एक सुबह का खाका / तरुण कांति मिश्रा / दिनेश कुमार माली

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मेरे पिताजी ने मेरी तरफ घूमते हुए मुझसे पूछा,” जल्दी बताओ, सत्तरह अट्ठा .... ...?"

एक आँख बंद कर दूसरी आँख से आसमान की ओर देखते हुए जैसे मैं उनके साथ नीचे उतर रहा हूँ। पके सितारा फल का तेज स्वाद अभी मेरी जीभ भी पर मौजूद था।

मैंने थूक गटकते हुए कहा,” सात अट्ठा छप्पन ....."

"नहीं, नहीं सात अट्ठा नहीं। मैंने पूछा है सत्तरह अट्ठा। बताओ, जल्दी से “

"सत्तरह अट्ठा ? ठीक है, बताता हूँ।”

और मैंने मन ही मन में अंकों को गुणा करना शुरू किया। पिताजी सोचने लगे कि मैं उन्हें धोखा देने की कोशिश कर रहा हूँ। अपना हाथ हवा हिलाते हुए उन्होंने मुझे तुरंत जवाब देने के लिए कहा।

“सत्तरह अट्ठा एक सौ छत्तीस“

"ठीक है।“ मेरे पिताजी ने कहा। हालांकि वह मेरे जवाब से इतने खुश नहीं थे। इसलिए कि मैंने जल्दी से जवाब नहीं दिया था और मुझे गुणा करने में अधिक समय लगा। उन्हें संतुष्टि केवल इस बात की थी कि मैं गुणा कर सकता हूँ ! मुझमें प्रतिभा है , लेकिन मुझे ज्यादा मेहनत और कठिन श्रम करने की जरूरत है।

मेरे पिता ने यह बात मुझे कई बार कही थी। उन्होंने मुझे कई ऐसी कहानियाँ और दृष्टांत सुनाए थे , जो दृढ़ संकल्प व कड़ी मेहनत पर जोर देते थे। मैं जानता था कि वह चाहते थे कि मैं उन कहानियों का एक पात्र बनूँ।

अचानक वह रुककर मेरे करीब आए.” क्या कोई आवाज सुनाई दे रही है ?" वह बुदबुदाने लगे। एकाग्रचित्त होकर कान लगाकर वह फिर से पूछने लगे” इसे सुन सकते हो ?"

उन्होंने उसी बात को एक बार और दोहराया।

तब तक, बहुत सारी आवाजें मुझे सुनाई देने लगी थी। केवड़े की झाड़ियों के पीछे से बह रही मंदाकिनी नदी का कलरव ,हगुरा पाटा पर एक आवारा कुत्ते का भौंकना और हमारे गाँव के आधुनिक तेंडुलकर क्लब द्वारा नए खरीदे लाउडस्पीकरों से संगीत की रुंधी-रुंधी ध्वनि।

मैंने कहा,” नहीं।”

वह थोड़ी देर तक चुप रहे। फिर जैसे वे आसमान से अदृश्य वर्षा की एक बूंद को पकड़ते हुए कहने लगे “ अब, सुनो। “

जैसे उन्होंने कोई नई ध्वनि खोज ली हो , मुझे प्रसन्नता से पूछने लगे ,

“यह कजलपाती पक्षी की आवाज है।“

"दो पक्षियों की आवाज है ,एक की नहीं। “

अब मैं वह ध्वनि सुन सकता था।

मेरे पिताजी को ये सब कैसे सुनाई दे सकता हैं ? मैं सोच रहा था कि वह सभी चीजों को इतनी आसानी से कैसे देख सकते हैं।

"यहाँ देखो, दीपू, यह महावीर्य पेड़ है। जब पेड़ पूरी तरह से बड़ा हो जाता है, उसके ऊपर बहुत सुंदर फूल लगते है। इन फूलों से एक प्रकार की कपास पैदा होती है। “

गर्मियों की शाम को आंगन में बैठकर वह आकाश की ओर अपनी उंगली से इशारा करते हुए कहते,” यह वशिष्ठ सितारा है. क्या तुम जानते हो, वशिष्ठ कौन था?”

