एक सपना जो पत्थर बन गया / मोनालिसा जेना / दिनेश कुमार माली

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मोनालिसा जेना का जन्म 1964 में मुकुन्द प्रसाद, खोर्द्धा में हुआ। आप एक प्रसिद्ध लेखिका, अनुवादक,पत्रकार और कवियत्री हैं। उन्होने ओड़िया तथा अँग्रेजी में कई पुस्तकें लिखी हैं। ओड़िया में उनके ‘निसर्ग ध्वनि’, ’ए सबू ध्रुवमुहूर्त’, ’नक्षत्रदेवी’ तीन कविता-संग्रह है तथा एक कहानी-संग्रह ‘इंद्रमालतीर शोक’ है। उन्होने असमिया साहित्यिक कृतियों (दोनों कविता और कथा) को ओडिया में अनुवाद किया है। इसके अतिरिक्त कई प्रसिद्ध ओड़िया साहित्यिक कृतियों (गद्य और पद्य दोनों) का अंग्रेजी में अनुवाद किया है । उनकी कविताएं अधिकतर प्यार, लालसा, जुदाई, और मिलन पर केंद्रित है, और उनके माध्यम से बदलती दुनिया में मानवीय-रिश्तों को प्रतिबिंबित करती है। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, राजीव गांधी सद्भावना पुरस्कार, कादम्बिनी पुरस्कार, और साहित्य के लिए केदारनाथ रिसर्च फाउंडेशन पुरस्कार सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली एक वरिष्ठ रिसर्च फैलोशिप होने के कारण उन्होने ओड़िया और असमिया साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन पर भी विशिष्ट काम किया हैं।


मैं इतनी बुरी तरह से टूट गई थी कि मेरे सारे शब्द जड़ हो गए थे। मैं अपने भीतर सारी संगीतमय तंत्रिकाओं को अदृश्य होते अनुभव कर रही थी। जब शब्द मौन हो जाते हैं तो उनकी जगह रंग लेने लगते हैं। विभिन्न रंगों को भाषा देकर वे उनमें समाहित हो जाते हैं। फिर भी चित्रकला में कुछ मौलिक कुशलता का सीखना जरुरी होता है, आखिरकर आत्मा के पश्चाताप को मिटाने के लिए। एक आदमी के स्पष्ट प्रेमालाप और समर्पण के बाद अचानक उसके पलट जाने का रहस्य जानने तथा उससे उत्पन्न अवसाद से उबरने के लिए। प्रेम मेरे जीवन में कितनी अहमियत रखता था, उसे जानने से पहले ही उसने मेरा परित्याग कर दिया। जब वही भाषा, वही भरोसा एक दूसरी युवती को देने के जब मुझे ठोस प्रमाण मिले तब वास्तव में मेरा क्षोभ लहरों से किनारों के कटने जैसा लगने लगा। शब्द जब केवल काटने लगते हैं तो मुझे बहुत कठिन लगने लगते हैं।

उस समय किसी ने मुझे एक प्रसिद्ध चित्रकार से मिलने का प्रस्ताव दिया था, जो प्रेम और विच्छेद के चित्रों को आंकने में बहुत निपुण थे। मगर मुझे उनसे मिलने में बहुत संकोच हो रहा था, क्योंकि उस समय वे किसी से मिलना-जुलना पसंद नहीं करते थे। मेरी अत्यंत परिमार्जित भाषा में लिखे पत्र का जवाब नहीं देना तथा उसे इस तरह के सवाल करना अभद्रता है, ऐसी उन्होने दो टूक बात कहीं। मै उनसे चित्रकला सीखना चाहती थी, मगर धीरे-धीरे वह विषय गौण होता गया।

एक अदृश्य वलय में उनके साथ मेरा मानसिक सम्बन्ध गहराने लगा था। बिना देखे भी मैं उन्हें पूरी तरह देख पा रही थी। मैंने उनसे कहा था, उनके बाल निश्चय ही कम समय पक गए थे। वास्तव में जैसे मैं उन छः महीनों के दिन-रात के विषयों से अवगत थी। इस तरह की अनेक आधिभौतिक घटनाएं हमारे जीवन में घटने लगी थी। मैं उनके बारे में, उनके परिवार तथा भाई-बहनों के सारे विवरण के बारे में सटीक ढंग से आंकलन कर पा रही थी। इस वजह से मेरा उनके साथ एक आलौकिक सम्बन्ध स्थापित हो गया था। मगर इस अंतरंगता को प्रेम कहा जाता है? जिस दिन मैंने उनसे यह बात पूछ ली, बस उस दिन से उन्होने मेरे साथ सारे सम्बन्ध विच्छेद कर दिए, फिर से एक बार प्रेम में मेरी विफलता ......!

