इक्कीसवीं सदी में हिन्दी के एक चर्चित कवि की मौत / कुमार मुकुल
करीब सात साल पहले स्वतंत्र वार्ता में उपसंपादक के रूप में काम करने पहली बार हैदराबाद गया था तो पता चला कि नक्सलधारा के कवि के रूप में पहचाने जाने वाले कवि वेणु गोपाल भी वहीं काम करते हैं। इस जानकारी ने मुझे बहुत आश्वस्त किया कि इस तेलुगुभाषी क्षेत्र में हिन्दी के इस तरह के एक चर्चित कवि के इतने पास रहकर काम करना होगा मुझे। करीब पंद्रह साल पहले सहरसा में जब कविता की आरंभिक दीक्षा आरंभ हुई थी मैथिली के कवियों महाप्रकाश और शिवेंद्र दास की संगत में तभी पहली बार वेणु जी का परिचय मिला था मुझे,उनका आरंभिक कविता संग्रह वे हाथ होते हैं भी वहीं पढने का मौका मिला था।
पर जब हैदराबाद में वेणु जी से पहली बार मिला तो उनकी कविताओं की आभासी छवि ही थी मन में कुछ ठोस नहीं था क्येांकि इधर अरसे से वे उस तरह से लिख नहीं रहे थे, उस समय उनकी ही धारा के अन्य कवि आलोक धन्वा की कविताओं की चर्चा ज्यादा थी। पहली मुलाकात में वे हमेशा की तरह हंसते हुए मिले गर्मजोशी से पर जैसी कि आशा रहती है एक युवा कवि को किसी अग्रज कवि से कि वह कुछ कविता के संदर्भ में भी पूछताछ करेंगे वह नहीं हुआ,आलोक धन्व से पहली मुलाकात में भी ऐसा ही हुआ था कि वे कविता की जगह इतिहास पर व्याख्यान देने लगे थे, जो मुझे जंचा नहीं था।
पर अखबारी काम में एक मास्टर की तरह थे वेणु जी। फीचर का सारा कामधाम वे अकेले देखते थे वहां। हम वहां शुरू में उन पन्नों पर मदद के लिए ही गये थे। पर उन्हें हमारी जरूरत नहीं थी सो हमें एडिट पेज मिला। पर फीचर पर भी उनका साथ देने का मौका जब तब मिलता रहा।
विरासत में उन्हें हैदरगुडा के एक मंदिर में पुजरई मिली थी सो अखबार में ज्योतिष फलाफल और अध्यात्म का पन्ना निकालने का काम उनके ही जिम्मे था। ज्योतिष के जानकार के रूप में उनका मूल नाम नंदकिशोर शर्मा था। डिक्टेशन देने की उनकी आदत थी सो कभी कभार बुला लेते कि ज्योतिष फलाफल लिखो। पर डिक्टेशन लेने की मेरी आदत नहीं थी। सो जब देखता कि ज्योतिष की कई किताबें देखकर वे लिखा रहे हैं तो कहता कि ये किताबें दे दीजिए मैं खुद लिख लूंगा पर उन्होंने ऐसा किया नहीं। और आगे फिर मैंने उनसे डिक्टेशन लिया नहीं क्योंकि मनमाफिक काम ना होने पर उसे ना करने की मेरी बुरी आदत है। तब पहले की तरह उनसे डिक्टेशन लेने एक युवती श्रीदेवी आने लगीं जो उनके काम में सहायता करती थीं क्योंकि वे उस अखबार में नियमित काम नहीं करती थीं, वे उनकी शिष्या थीं।
पूरे दिन वेणु जी अपनी कुर्सी पर जमे काम करते रहते थे। पान चबाते सौंप खाते डटे रहते। बीच में मन उबता तो मुझे या किसी और को साथ ले बाहर चाय की दुकान पर चाय पीते गपियाते। फीचर पेज पर वर्ग पहेली भी वही करते थे तो वह भी उन्होंने कहा कि रोज आकर वर्ग पहेली लिख लिया करो , फिर वही समस्या कि आप एक बार बता दें मैं खुद लिख लूंगा तो उन्होंने बताया और सोचा कि अब देखो बच्चू कैसे करते हो, पर मैंने पंद्रह मिनट में जब नयी पहेली बनाकर दिखा दी तो फिर वह काम हमेशा के लिए मेरे जिम्मे आ गया। और मैंने पहेली में भी बहुत प्रयोग किए। उन पहेलियों की कटिंग अभी भी मेरे पास पटना में कहीं रखी होगी , चूंकि पहेली बनाने में मिहनत लगती थी सेा मैं उन्हें अपनी उपलब्धि के रूप में रखता जाता था काटकर, पर फिर आज तक वे किसी काम नहीं आयीं।
हैदराबाद में सस्ते मकान के लिहाज से गोलकोंडा के किले के पास जिधर हैदरगुडा में मैं रहता था वहां से कुछ दूरी पर ही वह मंदिर था जिसमें वेणु जी की पहली पत्नी और परिवार रहता था। जहां वे अक्सर रहते थे, इसके अलावे वे अपनी कवि पत्नी वीरां के पास रहते जो वहीं कहीं कालेज में पढाती थीं। तो मैं जब तब टहलता , जैसी कि मेरी आदत है दो तीन किलोमीटर मेरे पडोस की तरह रहता है , उस मंदिर जा धमकता और वेणु जी से बातें होतीं ढेर सारी। पुजारी थे तो मंदिर का प्रसाद भी जबतब खाने को मिलता। वेणु जी बताते कि यह मंदिर पुरखों की विरासत है इस पर केस था अब जीत लिया है मैंने। एक किस्सागो की तरह बातें बनाते वेणु जी जो सुनने में मजा आता। कैसे वे बचपन में चोरियों करते, घर से भाग जाते और आवारगी के मार तमाम किस्से।
उसी मंदिर वाले मकान में हैदराबाद छोडने के पहले मैंने उनसे एक बातचीत की थी जो आगे पटना से निकलनेवाली लघुपत्रिका समकालीन कविता में छपी थी। आगे बेटे की बीमारी के दौरान दिल्ली आ गया तो पता चला कि उनकी एक टांग गैंग्रीन के चलते काटनी पड़ी तो मुझे आश्चर्य हुआ कि अरे वे तो एकदम दुरूस्त थे, मस्त, यह कैसे हुआ...। तब पता चला कि उन्हें पहले से डायबीटिज थी। और अखबार के डेस्क पर दिन भर बैठने की आदत ने ही उनका यह हाल कराया था। अब रोटी तो कमानी ही थी जो वे टांग कटने के बाद भी उसी दफ्तर में काम करते रहे और अंत में कैंसर के शिकार हुए। यह तो होना ही था आखिर कितना काम कर सकता है एक आदमी इस छियासठ साल की उम्र में। तो यह इक्कीसवीं सदी में हिन्दी के एक चर्चित कवि की मौत थी जिस तक उसे हमारे इस विशाल समाज ने अपनी देख रेख में पहुंचाया था।
पिछले साल जब पहल सम्मान के दौरान बनारस गया था तो वहां वेणु जी भी आए थे। अपने एक पांव के साथ भी वे वैसे ही अलमस्त थे। हंसते, पान चबाते....