उसका माथा झुका है, पर उसके अंदर एक गुम बगावत कुलबुला रही है / संतोष श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सहारनपुर की उषा धीमान आई तो थी अदालत में अपने ऊपर होने वाली घरेलू हिंसा के खिलाफ न्याय मांगने लेकिन तमाम रिश्तेदारों ने उसे अदालत के बाहर ही इस न्याय की सजा दे डाली। उसे निर्वस्त्र करके घसीटा और लात जूतों के फूल बरसाये। देखते ही देखते सैकड़ों लोगों का मजमा जुट गया वहाँ। जिसमें आम लोगों के अलावा वकील उनके मुंशी और अदालत के कर्मचारी भी थे। सब मौन खड़े तमाशा देखते रहे। न किसी ने उन दरिंदों को रोकने की कोशिश की और न उस पिटती, खून उगलती आरत की मदद की। घरेलू हिंसा के साथ इस तरह सार्वजनिक हिंसा भी जुड़ गई उषा के साथ और इसके चार दिन बाद ही कमली नामक महिला के साथ जो कि गोरखपुर से आई थी, ऐसा ही कुछ घटित हुआ।

ये खबरें समाचार पत्र की सुर्खियाँ तो बनती हैं पर न तो इसके खिलाफ कुछ होता है और न ही इन घटनाओं के घटित होने में कोई कमी आती है। आज के सभ्य समाज में स्त्रियों के साथ होने वाले इस वहशी सुलूक पर आधुनिक समाज चौंकता नहीं, न ही वह कुछ सोचने पर विवश होता है। घरेलू हिंसा जैसे एक अनिवार्य घटक के रूप में स्वीकृति पा चुकी है। हिंसा कि शिकार औरत अव्वल तो आवाज उठाती नहीं और अगर उठाती है तो चंद दिनों के लिए चर्चा का केंद्र और कईयों के बीच उपहास बनकर रह जाती है। यही वजह हैै कि कोई भी युवती, चाहे वह कितनी ही आधुनिक या प्रगतिशील क्यों न हो आज यह दावा नहीं कर सकती कि वह पूर्णतया सुरक्षित सम्मान भरी ज़िन्दगी गुजार रही है और इस अन्याय का मुंह तोड़ जवाब दे सकती है।