मेरे पिताजी की आँखों में एक अजब-सी चमक थी। जब उन्होंने सात तारों की इशारा किया , जिससे सप्तऋषि बनता है। उन्होंने मुझे उन सात ऋषियों के नाम बताए, एक के बाद एक। और उनकी एक एककर कहानियाँ सुनाई। मदहोश चांदनी में आंगन बहुत अलग लग रहा था। चमेली की मीठी खुशबू हवा में फैल रही थी।

मुझे लगा जैसे कि वह हमारी दुनिया हो। जिसमें हम दोनों ही थे – मैं और मेरे पिताजी। मैं स्तब्ध होकर स्थिर बैठ गया अनंत की खोज में।

उसके बाद मेरे पिताजी मुझे कुछ कहना चाहते थे। लेकिन, इससे पहले कि वह एक शब्द भी बोलते ,, मेरी माँ रसोई से बाहर निकली , पसीने से तर-बतर , अपनी साड़ी के पल्लू से अपने माथे को पोंछते हुए वह मेरे पिताजी पर चिल्लाने लगी” अब यह बकवास बंद करो। आओ, खाना तैयार है। आज डालमा काफी नहीं है, इसलिए अचार से काम चलाना पड़ेगा। “

मेरे पिताजी ने अपनी जांघ पर जवाब के रूप में थप्पड़ मारते हुए खुशी का इजहार किया मानो उन्हें किसी भव्य मेनू का प्रस्ताव मिला हो। वह मुझसे कहने लगे” अरे! यह वास्तव में बहुत अच्छी बात है। रोटी, डालमा और अचार तीन बड़ी चीजें हमारे खाने में हैं।”

मैं अपनी माँ के चेहरे के भाव अंधेरे में नहीं देख पाया। उसकी कठोर आवाज बाहर से सुनाई देने लगी ,” क्यों तीन? नमक, मिर्च और पीने के पानी को भी जोड़ो, तब यह छह होंगे ! क्या ऐसे ऐसी बेशर्म लोग पेड़ों पर पैदा होते हैं?”

पिताजी अपना खाना खाने के लिए नीचे बैठ गए। उनकी थाली में पाँच रोटी और आधी कटोरी डालमा और मेरी थाली में दो रोटी और उतनी ही डालमा। मैं सावधानी से डालमा खा रहा था , ताकि दूसरी रोटी के लिए कुछ बच सके। अगर मेरी डालमा खत्म हो जाती तो पिताजी अपनी कटोरी से कुछ, डालकर कहते ,” तुम्हारी दाल खत्म हो गई है ! तुम सूखी रोटी कैसे खा रहे हो ?”

इस तरह उनकी प्लेट में चार रोटियाँ ऐसे ही रह जाती।

मैं धीरे-धीरे अपनी रोटियाँ खाता और बीच-बीच में पानी पीता। मुझे सच में पानी के साथ सादी रोटी खाने में स्वाद आता। कई लोगों को पता नहीं है कि पानी के साथ रोटी स्वादिष्ट लगती है। और यह अधिक स्वादिष्ट होती है अगर वह रोटी पिछली रात की बासी हो।

जब मेरा खाना पूरा हो जाता, मेरी थाली में एक बड़ा अमरूद रखा जाता, मानो आसमान से गिरा हो ! “ खाओ" मेरे पिताजी मुझे बड़े प्यार से कहते।

"तुम्हें पता है अमरूद स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा है? यह विटामिन से भरपूर है, यहां तक कि सेब और नाशपाती इसकी तुलना में कुछ भी नहीं हैं!”