मैं ऐसे लोगों पर क्यों विश्वास करती हूँ? क्यों प्रेम करती हूँ? मैं खोज क्या रही हूँ? वे लोग मेरे से अचानक इतने दूर क्यों चले जाते हैं? मै दर्पण के सामने खड़ी हो गई, जिसकी कभी मैं आदी नहीं थी। मैं सही में बहुत निरीह दिख रही थी। मेरे होने वाले प्रेमी ने भी मुझसे कहा था, " तुम मेरी नन्ही प्रेमिका ....."

और उन्होने मेरा हाथ पहली और आखिरी बार छुआ। मुझे पता नहीं था कि एक औरत, आदमी के प्रेम सम्बन्ध जान सकती हैं। मगर यह विफलता मेरे लिए असहनीय थी। मैं तो तस्वीरें बनाना सीखकर अपने हृदय की ज्वाला बुझाना चाहती थी। एक प्रसिद्ध चित्रकार ने क्यों, व्यर्थ में, मुझे इस दिशा में लाया? प्रेम का मधुर प्रकाश दिखाकर मुझे अस्वीकार कर दिया?

उनके बार-बार मना करने के बाद भी मैं उनसे मिलने गई। बिखरे घुंघराले बालों के अंदर एक सुन्दर पुरुष का भग्नावशेष-बहुत ही विवश, मगर उनकी दोनों आँखों में एक अजब चमक ! भले ही, भयंकर दुखों के कारण उसका अदम्य पौरुष मलिन हो गया था, मगर अभी भी होंठों पर गुलाबी हँसी और असमय बना परिपक्व व्यक्तित्तव। किसी आदमी की अपेक्षाकृत लम्बी अँगुलियों ने पहले मुझे आकर्षित किया था। यह देखकर मैंने सोचा था, हो ना हो, वे असाधारण बुद्धि के अधिकारी है, कलाप्रिय, महीन रेशमी ढीला कुर्ता और धोती पहने हुए वे मुझे देवपुरुष के तुल्य दिख रहे थे। उनके कृशकाय शरीर में अभी भी प्रेमी-पुरुष की स्वतंत्र आभा विभूषित हो रही थी। मुझे उस समय ऐसा लगा जैसे वे मेरे बहुत पुराने जान-पहचान वाले हो और अपने कक्ष से भटके दो नक्षत्रों की तरह हमारी आत्माएं एक दूसरे के अनुसंधान में लिप्त रहने लगी हो। प्रेम मेरे लिए एक उच्चतर स्तर में प्रवेश करने का साधन था। मैंने उन्हें गहरे हृदय से प्यार किया था। अवसर देखकर मैंने उनसे एक सीधा सवाल किया, " मेरे प्यार का इजहार करने से पहले आपने मेरे साथ अपने सम्बन्ध विच्छेद क्यों कर दिए? आप समझ सकते हैं कि इस बारे में आपकी सफाई देना मेरा अधिकार बनता है।"

ऐसा कहते समय मुझे आश्चर्य हुआ कि एक धूसर मध्यान्ह में पहली बार मिलने आए एक सज्जन को इस तरह के वाक्य कहना कहाँ तक उचित था। उस दिन रिमझिम बारिश और प्रेमासक्त नारंगी रंग की धूप के बीच खेल चल रहा था। ऐसे मौसम में प्रेम हरा होता है, सजीव होता है। मगर मैं उनकी निस्तरंग, अमिट शून्यता के बीच में चक्रवात की तरह आ गई और वे मुझे निर्वाक, निश्चल भाव से देखते रहे।

मैं उनकी अंगुलियाँ पकड़ने की चाहत को रोक नहीं पाई और उनके हाथों में फूट-फूट कर रोने लगी। मगर मेरे गर्म आँसुओं से उनके हथेलियों की बर्फ जैसी शीतलता मिट नहीं पाई। धीरे - धीरे वे मेरे शैंपू किए सुगन्धित खुले बालों में आधे प्रेमी, आधे गुरु की तरह सयत्न अंगुलियाँ फेरने लगे। ऐसा लग रहा था मानो शरीर की शुद्धता देखकर मन की शुद्धता का आंकलन कर रहे हो। कुछ समय बाद वे कहने लगे, " तुम बहुत अच्छी हो, इसलिए जानबूझकर मैं तुमसे रुक्ष रहा। मैं तुम्हें किसी भी हालात में हानि नहीं पहुंचा सकता। तुम खुद नहीं समझ पाओगी कि मै तुम्हे कितना प्यार करता हूँ। यहाँ तक कि तुम जिसे खोया हुआ समझती हो, वह भी तुम्हें गंभीरता पूर्वक प्यार करता है। "

