इनका निष्कर्ष, इनकी विशेषता / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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असहयोग युग के पूर्ववर्ती आंदोलनों की विशेषता यह थी कि एक तो वे अधिकांश असंगठित थे। दूसरे उनको पढ़े-लिखे लोगों का नेतृत्व प्राप्त न था। अवधवाले में भी यही बात थी। तीसरे उनने मार-काट का आश्रय लिया। तब तक जनांदोलन का रहस्य किसे विदित था? यह भी बात थी कि ये विद्रोह और आंदोलन पहले से तैयारी कर केकिए न गए थे। जब किसानों पर होनेवाले जुल्म असह्य हो जाते थे और उन्हें अपने त्राण का कोई दूसरा रास्ता दिखता न था तो वे एकाएक उबल पड़ते थे। फिर तो मार-काट अनिवार्य थी। परिस्थिति उन्हें एतदर्थ विवश करती थी या यों कहिए कि जमींदार और शोषक अपने घोर जुल्मों के द्वारा उन्हें इस हिंसा के लिए विवश करते थे। यही उनकी कमजोरी थी। इसी से वे दबा दिएगए और विफल से रहे;हालाँकि उनका सुंदर परिणाम किसानों के लिए हो कर रहा यह सभी मानते हैं। कितने ही कानून किसान हित-रक्षा के लिए बने उन्हीं के चलते।

यह ठीक है कि उनमें कुछ को पढ़े-लिखों का नेतृत्व प्राप्त था। दृष्टांत के लिए 1920 वाले मोपला-आंदोलन को ले सकते हैं। मगर वहाँ भी छिटपुट हिंसा की शरण लेने से भयंकर Ðास हुआ। खिलाफत और पंजाब-कांड के बाद ही होने तथा इनके साथ मिल जाने से भी उसका निर्दय दमन किया गया। फलतः वह बेकार-सा गया। अहिंसा की प्रचंड लहर का युग होने से वह उसी में डूबा, यह भी कह सकते हैं।

मगर खेड़ा, चंपारन और युक्तप्रांत का पं. नेहरू के द्वारा संचालित आंदोलनशांतिपूर्ण होने के साथ ही उदात्त नेताओं के हाथों में रहा; यद्यपि संगठित रूप उसे भी नहीं दिया जा सका। फिर भी जनांदोलन का शांतिपूर्ण रूप मिल जाने से ही और पठित नेतृत्व के कारण ही उन सबको कम-बेश प्रत्यक्ष सफलता मिली। उनके क्षेत्र और उद्देश्य जितने ही संकुचित या व्यापक थे, और उनमें जैसी शक्ति थी तदनुकूल ही उन्हें कम या अधिक सफलता मिली। खेड़ा का आंदोलन तो जिले भर का था, ठेठ सरकार के विरुद्ध। फलतः उसे उतनी कामयाबी न मिल सकी। चंपारनवाला था कुछ खास इलाके का, सिर्फ निलहों की नृशंसता एवं मनमानी घरजानी के विरुद्ध। फलतः वह पूर्ण सफल रहा। अवधवाला था लंबे इलाके के विरुद्ध, जिसमें बहुत जिले आ जाते हैं। युक्त प्राप्त का भी प्रश्न उसने साधारणतः उठाया। इसी से उसकी सफलता बहुत धीमी चाल से आनी शुरू हुई और अब तक भी पूर्ण रूप से पहुँच न सकी।

असहयोग के पूर्व किसान-आंदोलन में जो दृढ़ता न आ सकी और उसे जो पूर्ण संगठित रूप मिल न सका उसके दो बड़े कारण थे, जिसका उल्लेख अब तक किया न जा सका है। एक तो किसान जनता में आत्मविश्वास न था। सदियों से कुचले, पिसे किसान आत्मविश्वास खो चुके थे। अतः विश्वासपूर्वक सामूहिक रूप से खम ठोक कर अपने उत्पीड़कों से लड़ न सकते थे। फलतः एक बार फिसले तो हिम्मत हार गए और चुप्पी मार बैठे। फिर संगठन कैसा? दूसरे, आंदोलन चलाने के लिए बहुसंख्यक पठित कार्यकर्ता और नेता भी नहीं प्राप्त थे-ऐसे नेता और कार्यकर्ता जिन्हें आत्मविश्वास हो और जो धुन के पक्के हों कि लक्ष्य तक पहुँच कर ही दम लें।

ये दो मौलिक कमियाँ थीं, जिन्हें असहयोग आंदोलन ने पूरा कर दिया। 1921 में बड़ी-से-बड़ी शक्तिशाली और शस्त्रस्त्र सुसज्जित सरकार को एक बार निहत्थे किसानों ने कँपा दिया, हिला दिया। फलस्वरूप उन्हें अपनी अपार अंतर्निहित शक्ति का सहसा भान होने से उनमें आत्मविश्वास हो गया कि जब इतनी बड़ी सरकार को हिला दिया, तो जमींदार, ताल्लुकेदार और साहूकार की क्या बिसात? उन्हें चीं बुलाना तो बाएँ हाथ का खेल है। असहयोग ने हजारों धनी कार्यकर्ता भी दिए जो ऊपर आ गए-मैदान में आ गए। असहयोग की सफलता के मुख्य आधार किसान ही थे, जो पहली बार सामूहिक रूप से कांग्रेस में आए थे। इसलिए वे तथा उनके लिए कार्यकर्ता ─दोनों ही─आत्मविश्वास प्राप्त कर के आगे बढ़े।

यद्यपि ये बातें कुछ देर में हुईं। क्योंकि आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चय के लिए समय और मनन की आवश्यकता होती है। तथापि ये हुईं अवश्य। इसीलिए, और राजनीतिक उलझनों के चलते भी, संगठित किसान-आंदोलन किसान-सभा के रूप में 1926-27 में बिहार में तथा अन्यत्र शुरू हुआ। इतनी देर कोई बड़ी चीज न थी। 1928 वाला बारदोली का आंदोलन भी इसी का परिणाम था। वह सफल भी रहा।

इस प्रकार हम आधुनिक संगठित किसान-आंदोलन के युग में प्रवेश करते हैं। असहयोग आंदोलन ने हमें─सारे देश को─जो जनांदोलन का अमली सबक सिखाया और अपार शक्ति हृदयंगम कराई, उसके फलस्वरूप आगे चलकर किसान-आंदोलन को भी जनांदोलन का रूप मिला, यह सबसे बड़ी बात थी।

असहयोग के कारण कांग्रेसी लोग प्रांतीय कौंसिलों से बाहर रहे। फलतः मद्रास, बंबई आदि में अब्राह्मण दल के मंत्री बने और उनने अपना प्रभुत्व जमाया। उसे कायम रखने के लिए उन्हीं लोगों ने आंध्र में आंध्र प्रांतीय रैयत असोसियेशन के नाम से एक किसान-सभा उस समय, 1923-24 में बनाई, ऐसा कहा जाता है। मगर उसकी कोई विशेष कार्यशीलता पाई न गई। अलबत्ता बिहार में इस लेखक ने अपने कांग्रेसी साथियों के सहयोग से 1927 में नियमित रूप से, सदस्यता के आधार पर,किसान-सभा की स्थापना पटना जिले में कर के धीरे-धीरे 1929 में उसे बिहार प्रांतीय किसान-सभा का रूप दिया। उस समय बिहार की कौंसिल में किसान-हित-विरोधी एक बिल सरकार की ओर से पेश था और जरूरत इस बात की थी कि किसान उसका संगठित विरोध करें। इसीलिए कांग्रेसी नेताओं ने बिहार प्रांतीय किसान-सभा की जरूरत महसूस की और इसीलिए उसका जन्म हुआ। उसमें कांग्रेस के सभी लीडर शामिल थे , सिवाय स्वर्गीय ब्रजकिशोर बाबू के। उस सभा का काम लेखक की अध्यक्षता में खूब जोरों से चला और अंत में सरकार को वह बिल लौटा लेना पड़ा। इस तरह जन्म लेते ही सभा को अभूतपूर्व सफलता मिली। वर्तमान प्रधानमंत्री बा. श्रीकृष्ण सिंह उस समय किसान-सभा के मंत्री थे।आगे चलकर सभा को और भी संघर्ष करने पड़े। इस प्रकार संघर्षों के बीच वह फूली, फली और सयानी हुई।

सन 1918-19 में ही इलाहाबाद में श्री पुरुषोत्तमदास जी टंडन की देख-रेख में किसान-आंदोलन शुरू हुआ था और उसने कुछ काम भी किया। उसके बाद, असहयोग के उपरांत, कांग्रेस जन इस काम में और भी लगे, यहाँ तक कि 1932 के सत्याग्रह से पूर्व वहाँ की प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ही एक किसान समिति के द्वारा किसानों में आंदोलन चलाती रही, तथा जरूरत होने पर उन्हें करबंदी के लिए भी तैयार करती रही, जिसके फलस्वरूप वहाँ किसानों ने 1932 के कांग्रेस संघर्ष में करबंदी को तेजी से चलाया। श्री टंडन जी ने ही उसी के बाद प्रयाग में 'केंद्रीय किसान संघ' की स्थापना की, जो भावी अखिल भारतीय किसान-सभा के सूत्र रूप में ही था। पं. नेहरू, टंडन जी प्रभृति कांग्रेस नेता सदा से महसूस करते थे कि किसान-संगठन कांग्रेस से जुदा ही रहना ठीक है। इसीलिए यू. पी. में पहले किसान समिति बनी और पीछे केंद्रीय किसान संघ का जन्म हुआ।

फिर लखनऊ कांग्रेस के अवसर पर 1936 में अखिल भारतीय किसान-सभा की नियमित रूप से स्थापना हुई। पहला अधिवेशन वहीं पर लेखक की ही अध्यक्षता में हुआ। यह बात अब महसूस की जाने लगी थी कि संगठित किसान-आंदोलन को अखिल भारतीय रूप दिए बिना काम चलने का नहीं। इसीलिए यह बात हुई। 1936 से ले कर1943 तक इसका काम चलता रहा और कोई गड़बड़ी न हुई। 1936, 1938 और 1943 में लेखक इसका अध्यक्ष और शेष वर्षों में प्रधानमंत्री रहा। 1937 में प्रोफेसर रंगा, 1939 में आचार्य नरेंद्रदेव, 1940 में बाबा सोहन सिंह भखना, 1942 श्री इंदुलाल याज्ञिक अध्यक्ष थे।

उसके बाद कम्यूनिस्टों की नीति ने ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी कि वे अकेले रह गए और शेष सभी प्रगतिशील विचारवाले वामपक्षी उनसे जुदा हो गए। कुछ दिन यों ही गुजरे। इसी दरम्यान 1942 के राजबंदी जेलों से बाहर आने लगे और 1945 के मध्य से ही आल इंडिया किसान-सभा के पुनः संगठन का काम लेखक तथा टंडन जी के अथक उद्योग से शुरू हो कर गत 9 जुलाई 1946 को बंबई में 'हिंद किसान-सभा' के नाम से पुनरपि उसका संगठन हो गया है। उसके सभापति श्री पुरुषोत्तमदास जी टंडन और संगठन मंत्री यह लेखक हैं। अन्यान्य मंत्रियों तथा मेंबरों को मिलाकर 25 सज्जनों की कमिटी भी बनी है, जिनमें चार सदस्य अभी तक चुने नहीं गए हैं।

संक्षेप में भारतीय किसान-आंदोलन का यही क्रमबद्ध विकास है, यही उसकी रूपरेखा है। भारत के विभिन्न प्रांतों में उसकी शाखाएँ हैं, जिनमें कुछ तो सक्रिय हैं और कुछ शिथिल। परंतु सबों को पूर्ण सक्रिय बनाने का भार संगठन-मंत्री पर दिया गया है। वह इस महान कार्य में पूर्णतः संलग्न भी हैं। आज भारत के कोने-कोने में किसान संगठन की पुकार है, तेज आवाज है और यह शुभ लक्षण है।

( ब)