मुझे इस बात से क्या लेना-देना कि अमरूद में विटामिन ज्यादा होते हैं। मुझे इस फल की खुशबू और स्वाद ज्यादा पसंद हैं।

उसके बाद माँ झूठे प्लेट और कटोरियाँ उठाकर ले जाती। वह एक कोने में बर्तन धोती। फिर वह पिता पर तिरस्कार भरी नज़र डालती और ऊंची आवाज में, कहने लगती ,” क्या फिर से आपने नाटक करना शुरू कर दिया ? कितने पागल आदमी हो , वास्तव में !”

सच मानो तो मुझे उनका यह प्रहसन पसंद आता। हालांकि, उन्होंने कभी भी मुझे अपने पास आने की अनुमति नहीं दी। मुझे उन्हें दूर से देखना पड़ता। उनकी उजूल-फिजूल हरकतें मुझे मोहित करती।

टूटी हुई अजीबोगरीब वस्तुओं का उनके पास भंडार था – बिना काम की एक टेबल घड़ी, एक टूटी हुई टॉर्च लाइट , एक टूटा हुआ पंखा , सभी बड़े करीने से सजाकर रखे हुए थे।

उनमें से कुछ सामानों को वह ध्यान से उठाते और टूटे हुए टुकड़ों से एक नई वस्तु बनाने का प्रयास करते। एक बार, उन्होंने एक ट्रांजिस्टर रेडियो सेट के कुछ हिस्सों को हटाकर उन्हें एक टेबल घड़ी में लगा दिया। वह घड़ी सुंदर संगीत ध्वनि पैदा करने लगी। तीन दिन बाद उस घड़ी ने काम करना बंद कर दिया।

वह टूटे टेबल लैंप, कलाई-घड़ी ,साइकिल और यहाँ तक कि अपनी प्रयोगशाला के क्षतिग्रस्त फाउंटेन पेन के टुकड़ों को इकट्ठा करते। इससे लोग बहुत खुश होते , क्योंकि इस प्रक्रिया में उनके घर के कबाड़ की सफाई हो जाती थी।

उस समय हर कोई उनके पास विनीत भाव से अनुरोध करता ," वृन्दावन, इस टार्च लाइट को देखो। मैंने इसे फकीरपुर हाट से खरीदा हैं रज-संक्रांति के दूसरे दिन। चौबीस रुपए की हैं ! लेकिन दुख की बात है एक महीने भी नहीं चली। तुम इसका कुछ कर सकते हो ?”

मेरे पिताजी उस बेकार टार्च को लेकर मरम्मत करना शुरू कर देते। पहले ब्लेड से , फिर स्क्रू ड्राइवर से और आखिर में अपने दांतों से। उसके आधे घंटे बाद, वह गोपी चाचा को देते हुए कहने लगते,” लो, आपकी अमानत।”

गोपी चाचा रोमांचित होकर तालियाँ बजाते हुए कहने लगते ,” वाह! वास्तव में हमारा वृंदावन एक वैज्ञानिक है! बहुत प्रतिभाशाली!”

जब लोग अपने सामान और कहीं मरम्मत नहीं करा पाते ,तो वे मेरे पिताजी के पास पहुँचते थे। वास्तव में, हमारी गली का हर कोई आदमी हमारे घर अपना सामान ठीक करवाने कभी न कभी आया है। अंधेरे आंगन में इस बार मैंने पिताजी को देखा कि उन्होंने एक गद्दे पर टूटे हुए ट्रांजिस्टर के कुछ हिस्से फैला दिए थे। बहुत सारा सामान बिखरा पड़ा था। एक सेफ़्टी पिन से लगाकर हथौड़ी तक , टार्च बैटरी, बल्ब, कैंची, माचिस की तीलियाँ, सिलाई मशीन का तेल, और यहां तक कि मेरी माँ के हेयर पिन भी !

