आम व्यक्ति के अच्छे काम पर लेबल लगाने को सत्ता बेचैन / जयप्रकाश चौकसे

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आम व्यक्ति के अच्छे काम पर लेबल लगाने को सत्ता बेचैन
प्रकाशन तिथि :19 सितम्बर 2016


खबर है कि एक वृद्ध महिला ने अपनी बकरी बेचकर अपने क्षेत्र में शौचालय बना दिया अौर तबीतय खराब होने के कारण इस सामाजिक भलाई के काम के लिए दिल्ली जाकर सम्मानित होने से वंचित हो गई। संभवत: उस महिला ने गीता नहीं पढ़ी है परंतु वह निष्काम कर्मयोग को जानती है और यह उसकी स्वाभाविक जीवन-शैली का हिस्सा भी है। आज से लगभग एक सदी पूर्व एक वृद्ध महिला ने अपने तीर्थ स्थान जाने के लिए बचाए गए धन से अपने गांव में एक कुंआ बनवा दिया था और इस घटना से प्रेरित होकर भारती साराभाई ने एक नाटक लिखा, जिसमें वृद्ध महिला का संवाद है, 'मैं अपनी गिरती हुई सेहत के कारण काशी नहीं जा पाऊंगी परंतु मेरी उन्मुक्त आत्मा इसी कुंए में गंगाजल देख पाएगी।' उसी कालखंड में महान लेखक प्रेमचंद ने 'ठाकुर का कुंआ' लिखा, जिसमें जल के अभाव में एक दलित के प्राण चले जाते हैं। उसी कालखंड में हिमांशु राय ने अशोक कुमार और देविका रानी अभिनीत, 'अछूत कन्या' बनाई और 'चंडीदास' नामक फिल्म भी बनी।

गौरतलब यह है कि यह सभी काम हमारे गुलामी के दिनों में हुए परंतु राजनीतिक स्वतंत्रता मिलने के बाद जाने कैसे हमारा समाज असहिष्णु हो गया और अाज आप इस तरह की साहसी फिल्में नहीं बना सकते। क्या हम हमेशा से मूलत: दकियानूसी और अंधविश्वासी रहे हैं तथा कभी-कभी अत्यंत प्रेरक नेतृत्व के दौर में अच्छे कार्य करने लगते हैं? दरअसल, हमारी मायथोलॉजी ने यह मिथ गढ़ा है कि घोर अंधकार के समय प्रेरणा देने वाला व्यक्ति आएगा और हमारे लिए संघर्ष करेगा तथा आवश्यकता पड़ने पर हमारे लिए अपने प्राण भी तज देगा। गणतंत्रीय व्यवस्था की सफलता आम आदमी के नायक की तरह कार्य करने पर प्राप्त सफलता से संचालित होती है परंतु हमने तो महानायक गढ़ने में प्रवीणता प्राप्त कर ली है! हम हमेशा ही आम आदमी के महत्व को घटाकर प्रस्तुत करते रहे हैं और महानता गढ़ने में प्रवीण रहे हैं। साधारण होने के असाधारण गुण को हमने जानकर अनदेखा किया है गोयाकि चमत्कार के प्रति असीम मोह जगाने के प्रयास हुए हैं। कोई नायक छवि वाला व्यक्ति भी सारे समय आदर्श नहीं रहता। अपने जीवन में हम सब अपने टुच्चेपन से पूरी तरह वाकिफ हैं परंतु इसे सरेआम स्वीकार नहीं कर सकते। सारा खेल लोकप्रिय छवियां गढ़ने पर आकर थम जाता है और यही हमारे जीवन राग का सम है।

हमने विधिवत ढंग से स्वतंत्र विचार करने को हतोत्साहित किया है अौर भेड़ चाल हमारे लिए सुविधाजनक है। यह हमारी छिपी हुई अभिलाषा है कि कोई हमारे लिए सोचे, कार्य करे और आवश्यकता पड़ने पर मर भी जाए। टीएस एलियट की 'मर्डर इन द कैथेड्रल' में तरह-तरह के प्रलोभन रचे गए हैं कि बैकेट को अपनी ओर करने के प्रयास किए जा रहे थे ताकि सारी सत्ता एक व्यक्ति में केंद्रित हो जाए और वह निरंकुश बन सके। टीएस एलियट के इस काव्य नाट्य में बैकेट के सामने धन, ऐश्वर्य इत्यादि के प्रलोभन रखे जाते हैं परंतु चौथा टेम्प्टर बैकेट से कहता है कि उसने धन, औरतें इत्यादि प्रलोभन ठुकरा दिए हैं परंतु एक प्रलोभन वह नहीं ठुकरा पा रहा है। वह भलीभांति जानता है कि अपने विश्वास पर अड़े रहने पर राजा हेनरी उसका कत्ल करा देगा और कत्ल होते ही वह अजर-अमर हो जाएगा। सदियों तक उसका जन्म-दिवस और शहीद होने का दिवस धूमधाम से मनाया जाएगा। उसकी स्मृति मे मेलों का आयोजन होगा, उसे धरती पर ईश्वर का एकमात्र प्रतिनिधि माना जाएगा। बैकेट इस प्रलोभन के सामने बौना हो जाता है।

हमने ऐसा समाज रचा है, जो व्यक्ति पूजा में विश्वास करता है और पूजनीय होने की इच्छा हम सभी में होती है परंतु इसे स्वीकार करने की नैतिक ताकत नहीं होती। पूजनीय होने से बड़ा कोई प्रलोभन नहीं है। इसी संरचना ने स्वतंत्र विचार करने की क्षमता का हरण कर लिया है। भेड़ चाल बड़ी चतुराई से गढ़ी गई है। सारी व्यवस्थाएं स्वतंत्र सोच से भयभीत रहती हैं।

बकरी बेचकर शौैचालय बनाने वाली वृद्ध महिला महिमामंडित होने से बच गई। वह दिल्ली जाकर बड़े सत्ताधारी से पुरस्कृत होने से वंचित रह गई। ऐसा प्रतीत होता है कि व्यवस्था के हित में और अपने राजा के काल्पनिक प्रभाव की गाथाओं का हिस्सा बनने के प्रति वह औरत उदासीन है। उसने एक सहज काम अपनी सोच के अनुरूप कर िया है परंतु उस पर अपना लेबल लगाने के लिए व्यवस्था बेचैन है और किसी न किसी दबाव व हथकंडे से इस सामान्य घटना का राजनीतिकरण किया जाएगा। हमें किंवदंतियां रचने में ही आनंद आता है। हम सामान्य अच्छाई को बिना किसी लेबल के पचा नहीं पाते। बाजार मूल्यों के अथक प्रचार के बावजूद सामान्य व सरल-साधारण लोग आज भी सक्रिय हैं। प्रचार के अस्तित्व में आया राजा बेचैन है कि कैसे आम आदमी आम बने रहने में ही संतुष्ट हैं।