आल इंडिया किसान-सभा और किसान बुलेटिन / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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सन 1935 ई. के बीतते-न-बीतते एक औरमहत्त्वपूर्ण घटना किसान-सभा के इतिहास में हुई। वामपक्ष के अनेक प्रमुख नेता मेरठ में एकत्र हुए और अन्य बातों के सिवाय उन्होंने यह भी तय किया कि अखिल भारतीय किसान-सभा का संगठन होना चाहिए। उनमें बिहार के भी कुछ मेरे साथी थे, जो आखिरकार इस बात में सहमत हो गए।वहाँ इस काम के लिए जो संगठन-समिति बनी,उसकेमंत्री,उन्होंने,मुझे,श्री एन. जी. रंगा को और श्री मोहनलाल गौतम को नियुक्त कर दिया। जिस परिस्थिति ने हमें जमींदारी के मामले में खामख्वाह आगे बढ़ाया उसी परिस्थिति ने और भी आगे जाने को विवश किया। मैं तो इसका विरोधी था। लेकिन किसान-सभा में अब तक मेरी बराबर नीति यही रही है कि साथियों की राय के बिना कुछ न करना और जिसमें वे सहमत होजाए , उसमें ज्यादा आगा-पीछा न करना , र्बशत्तो कि कुछ पेचीदा पहेली जैसी बात न हो , जिसका बुरा असर हमारी सभा पर पड़ने का खतरा हो। इसलिए मैंने मान लिया कि आल इंडिया सभा भी बने। देखा जाएगा।

इसके बाद अप्रैल के महीने में सन 1936 ई. में लखनऊ में कांग्रेस के अधिवेशन के समय ही पहला आल इंडिया किसान सम्मेलन करने का भी फैसला उन लोगों ने कर लिया। शायद यह बात मेरठ में ही तय पाई हो। सिर्फ आखिरी निश्चय पीछे कर लिया गया हो। लेकिन यह बात हुई और अखबारों में खबरें भी निकल गईं। कुछ खास प्रबन्ध तो करना न था। कांग्रेस की तैयारी थी ही। विषय-समिति के पंडाल में ही सम्मेलन करना तय करके स्वागत समिति से इस कार्य के लिए आज्ञा ले ली गई थी। यह भी उन्हीं लोगों ने तय कर लिया था कि उसका सभापति मैं ही बनाया जाऊँ। इसकी सूचना भी तार द्वारा मुझे दी गई। मगर तार मिलने के पहले ही मैं लखनऊ जा पहुँचा था। क्योंकि कांग्रेस की विषय-समिति आदि में सम्मिलित होना था। और लोग भी पहुँचे ही थे। वहाँ जाने पर ही मुझे सब बातें मालूम हो गईं। हरेक प्रांत के वामपक्षी लोगों से खास तौर से वहाँ परिचय प्राप्त किया।

तब से लेकर आज तक के मेरे पक्के साथी प्रो. रंगा और श्री इंदुलाल याज्ञिक से पहले मुलाकात वहीं हुई। यों तो एक बार रंगा जी दो मास पूर्व बिहार आने को थे। पर न आ सके। श्री इंदुलाल जी से तो लिखा-पढ़ी पहले ही से चलती थी। असल में वह बंबई में एक प्रचार संस्था बना के किसानों के संबंध की एक विज्ञप्ति कभी-कभी उसी संस्था के द्वारा प्रकाशित करते थे। मुझे भी उसे कुछ दिन से भेजने लगे थे। उन्होंने वहाँ मिलने पर उसके भेजने का कारण यह बताया कि कभी किसी अंग्रेजी अखबार में मेरे किसी भाषण का वह अंश उन्हें पढ़ने को मिला, जिसमें मैंने और बातों के साथ यह कहा था कि रोटी भगवान से बड़ी है। इसी से आकृष्ट हो के उनने मुझे पत्र लिखा और पीछे वह अंग्रेजी विज्ञाप्ति भेजने लगे।

मैं तो सशंक था कि यह कैसा आदमी है। मगर साथियों ने बताया कि वह तो हमारा ही आदमी है। तब मुझे विश्वास हो गया। पीछे तो लखनऊ में और उसके बाद हम दोनों में वह घनिष्ठता हो गई जो शायद ही और किसी के साथ हो?किसान-सभा इस बात की चिरऋणी रहेगी कि श्री इंदुलाल जी ने शुरू में अपने ही उद्योग से आल इंडिया किसान बुलेटिन अंग्रेजी में निकाल कर किसान आंदोलन की अपूर्व सेवा की। वह पंद्रहवें दिन निकलती है।