किसान-सभा किसानों की वर्ग संस्था है। वर्ग से अभिप्राय है आर्थिक वर्ग से, न कि धार्मिक या जातीय वर्ग से। किसान वर्ग के शत्रुओं, जमींदार-मालदारों से किसानों की रक्षा करना और उनके संगठित प्रयत्न के द्वारा उनके हकों को हासिल करना इस सभा का ध्येय है। जब तक सभी प्रकार के आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक शोषणों का अंतहो कर वर्गविहीन समाज नहीं बन जाता तब तक यह लक्ष्य हासिल नहीं होगा। फलतः इस ध्येय का, इस लक्ष्य और मकसद का पर्यवसान इस वर्ग-विहीन समाज में ही होता है जिसमें मनुष्य का शोषण मनुष्य न कर सके, सबों को अपने सर्वांगीण विकास की पूरी सुविधा हो और इस प्रकार मनुष्य मात्र की सारी जरूरतों की पूर्ति निरबाध और बेखटके होती रहे।

इसलिए सभी जाति, धर्म और संप्रदाय के उन लोगों की यह संस्था है जिन्हें खेती करनी पड़ती है, जो खेतिहर हैं और प्रधानतया खेती करे बिना जिनकी जीविका नहीं चल सकती है। इस प्रकार खेत-मजदूरों की भी संस्था यह किसान-सभा है। खेत-मजदूर किसानों के भीतर आ जाते हैं। वे दरअसल किसान हैं, जमीन जोतने-बोनेवाले हैं, tillers of the Soil हैं। फिर वे किसान वर्ग से पृथक कैसे रह सकते हैं? यह भी नहीं कि खेत-मजदूर हरिजन, अछूत या किसी धार्मिक संप्रदाय विशेष के भीतर आते हैं। आज परिस्थिति ऐसी है कि हर साल पूरे नौ लाख से भी ज्यादा किसान अपनी जोत-जमीन गँवा कर, बिना खेत के या यों कहिए कि खेत-मजदूर बनते जा रहे हैं और वे सभी जातियों और धर्मों के हैं। उनमें कुछी लोग दूसरी जीविका कर पाते हैं। अधिकांश खेत-मजदूर ही बनते हैं─अधिकांश को मजबूरन खेत-मजदूर ही बनना पड़ता है।

धार्मिक और जातीय आधार पर किया गया मनुष्यों का वर्गीकरण धोखा देता है और झूठा है, गलत है। कानून की नजरों में टेनेन्ट या किसान मात्र के हक समान ही हैं, फिर चाहे वह क्रिस्तान, मुसलमान, हिंदू आदि कुछ भी क्यों न हों; ब्राह्मण, शूद्र, शेख, पठान वगैरह क्यों न हों। जमींदारों के हक की भी यही हालत है। अपने-अपने हकों की लड़ाई भी इसी दृष्टि से होती है। न तो कोई हिंदू जमींदार हिंदू किसान के साथ रिआयत करता है और न मुसलमान मुसलमान के साथ। चाहे किसी भी धर्म का किसान क्यों न हो, उसके विरुद्ध सभी हिंदू-मुसलमान जमींदार एक हो जाते हैं, एक ही आवाज उठाते हैं। जमींदारों के खिलाफ सभी धर्म, जाति और संप्रदाय के किसानों को भी ऐसा ही करना चाहिए, ऐसा ही करना होगा। इसी तरह एक ओर संगठित हो कर अपनी आवाज बुलंद करनी होगी और हक के लिए मिलकर लड़ना होगा। यही वर्ग संस्था के मानी हैं और यही संगठन किसान-सभा है। जब तक किसान एक सूत्र में बँधे नहीं हैं, संगठित नहीं हैं, तब तक अपने वर्ग के शत्रुओं के विरुद्ध वे जो कुछ भी चीख-पुकार करते हैं वह निरा आंदोलन कहा जाता है। मगर ज्यों ही वे एक सूत्र में बँध कर यही काम करते हैं त्यों ही उसका नाम किसान-सभा हो जाता है। जितना ही जबर्दस्त उनका यह एक सूत्र में बँधना होता है उतनी ही मजबूत यह किसान-सभा होती है। इसमें उनके भी वर्ग शत्रुओं और उन शत्रुओं के मददगार साथियों के लिए कोई भी गुंजाइश नहीं है। क्योंकि तब यह वर्ग संस्था रहेगी कैसे? संस्था तो गढ़ है न? फिर उसमें शत्रु या उनके संगी-साथी कैसे घुसने पाएँगे? घुसने पर तो वह गढ़ ही शत्रुओं का हो जाएगा और जिस कार्य के लिए वह बनाया गया था वही न हो सकेगा।

जिस प्रकार चूहे और बिल्ली के दो परस्पर विरोधी वर्ग हैं और एक वर्ग दूसरे को देखना नहीं चाहता, चूहे बिल्ली को और वह चूहों को खत्म कर देना चाहती है, ठीक यही बात जमींदारों और किसानों की भी है। वे एक-दूसरे को मिटा देना चाहते हैं। चाहे किसान परिवार भूखों मर जाय, दवा के बिना और कपड़े के अभाव में कराहता फिरे; फिर भी उसी की कमाई पर गुलछर्रे उड़ानेवाले जमींदार उसके साथ जरा सी भी रिआयत करने को रवादार नहीं होते, एक कौड़ी भी लगान या अपने पावने में छोड़ना नहीं चाहते। सैलाब या अनावृष्टि से फसल खत्म हो गई और महाजनों से कर्ज ले कर किया हुआ किसान का सारा खर्च मिट्टी में मिल गया। फिर भी जमींदार अपना लगान पाई-पाई वसूल करता ही है। और न्यायालय भी उसी की मदद करते हैं। किसान की फरियाद अनसुनी कर दी जाती है। विपरीत इसके यदि किसान के पास रुपए-पैसे हों तो भी वह जमींदार को एक कौड़ी भी देना नहीं चाहता, अगर उसके बस की बात हो। यदि देता है तो विवश हो कर ही, कानून और लाठी के डर से ही। वह दिल से चाहता है कि जमींदार नाम का जीव पृथ्वी से मिट जाए। जमींदार भी किसान से न सिर्फ लगान चाहता है, वरन उसकी सारी जमीन किसी भी तरह छीन कर खुदकाश्त-बकाश्त बनाना और अपने कब्जे में रखना चाहता है। इससे बढ़कर परस्पर वर्ग-शत्रुता और क्या हो सकती है? फलतः जैसे जमींदारों ने अपने वर्ग के हितों की रक्षा के लिए जमींदार सभाएँ अनेक नामों से मुद्दत से बना रखी हैं और उन्हीं के द्वारा अपने हकों के लिए वे लड़ते हैं; ठीक उसी तरह किसानों के वर्ग-हित की रक्षा के लिए किसान-सभा है, किसान-सभा की जरूरत है, किसान-सभा चाहिए। तभी उनका निस्तार होगा। जमींदार तो मालदार और काइयाँ होने से बिना अपनी सभा के भी अपनी हित-रक्षा कर सकते हैं। वह चालाकी से दूसरी सभाओं में घुसकर या उन पर अपना असर डाल कर उनके जरिए भी अपना काम बना सकते हैं। रुपया-पैसा, अक्ल और प्रभाव क्या नहीं कर सकते? मगर किसान के पास तो इनमें एक चीज भी नहीं है। इसीलिए किसान-सभा जरूरी है।

कहा जाता है कि जब अंग्रेजों से लड़ने और उन्हें पछाड़ने के लिए कांग्रेस मौजूद ही है और उसके 90 फीसदी मेंबर किसान ही हैं, तो फिर उससे जुदी किसान-सभा क्यों बने? यह भी नहीं कि कांग्रेस किसानों के लिए लड़ती न हो।फैजपुरवाला उसका किसान-कार्यक्रम (Agrarian Programme) और हाल में जमींदारी मिटाने का उसका निश्चय इस बात के ज्वलंत प्रमाण हैं कि वह किसानों की अपनी संस्था है। यदि उसमें जमींदार या उनके मददगार भी हैं तो इससे क्या? वह फिक्र तो रखती है किसानों के लिए। यदि कहा जाए कि कांग्रेस कमिटियों पर ज्यादातर कब्जा और प्रभुत्व मालदारों का ही रहता है, तो यह भी कोई बात नहीं है। यह तो किसानों की भूल है, उनकी नादानी है कि चुनावों में चूकते हैं। जब अधिकांश कांग्रेस-सदस्य वही हैं तो फिर सजग हो के चुनाव लड़ें और सभी कमिटियों पर कब्जा करें। जब देश के लिए कांग्रेस के द्वारा लड़ने-मरनेवाले अधिकांश किसान ही हैं तो फिर कांग्रेस उनकी नहीं तो और किसकी है, किसकी हो सकती है? इसीलिए मानना ही होगा कि कांग्रेस ही सबसे बढ़कर किसानों की संस्था है, किसान-सभा है─Congress is the Kisan organisation par excellence.

ऊपर से देखने से बात तो कुछ ऐसी ही मालूम पड़ती है। यह सही है कि कांग्रेस ने जमींदारी मिटाने का निश्चय किया है। इससे पहले किसान-हित के प्रोग्राम भी उसने बनाए हैं। आगे भी वह ऐसा करेगी, इसमें भी विवाद नहीं। वह प्रगतिशील संस्था है, यह भी मानते हैं। तभी तो प्रतिदिन बदलती दुनिया में वह टिक सकती और आजादी का सफल संग्राम चला सकती है। इसीलिए किसान उस कांग्रेस से चिपकते हैं, उन्हें उससे चिपके रहना चाहिए जब तक जंगे आजादी जारी है और हम स्वतंत्र नहीं होते। कांग्रेस कमजोर हुई कि आजादी की आशा गई। गुलामी के विरुद्ध समस्त राष्ट्र के विद्रोह की प्रतीक और प्रतिमूर्ति ही कांग्रेस है। आजादी के लिए सारे देश की दृढ़ प्रतिज्ञ और बेचैनी का बाहरी या मूर्त रूप ही कांग्रेस है। राष्ट्रीयता ने हममें हरेक की रगों में प्रवेश किया है, हमारे खून में वह ओत-प्रोत है। वह हमारी रग-रग में व्याप्त है। यह राष्ट्रीयता जितनी ही व्यापक और संघर्ष के लिए व्याकुल-लालायित (militant) होगी, आजादी हमें उतनी ही शीघ्रता से मिलेगी। इसीलिए हर किसान को इस राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत होना ही और कांग्रेसी बनना ही चाहिए ताकि हमारा मुल्क जल्द-से-जल्द पूर्ण स्वतंत्र हो। गुलाम भारत में किसान-राज्य या समाजवाद की आशा महज नादानी है।

इस प्रकार जब किसान कांग्रेस को शक्तिशाली बनाएँगे सीधी लड़ाई के द्वारा और चुनावों में मत देकर भी, तो इसके बदले में कांग्रेस को भी उनका खयाल करना ही होगा। और उनके हकों के लिए समय-समय पर लड़ना ही होगा। इन कार्यक्रमों को और जमींदारी मिटाने की बात मानकर कांग्रेस यही करती भी है। कांग्रेसी नेता खूब समझते हैं कि यदि वे ऐसा न करेंगे और जमींदारी न मिटाएँगे, तो उन्हें खुद मिट जाना होगा, उनकी लीडरी जाती रहेगी और कांग्रेस भी खत्म हो जाएगी। यह ठोस सत्य है। राष्ट्रीयता सर्वथा उपादेय और सुंदर चीज होने पर भी वह भावुकता की वस्तु है, भावना और दिमाग की चीज है, महज खयाली पदार्थ है। वह कोई ठोस भौतिक पदार्थ नहीं है, ठीक जिस प्रकार धर्म, ईश्वर और स्वर्ग-नर्क आदि हैं। ये भी महज खयाली हैं। इसीलिए समय-समय पर भौतिक पदार्थों-जर, जोरू, जमीन के सामने ये टिक नहीं सकते, इनकी अवहेलना होती है और लोग जमीन-जायदाद के लिए गंगा-तुलसी, कुरान-पुरान आदि उठाकर झूठी कसमें खाते हैं। इसी प्रकार भौतिक हितों के निरंतर विरोध में यह राष्ट्रीयता टिक नहीं सकती, इसे मिट जाना होगा। यही वजह है कि कांग्रेसी लीडर किसानों के भौतिक हितों की बातें समयानुसार करते रहते हैं। भावनामय कोरी राष्ट्रीयता भौतिक स्वार्थों को साथ ले कर ही टिक सकती है, लक्ष्य-सिद्धि में कामयाब हो सकती है। यदि इन भौतिक स्वार्थों को वह छोड़ दे या उनसे टकरा जाए, तो उनके लिए भारी खतरा बेशक पैदा हो जाएगा।