मैं रुआंसी होकर कहने लगी, " झूठ मत बोलो।जरूर मेरे अंदर कोई कमी होगी अन्यथा मेरे भाग्य में ऐसी घटनाएं क्यों घटती? "

वे कहने लगे, "तुम्हें नहीं पता है कि तुम कितनी भाग्यवान हो। अच्छे से अच्छा आदमी अँधेरे में रहकर भी तुम्हे पाने की चाह रखता है। तुम नहीं समझ पाओगी। मेरी बात छोड़ दो। तुम जो देख रही हो वह केवल एक कब्र का स्मृति-पटल है,मेरे सपने, मेरी आत्मा, मेरी सृजनशीलता और मेरे भविष्य का ! मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दे पाऊंगा। शायद कुछ दे पाता अगर तुम्हारे जैसी कोई मुझे बीस वर्ष पहले मिली होती। "

इस बार मैंने अपना चेहरा उपर उठाकर उसकी तरफ देखा, " ऐसा क्या हुआ था बीस साल पहले? "

उनकी आँखों में आंसू नहीं थे बल्कि ज्वालामुखी के लावे के आंशिक निशान थे। "

वे कहने लगे, " यह सब जानकार क्या करोगी? "

उस समय मैंने देखा उनके हल्के-हल्के उजाले वाली कोठरी के एक कोने में रखी हुई थी एक विचित्र तस्वीर---गाढ़े-नीले और सरसों के फूलों जैसे रंग वाली। वह तस्वीर चित्रकार के पंजीभूत शोकाकुल मानसिक हताशा भरे एक नामपट्ट की तरह दिख रही थी। ऐसा लग रहा था मानो वह उसका आखिरी कैनवास हो। एक समय वे अपने समकालीन कलाकारों से बहुत आगे हुआ करते थे। कुछ वर्ष उन्होने पेरिस में बिताए थे और उस अनजानी जगह पर अपनी मनोरम शैली की अमिट छाप छोड़ी थी। सुनहरे तथा हरे रंग के विस्तीर्ण तरंगों जैसे घास के मैदान, पंक्तिबद्ध लदालद फूलों से भरे प्रशस्त छायाच्छादित पथ, लोहे की बाड़ वाले फ्रेंच निपुणता से बने सुलभ चित्र उन्हें लुभावने लग रहे थे। उन सारी यादों को छोड़कर वे भारत लौट आए। देश की मिट्टी की महक उन्हें ज्यादा अच्छी लग रही थी।

" जब ठिठुरन भरे दिसंबर के अपराहन में मिट्टी के सूक्ष्म कण फर्श और हमारे ऊपर धीरे - धीरे जमना शुरू होते हैं, तब निद्रालू चिड़ियाँ अपने नीड की ओर जाने के लिए छटपटाने लगती हैं। बैंगनी मौसम ... "

इतना कहकर अचानक वे चुप हो गए क्योंकि वे मुझे अपनी गोपनीय बातों को नहीं कहना चाहते थे। एक ऐसा भावुक वक्तव्य जिसकी वास्तविकता पर किसी भी तरह का कोई झूठ का आवरण नहीं था। एकदम स्पर्शकातर जिसमे कभी सब कुछ उलटने-पुलटने का सामर्थ्य हुआ करता था।

मैंने उस हृदय विदारक तस्वीर की तरफ इशारा करते हुए आरोप लगाने के लहजे में कहा,

" आपने ऐसी तस्वीर क्यों बनाई? "

वे हँसकर कहने लगे, " यह मेरी अंतिम तस्वीर है, द लास्ट सपर, की तरह "

मैंने विद्रूपता से कहा, " नारी के साथ अक्सर पुरुष ऐसी आत्मकरुणा से धोखाधडी क्यों करता है? सारे चित्रकार मंजीत बाबा की तरह क्यों नहीं होते? "

उन्होने मुझसे पूछा, " तुम क्या उनको जानती हो? "

मैंने उत्तर दिया, " हाँ, अच्छी तरह से। मैंने उनके गुलाबी पंखुड़ियों जैसे कोमल हाथों से आशीर्वाद भी पाया है। उनके चित्रों और आपके चित्रों में एक चीज अवश्य सार्वजनिक है- वह है आत्मा की उच्चता। और यही वजह है जिसके लिए मैं आपसे मिलना चाहती थी।मगर यहाँ आप " गुएरनिका " बनाने में व्यस्त हो ............."