हाँ, तो सम्मेलन तो संपन्न हुआ अनेक महत्त्व पूर्ण प्रस्ताव भी पास हुए। आल इंडिया किसान कमिटी का जन्म भी वहीं हुआ। उसमें हर प्रांत के तात्कालिक उत्साही किसान कार्यकर्ता लिएगए। उसका काम और अधिकार यही रहा कि जब किसान-सभा न मिल सके तो उसकी जगह वही समझी जाए। पीछे तो नियमावली बना के सम्मेलन को ही आल इंडिया किसान-सभा का वार्षिक अधिवेशन नाम दे दिया गया। उस समय आल इंडिया किसान-सभा के तीन मंत्री चुने गए। स्थायी सभापति रखने की बात उस समय तय नहीं पाई। सोचा गया कि अधिवेशन के समय के ही लिए सभापति का पद हो,न कि स्थायी। हालाँकि, पीछे तो विधान में सभापति का पद स्थायी हो गया। वे तीनों मंत्री थे,वही पुराने तीन─मैं, प्रो. रंगा और गौतम। गौतम जी के जिम्मे ऑफिस सौंपा गया। मगर थोड़े ही दिनों बाद वह बीमार पडेऔर ऑफिस मेरे जिम्मे आ गया। तब से बराबर मैं ही उस सभा का जेनरल सेक्रटेरी रहा हूँ और ऑफिस मेरे पास ही रह गया है। सिवाय सन 1938-39 ई. के, जब मैं कोमिला के अधिवेशन में फिर सभापति चुना गया और प्रो. रंगा प्रधानमंत्री। उसी दरम्यान में केवल एक साल ऑफिस रंगा जी के साथ रहा। लखनऊ के बाद फैजपुर में ही श्री इंदुलाल याज्ञिक अन्य साथियों के साथ उसके संयुक्तमंत्रीचुने गए। तब से बराबर उस पद पर हैं।

लखनऊ में ही सोचा गया कि आल इंडिया किसान दिवस मनाया जाए। लेकिन तैयारी के लिए कुछ समय चाहिए। इसलिए पहली सितंबर ठीक हुई। तब से बराबर ही भारत भर में पहली सितंबर को आल इंडिया किसान दिवस मनाया जाता है। यों तो 'मे डे' में हम बराबर ही मजदूरों का साथ देते हैं।

आल इंडिया किसान-सभा का ऑफिस ज्योंही मेरे हाथ में सन 1936 में आया कि मैं उसे दृढ़ बनाने में लग गया।बिहार प्रांतीय किसान-सभा के कार्य से जितना समय बच पाता, उसी में लगाता। प्राय: सभी प्रांतों में दौरे भी किए ─ कहीं एक बार और कहीं तो अनेक बार। ज्यादातर जगहों में अनेक बार ही गया। इस मामले में मैंने श्री इंदुलाल याज्ञिक को बहुत ही मुस्तैद पाया। वे मुझसे जबर्दस्ती काम लेते। उन्हीं के करते मुझे खामख्वाह समय निकालना पड़ता। जब मैं दूसरी बार सभापति चुना गया तब भी यह मेरी कोशिश पूर्ववत रही। अभी-अभी तो गत वर्ष इतनी कोशिश के बाद दो-एक को छोड़ सभी प्रांतों में बाकायदा किसान-सभा के मेंबर बनवा के उनसे आल इंडिया का हिस्सा वसूल किया है। इसके पहले प्राय: व्यक्तिगत चंदे से,तथा कुछ प्रांतों से यों ही वसूल किए पैसों से ही किसी प्रकार ऑफिस चलता था।

मगर मैं इस बात का विरोधी हूँ। जनता की संस्थाएँ और गण-आंदोलन,जिन्हें किसानों, मजदूरों और अन्य शोषितों के हाथ में पूर्ण-रूपेण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकार दिलाना है या यों कहिए, कि जिन्हे लड़ के औरों से उनके द्वारा ये अधिकार छीनना है,वह तब तक मजबूत नहीं हो सकती हैं, और न अपने लक्ष्य को ही प्राप्त कर सकती हैं, जब तक दूसरों के चंदे से बाहरी आदमियों के द्वारा उनका संचालन होता है। इसीलिए कभी-कभी साथियों के कोप का भाजन बन के भी मुझे जबर्दस्ती यह काम करना पड़ा है। फलत:, स्वावलंबी बनने के रास्ते पर कुछ दूर तक भारतीय किसान-सभा को लाने में मैं समर्थ भी हुआ हूँ।