मौत बुरी है, बड़ी खतरनाक है। उसके मुकाबले में जूते की काँटी का चुभना कोई चीज नहीं है। फिर भी मौत से बचने के लिए कोई शायद ही फिक्रमंद दिखता है। मगर काँटी के कष्ट से बचने का यत्न सभी करते हैं। यही ठोस सत्य है और हम इसे भुलाकर भारी धोका खाएँगे। ठीक राष्ट्रीयता को भी इसी तरह भारी धक्का लगे, अगर वह किसानों की तात्कालिक माँगों और तकलीफों का खयाल कर के उनके संबंध में अपना प्रोग्राम स्थिर न करे। राष्ट्रीयता को अमली और व्यावहारिक जामा पहनना ही होगा और भौतिक दुनिया को देखकर ही चलना होगा। तभी वह पूर्ण स्वतंत्रता के युद्ध में सफल होगी। यही वजह है कि राष्ट्रीय नेता जमींदारी मिटाने की बातें करते और जमींदारों के गुस्से का सामना करते हैं। इसमें उनकी चालाकी और व्यवहार-कुशलता की झाँकी मिलती है।

यह भी न भूलना होगा कि फ्रांस में जमींदारी का खात्मा नेपोलियन जैसे साम्राज्यवादी के हाथ से हुई। उसे कोई नहीं कह सकता कि वह किसान मनोवृत्ति का था, या उसकी संस्था किसान-सभा जैसी थी। उसकी सरकार घोर अनुदार, पर दूरंदेश थी। उसने देखा कि फ्रांस के प्राचीन राजघराने के लोग दो दलों में विभक्त हो कर एक जमींदार वर्ग का समर्थक है तो दूसरा मध्यमवर्ग, बुर्जुवा या कल-कारखानेवालों का। किसानों का पुर्सां किसी को न पा उसने जमींदारी मिटाकर उन्हें अपने साथ किया और फौज में किसान युवकों को भर्ती कर के महान विजयों के द्वारा साम्राज्य-विस्तार किया। इसमें उसकी व्यवहार-कुशलता एवं दूरंदेशी के सिवाय और कुछ न था। वह न तो किसान था और न किसान-मनोवृत्ति का, और इसका पता एक मुद्दत गुजरने पर किसानों को तथा दुनिया को भी लग गया जब उसी के बनाए'नेपोलियनवाले कानूनों' के द्वारा उन्हीं किसानों की जमीनें धड़ाधड़ बैंकों एवं महाजनों के पास चली गईं। संयुक्त-राष्ट्र अमेरिका की सरकार ने तो वहाँ जमींदारी प्रथा होने ही न दी और अधिकांश किसानों को, विशेषतः पश्चिमी भाग में, मुफ्त जमीनें दीं। यह बात लेनिन की चुनी लेखमाला के अंग्रेजी संस्करण के बारहवें भाग के 194 पृष्ठ में स्पष्ट लिखी गई है। अन्यान्य देशों में भी अनुदार या दकियानूस दलवालों ने ही जमींदारी मिटाई है।

दरअसल देशों में उद्योग-धंधों की अबाध प्रगति के लिए जिस कच्चे माल की प्रचुर परिमाण में जरूरत होती है उसके उत्पादन में यह जमींदारी प्रथा बाधक होती है। यह प्रथा भूमि की उत्पादन शक्ति को बेड़ी की तरह जकड़नेवाली मानी जाती है। फलतः मध्यमवर्गीय मालदार ही इसका उन्मूलन करते हैं और भारत में भी 'बंबई-पद्धति'(Bombay Plan) के प्रचारक एवं निर्माण-कर्ता, टाटा, बिड़ला आदि करोड़पतियों ने ही जमींदारी मिटाने की आवाज गत महायुद्ध के जमाने में ही बुलंद की थी। पीछे चलकर कांग्रेस नेताओं ने उसे ही माना है और टाटा-बिड़ला का संगठन कोई किसान-सभा नहीं है, यह सभी जानते हैं। अतः जमींदारी मिटाने की बात इसका प्रमाण नहीं है कि कांग्रेस किसान-सभा बन गई। हाँ, यदि क्रांतिकारी ढंग से जमींदारी मिटाने की बात वह बोलती और वैसा ही करती, जैसा सोवियत रूस में हुआ, तो एक बात थी। तब ऐसा सोचा जा सकता था; हालाँकि फ्रांस में क्रांतिकारी ढंग से ही ऐसा होने पर भी उसके करानेवाले किसान-विरोधी ही सिद्ध हुए। क्रांतिकारी तरीके के मानी ही हैं जबर्दस्ती जमीनें और जमींदारों की सारी संपत्तियाँ छीन लेना और उन्हें राह का भिखारी या महाप्रस्थान का यात्री बना देना।

यह भी सोचना चाहिए कि कांग्रेस तो 1936-37 वाले चुनावों में भी पड़ी थी। उसी समय उसने फैजपुर का एक अत्यंतलचर कार्यक्रम भी इसी सिलसिले में स्वीकार किया था, पर वह भी कांग्रेसी-मंत्रिमंडलों के बनने पर सर्वत्र खटाई में ही पड़ा रह गया। प्रत्युत युक्तप्रांत में ऐसा काश्तकारी कानून बनाया उन्हीं मंत्रियों ने जिसके चलते गत महायुद्ध के जमाने में, सरकारी बयान के अनुसार ही, पूरे दस लाख एकड़ जमीनें किसानों से जमींदारों ने छीन ली और किसानों में हाहाकार मच गया। उसी का प्रायश्चित्त इस बार वहाँ कांग्रेसी मंत्रियों को करना पड़ रहा है। बिहार में भी ऐसी ही बातें होनेवाली थीं। मगर यहाँ किसान-सभा की जागरूकता और उसके प्रबल आंदोलन ने बहुत कुछ रोका। फिर भी बहुत कुछ अनर्थ हो गए। यदि कांग्रेस ही किसान-सभा होती, तो क्या ऐसा होता? उलटे बिहार की किसान-सभा को कांग्रेसी मंत्रियों और लीडरों ने इसलिए कोसा कि वह कांग्रेस विरोधी है। परंतु प्रश्न तो यह है कि इस निर्जीव और लचर किसान-कार्यक्रम की जगह उसी समय कांग्रेस ने जमींदारी मिटाने का प्रोग्राम क्यों न कबूल किया था? क्या पहले वह दूसरी थी और आज बदल गई?

दरअसल उस समय किसान-सभा ऐसी जोरदार न थी और उसने भी जमींदारी मिटाने का प्रश्न अभी तेज न बना पाया था, जिससे कांग्रेस पर उसका दबाव पड़ता और वह उसे मानने को मजबूर होती। तब समय का रुख ऐसा बेढंगा न था इस जमींदारी के बारे में। तब कांग्रेस के आधार-स्तंभ किसान-समाज में जमींदारी के मिटा देने के बारे में ऐसी भीषण मनोवृत्ति न थी जैसी आज है। उनमें इसके प्रति ऐसा रोष-क्षोभ न था जो आज है। फलतः उसके मिटाने का प्रश्न न उठाकर भी कांग्रेस उस समय किसानों को अपने साथ ले सकती थी। अब जमींदारी न मिटाकर कांग्रेस का टिकना या किसानों को अपने साथ ले सकता असंभव है। इसीलिए पूरे दस साल बाद उसने जमींदारी मिटाने की बात अपनाई है। सो भी मुआवजा या कीमत देकर।

इससे कई बातें सिद्ध होती हैं। एक यह कि कांग्रेस ने खुद ऐसा न कर के किसान-सभा, किसान-आंदोलन और किसानों के दबाव से ही ऐसा किया है या यों कहिए कि उसने समय का रुख पहचाना है। इससे उसकी और उसके नेताओं की अवसरवादिता सिद्ध होती है, जो बेशक किसान-सभा या किसान नेता होने का लक्षण कदापि नहीं। किसानों का हित तो 1936-37 में ही पुकारता था कि जमींदारी मिटाओ।

इससे किसान-सभा और कांग्रेस का मौलिक एवं बुनियादी भेद भी सिद्ध हो जाता है।जहाँ किसान-सभा अर्थनीति और आर्थिक कार्यक्रम को राजनीति के द्वारा देखती हुई उसे साधन और आर्थिक बातों को, अर्थ-नीति को साध्य मानती है, और इसीलिए राजनीतिक हार-जीत की वैसी परवाह न कर के सदा किसानों की आर्थिक बातों को ही देखती रहती है और वैसा ही कार्यक्रम चाहती है, तहाँ कांग्रेस राजनीति को ही अर्थनीति के द्वारा, इसी आईने में देखती है। फलतः उसके लिए ये आर्थिक बातें तथा प्रोग्राम साधन हैं और राजनीति साध्य या लक्ष्य। यही वजह है कि जब 1936-37 में मामूली आर्थिक प्रोग्राम से ही उस राजनीतिक चुनावों में जीत संभव थी तो उसने वैसा ही प्रोग्राम बनाया। लेकिन इस बार वैसा संभव न देख जमींदारी मिटाने की बात उठाई।

सारांश, हर हालत में किसानों को साथ ले कर उसे राजनीति में सफल होना है। फलतः उनका हित कांग्रेस लीडरों का लक्ष्य न हो कर साधन मात्र है। किसान-हित की बातों और वैसे कामों के द्वारा वे अपना मतलब निकालना चाहते हैं। यह बात किसान नेताओं एवं किसान-सभा में नहीं हो सकती। उनका तो काम ही है किसानों के हित को ही अपना अंतिम लक्ष्य बनाना और आगे बढ़ाना और इस प्रकार एक न एक दिन उसी रास्ते राजनीति में भी विजयी होना।

दूसरी बात यह है कि यदि कांग्रेस से जुदा स्वतंत्र रूप से कोई किसान-आंदोलन और किसान-सभा न हो तो फिर कांग्रेस पर दबाव किसका पड़ेगा? आज जो कांग्रेस प्रगतिशील मानी जाती है वह इसीलिए न, कि वह समय की गति पहचान कर तदनुसार ही कदम बढ़ाती है? यही उसकी सबसे बड़ी खूबी है, उसमें यह गुंजाइश है, यही उसकी जान और शान के लिए बड़ी चीज है। मगर, अगर दबाव न हो तब? तब तो वह दकियानूस ही बन जाय, उसकी प्रगति जाती रहे और वह निर्जीव हो जाय, जैसी नरम दलियों की संस्थाएँ हैं। ऐसी दशा में आजादी के संग्राम में पूर्ण सफलता की आशा की जाती रहे। इसीलिए कांग्रेस की प्रगतिशीलता एवं लक्ष्य की सफलता के लिए भी जिस किसान दबाव की सख्त जरूरत है, उसके लिए स्वतंत्र किसान-सभा का होना नितांत आवश्यक है। क्योंकि तभी किसान-हित की दृष्टि से स्वतंत्रआंदोलनकर के ऐसा वायुमंडल बनाया जा सकता है जिसका दबाव कांग्रेस पर पड़े और वह प्रगतिशील कार्यक्रम बनाकर किसान समूह को अपनी ओर खींचे। इसके अभाव में वह नरम दलियों एवं लिबरलों की तरह निर्जीव प्रोग्राम बनाकर किसानों को अपने साथ अंततोगत्वा ले चलने में समर्थ नहीं हो सकती, यह ध्रुव सत्य है।

यदि किसान-सभा स्वतंत्र न हो कर कांग्रेस का अंग या उसका एक विभाग मात्र हो तो वह न तो स्वतंत्रआंदोलन ही कर सकती और न वैसा प्रचंड वायुमंडल ही बना सकती, जो कांग्रेस पर दबाव डाल कर उसे आगे बढ़ाए और प्रगतिशील बनाए। क्योंकि ऐसी किसान-सभा कांग्रेस के निश्चय का ही मुँह देखेगी और तदनुसार ही चलेगी अनुशासन के खयाल से। वह स्वतंत्र रूप से कोई भी काम या आंदोलन कर नहीं सकती।