घरेलू हिंसा का अर्थ है महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक व आर्थिक पक्ष को लेकर प्रताड़ित करना। शारीरिक प्रताड़ना, यौन हिंसा और मारपीट के दौर से गुजरती है औरत। यह नहीं जानती उसका कसूर क्या है? कसूर यदि खाने में नमक की मात्रा कम होना है, पति की दृष्टि में घर की देखभाल ठीक से नहीं होना है, खाना समय पर नहीं मिलना है, पति खुद की कोई चीज कहीं रखकर भूल गया है और पत्नी को नहीं मिल रही है तो बेशक वह हिंसा की, उत्पीड़न की हकदार है। पर क्या इसकी भी कोई कसौटी है कि ये भूलें ऐसे गुनाह हैं जिसका फैसला वह पति रूपी पुरुष ही करेगा जो औरत का रक्षक होने का दावा करता है। जिसने उसके हर सुख-दुख में उसका साथ देने की कसमें खाई हैं। आज बाज़ार में, फ़िल्मों में, टी.वी. सीरियलों में करवाचौथ को हिंदू सुहागिनों का एक उत्सव बना दिया है और यही पति सातों जन्मों तक पाने की एक आम चाहत को पति पूजा में तब्दील कर दिया है तो क्या यह ज़रूरी नहीं कि तमाम पति ये सोचेें कि जिस पत्नी को वे पांव की जूती समझते हैं, समय असमय मारते-पीटते, गाली देते हैं और जिन्होंने उसे अपशब्द, तिरस्कार और हिंसा सहनेवाली जीती-जागती मशीन बना दिया है। कम से कम इस त्यौहार के दिन तो यह सोचें कि उसकी कुशलता और दीर्घ आयु की कामना के लिए दिन भर निर्जला व्रत रखने वाली पत्नी के साथ वे कैसा व्यवहार करते हैं। क्या उशे बराबरी का दर्जा मिल पाता है? गृहस्थी रूपी गाड़ी के दोनों समान रूप से पहिए हैं और पहियों का समान होना गाड़ी के संतुलन के लिए बेहद आवश्यक है। पत्नियों पर की जाने वाली हिंसा के बारे में जो सर्वेक्षण और अध्ययन होते रहते हैं। वे निश्चय ही पति को दोषी मानते हैं। पत्नी अपनी आर्थिक सुरक्षा, बच्चों से प्रेम, भविष्य की सुरक्षा और समाज में बेइज्जती न होने देने के डर से पिटती रहती हैं पर अपना मुंह नहीं खोलतीं। समाज में औरत किसी भी वर्ग की क्यों न हो, पति धारणा आम है। औरत शिक्षित हो गई है, कामकाजी है... कोई-कोई तो पति से भी ऊंचे पद पर है... लेकिन घरेलू हिंसा का ग्राफ सबके लिए समान है। हाल ही में महाराष्ट्र के गवर्नर के ए.डी.सी. के खिलाफ अपनी पत्नी को प्रताड़ित करने का मामला सामने आया। उनकी पत्नी आई.ए.एस. अधिकारी हैं। गोल्ड मेडलिस्ट हैं लेकिन विधि की विडम्बना कि घरेलू हिंसा का शिकार है और पुलिस प्रधान पुरुष का हृदयहीन रवैया कि रिपोर्ट दर्ज करने और उनके पति के खिलाफ कार्यवाही करने में छह महीने से अधिक का समय लग गया। बहरे पुलिस अआॅफिसरों को हरकत में लाने के लिए जब इसके बाद भी कुछ नहीं हुआ तो दस वरिष्ठ आई.ए.एस. सहकर्मियों ने बाकायदा एक डेलीगेशन बनाकर महाराष्ट्र् के पुलिस महानिदेशक से शिकायत की। राज्य के महिला आयोग में दर्ज की गई शिकायत में उन्होंने पति पर मारपीट का आरोप लगाया था और कहा था कि उसने अपनी सर्विस रिवॉल्वर से उसे डराने, धमकाने की कोशिश की थी। शिकायत में यह भी कहा गया था कि उनका पति अपनी पोजीशन का लाभ उठाते हुए कानूनी कार्यवाही को रोक रहा है। दोनों का एक साल का बेटा है। यह उच्च शिक्षा, उच्च पद प्राप्त जोड़ी अंदर से इतनी कमजोर और कुरुप होगी किसे पता था। पत्नी की हिम्मत ने इस अत्याचार का मुंह-तोड़ जवाब दे पूरे समाज के आगे इसका खुलासा किया।

समाज कुछ ऐसा बना दिया गया है कि खुद औरतें यह भी मान लेती हैं कि ज़रूर उनकी ही गलती होगी। उसने पति का कहा नहीं माना होगा, बच्चों का ध्यान नहीं रखा होगा, सास-ससुर को कोई चोट पहुँचाई होगी, बिना बताए कहीं घर से बाहर चली गई होगी, उसका किसी गैर मर्द से रिश्ता होगा, (भले ही गैर औरतों से मर्द का भी रिश्ता हो पर उसके पास पुरुष सर्टिफिकेट है जिसके रहते वह अपने काले कारनामों को सफेद करने में पल भर भी नहीं हिचकता।) इन भूलों पर वह पति की मर्मांतक हिंसा सह लेती है। अगर वह बांझ है तो पति को पूरा हक है दूसरी शादी का लेकिन अगर पति बच्चा पैदा करने योग्य नहीं तो पत्नी दूसरी शादी नहीं कर सकती बल्कि पति की इस कमी को भी वह जीवनपर्यंत हंसते-हंसते गले लगा लेती है जबकि माँ होने में ही नारी की पूर्णता है।

