आर्थिक राजनीति और राजनीतिक अर्थनीति / अब क्या हो? / सहजानन्द सरस्वती

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तो क्या इस दिमागी कसरत और माथापच्ची के फलस्वरूप दक्षिणपंथी नेता लोग कांग्रेस को बख्श देंगे और आर्थिक कार्यक्रम के आधार पर कोई दूसरी पार्टी बनाएँगे? आर्थिक कार्यक्रम से हमारा यह मतलब है कि उस दल का मुख्य कार्यक्रम आर्थिक एवं सामाजिक मसलों को लक्ष्य कर के ही बना हो। कांग्रेस का प्रधान कार्यक्रम राष्ट्रीय रहा है और आर्थिक बातें गौण रही हैं। जिसे हम अपनी भाषा में राजनीतिक अर्थनीति कहते हैं वही उसका असली कार्यक्रम रहा है। वह आर्थिक मसलों को भी समय-समय पर छेड़ती उठाती रही है। मगर उन पर राजनीति की छाप और प्रधानता रही है। उन्हें वह राजनीति के आईने में ही देखती रही है। सारांश, राजनीति उसका साध्य और आर्थिक बातें साधन मात्र रही हैं। इसके साफ मानी होते हैं कि कांग्रेस में आर्थिक मसले मजबूरन उठाए जाते थे और उनका मतलब यही था कि उन मसलों में दिलचस्पी रखनेवाले किसान-मजदूर कांग्रेस के भक्त बने रहें, उसके अनुयायी रहें और मौके पर उसकी राजनीति में मददगार हों, चाहे वोट दे कर, जेल जा कर या सदस्य बन कर। ऐसे मसले छेड़ने में खामखाह किसान-मजदूरों की स्वार्थसिध्दि कभी कांग्रेस का लक्ष्य नहीं रही। नहीं तो असेंबलियों एवं बोर्डों में मालदार, जमींदार या उनके आदमी ही अधिकांश क्यों भेजे जाते रहे हैं? खाँटी किसान मजदूरों को ही बहुसंख्या में क्यों न भेजा जाता रहा है? इससे कांग्रेस की मुख्य दृष्टि राजनीतिक दाँव-पेंच ही रहे हैं इस पर पूरा प्रकाश पड़ता है। फलत: वह राजनीतिक पार्टी है।

मगर हम तो चाहते हैं कि कांग्रेस के नेता अब आर्थिक पार्टी बनाएँ और उसके द्वारा अपना काम चलाते हुए कांग्रेस का पिंड छोड़ें। इसका मतलब यही है कि अब वह राजनीतिक अर्थनीति को छोड़ कर आर्थिक राजनीति का रास्ता अपनाएँ और इस प्रकार अब अपनी राजनीति को अर्थनीति या आर्थिक प्रश्नों के आईने में देखे। ऐसी दशा में अर्थनीति साध्य और राजनीति उसका साधन बन जाएगी। गोलमाल बातों से काम नहीं चलने का है, चाहे इनसे जनता गुमराह भले ही और खतरे में पड़ जाए। मगर 'उघरहिं अंत न होय निबाहू।' किसान-मजदूर देखना चाहते हैं कि ये नेता केवल 'डपोरशंखो स्मिवदामि न ददाम्यहम' को चरितार्थ करते हैं या सचमुच हमारे जटिल आर्थिक तथा सामाजिक प्रश्नों को सुलझाते हैं। यह बात दोटूक होगी और वे इसमें धोखे में पड़ न सकेंगे। नेताओं की जाँच भी खरी होगी। ईमानदारी का तकाजा है कि यही किया जाय और प्राचीन महर्षियों की प्रतिष्ठा और उनके लिए जनता में विद्यमान आदर की ओट में जिस प्रकार आज के पंडे-पुजारी और साधु-महात्मा अपनी कमजोरियाँ छिपाते और उन्हीं की दोहाई दे कर काम चलाते हैं वही बात कांग्रेस के नाम और उसकी दोहाई के पीछे ये हमारे नेता न करें। ये बहादुर हैं, मर्द हैं, धुनवाले हैं। फलत: यह द्रविण-प्राणायाम उन्हें शोभा नहीं देता, यह लुक्काचोरी उनकी शान में बट्टा लगाती है। जिन नेताओं को हमने आज तक सर-आँखों चढ़ाया उनके बारे में यह चीज हमसे बर्दाश्त नहीं हो सकती। इसीलिए हमारी यह तमन्ना है, उनसे हमारी दस्तबस्ता अर्ज है।