और आखिर यह मुआविजा क्या बला है? क्या इससे किसानों का लाभ है? क्या यह किसान-हित की दृष्टि से दिया जाने को है? साफ शब्दों में कहा जा सकता है कि यह तो किसानों के भविष्य को पहले से ही मुस्तगर्क करना या जकड़ देना है। उनके भविष्य को पहले से ही बंधक रख देना है। आगे चलकर उनके लिए यह बड़ा रोड़ा सिद्ध होगा। आखिर ये रुपए किसानों से ही तो वसूल होंगे। आज जो भी कर्ज इस मुआविजे को चुकाने के लिए सरकार लेगी उसका भार किसानों पर ही तो पड़ेगा, वह उन्हीं से तो सूद के साथ वसूल होगा। जो भी रुपया कर्ज ले कर या सरकारी खजाने से दिया जाएगा वही अगर किसान-हित के कामों में खर्च होता तो वे कितने आगे बढ़ते? यही रुपए यदि उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य-सुधार, ग्रामीण सड़कों, सिंचाई, खेती की तरक्की, मार्केटिंग के प्रबंध आदि में खर्च हों तो सचमुच किसान प्रगति की छलाँग मारने लगेंगे। यही वजह है कि किसान-सभा इस मुआवजे की सख्त मुखालिफत करती है।

कहा जाता है कि किसान-सभा ने 1937 में बने कांग्रेसी-मंत्रिमंडलों को काफी परेशान और बदनाम किया। मगर यही तो कहने का भद्दा तरीका है। विरोध का सदा स्वागत किया जाता है। जब तक विरोध न हो ठीक रास्ते पर कोई नहीं चलता। विरोधी ही अधिकारारूढ़ दल की कमजोरियों को बताकर उन्हें सँभलने का मौका देते हैं। यदि मोटर और इंजन में ब्रेक न हो तो पता नहीं मोटर और रेल कहाँ जा गिरें? और आखिर यह ब्रेक है क्या चीज, यदि विरोध, रुकावट या 'अपोजीशन' नहीं है? उन दिनों किसान-सभा कांग्रेसी मंत्रियों को क्या गिराना या पदच्युत करना चाहती थी? क्या इसका कोई प्रमाण है? उसने तो सिर्फ खतरे और खामियाँ सुझाकर मंत्रियों को समय-समय पर सजग किया कि सँभल कर काम करें, जमींदारों के माया-जाल और चकमे में पड़कर पथ-भ्रष्ट न हों। फलतः मंत्री लोग सँभलें जरूर और इस तरह किसानों को अपने साथ रख सके। आखिर तेली के बैल की तरह किसानों की आँखें मूँद कर हमेशा के लिए रखी नहीं जा सकती थीं। वे खुलतीं कभी न कभी जरूर और कांग्रेस के लिए बुरा होता। यदि अपने आप खुलतीं या यदि कहीं कांग्रेस के शत्रु खोलते तो तब तो भारी खतरा होता। किसान-सभा ने इन दोनों से कांग्रेस को बचाया। फलतः इसके लिए उसका कृतज्ञ होने के बजाय यह उलाहना और गुस्सा? उसने मित्र का काम किया। फिर भी यह नाराजगी?

यह भी बात है कि राष्ट्रीय संस्था होने के नाते कांग्रेस सभी वर्गों की संस्था है। उसमें सभी वर्ग शरीक हैं, वह सभी दलों और श्रेणियों का प्रतिनिधित्व करती है। यही उसका दावा है। यही चाहिए भी। तभी सभी वर्ग के लोग उससे चिपकेंगे, उसे अपनी संस्था मानेंगे और फलस्वरूप उसे मजबूत बनाने की कोशिश करेंगे। ऐसी दशा में वह किसानों की संस्था या सभा कैसे हो सकती है। वह केवल एक वर्ग का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकती है? यह तो उसकी कमजोरी का सबसे बड़ा कारण होगा; कारण, तब जमींदार, मालदार आदि दूसरे वर्ग उसका न सिर्फ साथ न देंगे, प्रत्युत उसके घोर शत्रु हो जाएँगे। जमींदारी मिटाने का प्रश्न जो मुआविजा देकर उठाया गया है, उसका भी यही तात्पर्य है। जमाना बदल रहा है और अपार धन-संपत्ति ले कर जमींदार उसे उद्योग-धंधों में लगाएँगे और मालामाल होंगे। जमीन से होनेवाली एक बँधी-बँधाई आमदनी की जगह कल-कारखानों से होनेवाली उत्तरोत्तर वृद्धिशील आमदनी होगी इन जमींदारों को, फिर चाहिए क्या? उस दशा में जमींदार कांग्रेस के शत्रु क्यों बनें? यदि वे विरोध करते हैं तो या तो नादानी से या यह उनकी चालबाजी है। ऐसा न करते तो शायद किसानों के दबाव से कांग्रेस उन्हें मुआविजा भी न देती। आखिर कांग्रेस दल में अधिकांश जमींदार मालदार और उनके संगी-साथी ही तो हैं। किसान-मनोवृत्ति के हैं कितने एम. एल. ए.? और यही लोग जमींदारी मिटाने की बात का इस रूप में समर्थन करते हैं। तो क्या वे सनक गए हैं?

ऐसी दशा में न तो वह किसान जैसे एक वर्ग की संस्था बन सकती और न किसान-सभा कांग्रेस के अधीन या उसकी मातहती में ही रह सकती है, रखी जा सकती है। ये दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं। जब कभी किसान-सभा किसान-हितों के लिए जमींदारों से भिड़ना चाहेगी, तभी कांग्रेस के अनुशासन की नंगी तलवार उस पर आ गिरेगी। उसे कांग्रेस का रुख देखकर ही प्रतिपल चलना होगा। कांग्रेस का मुख्य काम है विभिन्न वर्गों के स्वार्थों का सामंजस्य रखना और ऐसा करते हुए ही आगे बढ़ना। वह तो एक वर्ग को दूसरे के विरुद्ध संघर्ष करने देना नहीं चाहती, नहीं चाहेगी। वह होगा वर्ग-युद्ध या श्रेणी-संघर्ष और वैसा होने पर कांग्रेस को किसी एक वर्ग का साथ उसमें देना ही पड़ेगा। फलतः उसकी राष्ट्रीयता जाती रहेगी। जिस वर्ग के विपरीत दूसरे का साथ देगी वह उससे हट जाएगा। यह हटना समय-समय पर होता ही रहेगा, कारण, वर्ग-संघर्ष एक ही बार न हो कर बार-बार होगा। तब उसकी राष्ट्रीयता कैसे निभेगी और सभी वर्गों की संस्था होने का सफल दावा वह कर सकेगी कैसे? इसी से उसे वर्ग-सामंजस्य का रास्ता पकड़ना ही है। वह यही करती भी है। अतएव उसकी मातहत किसान-सभा को या उसके किसान-विभाग को भी यही करना होगा। उसे भी वर्ग-सामंजस्य की माला जपनी होगी। फिर भी उसे किसान-सभा का नाम देना उसका उपहास करना है, जब तक कि स्वतंत्रता-पूर्वक यह किसान-हितों के लिए संघर्ष न कर सके, ऐसा करने की पूरी आज़ादी न हो।

कहा जा सकता है कि इस वर्ग-सामंजस्य की नीति के फलस्वरूप जमींदार वर्ग की भी हित-हानि हो सकती है। क्योंकि उनके लिए भी तो कांग्रेस कभी संघर्ष न करेगी। तब घबराहट क्यों? बात ऊपर से ठीक दीखती है। मगर असलियत कुछ और ही है। कभी किसी ने देखा-सुना ही नहीं कि कांग्रेस जमींदार सभा को भी अपनी मातहती में रखे या अपना एक जमींदार-डिपार्टमेंट खोले। उसका यत्न तो केवल किसान-सभा को ही न होने देने तथा अपने मातहत रखने में है। मजदूर-सभा की भी स्वतंत्र सत्ता वह स्वीकार करती है और जमींदार-सभा की भी। पूँजीपतियों की सभा का तो कुछ कहना ही नहीं। बल्कि यों कहिए कि पूँजीपतियों एवं जमींदारों की सभाएँ कांग्रेस की परवाह भी नहीं करती हैं। वह अपना स्वतंत्र कार्य किएजाती हैं। इसीलिए कांग्रेस के वर्ग-सामंजस्यवाले सिद्धांत से उनकी हानि नहीं होती, नहीं हो सकती। उनकी संस्थाएँ निरंतर लड़ती जो रहती हैं। बस, सारी बला किसानों पर ही आती है, आनेवाली है। क्योंकि उनकी स्वतंत्र संस्था रहने न पाए इसी के लिए कांग्रेसी नेता परेशान रहते हैं और इस तरह किसान-सभा को पनपने नहीं देते। तब किसानों के हित चौपट न हों तो होगा क्या? वे सभी वर्ग संस्थाओं को समान रूप से पनपने न देते तो एक बात थी। मगर सो तो होता नहीं। ऐसी दशा में कांग्रेस के अधीन किसान-सभा का ढाँचा खड़ा करना निरी प्रवंचना है। दरअसल कांग्रेस में जमींदारों का प्रभुत्व ठहरा और वह इसी ढंग से किसानों को उठने देना नहीं चाहते। यह उनकी चाल है कि अनेक वर्गीय संस्थाओं के अधीन किसानों की वर्ग संस्था को बनाने का ढोंग रचकर उन्हें सदा पंगु ही रखें। पहले तो किसान-सभा के नाम से ही नाक-भौं सिकोड़ते थे। मगर उससे कुछ होता-जाता न देख अब यह दूसरा प्रपंच खड़ा किया जा रहा है।

कहा जा सकता है कि कांग्रेस में दूसरे वर्ग─जमींदार, पूँजीपति और मजदूर─-नगण्य से हैं; फलतः वे अपनी अलग सभाएँ बनाकर भी कांग्रेस का कुछ बिगाड़ नहीं सकते जब तक किसान कांग्रेस के साथ हैं। हाँ, यदि किसान भी अलग हों तो भारी खतरा होगा और उनकी स्वतंत्र संस्था-किसान-सभा-बन जाने में इसकी पूरी संभावना है। किसानों ने यदि कांग्रेस को छोड़ा तो उसकी जड़ ही कट जाएगी।

लेकिन यह कोई दलील नहीं है, यदि किसान-सभा का संचालन कांग्रेस-जन ही करें तो क्या हर्ज है? तब किसानों को उसके विरुद्ध जाने का मार्ग कौन सिखाएगा? क्या वही कांग्रेसी ही? यह तो विचित्र बात है। और अगर यह बात हो तो आखिर बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी? किसानों को सदा कांग्रेस की दुम में बाँध रखना असंभव है। संसार में और भारत में भी वर्ग संस्थाएँ हैं, यह ठोस सत्य है। फिर किसान इससे अछूते रहें, उन्हें यह वर्ग संस्था की हवा न लगे, यह गैर-मुमकिन है। परिणाम यह होगा कि अभी तो कांग्रेस-जन ही वह वर्ग संस्था बना सकते हैं, बनाते हैं। मगर पीछे कांग्रेस के विरोधी बना के ही दम लेंगे और ये कांग्रेसी लीडर उनका कुछ कर न सकेंगे। फलतः कांग्रेस-विरोधियों का प्रभुत्व किसान-सभाओं पर न हो, सिर्फ यही देखभाल कांग्रेस की दृष्टि से अवश्य की जानी चाहिए जब तक आजादी की लड़ाई जारी है और मुल्क स्वतंत्र नहीं हो जाता। इसके आगे जाना अनुचित काम एवं अनधिकार चेष्टा है। जमींदार हजार उपायों से किसानों को तबाह करते रहें और आप से कुछ नहीं होता मगर ज्यों ही किसान अपनी संघ-शक्ति के द्वारा उनका संगठित रूप से सामना करने की तैयारी करता और एतदर्थ किसान-सभा बनाता है कि आप लोग हाय-तोबा मचाने लगते हैं। यह बात अब किसान भी समझने लगा है और कांग्रेस के लिए यह अच्छा नहीं है।