एक बंद दरवाजा खोलने की तरह उन्होने वह तस्वीर वहाँ से हटा दी। एक भग्नावशेष परदे के नीचे छुपाकर रखी थी उन्होने अपनी सबसे सारी मूल्यवान चीज। एक अत्यंत ही सुन्दर महिला का चित्र। उस महिला की आँखों में ऐसा सम्मोहन था कि मैं बरबस जाकर उसे छूने लगी। उसके बिखरे बाल, आँख, नाक, होंठ और पता नहीं, क्यों छूते ही मुझे सिरहन लगने लगी।

मैंने उनसे पूछा, " इतनी सुन्दर तस्वीर को आप इस तरह छुपकर क्यों रखे हो? "

" जिसकी यादें अगर आपको पूरी तरह भस्मीभूत कर दे, उन्हें छुपाकर रखने के अलावा आपके पास कोई चारा नहीं होता है। वास्तव में आज मैं पूरी तरह अकेला और पूरी तरह पराजित हूँ। फिर भी कह रहा हूँ उस नारी की किसी से तुलना नहीं की जा सकती है। "

प्रत्येक नारी में एक सहनशक्ति होती है लाखों दुर्भाग्यों को झेलने की। मगर आश्चर्यजनक तरीके से वह किसी प्रलोभन की सामग्री भी हो सकती है, पता ना था। मदर टेरेसा ने केवल तीन साड़ियों में अपनी सारी जिन्दगी बिता दी और मै निर्वस्त्र हो गया एक नारी के प्रेम में ................"

" वह औरत क्या आपकी प्रेमिका थी? "

" हाँ, तस्वीरें बनाने की वह मेरी महेंद्रबेला थी।ईश्वर की दया से जमींदारी परिवार का होने से मेरे पास धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी। हमारे कुलीन परिवार में मुझ पर सवार चित्रकारी के नशे से कोई असंतुष्ट नहीं था। "

वे भले ही मलीन दिख रहे थे, फिर भी मैं उनके वाक्-शैली के ओज से प्रभावित थी।

" जानती हो वह उज्जवल सांवले रंग की थी, जिसे देखकर कोई भी पुरुष आराम से प्रभावित हो सकता था।बहुत ही खूबसूरत, बेपरवाह और असामान्य कामोत्तेजक इशारों वाली थी वह ! मेरी मीठा-पान खाने की आदत उसकी वजह से ही है। पहली बार वह मुझे अपने पति के साथ मिली थी। पति एक करोडपति इंजीनीयर था, वह अपनी सुन्दर स्त्री की तस्वीर बनाना चाहता था। पहले-पहले उसने मेरी तस्वीरों की भूरि-भूरि प्रशंसा की।घंटों-घंटों बैठकर वह सिटिंग देती थी। जाने-अनजाने धीरे-धीरे हमने अकेले में मिलना शुरू कर दिया। ऐसा लगता है, मानो सारी प्रेम कहानियाँ एक जैसी ही होती हैं, तुम्हारे होश में आने से पहले ही वे तुम्हें अपनी साँसों में निस्व कर देगी। एक दिन स्टूडियो में कोई नहीं था उसे और मुझे छोड़कर। उसने अचानक खूब जोर से मुझे अपनी बाहों में भींच लिया और मेरे चेहरे पर तड़ातड चुम्बनों की झड़ी लगा दी।मैं एक बार तो किंकर्तव्य-विमूढ़ हो गया और एक बार उल्लासित भी। क्योंकि मेरी पत्नी ने बहुत दिनों से प्रेयसी बनकर मुझे कभी भी आलिंगन नहीं किया था। मुझे इस नारी के अबाध संभोग की चाह मदमस्त कर रही थी। मै समुन्द्र के ज्वार के उफान में तैरते हुए जा रहा था एक दूर दिग्विलय की ओर। अनेक दिन तक हम शारीरिक सुख का उपभोग करते हुए आनंद से रहे, जैसे उसके लिए इससे बढकर कोई चीज नहीं थी। उस समय मुझे भी लगा कि यही दुनिया की सबसे बड़ी उपलब्धि है। मेरे सहज संकोच को कितने आराम से उसने दूर कर दिया था। आनंद क्या चीज होती है उसने मुझे समझाया था। जाने-अनजाने में उसने मेरे जैसे उद्दाम आदमी को अपने वश में कर लिया था। शुरू-शुरू में शारीरिक आकर्षण मोहित करके रखता है, मगर वास्तव में उससे प्रेम का निजस्व और निरीह्पन मर जाता है। कामुकता को रसिकता का रूप देकर क्या वह जीत सकी। धीरे-धीरे उसने मुझे अपनी सारी निजी बातें बताना शुरू किया। एक कदाचारी आदमी से विवाह किए बिना, सम्मति से सहवास की यंत्रणा। उसका आदमी उसे बुरी तरह पीटता था, पीट-पीटकर शरीर पर लाल चकते बना देता था। वह मेरे सामने रोती थी, मैं सहन नहीं कर पाता था। मै कहता था, " तुम उसे तलाक क्यों नहीं दे देती हो? "

