रहे। अत: हे युवा पुरुषो! तुम्हें चाहिए कि तुम अति न करो। तुम्हें काम की भी उसी प्रकार अति न करनी चाहिए जिस प्रकार आराम की। जितना समय तुम्हारे हाथ में हो, उसे अच्छी तरह सोच समझ लो और जितना तुम उसके बीच कर सकते हो, उससे अधिक के लिए प्रयत्न न करो। मैं पहले ही बतला चुका हूँ कि अपने समय और शक्ति का क्रम और व्यवस्थापूर्वक उपयोग करने से तुम कितने बड़े-बड़े काम कर सकते हो। इस ढंग से तुम जितना कर सको उससे सन्तोष करो, अपने शरीर और मस्तिष्क के पुरजों से इतना अधिक काम न लो जितना वे स्वस्थतापूर्वक न कर सकें। यदि तुम शरीर वा मस्तिष्क पर बहुत अधिक बोझ डालोगे, उसे बहुत अधिक झटका दोगे, तो वह तड़ से उखड़ जायेगा। मैंने बहुत से युवा पुरुषों को देखा है जो एकबारगी बहुत अधिक काम के कारण चक्कर खाते हुए सिर में भीगा रूमाल लपेटते हैं, थके हुए मन में फुरती लाने के लिए दम पर दम गरमागरम चाय पीते हैं तथा इसी प्रकार के और अनेक उपाय करते हैं। यह अत्यन्त हानिकारक है, यह भारी पागलपन है। इससे भाँति भाँति के रोग लग जाते हैं और शरीर उखड़ जाता है। मैंने ऐसे बहुत से लोगों को देखा है जो पढ़ने में अति करने के कारण अकाल ही काल के गाल में गए हैं। यदि वे अपने समय और श्रम का संयमपूर्वक उचित विभाग करते तो अपने जीवन से हाथ न धोते। संयम और व्यवस्था इन दो बातों से बड़ी रक्षा होती है। युवा पुरुष को चाहिए कि वह अपने उद्देश्यों को परिमित रखे और अपने कार्यों को नियमित करे। यदि मन को नियत समय पर एक-एक विषय की ओर लगाया जाय, तो वह बहुत कुछ कर सकता है। पर यदि उसे लगातार एक ही ओर लगाकर उस पर एक ही समय में बहुत सा बोझा डाल दिया जायेगा तो अन्त में कुछ भी न हो सकेगा। लोगों की मृत्यु असंयम ही से होती है। नियमपूर्वक कार्य करने से कोई नहीं मरता, बल्कि इतिहास और जीवनचरित इस बात के साक्षी हैं कि काम करने से मनुष्य दीर्घायु होता है। पड़ी-पड़ी मुर्चा खाने से वस्तु जितनी जल्दी नष्ट होती है, उतनी व्यवहार में आने से नहीं। बेंजमिन फ्रैंकलिन नामक एक असाधारण उद्योगी मनुष्य हो गया है उसकी दिनचर्या इस प्रकार थी-

प्रात:काल

5 बजे से 7 बजे तक उठना, हाथ-मुँह धोकर नित्यक्रिया करना। दिन

(प्रश्न-आज कौन सा अच्छा भर के काम का ढंग सोचना और निश्चित

काम मुझे करना है?) करना। अध्येयन करना। जलपान।

8 बजे से 11 बजे तक काम

दोपहर

12 बजे से 1 बजे तक पढ़ना, हिसाब-किताब देखना, भोजन करना।

तीसरा पहर

2 बजे से 5 बजे तक काम

सन्ध्या

6 बजे से 9 बजे तक चीजों को ठिकाने रखना, भोजन करना, संगीत, वार्तालाप और मनोविनोद। दिन भर के काम का लेखा।