यदि किसान-सभा कांग्रेस का पुछल्ला नहीं बनती, यदि इसमें किसानों के लिए खतरा है और इसीलिए स्वतंत्र किसान-सभा का बनना अनिवार्य है, तो वह अनेक राजनीतिक दलों तथा पार्टियों की भी दुम न बनेगी। यदि उस पर कांग्रेसी लीडरों की हुकूमत असह्य है, तो फिर पार्टी लीडरों की मुहर भी क्यों लगे? उसकी स्वतंत्रता तो दोनों ही तरह से चौपट होती है और वह मजबूत हो पाती नहीं। हम उसे बलवती वर्ग संस्था बनाना चाहते हैं और ऐसा करने में यदि कांग्रेस बाधक है तो ये पार्टियाँ कम बाधक नहीं हैं। गत पन्द्रह साल के अनुभव से हम यह बात कहने को विवश हैं। पार्टियों की पहली कोशिश यही होती है कि किसान-सभा या मजदूर-सभा उनका पुछल्ला बनें, उनका प्रभुत्व और उनकी छाप इन सभाओं पर लगे। यदि ऐसा हो गया, तो ये सभाएँ बनें; नहीं तो जहन्नुम में जाएँ। यदि कई पार्टियाँ हुईं-और हमारे देश में दुर्भाग्य से सोशलिस्टों, कम्युनिस्टों, फारवर्ड ब्लाकिस्टों, क्रांतिकारी सोशलिस्टों, बोल्शेविकों आदि की अलग-अलग पार्टियाँ हैं-तो किसान-सभा उनके आपसी महाभारत का अखाड़ा बन जाती है। उनकी आपसी खींच-तान से यह ठीक-ठीक पनप पाती नहीं, तगड़ी और जबर्दस्त बन पाती नहीं। हरेक पार्टी का अपना-अपना मंतव्य होता है। वह भला होता है या बुरा, इससे हमें कोई मतलब नहीं। मगर वह परस्पर विरोधी तो होता ही है। यह बात चाहे ऊपर से देखने कहने के लिए न भी हो, फिर भी भीतर से होती ही है। यह ठोस सत्य है। यदि मंतव्य का परस्पर विरोध न हो तो फिर कलह कैसी? फिर ये पार्टियाँ आपस में मिल जाती हैं क्यों नहीं? कम से कम लीडरी का विरोध तो रहता ही। हरेक पार्टी अपनी लीडरी चाहती है और यह और भी बुरी बात है। ऐसी दशा में बेचारी किसान-सभा इनके आपसी झगड़े का अखाड़ा क्यों बने, क्यों बनने दी जाए? और अगर किसी कल, बल, छल से एक पार्टी ने सभा में अपना बहुमत बनाना चाहा, तो ऐसा क्यों होने दिया जाए? इन्हें तो अपनी लीडरी का मर्ज है। किसान और उनकी सभा जाएँ जहन्नुम में। किसानों और उनकी सभा का नाम यदि इन्होंने भी कभी लिया है तो केवल अपनी लीडरी साधने के लिए। नाम चाहिए, काम जाए जूल्हे में। एकांत में बैठकर ये पार्टी लीडर कोई बात तय करें, कोई मंतव्य ठहराएँ, और किसान-सभा में आकर उस पर उसे ही लादें यह बुरी बात है, असह्य चीज है। सभा में ही बैठकर वह मंतव्य ठीक क्यों नहीं करते? शायद तब उनकी लीडरी न रहे। मगर किसान-सभा तो रहेगी और जबर्दस्त रहेगी। यदि ये पार्टी लीडर ईमानदार हों तो उन्हें यही करना चाहिए। नहीं तो सभा को बख्श देना चाहिए।

एक बात और भी है। इन सभी पार्टियों का दावा है कि ये मजदूरों की पार्टियाँ हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का तो यही दावा है। लेनिन की कम्युनिस्ट पार्टी का नामकरण या जन्म बोल्शेविक पार्टी से ही हुआ रूस की अक्टूबर 1917 की क्रांति की सफलता के बाद। और यह बोल्शेविक पार्टी बनी थी रूस की सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी के ही बहुमत से। उस लेबर या मजदूर पार्टी के बहुमत ने जो निर्णय किया उसे अल्पमत ने न माना और वह अलग हो गया। इस तरह स्पष्ट है कि आज की कम्युनिस्ट पार्टी मजदूरों की ही पार्टी है। लेनिन के लेखों में सर्वत्र यही बात पाई जाती है। मार्क्स और एंगेल्स ने भी शुरू-शुरू में दूसरे-दूसरे नामों से इसे मजदूर पार्टी के रूप में ही बनाया। ऐसी दशा में किसानों की वर्ग संस्था उस मजदूर पार्टी की छत्रछाया या लीडरी में कैसे बन सकती और सबल हो सकती है? मजदूर पार्टी की अधीनस्थ किसान-सभा किसानों की स्वतंत्र वर्ग संस्था वास्तविक रूप से बन पाएगी कैसे? और अगर कम्युनिस्ट पार्टी इस ठोस सत्य को मिटाकर यह दावा करे कि वह किसानों तथा मजदूरों की-दोनों की-पार्टी है, तो प्रश्न होता है कि वह अनेक वर्गों की संस्था हो कर किसानों की वर्ग संस्था को अपने अधीन कैसे रख सकेगी और उसके साथ न्याय कर सकेगी? किसान-सभा की नकल वह भले ही खड़ी करे। मगर असली और बलवती किसान-सभा वह हर्गिज न बनने देगी। बहुवर्गीय संस्था होने के नाते यदि कांग्रेस के मातहत किसान-सभा नहीं बन सकती तो कम्युनिस्ट पार्टी का पुछल्ला क्यों बनेगी?

कहा जा सकता है कि कांग्रेस के भीतर रहनेवाले वर्ग परस्पर विरोधी हैं। दृष्टांत के लिए जमींदारों का विरोध किसानों से है। फलतः उसकी मातहती में किसान-सभा नहीं बन सकती है। मगर किसानों तथा मजदूरों के स्वार्थों का तो परस्पर विरोध है नहीं, किसान और मजदूर भी परस्पर विरोधी वर्ग इसीलिए नहीं हैं। तब इन दोनों की संस्था स्वरूप इस कम्युनिस्ट पार्टी के अधीन किसान-सभा क्यों न होगी?

मगर यह दलील लचर है। अंततोगत्वा इन दोनों के स्वार्थ जरूर मिल जाते हैं; समाजवाद या साम्यवाद की दशा में इनका परस्पर विरोध नहीं होता, यह बात सही है। मगर प्रश्न तो वर्तमान दशा और समय का है और आज इनके स्वार्थों का विरोध स्पष्ट है। यदि गल्ले, साग-भाजी और फल-फूल आदि महँगे बिकें तो किसान सुखी हों और खुश रहें, मगर कारखाने के मजदूर नाखुश और तबाह हों। विपरीत इसके यदि कारखाने के बने माल─कपड़े आदि─महँगे बिकें और कारखानेदारों को ज्यादा लाभ हो तो मजदूरों के वेतन बढ़ें, उन्हें बोनस मिले और दूसरी सुविधाएँ मिलें। लेकिन इसमें किसान की तबाही है। उसकी पैदा की गई सारी चीजों की कीमत कपड़े आदि में ही लग जाती है और वह तबाह रहता है। यदि मजदूर अपनी माँग मनवाने के लिए महीनों हड़ताल करें तो मिल-मालिक उनके सामने झुकें। मगर ऐसा होने पर मिल के बने कपड़े आदि महँगे होते और किसानों के ज्यादा पैसे इनमें लग जाते हैं। फलतः वह ये हड़तालें नहीं चाहते। ऐसी ही सैकड़ों बातें हो सकती हैं जिनसे दोनों के तात्कालिक स्वार्थों का परस्पर विरोध स्पष्ट है और ये तात्कालिक स्वार्थ ही उनकी दृष्टि को किसी रास्ते पर लाते हैं। ये भौतिक स्वार्थ हैं, प्रत्यक्ष हैं, आँखों के सामने हैं। इनके मुकाबले में समाजवाद और साम्यवाद वैसे ही परोक्ष और केवल भावनामय हैं, दिमागी हैं, जैसी आजादी और स्वतंत्रता। जिस प्रकार तात्कालिक स्वार्थों को भूलकर हम इन्हें स्वराज्य संग्राम में सामूहिक रूप से आकृष्ट नहीं कर सकते, ठीक वैसे ही इन परस्पर विरोधी तात्कालिक स्वार्थों को अलग कर के, इनकी परवाह न कर के हम किसानों या मजदूरों को सामूहिक रूप से अपनी सभा में आकृष्ट नहीं कर सकते। फिर समाजवाद के लिए यह तैयार कैसे किएजाएँगे? फलतः न्याय,ईमानदारी,दूरंदेशी और व्यावहारिकता का तकाजा यही है कि इन दोनों की सभाएँ एक-दूसरे से स्वतंत्र हों और किसी भी पार्टी का उन पर नियंत्रण न हो। तभी उनमें बल आएगा। कम से कम किसान-सभा तो तभी सबल और सजीव बन सकेगी और पीछे मजदूर-सभा के सहयोग से साम्यवाद स्थापित करेगी।

एक बात और। मार्क्सवादियों ने किसानों को मध्यम या बुर्जुवा वर्ग में माना है और प्रतिक्रियावादी कहा है। यह ठीक है कि परिस्थिति विशेष में यह बूर्जुवा वर्ग भी क्रांतिकारी तथा आमूल परिवर्तनवादी (Revolutonary and Radical) होता है। यही बात किसान पर भी लागू है। यही बात लेनिन ने अपनी चुनी लेखमाला के अंग्रेजी संस्करण के 12वें भाग में अंत में लिखी है कि “In Russia we have a 'radical bourgeois'.That radical bourgeois is the Russian Peasant.” मगर मजदूरों को तो सबों ने क्रांतिकारी माना है। ऐसी दशा में ये दो वर्ग परस्पर विरोधी स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। फिर इन दोनों की एक पार्टी कैसी? इन दोनों का एक संगठन कैसा? वर्तमान सामाजिक परिस्थिति में ये स्पष्ट ही दो परस्पर विरोधी दिशाओं में चलनेवाले हैं। फलतः इनके स्वतंत्र संगठन बनाकर ही धीरे-धीरे इन्हें रास्ते पर लाना होगा।

कम्युनिस्ट पार्टी के संबंध में जो बातें अभी-अभी कही गई हैं वही अक्षरशः सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाक आदि पार्टियों के बारे में भी लागू हैं। क्योंकि उनका भी दावा वैसा ही है। जैसा कम्युनिस्ट पार्टी का। यदि इनमें कोई यह भी दावा करती है कि उनके भीतर फटेहाल बाबुओं का वर्ग भी आ जाता है, या मध्यमवर्ग भी समाविष्ट हो जाता है, तो इसमें हालत जरा और भी बदतर हो जाती है। फलतः सच्ची और स्वतंत्र किसान-सभा बनाने का उनका भी दावा वैसे ही गलत है जैसे कम्युनिस्टों का। कम्युनिस्टों और रायिस्टों में इतनी विशेषता और भी है कि वह भारत की व्यापक, दहकती और सर्वत्र ओत-प्रोत हो कर'युद्धं देहि' करनेवाली राष्ट्रीयता का अपमान करते और उसकी अवहेलना कर के भी कायम रहना चाहते हैं। वे अपनी अंतर्राष्ट्रीयता के साँचे में इस राष्ट्रीयता को ढालने की भारी भूल करते हैं। यह बात इन पार्टियों में नहीं है। वे न तो ऐसी भूल करती हैं और न राष्ट्रीयता की अवहेलना ही करती हैं। वे राष्ट्रीयता को उसका उचित स्थान देती हैं। फिर भी किसान-सभा की स्वतंत्रता, बलवत्ता और वास्तविकता की दृष्टि से सबों का स्थान समान ही है। समान तो पार्टियों की किसान-सभा के बैल बसहा बैल है पुजवाने के लिए, मगर किसानों को तो हल चलानेवाला बैल चाहिए।

