ओशो के द्वार पर बुद्ध की दस्तक / ओशो / पृष्ठ 2

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सौभाग्यशाली हूँ कि बुद्धा ने दस्तक दी
विश्व की अनूठी प्रवचनमाला: जोरबा दि बुद्धा

एक पल को सब कुछ मौन था और मैंने बिना किसी स्रोत से आती एक आवाज सुनी कि क्या मैं भीतर आ सकता हूँ? अतिथि इतना विशुद्ध था, इतना सुवासयुक्त था, मुझे उसे अपने हृदय के अंतरतम मौन में प्रवेश देना ही पड़ा। यह शुद्ध प्रकाश का शरीर अन्य कोई नहीं, स्वयं गौतम बुद्ध थे।

तुम अभी भी मेरी आँखों में उस ज्योति शिखा की लपट देख सकते हो जिसे मैंने अपने भीतर पचाया है-एक ज्योतिशिखा जो ढाई हजार वर्षों से आश्रय की तलाश में पृथ्वी के आसपास घूमती रही थी।

मैं महत सौभाग्यशाली हूँ कि गौतम दि बुद्धा ने मेरे द्वार पर दस्तक दी।

तुम मेरी आँखों में उस लपट को, उस आग को देख सकते हो। तुम्हारी अंतरात्मा भी उसी शीतल अग्नि से बनी हुई है।...

आपने चार दिन में देख ही लिया है कि जो काम आप करना चाहते थे वह मैं कर ही रहा हूँ, और उसे मैं युग और आवश्यकताओं के अनुकूल कर रहा हूँ। मैं किसी भी प्रकार से निर्देशित होने के लिए तैयार नहीं हूँ। मैं एक स्वतंत्र व्यक्ति हूँ। अपनी स्वतंत्रता और प्रेम से मैंने आपका एक अतिथि की भाँति स्वागत किया है, लेकिन कृपया आतिथेय बनने का प्रयास न करें।

इन चार दिनों मुझे सिरदर्द रहा। ऐसा मुझे तीस वर्षों में नहीं हुआ, मैं पूरी तरह भूल ही गया था कि सिरदर्द क्या होता है। हर बात असंभव हो गई थी। वे अपने ढंग के इतने अभ्यस्त हैं। वह ढंग अब संगत नहीं है।...मुझे जापान के प्राचीन शिंतो मंदिर की भविष्यद्रष्टा कात्जुए इशीरा से एक क्षमा प्रार्थना करनी है। मैंने एक पच्चीस सौ सदियों पुराने, तिथिबाह्म व्यक्तित्व को समाविष्ट करने का अथक प्रयास किया, लेकिन मैं आत्म पीड़ा में रहने के लिए तैयार नहीं हूँ।..मैं सोचा करता था कि गौतम बुद्ध एक निपट व्यक्ति है- और वही सही है, वे हैं। लेकिन उनकी इच्छा के विपरीत तिब्बत में, चीन में, जापान में, श्रीलंका में एक परंपरा खड़ी हो गई है। और मैं इन मूढ़ों से माथापच्ची नहीं करना चाहता। मैं अपने स्वयं के बल पर, अपने लोगों के साथ काम करना चाहता हूँ।