वह अपने काम में पूरी तरह तल्लीन थे। मैं उनकी तरफ देख रहा था। बार-बार वह रुकते और आकाश की तरफ एकाग्र होकर देखते या फिर अपने बालों को झुँझलाते या यहां फिर गोविंद चाचा के घर के पिछवाड़े में सिमूल पेड़ को निहारने लगते। वे अंधेरे में सिमूल के पेड़ की ओर इस तरह से देखते जैसे उन्हें कोई नया आइडिया सूझा हो। बेडरूम में जाकर कुछ टूटी मशीनें , कुछ तार और चार बैटरी वे लेकर आए। उन्होंने दस या पन्द्रह मिनट तक चुपचाप काम किया। एक उल्लू सिमूल पेड़ की शाखाओं से घुघुयाने लगा। इधर नीम के फूलों की गंध हवा में चारों ओर फैल गई।

अचानक कुछ फटने की आवाज आई।

माँ रसोई से चिल्लाते हुए दौड़ पड़ी,” क्या हुआ? क्या हुआ?”

मेरे पिताजी अपने चारों तरफ फैले धुएं में खाँसने लगे। कुछ जलने की बू आ रही थी। उन्होंने अपनी जली हुई उंगलियां ऊपर की ओर उठाई,” मुझसे उलझे तारों को जोड़ने में कुछ गलती हो गई। “

मैंने उन्हें अपने आप से बुदबुदाते देखा। माँ ने उनकी जली उँगलियाँ और आंगन में बिखरे स्क्रैप को देखा। जलने की गंध उनके नथुनों में जा रही थी। दीवार पर अपना सिर पीटते हुए वह चिल्लाने लगी,” हे भगवान, मुझे इस आदमी के पागलपन सहन करने से तो अच्छा होता जिंदा उठा लेता।”

वह कई घंटे चुपचाप अपने बिस्तर पर रोती रही।

दबे कदमों से पिताजी ने बेडरूम में प्रवेश किया। वह अभी भी अपनी उंगली एक हुक की तरह मोड़कर पकड़े हुए थे। वह कुछ समय तक उसके बिस्तर के पास खड़े रहे। एकदम चुपचाप। फिर वह उसके करीब आए। और उसके माथे पर अपना दूसरा हाथ रखा।

"वे पागल है, पूरी तरह से पागल। “ मैंने अपनी माँ को पिताजी को इस तरह गालियां देते हुए कई बार सुना था , खासकर जब वह अपने माता-पिता को इस बारे में शिकायत करती।

"बेशक, वह पागल हो गया है पूरी तरह से", मेरी नानी कहने लगती ,” एक आदमी जो बारह एकड़ जमीन का मालिक हो और उसे दो समय का भोजन नसीब नहीं हो ?"

लेकिन मेरे नाना ने कभी भी एक शब्द नहीं कहा। वे अपनी जेब से एक पचास रुपये या एक सौ रुपये का नोट निकालते और चुपचाप मेरी माँ की तरफ बढ़ा देते थे। मानो वे खुद मेरे पिताजी के पागलपन के लिए काफी हद तक जिम्मेदार थे !

पिछली रात की इस घटना के बारह घंटे बाद, अगली सुबह, मेरे पिता के होठों से खून की दो बूँदें निकली। खून पोंछकर कांपती आवाज में उन्होंने गोपी चाचा को कहा ,” यह उचित नहीं है, गोपी भाई। भगवान तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा। “

गोपी चाचा उन्हें एक बार फिर से मारने वाले थे ,लेकिन बिद्या ग्वाले ने उसे यह कहते हुए रोक दिया” मालिक ,उसे छोड़ दो ! अपने हाथ ऐसे छोटे आदमी को मारकर खराब मत करो। “

मेरे पिताजी ने अपने मुंह के एक कोने से खून की कुछ बूँदें पोंछते हुए मुझसे कहा,” हमें अब वापस जाना चाहिए , मेरे बेटे!"