दहेज हमारे समाज का कुष्ठ रोग बन गया है। कानूनन अपराध होने के बावजूद यह खूब फल फूल रहा है। अब तो हाल ये है कि कुछ प्रगतिशील परिवार दहेज नहीं भी मांगते हैं तब भी कन्या पक्ष दहेज देने पर उतारु रहता है कि कहीं कोई कमी रह गई तो उसकी कन्या दु: ख उठाएगी। कई परिवारों में दहेज की सुरसा मुंह बाए कन्या को निगलने के लिए तैयार रहती है। दहेज में कमी या मांगे गए धन को देने में टालमटोल कन्या कि प्रताड़ना कि वजह बन जाती है। किसी विवाहिता कि स्टोव फटने से मृत्यु या केरोसिन डालकर जला दिए जाने की खबरें अब आकर्षित नहीं करती क्योंकि अब ये आम घटना मान ली गई हैं। पत्नियों पर हिंसा अब पशिअचमी देशों में भी होने लगी है पर वहाँ की स्त्री जागरुक है और अपने अधिकारों को अदालत तक ले जाती है। वहाँ की स्त्री अपनी भूल नहीं मानती इसलिए हिंसा का जवाब देती है जबकि हमारे समाज की स्त्री निर्दोष होकर भी हिंसा सहती है। पश्चिम की स्त्री या तो शराबी पति द्वारा पीटी जाती है या पति के किसी अन्य स्त्री से दैहिक सम्बंधों की वजह से विरोध करने पर हिंसा का शिकार होती है। वहाँ के नागरिक समाज ने ऐसी स्त्रियों के बचाव के लिए अनेक मंच बनाए हैं और ऐसी तमाम घटनाएँ मीडिया का केंद्र भी रहती हैं। लिहाजा वे हिंसक पति से एक लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ने को तैयार रहती हैं और अपनी ज़िन्दगी फिर से शुरू करने, फिर से घर बसाने की हिम्मत रखती हैं।

जाति चाहें जो हो हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई... औरत की स्थिति हर जगह एक जैसी है। मुसलमानों में भी परिवार पितृसत्तात्मक ही है। स्त्री पुरुष सम्बंधओं में समानता नहीं है। स्त्रियाँ, पुरुषों के मुकाबले में हीन मानी जाती हैं। यह पितृसत्तात्मक नजरिया ही औरत के साथ दुर्व्यवहार में गुंथा है। भारत के जिन राज्यों में औरत को घर के बाहर निकलने की ज़्यादा आजादी है, व्यवहार में संपत्ति का अधिकार ज़्यादा है, जहाँ शादी के बाद भी लड़की का अपने मायके और ससुराल में प्रगाढ़ प्रेम और सम्मान है वहाँ की औरत अधिक सुखी और सुरक्षित है। उत्तर प्रदेश के मुकाबले तमिलनाडु की औरत अधिख सुरक्षित है। जहाँ तक हिंदू-मुस्लिम औरतों में अंतर का सम्बंध है यह माना जाता है कि मुस्लिम औरतों के लिए बाहरी कामकाज का क्षेत्र सीमित होने, उनकी शिक्षा-दीक्षा में धर्म को बहुत अधिक बल देने और आचरण को ज़्यादा प्रश्रय देने, तलाक के दुरुपयोग आदि के कारण वे घरेलू हिंसा का ज़्यादा शिकार होती है। वैसे तो औरत की हालत अधिक बदतर है। इस्लाम ने तत्कालीन अरब समाज में अनेक सुधारों का सूत्रपात करके औरत को ज़्यादा अधिकार संपन्न बनाया था लेकिन तब भी उनकी हालत में कोई बदलाव नहीं आया, औरत पांव की जूती ही बनी रही। कुछ समय पहले स्पेन में औरत और इस्लाम नामक किताब लिखने वाले एक इमाम को जेल की सजा दी गई थी। उस इमाम ने लिखा था कि इस्लाम ने औरतों को पीटने वालों के लिए कुछ संयम-कुछ मर्यादाएँ तय की हैं। उसने लिखा था कि औरतों की हथेलियों और तलवों जैसे उन हिस्सों पर छोटी डंडी से इस तरह मारना चाहिए कि चोट के निशान न पड़े। शारीरिक चोट पहुँचाने से ज़्यादा उसे ऐसी मानसिक यातना देनी चाहिए जिससे वह उबर न सके। ऐसा नहीं लगता कि इस्लाम ऐसा मानता होगा। किसी भी धर्म में यदि मानव मात्र को पीड़ा पहुँचाने की बात लिखी हो तो वह धर्म नहीं है... लेखक का खुद का नजरिया है जिसे वह धर्म की आड़ में जग जाहिर कर रहा है। तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है-ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी। ध्यान देने वाली बात ये है कि तुलसी ने इसे किन अर्थों में लिखा है। ताड़न शब्द के अनेक अर्थ हैं-मारना, किसी बात के रहस्य का पता लगाना और अपनी नजर की सीमा में रखना। तुलसी ने अपनी नजर की सीमा में रखना अर्थ में यह बात कही होगी, क्योंकि नारी स्वभाव और शरीर से कोमल होती है। उसकी देखभाल करना पुरुष का कर्त्तव्य है। गंवार, शुद्र और पशु भी इसी प्रकार देखभाल करने की सीमा में आते हैं क्योंकि ये भी समाज के कमजोर वर्ग के हैं। परंतु इसे ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण ने हेय दृष्टि से देखते हुए प्रताड़ित करने का रूप दे दिया।