एक महत्त्वपूर्ण बात और भी कहनी है। आखिर क्रांति करते हैं किसान और मजदूर ही। एतदर्थ उनकी वर्ग संस्थाएँ अत्यावश्यक हैं; कारण, वही उन्हें इसके लिए संगठित और तैयार करती हैं। बिना इन संस्थाओं के किसान और मजदूर सामूहिक रूप से तैयार किए जा सकते नहीं। यह बात सभी क्रांतिकारियों को मान्य है, तो फिर राजनीतिक दलों और पार्टियों की जरूरत क्या है? इन दोनों सभाओं की कार्यकारिणी समितियाँ आपस में सहयोग कर केक्रांति का संचालन एवं उसका नेतृत्व बखूबी कर सकती हैं। केवल दोनों के सहयोग की व्यवस्था होना जरूरी है और यह बात बिना पार्टियों के भी वे दोनों खुद ही कर सकती हैं। एक समय था जब राजनीतिक विचारों का पूर्ण विकास न होने के कारण पार्टियों की आवश्यकता मानी जाती थी ताकि वर्ग संस्थाएँ पथ-भ्रष्ट न हो जाएँ और उन्हें गलत नेतृत्व न मिले। लेकिन इसी के साथ यह भी जरूरी माना जाता था कि सभी देशों की इन पार्टियों की भी एक अंतर्राष्ट्रीय (International) पार्टी हो, जो सबों को सूत्रबद्ध रखकर उन्हें भी उचित नेतृत्व दे, ठीक रास्ते पर ले चले। यातायात और समाचार के साधनों के पूर्ण विकास के अभाव के चलते भी पथ-भ्रष्टता का खतरा था। एक-दूसरे से सीधा संपर्क रखना असंभवप्राय जो था। मगर आज तो इनमें एक भी बात नहीं है। राजनीति का विकास पराकाष्ठा को पहुँच चुका है, यातायात के साधन अत्यंत तेज और सुलभ हैं, फोन, तार और रेडियो ने समाचार के संसार में क्रांति कर दी है और छपाई की कला ऐसी प्रगति कर गई है कि कुछ न पूछिये। इसलिए राजनीति का अंतर्बहिर्विश्लेषण भी ऐसा हो चुका है कि अब उसमें भ्रम की गुंजाइश नहीं, किसी पार्टी के नेतृत्व की जरूरत नहीं। मौजूदा साधनों के सहारे किसानों तथा मजदूरों की संस्थाएँ अपने कर्तव्य का नियमित निर्धारण अच्छी तरह कर सकती हैं।

इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय के सबसे बड़े पोषक एवं सूत्रधार मो. स्तालीन ने कई साल पूर्व ऐलान कर दिया कि ऐसी संस्था या पार्टी की अब जरूरत नहीं है। जिस तृतीय अंतर्राष्ट्रीय की देखा-देखी दूसरे अंतर्राष्ट्रीय बने, जब वही बेकार है, तो इनकी क्या जरूरत? सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाक और क्रांतिकारी सोशलिस्ट पार्टी का तो अंतर्राष्ट्रीय से कोई संबंध है भी नहीं। ऐसी दशा में एक कदम और नीचे उतरकर इन सभी पार्टियों को भी खत्म क्यों न कर दिया जाए? इनकी क्या जरूरत रह गई? और जब कम्युनिस्ट पार्टी का सूत्रधार तृतीय अंतर्राष्ट्रीय न रहा, तो फिर यह पार्टी भी नाहक क्यों रहे? अगर सिर्फ बाल की खाल खींचने, वामपक्षियों को टुकड़े-टुकड़े करने, नेतागिरी का हौसला पूरा करने और सभी वर्ग संस्थाओं में कलह और जूतापैजार ही इनका उद्देश्य हो तो बात दूसरी है। अब तो पार्टियों के भीतर भी आपस में ही लीडरी के झगड़े प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से चलने लगे हैं।

क्रांतिकारी राजनीति और मार्क्सवाद के यथार्थ ज्ञान और तदनुसार अमल करने की ठेकेदारी इन पार्टियों को ही मिली है, ऐसा दावा दूर की कौड़ी लाना है और बीसवीं सदी के बीच में भी दुनिया को उल्लू समझने की अनधिकार चेष्ट करना है। और अगर यही बात हो तो फिर वह ठेका किस एक पार्टी को मिला है और कैसे, कहाँ से, यह भी सवाल उठता है। क्योंकि इसी ठेकेदारी की लड़ाई तो आखिर वे आपस में भी करती ही हैं। तब फैसला कैसे हो कि फलाँ पार्टी ही के पास वह ठेका है?

किसान-सभा और मजदूर-सभा आपस में मिलकर यदि आवश्यकता समझें कि दोनों के सहयोग के लिए एक सम्मिलित समिति चाहिए तो उसका भी चुनाव दोनों की राय से हो सकता है। जैसे इन सभाओं की समितियाँ नीचे से ऊपर तक चुनाव से बनती हैं तैसे दोनों की या ऐसी ही और सभा को भी मिलाकर अनेक की एक समिति चुनाव से बन सकती है। उसी को पार्टी भी कहना चाहें तो भले ही कहें, मगर यह बाहर से इन पर लदने वाली, लादे जानेवाली पार्टी कौन-सी बला है? हम इसी से पनाह माँगते हैं।

कहा जाता है कि जब कांग्रेस के 90 प्रतिशत सदस्य और लड़नेवाले किसान ही हैं तो चुनाव के जरिए उसकी सभी कमिटियों पर वे आसानी से अधिकार जमा सकते हैं, और अगर वे ऐसा नहीं करते तो उनकी भूल है। हर हालत में किसान-सभा का स्वतंत्र संगठन फिजूल है। मगर अनुभव कुछ और ही है। इतिहास भी ऐसा ही बताता है। कांग्रेस मध्यमवर्गीयों की संस्था इस मानी में है कि इस पर उन्हीं का अधिकार है, प्रभुत्व है और यह उन्हीं की राय से चलती है, इसमें उन्हीं का नेतृत्व है। संसार में आजादी के लिए लड़नेवाली संस्थाएँ ऐसी ही होती हैं, अभी तक यही पाया गया है। यहाँ तक कि सबसे ताजा जो रूस का दृष्टांत है वहाँ भी जारशाही के विरुद्ध जनतंत्र, शासन के लिए लड़ने वाली सोवियत नाम की संस्था मालदारों और मध्यमवर्गीयों के ही अधिकार में थी; हालाँकि उसके सदस्य केवल किसान, मजदूर और सिपाही थे और तीनों ही पूरे शोषित थे। यही वजह है कि1917 की मार्चवाली क्रांति के फलस्वरूप जारशाही का अंत हो के रूस में जनतंत्र के नाम पर धनियों का ही शासन कायम हुआ, जिसके विरुद्ध लड़ते रह के लेनिन को अक्टूबरवाली क्रांति करनी पड़ी और उसके फलस्वरूप किसान-मजदूरों का शासन वहाँ स्थापित हुआ। लेनिन जैसे महापुरुष और क्रांतिकारी के रहते भी जब सोवियत पर किसान-मजदूरों का अधिकार और नेतृत्व न हो सका, हालाँकि उसके सदस्य धनी लोग न थे, तो हम जैसों की क्या बिसात कि कांग्रेस पर अधिकार जमा सकें, जबकि उसमें धनी और उनके पोषक काफी सदस्य हैं? सोवियत का विधान चवनिया मेंबरीवाला या इस तरह का न था, जिसमें जाल-फरेब हो और फर्जी मेंबर बनाकर कमिटियों पर अधिकार किया जा सके। उसके सदस्य तो बालिग किसान, मजदूर और सिपाही मात्र थे। फलतः बनावटी मेंबर बनने-बनाने की गुंजाइश वहाँ न थी, मगर कांग्रेस में खूब है और यह रोज की देखी बात है। लेकिन जब लेनिन विफल रहा तो यहाँ कौन सफलता की आशा करे? इन चुनावों में हजार प्रलोभनों, जाल-फरेबों और दबावों से काम ले कर धनी लोग ही आमतौर से विजयी हो सकते हैं, होते हैं। यही कटु और ठोस सत्य है और यह कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस पर किसानों के नेतृत्व और अधिकार की बात, ऐसी हालत में, निरा पागलपन है और धोका है। फलतः किसान-सभा का स्वतंत्र संगठन होना ही चाहिए।

जब कराची तथा फैजपुर में कांग्रेस ने स्वतंत्र किसान संगठन के सिद्धांत को मान लिया है तो उसका विरोध क्यों? यदि किसान-सभा को कांग्रेस कमिटियों की मातहत या उनके अंग की ही तरह बनाने की बात न होती तो फिर कांग्रेस के द्वारा उनके स्वीकृत होने की बात क्यों कही जाती? विभिन्न मातहत कमिटियों के स्वीकृत होने का प्रश्न तो उठता ही नहीं। लेकिन फैजपुर के किसान प्रोग्राम की आखिरी, 13वीं, चीज यही है कि कांग्रेस किसान-सभाओं को स्वीकार करे─”Peasant unions should be recognised.”

कहा जाता है कि अभी किसान-सभा की क्या जरूरत है? अभी तो अंग्रेजी सरकार हटी नहीं और स्वराज्य आया नहीं, बीच में ही यह बेसुरा राग कैसा? विदेशी सरकार के हटने पर ही प्रश्न उठेगा कि किसका राज्य हो? किसानों का हो? दूसरों का हो? या कि औरों का? उससे पहले ही यह तूफाने बदतमीजी कैसी? यह तो मुसलिम लीग की जैसी ही बात हो गई कि पहले ही बँटवारा कर दो, अंग्रेजी शासन के रहते ही हमारा हिस्सा दे दो। इस आपसी झगड़े में तो वह स्वराज्य मिलने का नहीं। फिर अभी वह हमारा हो, हमारा हो, ऐसा हो, वैसा हो, की तैयारी कैसी? यह वर्ग-संघर्ष और श्रेणी-युद्ध तो उसमें बाधक होगा न? तब तदर्थ किसान-सभा का यह हो-हल्ला एवं महान प्रयास क्यों?

लेकिन यदि इन प्रश्नों की तह में घुस के देखा जाय तो किसान-सभा की असलियत, अहमियत और आवश्यकता साफ हो जाती है। दरअसल स्वराज्य के दो पहलू हैं─विदेशी शासन का अंत और अपने शासन, अपने राज्य, 'स्व-राज्य' की स्थापना। इनमें पहला निषेधात्मक और दूसरा विधानात्मक या निर्माण स्वरूप है। 'स्वराज्य' कहने से उसके निर्माणात्मक पहलू पर ही सर्वप्रथम दृष्टि जाती है और वही प्रधान है, मुख्य है, असल है। निर्माण के बिना कुछ हो नहीं सकता। लेकिन निर्माण के पूर्व ध्वंस आवश्यक है, कूड़े-करकट और रास्ते के रोड़ों को हटाना जरूरी है। नींव खोदने पर ही मजबूत महल खड़ा होता है। नींव के स्थान पर पड़ी हुई मिट्टी बाधक होती है उस महल के निर्माण में। इसीलिए खोदकर उसे हटाना पड़ता है। विदेशी शासन भी अपने शासन के निर्माण में बाधक है। इसीलिए उसको हटाना जरूरी हो जाता है और स्वराज्य के भीतर वह अर्थात आ जाता है। इसीलिए वह गौण है, अप्रधान है।

मगर हमारे कांग्रेसी नेता उसी पर ज्यादा जोर देते हैं, हालाँकि चाहिए जोर देना निर्माणात्मक पहलू पर। यही उनकी भारी भूल है। आखिर विदेशी शासन के हटने पर कोई शासन बनेगा, या कि अराजकता ही उसका स्थान लेगी? 'अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत' होगी क्या? यह तो कोई नहीं चाहता। प्रत्युत विदेशी शासन हटाने-मिटाने के सिलसिले में ही कोई-न-कोई शासन बनाना ही पड़ेगा, कोई सरकार खड़ी होगी ही। तभी आसानी से सफलतापूर्वक विदेशी हुकूमत को हम मिटा सकते हैं। वही सरकार समानांतर सरकार कही जाती है राजनीति की भाषा में। पीछे चलकर उसी सरकार को मजबूत बनाते हैं, यह बुनियादी बात है।