रात

10 बजे से 4 बजे तक सोना

मैं पाठकों से इस दिनचर्या का पूरा-पूरा अनुकरण करने के लिए नहीं कहता, मेरा अभिप्राय केवल नियम का महत्तव दिखाने का है। प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन की स्थिति के अनुसार अपने समय को बाँटना चाहिए। एक बात और है। मेरी समझ में फ्रैंकलिन की इस दिनचर्या में समय का उतना ध्यातन नहीं रखा गया है। सोने के लिए केवल 6 घण्टे का समय काफी नहीं है। पर इस विषय पर विशेष मैं आगे चलकर कहूँगा। यहाँ पर मैं केवल संयम रखने अर्थात् किसी बात में अति न करने का आग्रह करना चाहता हूँ और नियम का महत्तव समझाना चाहता हूँ जिसके बिना संयम सम्भव नहीं। स्काटलैण्ड का कवि राबर्ट निकल 5 बजे तड़के उठता था और सीधा नदी के किनारे चला जाता था। वहाँ जाकर वह 7 बजे तक लिखा करता था। 7 बजे वह काम पर जाता था। 9 बजे रात को जब उसका काम समाप्त हो जाता था, वह पढ़ने बैठता था और कभी-कभी पढ़ते-पढ़ते सबेरा कर देता था। इस असंयम का फल यह हुआ कि वह नवयुवक कवि थोड़े ही दिनों में अपने जीवन से हाथ धो बैठा। इसके विरुध्द बंगभाषा के प्रसिध्द ग्रन्थकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाधयाय दिन भर में 3-4 घण्टे नियमित रूप से लिखने का काम करते थे। ऐसे अनेक बड़े-बड़े ग्रन्थकार हो गए हैं जो प्रात:काल नियमपूर्वक 3-4 घण्टे काम करके अनेक बड़े-बड़े ग्रन्थों की रचना करने में समर्थ हुए। प्रसिध्द ऍंगरेजी उपन्यास लेखक स्काट अपनी समृध्दि के दिनों में, जबकि उसकी प्रतिभा का पूर्ण विकास था, केवल प्रात:काल का समय साहित्यसेवा में लगाता था। पर पिछले खेवे में जब उस पर ऋण बहुत अधिक चढ़ गया, तब उसने रात-रात और दिन-दिन भर मिहनत की और पाँच वर्ष में 63000 पाउंड (945000 रुपये) का ऋण चुका दिया। फल यह हुआ कि उसका मस्तिष्क विकृत हो गया और वह थोड़े ही दिनों में मृत्यु को प्राप्त हुआ। इससे आत्मशिक्षार्थी को संयम से चलना चाहिए। संयम सोने की लगाम है।