देखा जाए तो पितृसत्तात्मक नजरिये और ब्राह्मणवादी नजरिए में कोई विरोधाभास नहीं है। मैंने बीच में करवाचौथ की बात भी उठाई है। मेरे मन में यह सवाल बार-बार उठता है कि क्या पति, पत्नी की दीर्घायु और मंगलकामना कि चाहत नहीं रखता? क्या उसे पत्नी का साथ नहीं चाहिए। क्या करवाचौथ और सती प्रथा के बीच, करवाचौथ और जौहर के बीच कोई अधृश्य रिश्ता है? कोई ऐसा सूत्र है जो उसे अदृश्य धागे से जोड़ता है? सती और जौहर पति की मृत्यु के बाद तब होते थे जब औरत यह मान लेती थी कि पति के न रहने से अब उसके जीवन का कोई अभिप्राय नहीं? परंतु क्या ये सोच सही दिशा बताती है। क्या उसके लिए उसके बच्चे और परिवार कोई मायने नहीं रखते? क्या उसे अपना जीवन जीने की कोई चाह नहीं? करवाचौथ की कथा में कहा गया है कि हे स्त्रियों, आज के दिन पति की मंगलकामना करते हुए, दीर्घायु की प्रार्थना करते हुए चांद को अर्ध्य देकर व्रत का पारायण करना चाहिए। दिन भर निर्जला रहकर व्रत की समाप्ति पति द्वारा पिलाई पानी की पहली घूंट से करना चाहिए। यह कैसी परंपरा है? यह कैसा चलन है? यह वही भारत देश है जहाँ सावित्री ने यमराज के फंदे से अपने पति के प्राण बचाए थे। इसी भारत देश में औरत प्रताड़ना का शिकार है। आज के इस दौर में कोई राजा राममोहन राय नहीं है और बाजारवाद की जड़ें गहरी हैं परंतु हल तो तलाशना ही होगा।