अब प्रश्न होता है कि वह सरकार किसकी होगी? कैसी होगी, कौन सी होगी? यह बड़े प्रश्न हैं और महत्त्व रखते हैं। यह कहने से तो काम चलता नहीं कि वह सरकार हिंदुस्तानियों की होगी? हिंदुस्तानी तो चालीस करोड़ हैं न? तब इनमें किनकी होगी? ये चालीस करोड़ भी जमींदार, किसान, पूँजीपति, मजदूर आदि परस्पर विरोधी वर्गों में बँटे हैं, तो फिर इनमें किन वर्गों की होगी? जमींदारों की? पूँजीपतियों की? तब किसान या मजदूर उस स्वराज्य की सरकार की स्थापना के लिए, उस स्वराज्य के लिए क्यों लड़ें? उस सरकार और विदेशी सरकार में नाममात्र का ही फर्क होगा। असलियत प्रायः एक सी ही होगी। किसान-मजदूरों की कमाई की लूट तो उसमें भी जारी ही रहेगी। अंतर सिर्फ यही होगा कि इस समय जो लूट का माल लंकाशायर, मैंचेस्टर या इंग्लैंड जाता है, वही तब बंबई, अहमदाबाद, कानपुर, छतारी, दरभंगा जाएगा। कमानेवाले किसान-मजदूरों को क्या मिलेगा? ये प्रश्न स्वाभाविक हैं और सारी दुनिया में किए जा चुके हैं। किसान-मजदूरों को सारी शक्ति के साथ प्राण-पण से स्वराज्य के युद्ध में आकृष्ट करने के लिए इनका उनके लिए संतोषजनक उत्तर मिलना आज जरूरी है। किसान-सभा इन्हीं प्रश्नों का मूर्त्त उत्तर है।

मुस्लिम लीग की बात दूसरी है। उसे लड़ना नहीं है या तो उसे यथाशक्ति बाधा डालना है , या अंत में बिना कुछ किए ही आधा हिस्सा लेना है , इसीलिए वह अभी से बँटवारा चाहती है। मगर किसानों को लड़ना है और जम के लड़ना है। उसी लड़ाई को प्राण-पण से चलाने के लिए वह अभी से तय कर लेना चाहते हैं कि लड़ाई का नतीजा उनके लिए क्या होगा। इस प्रकार दोनों में बड़ा फर्क है, यह स्पष्ट है। दोनों के दो रास्ते हैं। एक को लड़ना है और दूसरे को बाधा देना।

यदि उत्तर दें कि कांग्रेस का राज्य होगा तो खयाल होगा कि कांग्रेस में मालदारों का प्रभुत्व होने के कारण उसका राज्य तो नामांतर से उन्हीं मालदारों का होगा। यदि कहा जाय कि किसानों और मजदूरों का राज्य होगा तो प्रश्न होगा कि क्या कहीं भी यह बात अब तक हो पाई है? फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, इटली आदि सभी देशों में आजादी की लड़ाई के लीडर यही कहते थे कि किसान-मजदूरों के हाथ में शासन होगा। अमेरिका में अंग्रेजी शासन को हटाने के समय ऐसा ही कहा जाता था जैसा यहाँ कहते हैं। मगर वहाँ मालदारों का ही राज्य हुआ और किसान-मजदूर दुखिया के दुखिया ही रह गए, सर्वत्र यही हुआ। यहाँ तक कि रूस में भी यही हुआ और पीछे किसान-मजदूरों को पुनरपि लड़कर ही शासन-सत्ता उनके हाथ से छीननी पड़ी। शेष देशों में वे विफल ही रहे। क्यों? कारण हमें ढूँढ़ना होगा और रूस के दृष्टांत में वह मिलेगा। अन्य देशों में आजादी के युद्ध के समय किसानों ने राष्ट्रीय नेताओं की प्रतिज्ञाओं पर विश्वास कर के अपनी अलग तैयारी न की, अपना स्वतंत्र संगठन न किया। फलतः अंत में धोके में रहे, मुँह ताकते रह गए। विपरीत इसके रूस में लेनिन ने मजदूरों का स्वतंत्र संगठन किया और किसानों का भी। अमेरिका आदि से उसने यही सीखा था। वहाँ इस संगठन का अभाव होने से ही धोका हुआ था, अतः रूस में उसने इसी अभाव को मिटाया। यहाँ तक कि किसानों के संगठन में तब तक उसे सफलता न मिल सकने के कारण उसने वामपक्षी सोशल रेवोल्यूशनरी दल को जो किसान-सभावादी था, अपने साथ मिलाया और अक्टूबर की क्रांति के बाद अपनी सरकार बनाकर इस दल को भी उस सरकार में स्थान दिया। उसकी सफलता की यही कुंजी थी।

सोशल रेवोल्यूशनरी दल को साथ लेने से यह भी सिद्ध हो जाता है कि बोल्शेविक और कम्युनिस्ट पार्टी किसानों की पार्टी नहीं थी , न ही हो सकती है। जब लेनिन सफल किसान-सभा न बना सका तो आज के कम्युनिस्ट किस खेत की मूली हैं? हाँ, अधिकार मिलने पर भले ही बना सकते हैं, मगर उससे पहले नहीं, यह ध्रुव सत्य है।

भारत में भी हमें वही करना है, हम वही करते हैं। किसानों का स्वतंत्र संगठन वही तैयारी है जो लेनिन ने की थी। यदि वह सोवियत के नेताओं की प्रतिज्ञाओं, प्रस्तावों और घोषणाओं पर विश्वास कर के मान बैठता कि जारशाही के अंत के बाद किसान-मजदूर-राज्य या किसान-मजदूर प्रजा-राज्य अवश्यमेव स्थापित हो जाएगा, जैसा कि हमारे यहाँ भी कुछ तथाकथित किसान नेता कहते फिरते हैं, तो वह धोका खाता और पछता के मरता। राजनीति में किसी भी संस्था की और विशेषतः आजादी के लिए लड़नेवाली राष्ट्रीय संस्था की महज प्रतिज्ञा, उसके प्रस्ताव या उसकी घोषणा एवं उसके कुछ प्रगतिशील नेताओं के उदात्त विचारों तथा उद्गारों पर विश्वास कर केबैठे रह जाना सबसे बड़ी नादानी है। ऐन मौके पर या तो ये सारी प्रतिज्ञाएँ, घोषणाएँ और प्रस्ताव-उद्गार उनके करनेवाले ही स्वयं भूल जाते हैं या उनके न भूलने पर भी उन्हें विवश और असमर्थ बना दिया जाता है कि वे तदनुसार कुछ भी न कर सकें। परिस्थिति और मालदारों के षड्यंत्र उन्हें बेकार और पंगु बना देते हैं। अमेरिका प्रभृति देशों के स्वातंत्रय-संग्राम ने हमें यही पाठ पढ़ाया है।हमें आजादी लेने के बाद पुनरपि अपने ही मालदार भाइयों और उनके संगी-साथियों से जमकर प्राण-पण से युद्ध करना ही होगा, खून का दरिया तैर कर पार करना ही होगा। तभी किसानों का राज्य होगा, उनके हाथ में शासन-सत्ता आएगी ; न कि महात्मा गाँधी या पं. नेहरू के कहने या कांग्रेस के प्रस्ताव मात्र से ठीक समय पर उस कथन या प्रस्ताव पर अमल कराने के लिए हमारी अपनी शक्ति चाहिए , तैयारी चाहिए , और यह स्वतंत्र किसान-सभा वही तैयारी है , उसी शक्ति का अभी से संचय है। क्योंकि मौके पर एकाएक शक्ति नहीं आ सकती। जो पहलवान अखाड़े में लड़ने का अभ्यास पहले से नहीं करता, वह एकाएक दूसरे पहलवान को पछाड़ नहीं सकता। स्वतंत्र किसान-सभा किसानों के मल्ल युद्ध, अभ्यास और तैयारी का अखाड़ा है।

कांग्रेस की मजबूती भी इसी प्रकार होगी। किसान-सभा के द्वारा किसानोंके हकों के लिए सामूहिक रूप से लड़कर हम किसानों का पूर्ण विश्वास प्राप्त कर सकेंगे और इस प्रकार उन्हें किसान-सभा में सामूहिक रूप से आकृष्ट करेंगे। जो वर्ग-संघर्ष कांग्रेस कर नहीं सकती, जिसके करने में उसे दिक्कत है, जैसा कि कहा जा चुका है, उसे ही हम कांग्रेसजन किसान-सभा के जरिएकर के किसानों के दिल-दिमागों को जीत लेंगे। क्योंकि भौतिक स्वार्थ की सिद्धि उन्हें हमारे साथ खिंच आने को विवश करेगी। यही मानव स्वभाव है। फिर विदेशी सरकार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संघर्ष के समय देश के राजनीतिक मामले में हम आसानी से इसी किसान-सभा के जरिए किसानों को सामूहिक रूप से कांग्रेस के साथी, भक्त और अनुयायी बना डालेंगे। फलतः संगठित एवं शक्तिशाली किसान-सभा शक्तिशाली कांग्रेस का मूलाधार है, उसके लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

जो लोग किसान-सभा के विरुद्ध कमर बाँधे खड़े रहकर भी कांग्रेस-कांग्रेस चिल्लाते हैं, उन्हें एक बुनियादी बात याद रखनी होगी। इस ओर हमने पहले इशारा किया भी है। यहाँ जरा उसका विस्तार करना जरूरी है। किसान-सभाओं को हम असहयोग युग के बाद ही पाते हैं। किसान-आंदोलन का संगठित रूप उसके बाद ही मिलता है। क्यों? यह प्रश्न विचारणीय है। उसके पहले न तो मुल्क में और न किसानों में ही यह आत्मविश्वास था कि अपने शत्रुओं के विरुद्ध कोई संघर्ष सफलतापूर्वक चला सकते हैं, और न संगठित जनांदोलन का महत्त्व ही उन्हें विदित था। 1857 के विफल विद्रोह के बाद लोगों में जो भयंकर पस्ती और निराशा आई थी वह दिनोंदिन गहरी होती जाती थी। देश की सबसे बड़ी संस्था थी कांग्रेस, परंतु वह भी केवल 'भिक्षां देहि' का मंत्र जपती थी। उसकी माँगों के पीछे कोई शक्ति न थी। विदेशी शासन जेठ के मध्याद्द सूर्य की तरह तपता था। लाल पगड़ी और गोरे चमड़े को देख लोगों के देवता कूच कर जाते थे। चारों ओर अंधकार ही था। रौलट कानून और पंजाब के मार्शल लॉ के बाद शासकों की अकड़ और भी तेज हो चुकी थी। तुर्कों के अंग-भंग को मुसलमान संसार रोकने में असमर्थ था। हमारी न्यायतम माँगों पर भी हमारे आका घृणा एवं अपमान की हँसी हँस देते थे और बस। तब तक हमने यही सीखा था कि अखबारों और सभाओं के द्वारा पढ़े-लिखे शहरी लोग ही कुछ भी कर सकते हैं। मगर उनसे भी कुछ होता-जाता दीखता न था। जलियाँवाला बाग के बाद हण्टर कमिटी की लीपा-पोती ने जले पर नमक छिड़क दिया था। सारा देश किंकर्तव्यविमूढ़ था।

ठीक उसी समय महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने नागपुर में 1920 के दिसंबर में गाँवों की ओर मुँह मोड़ा और शांतिपूर्ण सीधी लड़ाई का रास्ता पकड़ा। नेताओं ने कहा कि हम निहत्थे भारतीय चाहें तो एक साल के भीतर अंग्रेजी सल्तनत को भगाकर अपनी सरकार कायम कर लें। यह अजीब दावा था , अफीमची की पिनक जैसी बात थी। मगर बार-बार कहने पर देश ने इसे सुना और सचमुच ही सरकार का आसन डिगा दिया। ब्रिटिश सरकार जैसे काँप उठी। सम्राट के प्रतिनिधि लार्ड रीडिंग ने 1921 के दिसंबर में कलकत्ते में कहा कि “ मेरी अक्ल हैरान है कि यह क्या हो गया " ─”I am puzzled and purplexed”जो देश पस्त था, सदियों से अंटाचित्त पड़ा था वह एकाएक अँगड़ाई ले के अपने पाँवों पर खड़ा हो गया। उसे अपनी अंतर्निहित अपार शक्ति का एक बार प्रत्यक्ष भान हो उठा। यह कांग्रेस की बड़ी जीत थी कि निहत्थी जनता ने जेलों, जुर्मानों और फाँसी का भय छोड़ दिया। मुल्क की सुप्त आत्मा जग उठी। जो पहलवान साधारण मर्दों से भी भयभीत हो उठता था वही सबसे बड़े मल्ल को पछाड़ कर अपने अपार बल का अनुभव करने लगा।