जिस प्रकार युवक को काम में अति न करनी चाहिए, उसी प्रकार उसे आमोद में भी अति न करनी चाहिए। उसे दोनों पलड़ों को बराबर रखना चाहिए, किसी को झुकने न देना चाहिए। काम करने वाले के लिए आमोद प्रमोद भी बहुत ही आवश्यक है। उसे मनोरंजन के लिए कुछ समय अवश्य रखना चाहिए, नहीं तो उसकी सारी मनोवृत्तियाँ मन्द पड़ जायँगी और उसका सारा शरीर रोग के हवाले होगा। बड़े काम करनेवालों को सामान्य बातों में भी आनन्द प्राप्त करने से लज्जित न होना चाहिए। जिन बातों से स्वभावत: साधारण लोगों का जी बहलता है, उन बातों से वे भी अपना जी बहला सकते हैं। यह नहीं कि जो बड़ी बड़ी लड़ाइयों को जीतता हो, राजनीति द्वारा बड़े-बड़े राज्यों का परिचालन करता हो, उसे बालकों की क्रीड़ा से कुछ आनन्द ही न मिले। फ्रांस के बादशाह चौथे हेनरी के पास स्पेन का एक राजदूत रहता था। बादशाह एक दिन अपने एक बच्चे को पीठ पर सवार कराकर घुटनों के बल चल रहे थे। बच्चा प्रसन्न हो-होकर चाबुक मारता और एड़ लगाता था। राजदूत ने यह देख लिया। बादशाह ने राजदूत से पूछा-'तुम्हारे बालबच्चे हैं?' राजदूत ने कहा-'हाँ हैं।' बादशाह ने कहा-'तब ठीक है। जरा मैं इस कमरे में एक चक्कर और लगा लूँ।' एक धुरंधर राजनीतिज्ञ का कथन है-'मैंने कई बार चाहा कि उन बातों को छोड़ दूँ जो लड़कपन की आदतें कहलाती हैं, पर थोड़ा सोचने पर मुझे ध्यांन हुआ कि यह मेरी बड़ी भारी मूर्खता होगी। मुझे परमात्मा का यह बड़ा भारी प्रसाद समझना चाहिए कि मुझे हर एक बात में आनन्द मिलता है। मुझे गेंद उछालने में भी आनन्द आता है और चीन के सम्राट के साथ पत्रव्यवहार करने में भी।' कार्य को ईमानदारी के साथ पूरा करने के लिए विश्राम और आमोद आवश्यक है। थकी-माँदी देह और ढीली नसें मस्तिष्क से बदला चुकाती हैं; क्योंकि हमारी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ है, तन और मन का नाता बड़ा गहरा है। विश्राम वा आमोद अत्यन्त आवश्यक है, पर हमें उसका व्यसन न हो जाना चाहिए। संयमी पुरुष किसी बात में अति नहीं करेगा। वह जीवन में बड़े हिसाब से चलेगा। वह संकल्प के संयम का भी ध्याअन रखेगा, बहुत बढ़कर मन न दौड़ावेगा। वह अपनी आशाओं को परिमित करने और अपने हौसलों को रोकने का भी प्रयत्न करेगा। यदि उसमें कुछ सार है तो वह थोड़े लाभ से भी सन्तुष्ट होगा। वह बरस दिन की राह छ: महीने में चलकर अपने को भय और आपत्ति में न डालेगा। युवा पुरुष जब पहले पहल जीवन के कार्यक्षेत्र में आते हैं, तब वे बड़ी बड़ी बातों का मनोहर स्वप्न देखते हैं, बड़े-बड़े हवाई महल उठाते हैं जो थोड़े दिनों पीछे हवा हो जाते हैं और चित्त में पछतावा ही रह जाता है। जीवन का व्यापार हँसी-खेल नहीं है। यह न समझो कि बाजी सदा तुम्हारे ही हाथ में रहेगी, तुम्हारी निपुणता और चतुराई के कारण जीत तुम्हारी ही होगी। यह समझ रखो कि संयोग बड़ा प्रबल है। जिस समय तुम समझते हो कि सारी बाजी तुम्हारे हाथ में है, उसी समय बाजी उलट जाती है और तुम मुँह ताकते रह जाते हो। इससे अपनी आशाओं को परिमित रखो, अपने मन को आकाश पर मत चढ़ाओ। धीरता, शान्ति और उद्देश्य की गम्भीरता सच्ची बुध्दिमानी के लक्षण हैं। महाराजा रणजीतसिंह के विषय में कहा जाता है कि लड़ाई के पहले वे बहुत उद्विग्न और चंचल दिखाई पड़ते थे; पर ज्यों ही लड़ाई आरम्भ हो जाती थी, वे बहुत ही धीर और गम्भीर भाव धारण कर लेते थे। जीवन के संग्राम में भी उसी धीरता के साथ चलो। यदि तुम विजय न भी प्राप्त करोगे तो भी तुम अपना मान न खोओगे। जरतुश्त का वचन है-'धीर और संयमी मनुष्यों पर कृपा करने में देवता बड़ी जल्दी करते हैं।' यह भी सच है कि जो मनुष्य थोड़े की आशा रखता है, वह भाग्य से बहुत पाता है।

जिस प्रकार मन का बहुत बढ़ाना ठीक नहीं, उसी प्रकार उद्देश्य और प्रयत्न को भी बहुत बढ़ाना अच्छा नहीं। न तो एक साथ बहुत बड़ी बड़ी आशाएँ करो और न बहुत बड़ी बड़ी बातों के लिए प्रयत्न करो। पहले तुम अपनी सामर्थ्य का ठीक-ठीक अन्दाजा करो और फिर ऐसा काम हाथ में लो जो तुम्हारी शक्ति के बाहर न हो। विफलता वही निन्दित है जो एकबारगी बहुत अधिक मन बढ़ाने से होती है। वामन होकर चन्द्रमा छूने के लिए हाथ बढ़ाना लोक में उपहासजनक ही होता है। जो बैलगाड़ी हाँक सकता है, वह यदि सूर्य का रथ हाँकने चले तो उसकी विफलता पर ताली पीटने के सिवा लोग और क्या करेंगे? गिरधरराय ने ठीक कहा है-