घरेलू हिंसा कि घटनाएँ हर आय वर्ग के परिवारों में होती हैं। महिलाओं की आजादी और धनार्जन की शक्ति को पुरुष अक्सर अपने वर्चस्व के लिए खतरे के रूप में देखता है। लेकिन आर्थिक संकट महिलाओं को कमजोर बनाता है। न तो वह हिंसा के खिलाफ खड़ी हो घर छओड़ पाती है, न बच्चों को छोड़ पाती है। वह मूक रहकर हिंसा बर्दाश्त करती है। औरत अपने पति, प्रेमी, चाचा, मामा, ससुर और बेटों द्वारा घरेलू हिंसा का श्किार होती है। विडम्बना यह है कि वह इन्हीं रिश्तों के बल पर बाहरी दुनिया में खुद को सुरक्षित भी महसूस करती है यानी घर का अन्याय, न्याय और बाहर का अन्याय, बदनामी, बदचलनी...? औरत होने के नाते वह बचपन से ही अपने परिवार में उपेक्षित है... खान-पान, रहन-सहन, चिकित्सा हर चीज में वह घर के मर्दों की तुलना में दोयम दर्जे की ही है।

घरेलू हिंसा एक जटिल समस्या बनकर दुनिया भर में गंभीर सोच का विषय बन गई है। पूरे विश्व में गठित महिला संगठनों और महिलाओं के उत्थान के लिए कार्य कर रही संस्थाओं ने आंकड़े जुटाकर कानून का दरवाजा खटखटाया है। यूनिसेफ के अनुसार किसी भी देश में महिलाओं की आबादी के लगभग आधे हिस्से को अपने परिजनों के अत्याचार और बचपन में घोर उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। यूनिसेफ के इटली में फ्लोरेंस स्थित इनोसेंटी रिसर्च सेंटर की निदेशक मेहर खान के अनुसार कोई भी धर्म या समाज घरेलू हिंसा को मान्यता नहीं देता। लेकिन अनेक देश और समाज इस मामले को गंभीरता से उठाने में हिचकिचाते हैं। वे इसे निजी मामला मानते हैं और इस विषय पर बातचीत करना पसंद नहीं करते, इस कारण सही सूचनाएँ नहीं मिल पातीं।

पेइचिंग में हुए चौथे विश्व महिला सम्मेलन में हिंसा के मामले को प्रमुखता से उठाया गया था। यूनिसेफ ने वहाँ अपनी 21 पृष्ठों की रिपोर्ट में दर्ज किया है कि यदि कन्या भ्रूण हत्या और महिलाओं के खिलाफ हिंसा कि घटनाएँ नहीं होती तो इस समय विश्व में औरतों की आबादी छह करोड़ ज़्यादा होती। रिपोर्ट में वर्णित अमेरिका के एक अध्ययन के अनुसार 28 प्रतिशत महिलाएँ कम से कम एक बार अपने पति द्वारा शारीरिक हिंसा का शिकार बन चुकी हैं। अमेरिका, फिजी, पेरु, भारत, बांग्लादेश और श्रीलंका में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि आत्महत्या कि कोशिश करने वाली महिलाओं में 80 प्रतिशत कारण घरेलू हिंसा है।

संयुक्त राष्ट्र के भारत स्थित कार्यालय द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट भारत में महिलाएँ कितनी आजाद कितनी बराबर में दिए गए तथ्यों के मुताबिक देश में 40 प्रतिशत महिलाओं को घर एवं बच्चों की सही देखभाल न करने के आरोप में, 34 प्रतिशत की ससुराल वालों का अनादर करने के आरोप में तथा 33 प्रतिशत को वफादारी के शक होने के आरोप में पतियों की हिंसा का शिकार होना पड़ा। 1980 से 1990 के बीच देश में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में लगभग 74 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। बलात्कार, यौन उत्पीड़न तथा पति और ससुराल वालों द्वारा यातना के मामले में सबसे ज़्यादा वृद्धि दर्ज की गई। देश में 25 प्रतिशत से अधिक औरतों को देर से खाना बनाने पर हिंसा का शिकार होना पड़ा। गुजरात में 65 प्रतिशत महिलाएँ देर से अथवा ठीक से खाना न बनाने पर पतियों की पिटाई झेलती हैं। राज्य में 80 प्रतिशत को पति की गाली-गलौज, 51 प्रतिशत को घर से निकालने की धमकी का आए दिन सामना करना पड़ता है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-3 के अनुसार घरेलू हिंसा के मामले में बिहार और झारखंड पहले पायदान पर हैं। जबकि हिमाचल प्रदेश की महिलाएँ किसी भी राज्य की तुलना में सबसे कम घरेलू हिंसा का शिकार हैं। राजस्थान में 46, मध्य प्रदेश में 45, त्रिपुरा में 44, मणिपुर में 43, उत्तर प्रदेश में 4, तमिलनाडु में 41, पश्चिम बंगाल में 40 और अरुणाचल प्रदेश में 38 प्रतिशत महिलाएँ घरेलू हिंसा का शिकार हैं। कई राज्यों में ग्रामीण और शहरी इलाकों की तुलना में हिंसा का ग्राफ बराबर या बहुत कम अंतर पर पाया गया।