मैंने ये सारी घटनाएं अपनी आँखों से देखी थी और मेरे पिता के अपमान से मैं बुरी तरह आहत था। अत्यंत भावुक होने के कारण मेरा दम घुटने लगा और मेरी आँखें आँसुओं से धुंधला गई। लेकिन न तो मैंने अपने आँसू पोंछे और न ही आहें भरी। मुझे डर था कि मेरे आँसू मेरे पिताजी को कहीं और दुखी न कर दें। उन्हें और अधिक दर्द होगा।

उस सुबह मेरी माँ ने एक दस रुपए का नोट दिया था कुछ चीनी और दूध खरीदने के लिए। खीर बनाने और मंगला देवी के मंदिर में वह पूजा करना चाहती थी। उस रात खीर मिलने के विचार से मैं जीवंत हो गया था।

पिताजी ने गोपी चाचा के राशन की दुकान से एक पाव चीनी खरीदकर उस पैकेट को अपने बैग में डाल दिया। तभी सजनी, विकलांग कपिल की पत्नी, थोड़ा–सा मिट्टी का तेल खरीदने के लिए वहाँ आई।

”चाचा, मुझे दो रुपये मिट्टी का तेल देना।” धीरे से दुकान के पोल पर झुकते हुए उसने कहा।

"क्या कहा? मिट्टी का तेल? पिछले दो महीनों से नहीं आ रहा है और मेरे स्टॉक में एक बूंद नहीं है ....”

"चाचा, सख्त जरूरत है ..., सिर्फ आधा एक बोतल” सजनी ने अपनी तीखी आवाज में कहा जैसे एक चिड़िया चहक रही हो।”

"एक बूंद, भी नहीं ,सजनी , तुम्हारे पति की कसम। “

सजनी उलटे पाँव चली गई मानो उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो।

गोपी चाचा ने उसे पीछे से आवाज लगाते हुए कहा,” ठीक है, रात को आना। मैं देखता हूँ ,कहीं से प्रबंधन हो जाएँ !”

उसके इन शब्दों से वह ऐसे डर गई जैसे उसके रास्ते में कोई साँप गुजर गया हो। सजनी उसकी बात पर चौंक गई और सब कुछ जान कर अनजान होने का नाटक करती हुई आगे चली गई।

उसके जाने के बाद मेरे पिताजी ने गोपी चाचा की ओर देखकर कहा,” भाई, यह उचित नहीं था।”

“ क्या उचित नहीं था?" मेरे पिताजी को छह रुपए लौटाते समय कहा।

"आपकी दुकान में कई बैरल केरोसीन पड़ा है और फिर भी आपने उस गरीब महिला को इनकार कर दिया .... ..."

इससे पहले कि मेरे पिताजी अपना वाक्य पूरा करते , गोपी चाचा ने तिरस्कार में उनकी नाक पर जोर से घूंसा मारते हुए कहने लगे ,” क्या? तुम कपिल की पत्नी की बहुत नजदीकी हो। जरूर, तुम दोनों के बीच कुछ है?”

"गोपी भाई! अपनी जुबान संभालो!”

"तुम भी अपने शब्दों को लगाम दो , सूअर कहीं के !”

"भाई, तुमने मुझे गाली दी है!"

"अगर मैंने तुम्हें गाली दी है, तो सही काम किया है। अब मैं तुम्हें ऐसी लात मारूँगा कि हगुरा पाटा में जाकर गिरेगा ...”

हालांकि गोपी चाचा ने मेरे पिताजी को लात नहीं मारी , मगर इतनी जोर से थप्पड़ मारी कि उनके मुँह से खून निकल कर निचला होंठ लहूलुहान हो गया।

खून पोंछते हुए पिताजी ने गोपी चाचा से कहा,” भगवान, तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा।”

पिताजी ने अपना हाथ मेरे कंधे पर रखते हुए कहा,” चलो बेटे , हमें अब जाना चाहिए।”

यह उन्होंने मुझे अंतिम बार बहुत प्यार से छुआ था। '.