इसका अनिवार्य परिणाम ऐसा हुआ जिसका किसी को सपने में भी खयाल था नहीं। जब भारतीय किसानों ने ब्रिटिश सिंह को एक बार धर दबोचा, तो उन्होंने स्वभावतः सोचा कि ये राजे-महाराजे, जमींदार और साहूकार उसी के बनाए तथा उसी की छत्रछाया में पलने-पनपनेवाले हैं; ये उसके सामने बिल्ली और चुहिया से भी गए-गुजरे हैं। फिर भी इनकी हिम्मत कि हमें लूटते रहे? 'अबलौं नसानी तो अब ना नसैहौं' के अनुसार उनने सोचा कि अब तक हम सोए थे और अपनी प्रसुप्त शक्ति को समझते थे नहीं, जिससे इनने हमें लूटा, सताया। मगर अब ऐसा हर्गिज होने न देंगे। जब इनके आका को हम निहत्थों ने पछाड़ा तो इनकी क्या हस्ती? बस, उस असहयोग आंदोलन की महान विजय की यही प्रतिक्रिया किसान जनता में हुई जो क्रमशः दृढ़ होती गई। उसी का फल और व्यावहारिक रूप यह किसान-सभा है। और अगर हमारे लीडर आज इससे घबराते हैं तो वह बेकार है। यह बात उन्हें पहले ही सोचनी थी जब किसानों को अंग्रेजी सल्तनत के साथ जूझने को उभाड़ा था। व्यभिचारिणी स्त्री पेट में गर्भ होने पर पछताती है सही; लेकिन यह उसकी मूर्खता है। उसे तो व्यभिचार के ही समय यह परिणाम सोचना था।

बात दरअसल यह होती है कि स्थिर स्वार्थवाले संपत्तिजीवी तब तक जनांदोलन से नहीं घबराते जब तक उनके स्वार्थों पर आघात की आशंका न हो, प्रत्युत स्वार्थ-सिद्धि के लिए जनांदोलन और क्रांतिकारी संघर्षों तक को प्रोत्साहित कर के अपना काम निकालते हैं। फ्रांस, रूस आदि क्रांतियाँ इसका ज्वलंत प्रमाण हैं। बिना जनता की सीधी लड़ाई के मालदारों को पूरे हक नहीं मिलते, ताकि उद्योग-धंधों का बेतहाशा प्रसार कर माल बटोरें। इसी से उसको प्रोत्साहन देते हैं। उस समय तो उन्हें लाभ ही नजर आता है। यही बात 1921 वाले और बाद के कांग्रेसी संघर्षों में भी हुई। नेताओं ने खुश हो के जनता को ललकारा-उभाड़ा। उन्हें कोई खतरा तब तो दिखा, नहीं मगर अब जब जनता अपनी शक्ति का अनुभव कर के उनसे भी दो-दो हाथ करने को आमादा हो गई तो लगे बगले झाँकने और बहानेबाजियाँ करने। अब उन्हें अपने लिए खतरा नजर आ रहा है। इसीलिए किसान-सभा को कोसते हैं। उन्हें अपने ही बनाएजनांदोलन से भय होने लगा है। मगर अब तो उनकी भी लाचारी है। अब तो तीर छूट चुका। फिर पछताने से क्या? चीख-पुकार मचाने से क्या? प्रत्युत वे जितना ही इसका विरोध करेंगे किसान-सभा उतनी ही तेज होगी, यह अटल बात है। हमें दर्द के साथ यह भी कहना पड़ता है कि लोगों को कांग्रेस से चिपकाए रखने के लिए वस्तुस्थिति और व्यावहारिकता का आश्रय न ले कर अनुशासन की तलवार का सहारा लिया जाना ही अच्छा समझा जाने लगा है। यदि कांग्रेस की भीतरी खूबियाँ, उसके अंतर्निहित गुण तथा उसकी ऐतिहासिक आवश्यकता हमें उसकी ओर आकृष्ट नहीं कर सकती हैं, एतन्मूलक उसमें होनेवाली यदि हमारी भक्ति पूरे पचीस साल की उसकी लगातार की कशमकश के बाद भी नाकाफी है तो अनुशासन की नंगी तलवार उसकी पूर्ति कभी कर नहीं सकती। तब तो कहना ही होगा कि कांग्रेस के नेता अपना हृदय-मंथन करें और पता लगाएँ कि उनकी तपस्या एवं कांग्रेस के कार्यक्रम में कौन सी बड़ी खामी है, जिससे यह खतरा बना है कि लोग उससे भड़क जाएँ, बिचल जाएँ। असली शक्ति किसी संस्था की भीतरी खूबी और ऐतिहासिक आवश्यकता ही है। उसी के करते वह शक्तिशाली होती है और यह बात कांग्रेस में मौजूद है। फिर बात-बात में अंदेशा क्यों? कांग्रेस कोई छुईमुई नहीं है। वह तो इस्पात की बनी है। किसान-सभा की भी ऐतिहासिक आवश्यकता है, जैसा कह चुके हैं।

कहा जा सकता है कि कांग्रेस के सफल असहयोग आंदोलन तथा संघर्ष का परिणाम ही यदि किसान-सभा है तो 1922-23 के बाद ही उसकी स्थापना न हो कर1927-28 या 29 में क्यों हुई? इतनी देर क्यों? बात यह है कि विचारों के परिपक्व एवं स्थायी बनने में विलंब होने के नियमानुसार ही यहाँ भी देर हुई। प्रतिक्रिया तो हुई, मगर उसे कार्यरूप में परिणत करने के पूर्व उसमें स्थिरता और परस्पर विचार-विमर्श आवश्यक था, उसे परिपक्व होना जरूरी था। यह भी बात है कि इन बातों के लिए समय आवश्यक है। ये एकाएक नहीं होते। इसके अलावा किसान-सभाओं के चलाने को लिए जो किसानों के हजारों युवक और पढ़े-लिखे लोग जरूरी थे वे भी असहयोग के करते बाहर आए सही, ऊपर आ गए जरूर। मगर उनका भी पारस्परिक विचार विनिमय जरूरी था इस काम को चालू करने के लिए। राजनीतिक परिस्थिति का डाँवाडोल होना, परिवर्तन-अपरिवर्तनवाद वाली उस समय की कलह और सत्याग्रह जाँच समिति की कार्यवाही आदि बातों के चलते भी काफी गड़बड़ रही और इस काम में देर हुई। फलतः यदि दो-चार साल इसी उधेड़बुन में लग गए तो यह कोई बड़ी बात न थी। इससे प्रत्युत इस काम में दृढ़ता आई। कम-से-कम बिहार में कांग्रेस के सभी नेता प्रारंभ में इसमें खिंच आए और उनसे पर्याप्त प्रेरणा भी मिली, यह भी इसका सबूत है कि किसान-सभा का अविच्छिन्न संबंध कार्य-कारण के रूप में कांग्रेस के साथ है, यह कांग्रेस-संघर्ष का स्वाभाविक परिणाम है। अतएव अब उसका विरोध करना केवल चट्टान से सर टकराना है। अब इसमें बहुत देर हो चुकी है। और जब गत वर्ष श्री पुरुषोत्तमदास जी टंडन की अध्यक्षता में हिद-किसान-सभा ने यह स्पष्ट घोषित कर दिया कि स्वातंत्रय संग्राम से संबंध रखनेवाली राजनीतिक बातों में साधारणतः किसान-सभा का प्रत्येक सदस्य कांग्रेस से ही प्रेरणा और नेतृत्व प्राप्त करेगा , तो फिर हाय-तोबा मचाने की वजह क्या रही ?

एक ही बात जो निहायत जरूरी है, रह जाती है। बड़े-बड़े नेता तक कह डालते हैं कि जभी कांग्रेसी-मंत्रिमंडल बनते हैंतभी बकाश्त के संघर्ष छेड़ कर ये किसान-सभावादी सिर्फ उन्हें परेशान करते हैं। ये संघर्ष इन मंत्रिमंडलों के अभाव में नहीं होते। इससे इस सभा की बदनीयती सिद्ध होती है। इसीलिए इसे रहने देना कांग्रेस के रास्ते के रोड़े को कायम रखना है।

मगर यह बात गलत है। बिहार में ही ये बकाश्त संघर्ष ज्यादातर होते हैं और हुए हैं और वहाँ इनका श्रीगणेश मुंगेर जिले के बड़हिया टाल में 1936 में ही हुआ था जब इन मंत्रियों का पता भी न था, जब असेंबली के चुनाव हुए भी न थे। चुनाव के बाद कांग्रेसी मंत्री न हो कर जब दूसरे ही लोग मंत्री के रूप में कुछ महीने गद्दी पर थे , उस समय यह संघर्ष काफी तेज था। किसान-स्त्री-पुरुषों और सेवकों पर घुड़सवारों ने घोड़े दौड़ाए थे उसी समय। यह एक ठोस ऐतिहासिक बात है, जिससे इनकार किया जा नहीं सकता। इसी प्रकार 1941 में और 1942 के शुरू में डुमराव में जो बियाईं का संघर्ष किसान-सभा के नेतृत्व में चला और जंगल सत्याग्रह चलता रहा, वह भी कांग्रेसी मंत्रियों के अभाव में ही था। फिर सरासर झूठी बात क्यों कही जाती है?

यह ठीक है कि कांग्रेसी मंत्रियों के समय में ये संघर्ष अधिक होते हैं और यह उचित भी है। जब इन मंत्रियों को चुनकर किसान ही गद्दी पर बिठाते हैं तो इन्हें अपना समझ किसानों का हौसला बढ़ना स्वाभाविक है और इसी के फलस्वरूप ये संघर्ष होते हैं। किसान समझते हैं कि हमारे बनाएमंत्री इन मामलों में हमारी सहायता करेंगे। नौकरशाही सरकार से उन्हें यह आशा तो होती नहीं, इसी से उस समय ये संघर्ष कठिन हो जाते हैं और कम होते हैं। और जब जनप्रिय सरकार बनी तो जनता को स्वभावतः आजादी ज्यादा होती ही है। वह अपने हाथ-पाँव जरा फैला पाती है, फैलाने की कोशिश करती है। उसकी छाती की चट्टान जरा हटी सी मालूम पड़ती है, उसकी हथकड़ी-बेड़ियाँ जरा ढीली और टूटी सी लगती हैं। फिर हाथ-पाँव फैलाए क्यों न? और ये संघर्ष उसी फैलाने के मूर्त्त-रूप हैं, फिर इन्हें देख गुस्सा क्यों? इनके लिए उलाहना और इल्जाम क्यों? ये कांग्रेसी मंत्रियों को परेशान करने के सुबूत न हो कर उलटे कांग्रेस में और उसके मंत्रियों में जनता के अपार विश्वास के ही सुबूत हैं।

अंत में हमें कहना है कि कांग्रेस की असली ताकत न तो उसके अनुशासन की तलवार है, न उसकी कमिटियाँ और न उसके चवनियाँ मेंबर, प्रतिनिधि आदि। उसकी असली शक्ति अपार जनसमूह की उसमें अटूट भक्ति है─उस भारतीय जनसमूह की भक्ति, जो चवनियाँ मेंबर तक नहीं है, मगर जो उसे चुनाव में जिताता और संघर्ष में विजयी बनाता है। अच्छा हो कि कांग्रेस के कर्णधार यह न हो, वह न हो, किसान-सभा न बने, मजदूर यूनियन न बने और अगर बने तो कांग्रेस की मातहती में, आदि फिजूल बातें छोड़ उस अपार जनता के कष्टों को समझें और उन्हें दूर करने में कोर-कसर न रखें। फिर देखेंगे कि कांग्रेस अजेय है और ऐसा न होने पर वह दुर्ग ढह जाएगा, यह कटु सत्य है।

स्वामी सहजानंद सरस्वती

विहटा, पटना

वसंत पंचमी 27-1-47