अक्सर घरेलू हिंसा को लोगों का व्यक्तिगत मामला मानकर इस ओर कानूनी स्तर पर कम ध्यान दिया जा रहा है हालांकि इस आम धारणा को बदलने की कोशिश राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा जारी है। कई राज्यों में हुए सर्वे में यह बात पाई गई कि घर के छोटे-छोटे फैसलों में भी औरतों को शामिल नहीं किया जाता। उन्हें अपनी सहेली या रिश्तेदारों से मिलने के लिए घर से बाहर कदम रखने से पहले इजाजत लेनी पड़ती है। वे अपने स्वास्थ्य की देखरेख के फेसले भी खुद नहीं कर सकतीं। बीमारी, गर्भावस्था, स्तनपान कराने के दौरान उनके शरीर की विशेष ज़रूरतों को न तो कोई समझता है न ही कोई ध्यान देता है।

घरेलू हिंसा पर अंकुश लगाने के लिए विभिन्न संगठनों द्वारा उठाई आवाज पर कानून सचेत हुआ। यूपीए सरकार ने घरेलू हिंसा पर बनाए गए बिल में कुछ संशोधन किए। पुराने विधेयक में सिर्फ़ मारपीट को ही घरेलू हिंसा माना गया था पर अब घरेलू हिंसा के दायरे में ताने देना, भावनात्मक या आर्थिक रूप से प्रताड़ित करने की कोशिश को भी शामिल किया गया है। विधेयक में संशोधन के पहले महिला संगठनों की राय सुनी गई है और उनकी सलाह के मुताबिक ऐसी शिकायत के दौरान सताई गई औरत को काउंसलिंग से मुक्त रखने और बच्चों को अस्थायी तौर पर माँ के ही साथ रखने की व्यवस्था भी की गई है। लगने लगा है कि यह कानून औरत को घरेलू हिंसा के खिळाफ ऐसा जिरह बख्तर पहना देगा कि आगे से पति कोई दुस्साहस नहीं कर पाएंगे। लेकिन दाम्पत्य जीवन में कहाँ से कौन-सा व्यवहार भावनात्मक हिंसा में तब्दील हो जाए, इसे कानून से निर्धारित करना संभव नहीं है। इसके अलावा ऐसे कानूनी जिरह बख्तर का ग़लत इस्तेमाल दोनों में से कोई भी पक्ष कर सकता है। जिस दिन औरत ऐसी हिंसा के खिलाफ शिकायत करने के लिए बाहर निकल आएगी, उस दिन उसे आईपीसी की ही अनेक धाराओं की सुरक्षा मिल जाएगी। इसलिए घरेलू हिंसा पर रोक लगाने की कोशिश करनी चाहिए जो पति पत्नी के सम्बंधों को इतना आक्रामक बना रही है। इस दिशा में यूं तो महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। परिवार परामर्श केंद्रों की स्थापना, हेल्पलाइन की सुविधा, कानूनी साक्षरता और कानूनी जागरुकता शिविरों का आयोजन शामिल है।