बीती ताहि बिसारि दे आगे की सुधि लेय।

जो बनि आवे सहज में ताही में चित देय।।

ताही में चित देय बात जोई बनि आवै।

दुर्जन हँसे न कोय चित्त में खेद न पावै।।

नाटक के एक अभिनय में बासवेल नामक ग्रन्थकार ने गाय के रँभाने की ऐसी साफ नकल की कि दर्शकों ने प्रसन्न होकर बार बार करतलध्वभनि की। अब तो बासवेल का मन बढ़ा और वह दूसरे जानवरों की बोली बोलने का भी प्रयत्न करने लगा, पर उससे बना नहीं। इस पर दर्शकों में से एक बड़ी चतुराई के साथ बोल उठा-'गाय ही तक रहो, गाय ही तक रहो'। हे युवकगण! तुम संयमी बनो और जहाँ तक पहुँच सकते हो, वहीं तक हाथ बढ़ाओ। यह बात निश्चय जानो कि इस संसार में हममें से हर एक को कुछ न कुछ करना है; और जो परमात्मा हमारे कार्य नियत करता है, वही उसके करने की शक्ति भी हमें प्रदान करता है। उसका बड़ा भारी अभाग्य समझना चाहिए जो यह नहीं जानता कि हमारा काम क्या है। और ऐसी उड़ान मारना चाहता है जिसकी उसमें कुछ सामर्थ्य नहीं। मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूँ जिनके हौसले उनकी योग्यता से बहुत बढ़े हुए थे और जिन्होंने थोड़ी पूँजी वा अल्प साधन रखकर भी बड़े-बड़े कामों में हाथ डाला और जो पीछे सिर पीट-पीटकर खूब पछताए। मैं साहसी और क्षमताशाली पुरुषों के उत्साह को मन्द नहीं करना चाहता और न उनके हौसलों को पस्त करना चाहता हूँ। मैं अकर्मण्यता और आलस्यपूर्ण सन्तोष का उपदेश नहीं देता हूँ। प्रत्येक युवा पुरुष के लिए अपने बढ़ने का हौसला करना, अपनी उन्नति का प्रयत्न करना अच्छी बात है; पर उसे पहले अपनी सामर्थ्य का अन्दाज बाँध लेना चाहिए और प्रस्तुत साधनों का विचार कर लेना चाहिए। ऊपर चढ़ना तो अच्छी बात है, पर गिरना नहीं। उसे सीढ़ी सीढ़ी ऊपर चढ़ना चाहिए और प्रत्येक सीढ़ी पर यह देख लेना चाहिए कि पैर अच्छी तरह जमा है या नहीं। इस प्रकार अपने बल का निश्चय करके तब आगे की सीढ़ी पर पैर जमाना चाहिए। संयमी पुरुष ही इस संसार में अपने इच्छानुकूल सब कुछ कर पाते हैं। जो अपने साधनों का अच्छी तरह विचार कर लेता है, वही कृतकार्य होता है। जो काम तुम्हारे लिए है, वही करो; उससे अधिक की न तुम आशा कर सकते हो, न साहस। वही काम तुम्हारे लिए है जिसके करने के तुम्हारे पास साधन हैं। जगन्नाथ पण्डित ने रघुवंश ऐसे किसी महाकाव्य में हाथ नहीं लगाया। शीशे पर रंग पोतकर भद्दी तसवीरें बनाने वाले 'शकुंतलापत्रलेखन' के समान चित्र बनाने का आयोजन नहीं करते। जब कभी कोई कवि वा शिल्पकार अपनी सामर्थ्य का विचार नहीं करता और अपना हौसला बहुत बढ़ाता है, तब उसका परिणाम क्या होता है? घोर विफलता और जगत् में हँसाई। ऐसे कवि का काव्य पुड़िया बाँधने के काम में आता है और ऐसी कारीगरी की बनाई चीज काठ कबाड़ के संग बिकती है। क्योंकि हम चाहे जो करें, प्रकृति को चकमा नहीं दे सकते। हम धूल की रस्सी नहीं बट सकते। हम जुगनू से दिन का प्रकाश नहीं कर सकते।