पति का अपनी पत्नी को मवेशियों की तरह पीटने का प्रचलन हमारे आभिजात्य परिवार में नहीं था। मै किसी भी स्त्री का दुःख बर्दाश्त नहीं कर पाता था। हर समय वह कहती थी, " पति को तलाक देने से दुनिया मुझे नहीं छोड़ेगी। वह मेरा ढाल है। जब तक पति का परिचय है। मैं सुरक्षित हूँ। हर रात यही आशा करती हूँ कि वह रात और नहीं लौटे .....। मैंने उसे क्या नहीं दिया, सुन्दर स्त्री-सुख और दो सुन्दर बच्चें। "

एक धनवान पति की सुन्दर पीडिता पत्नी के प्रेम में मैं अँधा हो गया था।

मेरे स्टूडियो में उन दिनों समाज के विभिन्न-वर्गों के लोगों का आना-जाना लगातार बना रहता था। अनेक प्रभावशाली और पैसे वाले लोग मेरी तस्वीरों का सम्मान करते थे, उनके खरीददार भी थे। मेरी प्रेमिका का उन लोगों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बन जाएंगे और तरह - तरह की सुविधाओं का वह उपभोग करेगी, मुझे कैसे पता चलता? मै एक मूर्ख गधे की तरह एक से अधिक सम्बन्ध रखने वाली सुन्दर औरत के अतीत के कलंकित कपड़े ढोते हुए चल रहा था। यह केवल उम्र का तकाजा था, जिसने यौवन के परिपक्व पारंगता को फीका कर दिया। धीरे-धीरे उसने मुझसे रुपए-पैसे मांगने शुरू किए। उसका पति कभी भी उसे मन मुताबिक़ सामान खरीदने के लिए पैसे नहीं देता था चाहे कपड़े हो या गहने। उससे भी ज्यादा उसका कठोर अनुशासन प्रिय होना। मैंने ख़ुशी-पूर्वक उसके हाथों में अपनी सारी तस्वीरों से अर्जित पूँजी पकड़ा दी। धीरे-धीरे मांगने की इस सीमा को भी उसने लांघ दिया। मैं बाध्य हो गया, कर्जा लेकर उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए। मगर उससे किसी भी तरह के सवाल पूछने की मुझमें हिम्मत नहीं थी। इधर मेरा कर्जा बढ़ रहा था तो उधर उसका लोभ। मैं धीरे-धीरे निस्व होने लगा और मुझे यह सम्बन्ध केवल हाड-मांस का मिलन नजर आने लगा। मेरे लिए और तस्वीरें बनाना लगभग असंभव हो गया। एक दिन आख़िरकार मैंने दुखी मन से उससे पूछा, " इतने पैसे तुम्हें क्यों चाहिए? "

वह मुझे कहने लगी, " एक काम कीजिए, आप मुझे अपनी तस्वीरें दे दीजिए। हमारी सोसायटी में कला का खूब आदर होता है। मेरा भी एक नाम है उनकी वजह से। बहुत पैसा आएगा। आपको किसी भी तरह का कोई अभाव नहीं रहेगा। मैं आपकी सारी तस्वीरों की दुनिया भर में प्रदर्शनी लगा दूंगी "

तब तक मै अँधा था। सही में, मेरी तस्वीरों पर अपने हस्ताक्षर कर उसने उन्हें अपने कब्जे में कर लिया। उस तरफ मेरी किसी भी तरह की कोई सजगता नहीं थी।