कुछ साल पहले राष्ट्रीय महिला आयोग, महिला वकीलों और महिला संगठनों ने सरकार से ऐसा एक कानून बनाने की सिफारिश की थी। आयोग के साथ लायरर्स कोलवेटिव संस्था ने अलग-अलग घरेलू हिंसा रोकथाम विधेयक मसविदा सरकार को भेजा था। दोनों ही संस्थाओं ने दक्षिण अफ्रीका, मॉरीशस और आॅस्ट्रेलिया के घरेलू हिंसा के खिलाफ विधेयक का अध्ययन करने के बाद भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक स्थितियों के मद्देनजर विधेयक का प्रारूप तैयार किया। इस विधेयक के मसविदे के मुताबिक महिला के खिलाफ घरेलू हिंसा एक संज्ञेय अपराध होगा। अगर यह विधेयक पारित हो जाता है तो यह अपनी तरह का पहला सिविल कानून होगा। शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक व आर्थिक हिंसा के मामले इस कानून में दर्ज होंगे। विशेषता यह रहेगी कि पीड़ित औरत को साझे घर में रहने का अधिकार हासिल हो जाएगा। जज भी ऐसा फैसला सुना सकता है। ससुराल पक्ष अपनी मर्जी से उसे घर से बाहर निकालने से पहले सौ बार सोचेगा। यह अधिकतर पत्नी के लिए ही नहीं होगा बल्कि बहन, मां, बेटी और बगैर शादी के पति-पत्नी की तरह रहने वालों के लिए भी समान रूप से होगा। राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपने विधेयक में सिर्फ़ वैवाहिक रिश्ते से जुड़ी हिंसा का ही मुद्दा उठाया था जबकि सरकारी विधेयक के मसविदे में इस रिश्ते को विस्तार दिया गया है। लिहाजा हिंसा निषेध कानून सन् 2005 में पास हो गया।

कानून तो बना... कई जगह घरेलू हिंसा के अपराधियों की धरपकड़ भी हुई। तमिलनाडु के मेलापलयन कस्बे में पुलिस ने घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 के तहत जल बोर्ड के कर्मचारी जोसेफ को अपनी पत्नी वेनेडिक्ट मेरी को छाते से पीटकर घायल करने के आरोप में जेल भेज दिया। केंद्रीय मंत्री दासरी नारायण राव भी इस कानून की चपेट में आ गए हैं। उनकी पुत्रवधु डी. सइसीला ने अपने ससुराल वालों के खिलाफ प्रताड़ित करने का आरोप हैदराबाद के पंजागुट्टा थाने में दर्ज कराया। सइसीला ने दर्ज कराया कि उसके ससुराल वाले उसकी शादी का विरोध करते रहे हैं। अब तो पति भी उनके विरोध में सहभागी हो गया है। कुछ दिन पहले ही उन लोगों ने उसे घर से धक्के देकर निकाल दिया। वे अपने पुत्र की किसी और से शादी कराना चाहते हैं।