हमारे घर जाने के इस दौरान उन्होंने एक शब्द भी मुंह से नहीं निकाला।

वह तेजी से मेरे आगे-आगे चल रहे थे। रास्ते में बहुत सारी ऐसी चीजें थी, जिसे वह मुझे दिखाकर कई बातें कर सकते थे। जमीन पर बिखरे हुए बरगद के पेड़ के पके लाल फल खाती गिलहरी, पेड़ के तने की खोल में फड़फड़ाते मैना के छोटे-छोटे बच्चे , दूब घास के मैदान में रेंगते मखमल के लाल-लाल कीड़े। हमारे चारों ओर बहुत सारी चीजें थीं। लेकिन उनमें से किसी की तरफ पिताजी का ध्यान नहीं गया, मानो एक धुन में यंत्रवत् चले जा रहे हो। वह एक खिलौने की तरह चलते जा रहे थे। वह खिलौना जिसे मैंने मेरे दोस्त शोभराज के पास देखा था , गोपी चाचा का एक बिगड़ैल बेटा।

हम पढ़ानसाही की सड़क छोड़ कर हगुरा पाटा की रेलवे लाइन की ओर चलने लगे। एक तरफ मंदाकिनी नदी बह रही थी , जिसके दूसरे किनारे प्रभु त्रैलोक्यनाथ का मंदिर था। उसके पीछे बेहेरापाड़ा था। वहाँ से हम खीर तैयार के लिए पौन किलो दूध खरीदते।

शोभराज के पास बहुत ही आकर्षक और महंगे –महंगे खिलौने थे। हम सब उससे इसलिए ईर्ष्या करते थे। लेकिन मैंने खिलौनों के लिए अपनी इच्छा को दबा दिया था , ठीक उसी तरह जिस तरह परीक्षा हॉल के अंदर पेशाब आने पर भी जबर्दस्ती नियंत्रण किया जाता है।

कभी-कभी शोभराज अपने खिलौनों के साथ खेलने के लिए अपने दोस्तों को अनुमति देता था। लेकिन वह हमेशा एक शर्त रखता था , कि अगर जदू अपने पिता की जेब से एक रुपया का सिक्का चुराएगा तो वह उसे एक सैनिक खिलौने के साथ खेलनी की अनुमति देगा। वह किसी और को अंकल की शर्ट की जेब से सिगरेट चोरी करने को कहता तो किसी और को अपने खिलौनों के साथ गंदी बातें करने को कहता था। ये सारे शरारती कृत्य हगुरा पाटा में ही किए जाते थे, गांव से दूर। वह पेड़ों के पीछे छिपकर बीड़ी सुलगाता था। वह और कई अप्रिय काम करता था।

"पिताजी!" मैंने एक पौधे की ओर झुककर कहा। वहाँ तीन विषलयकरनी के पौधें थे। जिसका रस न केवल घावों को भर देता है, बल्कि दर्द को भी कम कर देता है। "पिताजी, देखिए ! विषलयकरनी के पौधें यहाँ!”

पिताजी रूक गए। इसलिए नहीं कि मैंने उन्हें पुकारा था। कोई और उन्हें दूर से बुला रहा था। कोई आदमी मदद के लिए चिल्ला रहा था। मंदाकिनी नदी की ओर से आवाज आ रही थी, हगुरा पाटा से परे।

"मदद! मदद करो!” यह तेज आवाज भले ही बहुत परिचित नहीं थी, लेकिन कुत्ते के भौंकने से उसके मालिक की पहचान हो रही थी। हो न हो , वह शोभराज का कुत्ता था।

इससे पहले कि मैं कुछ करता , मेरे पिताजी उस दिशा में दौड़े , जहां से वह आवाज आ रही थी। उन्होंने निश्चित रूप से किसी को नदी में डूबते देखा था। वह अपने कपड़े खोलकर नदी में कूद गए।