उस दिन से अचानक मेरा उसके प्रति सारा आकर्षण ख़त्म होता चला गया। मेरा कर्ज लक्ष्मण रेखा पार कर चुका था। उस दिन के बाद मैं उसकी वासना का गुलाम नहीं बना, और उसके बाद कभी नहीं। मैंने उससे कहा,

"कहो, तुम्हें कितने रुपए चाहिए? तुम्हें तो केवल पैसे चाहिए, प्रेम नहीं। "

वह खूब रोने लगी, मगर मै निर्विकार था।

इसी विवर्तन के दौरान एक पुराने मित्र से मेरी मुलाक़ात हो गई, जिसने अपने सुखी परिवार को इस औरत के प्रलोभन में बर्बाद कर दिया था। उसने मुझे सचेत किया कि मेरी प्रेमिका ने एक एन. जी. ओ. खोला है और उसके माध्यम से बड़े-बड़े अधिकारियों के साथ उसने अपने घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए हैं। वास्तव में, वह मेरी चित्रकारिता की पूरी तरह से नक़ल करने के हिसाब से एक चित्र-प्रदर्शनी से वह सीधे मेरे पास आई। एक सुन्दर नारी और उसकी अपरूप तस्वीर- कितना खतरनाक संयोजन ! मेरे दोस्त को इसी तरह ब्लैकमेल करने की यह बात उसकी पत्नी के कानों में पड़ी। एक आधुनिक शिक्षित स्त्री होने के कारण बिना कुछ बर्दाश्त किए वह उसे छोड़कर अपने पिता के घर चली गई। उसके बाद वह फिर कभी उसके पास नहीं लौटी क्योंकि पता चलने के बाद मैं उसके लिए अप्रयोजनीय था। मुझे बिना मतलब के कर्ज में डूबने की यंत्रणा से ज्यादा कष्ट था कला के प्रति बढता मेरा अविश्वास। मुझे स्वयं भी आश्चर्य होने लगा, इतने आराम से मुझे उसके प्रति नफरत क्यों हो गई?

मेरे लिए पैसे क्या ज्यादा मायने रखते थे? कर्ज का बोझ क्या इतना भारी लगने लगा था? झूठ नहीं कह रहा हूँ। उनके स्वर में थी एक नाटकीय तीव्रता और तीव्र व्यंग्य। उस औरत की हंसती हुई तस्वीर अब अखबारों, पत्रिकाओं तथा टी. वी. के पर्दों पर छा गई थी। उसने जिस दिन मेरे लिए प्रेरणा-स्त्रोत बनकर आमोदित किया था, उस दिन मेरे मन में मेरी तस्वीरों की पेरिस, लास-एंजेलिस में प्रदर्शनी को लेकर आशा जगी थी। उन सारी तस्वीरों पर अब उसके हस्ताक्षर हैं। वे तस्वीरें अब उसकी हैं, ठीक उसी तरह, बचपन के दोस्त की तीन पीढ़ी पुरानी कोठरी भी उसके नाम। मैं मानों किसी सभ्यता की दीमक-बाबी बनकर रह गया हूँ। कितनी सदियों का अभिशाप !

फिर भी कभी-कभी लगता है वह मुझे प्यार करती थी। सच में, प्यार करती थी। किसी से भी नहीं डरती थी। मैं अभी तक ऊहापोस में फंसा हुआ हूँ कि वह मुझे प्यार करती थी या नहीं। इतना सहज भी नहीं था, जो उसने किया। बदनामी से वह कभी नहीं डरी। वह मेरे लिए अभी भी एक अजूबा रहस्य है। आज भी प्रेम के इस नीले-पीले रंग में विश्वास की एक किरण मेरे प्रताड़ित प्रेम को दूर नहीं कर पाई। हाँ या नहीं के भीतर वह एक चंद्रबिंदु बनकर रह गई। प्रेम के लिए अगर मै अंधी तितली होकर मर जाऊं, तब भी वह मंजूर है।

उसकी बाकी बातें एक दीर्घ-श्वास की तरह थी, जो सांझ-बत्ती की तरह जल रही थी उसके प्रेम-प्रकोष्ठ में। किसी ने आकर उजाला कर दिया। मेरे जीवन के विनिमय में वह क्षमता नहीं थी जो लौटा देती उस कलाकार का सुख और उसकी तन्मयता। एक कलाकार की असली मौत, उसके उस दुखद तस्वीर में मरी तितली की तरह। अभी तक कोई जान नहीं पाया उसका रहस्य...