घरेलू हिंसा निषेध कानून अगस्त 2005 में पास होते ही महिला संगठनों की जान में जान आई लेकिन क्या इतनी व्यापक समस्या का निदान सिर्फ़ कानून बना देने से होगा। अगर संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की रिपोर्ट पर गौर किया जाए तो 41 वर्ष की 70 फीसदी महिलाएँ घरेलू हिंसा कि शिकार हैं। नेशनल क्राइम ब्यूरो के मुताबिक पति और रिश्तेदारों पर हिंसा के मामलों में एक साल में 9.3 फीसदी वृद्धि हुई है। जबकि केवल तीन प्रतिशत मामले पुलिस ने दर्ज किए। मदद मांगने और अदालत में जाने वाली औरत की राह में अनेक समस्याएँ व दबाव हैं। औरत सबसे पहले मायके वालों से मदद मांगती है। उसके बाद वृद्धजन, कल्याणकारी संगठन और पुलिस के पास जाती है। पुलिस उनकी मन: स्थिति को समझने की कोशिश नहीं करती। लायरर्स कोलवेटिव संस्था का भी मानना है कि हिंसा कि शिकार औरतें पुलिस के साथ सहज महसूस नहीं करतीं। टाटा इस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंस ने मुंबई में औरतों के विरुद्ध हिंसा के मामले सुलझाने के लिए गठित विशेष सेल को देखा-परखा और पाया कि असहाय औरत मामला दर्ज कराने के बाद एक और पीड़ादायक इम्तिहान से गुजरती है। पुलिस औरतों को अपनी तरह से पीड़ा पहुँचाती है। वह पीड़ा में क्षणों का रेशा-रेशा ब्यौरा सुनाना बहुत तकलीफदेह लगता है, वह अपने इतिहास की ओर मुड़ने से बचना चाहती है जबकि पुलिस उसे जबरन इतिहास में घसीटना चाहती है। पुलिस प्रताड़ना के मामलों को दहेज से जोड़ती है तथा घरेलू हिंसा के लिए धारा 498क के अंतर्गत मामले दर्ज कराने के प्रति रुचि नहीं दिखाती है। पीड़ित औरत की टक्कर पुलिस और गवाह दोनों से होती है। घरेलू हिंसा कि शिकार महिलाओं में से बहुत कम ही मदद के लिए निकलती हैं और उनमें से भी बहुत कम अदालत तक पहुँचती है। जो ये हिम्मत जुटाती हैं उनमें से भी नाममात्र को इंसाफ मिल पाता है।

घरेलू हिंसा के प्रमाण जगजाहिर करना कोई आसान काम नहीं है। घरेलू हिंसा अक्सर बंद दरवाजों के अंदर होती है। इसलिए मामले अक्सर एक महिला के बयान के विरुद्ध उसके पति या सम्बंधियों के बयान पर आधारित हो सकते हैं। इसके लिए गवाह इकट्ठे करना बहुत मुश्किल है। शारीरिक चोटें, शादी के वक्त दिया गया दहेज, विवाह प्रमाणपत्र इत्यादि के दस्तावेज अपर्याप्त होने के कारण अतिरिक्त कठिनाइयाँ आती हैं। मरणासन्न महिला का बयान ठीक तरीके से दर्ज न करना एक बहुत बड़ी और आम खामी है। ये बयान ही दोषी को दोषी करार देता है। लेकिन अक्सर बयान दर्ज न होने के कारण अपराधी छूट जाते हैं। इसके अलावा अदालत की दृष्टि में हिंसा कभी भी मुख्य मुद्दा नहीं रहा। आजीवन शारीरिक और मनोवैज्ञानिक हिंसा के प्रमाण मौजूद होने के बावजूद अदालतें अक्सर उन्हें सिर्फ़ बहस का एक सहायक मुद्दा ही मानती हैं। दहेज के लिए परेशान करना या बहुविवाह जैसे पहलू मुख्य बिंदु बनकर उभरते हैं। कई मर्तबा महिलाएँ अपने साथ हो रही हिंसा से बचने के लिए तलाक का विकल्प चुन लेती हैं। नतीजतन ऐसे में पति के खिलाफ लगे घरेलू हिंसा के आरोप हटा लिए जाते हैं और अपराधी पति दूसरा विवाह कर एक अन्य औरत को सताने के लिए स्वतंत्र हो जाता है।

संभवत: इन रुकावटों के कारण महिलाएँ अदालत में नहीं जातीं और जो जाती हैं वे लंबी प्रक्रिया से डरकर साथ रहने का समझौता कर लेती हैं। इन सब परिस्थितियों में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा कानून बनने के बाद महिलाओं के हालात कितने बदलेंगे इसका आकलन करना और नीति निर्धारकों व सरकार को ठोस कदम उठाने के लिए दबाव डालना है। लेकिन आने वाले दिनों में यह कानून मील का पत्थर साबित होगा, ऐसी उम्मीद तो की ही जा सकती है।