यह सब अचानक इतना जल्दी घटा कि कुछ समय के लिए मैं सन्न- सा रह गया। जब तक मैं अपना मानसिक संतुलन ठीक करता, यह पता करने के लिए कि क्या हुआ था, तब तक शाम हो चुकी थी। मेरी माँ, जिसने शाम को मंगला देवी मंदिर में खीर चढ़ने का संकल्प लिया था, बुरी तरह से रो रही थी। मुझे पता नहीं था कि वह मेरे पिताजी के लिए इतना रोएगी। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था।

मुझे एक भी दिन याद नहीं है जब उसने मेरे पिताजी से धीरे से बात की हो। उस दिन उसने माँ मंगला से प्रार्थना की थी, वह उसे सही रास्ते पर लाए और सद्बुद्धि प्रदान करें।

नदी के किनारे अंधेरे आकाश के नीचे, उसका सिसकना हृदय विदारक था जैसे मानो मेरे पिताजी ही उसके जीवन में सब-कुछ थे। और कुछ भी नहीं था उसके जीवन में उनके सिवाय। मेरे पिताजी ने वास्तव में बहुत संघर्ष किया नदी में डूबते शोभराज को बचाने में। लेकिन वह उसके पालतू कुत्ते, रॉबिन को नहीं बचा सके।

रॉबिन के साथ नदी में तैरना और उसके साथ आँख-मिचौनी खेल खेलने का शोभराज ने बहुत लंबे समय से ठान रखा था। उस दिन उसे ऐसा करने के लिए अवसर मिल गया था। हगुरा पाटा के पास नदी इतनी गहरी थी , शायद ही कोई गाँव वाला वहाँ जाता होगा। शोभराज ने उस दिन यह स्थान चुना था।

विद्या ग्वाले को ज्यादा समय नहीं लगा पानी से कुत्ते की लाश लाने में। सात आदमी पूरे दिन नदी में तैरते रहे , लेकिन मेरे पिताजी का कोई नामोनिशान नहीं था। मानो वह पानी में पिघल गए हो। मानो इस दुनिया में इस तरह का कोई व्यक्ति कभी भी अस्तित्व में नहीं था। मानो वह सिर्फ एक भ्रम था।

हगुरा पाटा पर मेरी माँ बहुत देर रात तक रोती रही। फिर वह बेहोश हो गयी और मेरे नाना , चाचा और दूसरे लोग उसे हमारे घर लेकर आए ।

मैं भी, उस रात अंधेरे में घर लौटा नितांत अकेले। मेरी आँखों में आंसू की एक बूंद नहीं थी। आज भी मेरी आँखों में आंसू नहीं है।

मुझे अपने पिताजी की बहुत याद आती है। मुझे ऐसा लगता है कि वह अक्सर मेरे सपनों में आते हैं। मैं उन्हें एक देवता की तरह देखता हूँ , नदी में से बाहर निकलते हुए , सुंदर वस्त्र और आभूषणों में सजे। मुझे याद नहीं , उनके हाथ में क्या अजीब-सा सामान था। हर बार वह नदी में से बाहर आकर उस जगह पहुँचने की कोशिश करते हैं जहां मैं उनके इंतजार में बैठा हुआ था। बस तभी मेरा सपना टूट जाता हैं और मैं तुरंत जाग जाता हूँ।

रात का पतला पर्दा मेरे चारों ओर एक अज्ञात छाया की तरह मंडराने लगता है।

मैं अंधेरे में टटोलने लगता हूँ ,मेरी माँ का हाथ पकड़ने के लिए। पसीने में भीगे हाथ। उसकी हथेलियां खुली है, मानो वह मेरे पिताजी का इंतजार कर रही हो कि वह कुछ उसमें डाल दें ! शायद वही अजीब चीज जिसे मैंने अपने सपने में देखा था!

लेकिन उसके खुरदरे और झुर्रियों वाली हाथों में कुछ भी नहीं था।