इसमें उदास और हतोत्साह होने की कोई बात नहीं है। युवा पुरुषों के हौसलों में प्राय: दोष यह होता है कि वे समझते हैं कि बड़ा भारी काम हाथ में ले लेना ही अच्छी तरह काम करना है। वे समझते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को चटपट अर्जुन ही बनना चाहिए। वे यह नहीं सोचते हैं कि जब तक नकुल और सहदेव न रहेंगे, तब तक अर्जुन में विशेषता क्या जान पड़ेगी? मेरा कहना यह है कि अच्छी तरह नकुल, सहदेव बनना बुरी तरह अर्जुन बनने से अच्छा है। बढ़िया जूता बनाना, जो पैर में ठीक आवे, भद्दा पद्य बनाने से ज्यादा इज्जत की बात है। पुरानी कहावतहै-

धीरज धारै सो उतरै पारा। नहिं तो दौरि मुवै मँझधारा।।

तुम इसकी बहुत चिन्ता न करो कि तुम्हारी हैसियत वा स्थिति कैसी है। तुम्हारी हैसियत वा स्थिति चाहे जैसी हो, तुम उसे पुरुषार्थ पूर्ण सात्विक व्यवहार तथा धर्माचरण की शोभा से अलंकृत करने का प्रयत्न करो। अपने उद्देश्यों में संयम रखो और अपनी वासनाओं को वश में करो। फिर देखो कि जो कार्य तुम्हारा होकर तुम्हारे पास आता है जिसे तुम समझते हो कि तुम अच्छी तरह कर लोगे, वह तुम्हारी दृष्टि में तथा औरों की दृष्टि में कितने महत्तव का जँचता है। संयमी बनो, किसी बात में अति न करो और इस बात का भी ध्या्न रखो कि जिस प्रकार तुम बुध्दिमत्तापूर्वक उस कार्य में हाथ नहीं डालना चाहते जो तुम्हारी सामर्थ्य के बाहर है, उसी प्रकार औरों से भी बहुत अधिक की वांछा न करो। तुम न्यायी होकर भी उदारता लिए रहो और उदार होकर भी न्याय न छोड़ो। अपना मिजाज काबू में रखना सीखो। अत्याचार, बेईमानी और बुराई देखकर पवित्र क्रोध से तमतमाना अच्छा है, पर हर घड़ी हर बात पर लाल-पीले होते रहना मूर्खता है। बड़ों ने क्रोध को 'पाप का मूल' कहा है; अत: तुम ऐसा क्रोध करो जो पाप न हो। धीर और शान्ति वृत्ति से कार्य में सुगमता होती है। उससे इस बात का आभास मिलता है कि मन और बुध्दि ठिकाने है? हम दूसरों पर अपना ताव दिखानेवाले कौन होते हैं? बहुत से लोगों को नाक पर गुस्सा रहता है, जहाँ किसी ने कुछ कहा कि वे झल्लाए। सहियों की तरह उनके रोम-रोम में काँटे होते हैं, जहाँ किसी ने कहीं हाथ रखा कि उँगलियाँ छिदीं। लोगों के साथ शान्त व्यवहार करना सीखो। जीवन में जो बात आ पड़े, उसे धैर्य के साथ बिना कुछ कहे-सुने सहन करो। तुम अपने चित्त की उस शान्ति को भंग न करो जो कर्तव्यबबुध्दि और परमात्मा के विश्वास पर निर्भर है। सहन करना और क्षमा करना जीवन का बड़ा भारी तत्वक है और क्षमताशाली पुरुष के लिए कुछ कठिन नहीं है। क्षुद्र से क्षुद्र, दरिद्र से दरिद्र मनुष्य का जीवन भी धैर्य की मधुर शान्ति से उन्नत और श्रेष्ठ हो सकता है।