ओस नहाए / मरकत मणि; मेरे सात जनम / सुधा गुप्ता

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श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' हिन्दी साहित्य जगत् का जाना-पहचाना नाम है। कविता गीत, नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य-विधा, बाल-साहित्य, समीक्षा तथा अन्य विधाओं में (सम्पादन-कला) ऊर्जावान् लेखकीय सर्जन के अतिरिक्त हिन्दी हाइकु में भी आपका विशेष योगदान रहा है—-एक उल्लेखनीय विशिष्टता जो रेखांकित करना चाहूँगी- (वह यह है कि) श्री 'हिमांशु' एक सच्चे 'हाइकु रसिक' हैं, स्वयं अच्छे और सारवान् हाइकु रचने के साथ-साथ दूसरे हाइकुकारों के अच्छे हाइकु एकत्र करना, उनकी सराहना करना और अन्तर्जाल पर हज़ारों पाठकों को उपलब्ध कराना, उन्हें प्रिय है! इस परोपकार-वृत्ति के लिए उन्हें साधुवाद देने वालों का प्राचुर्य है।

बात करते हैं उनके हाइकु-संग्रह 'मेरे सात जनम' की। नाम से ही कौतूहल जाग उठा—

एक ओजस्वी, सकारात्मक, ऊर्जस्वित 'सोच' के धनी हैं 'हिमांशु' जी। हाइकु कैसे हों? 'हिमांशु' जी के मन्तव्य के अनुसार 'पके आम से / सहज चुए रस / हाइकु वैसे' अर्थात् 'सहज काव्य-रस' हाइकुकार शीर्ष स्थान देता है। 'मेरे सात जनम' हाइकु-संग्रह सात खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड का शीर्षक है-'उजाला बहे'। प्रथम हाइकु में वाणी-वन्दना करके हाइकुकार भाव-भीनी ज्योति-अर्चना आरम्भ करता है। वस्तुतः यह खण्ड आलोक को समर्पित है! अन्धकार से त्रस्त मानवता के लिए शुभ सन्देश, विश्वास से लबालब भरा आश्वासन और आह्नान सभी कुछ एक साथ है यहाँ-

आओ बुनेंगे / उजाले की चादर / भावों से भर

अँधेरे हटा / उगाएँगे सूरज / हर आँगन

नदिया भरे / धरा से नभ तक उजाला बहे

आँधियों को चुनौतीः

आँधियों का क्या / बुझाएँगी वे दीप / हमें जलाना

संग्रह का दूसरा खण्ड 'नभ के पार' कवि की अदम्य जिजीविषा और संघर्ष करने की जुझारू प्रवृत्ति को रेखांकित करता है:

मैं नहीं हारा / है साथ न सूरज / चाँद न तारा

मरने के सौ / तो हज़ार बहाने / हैं जीवन के

काँटे जो मिले / जीवन के गुलाब / उन्हीं से खिले

इस अदम्य जिजीविषा का मूल उत्स वह पावन अखण्ड प्रेम है, जो हाइकुकार के जीवन में

मीत कहूँ या / जीवन की गीता का / गीत कहूँ मैं

के रूप में स्नेह-निर्झर बनकर फूट पड़ा है!

तीसरे खण्ड 'पलकों में सपने' में यह निष्कम्प प्रेम-वर्त्तिका सतत ज्योतिर्मान् विस्तार ग्रहण करती हुई पाठक को एक मनोरम भाव-जगत् में ले जाती है और इसी खण्ड में संग्रह के शीर्षक 'मेरे सात जनम' का रहस्य भी उद्घाटित हुआ है-

ढूँढा तुमको / कई-कई जनम / पाया है अब

आज मिले हो / जनम-जनम में / कहाँ रहे थे?

पिछले जन्म / लाखों मोती लुटाए / आप हैं पाए

कवि का मानना है कि प्रेम के अबूझ रहस्य को समझ पाने के लिए एक जन्म अपर्याप्त है, अतः

कुछ समझे / समझ लेंगे बाक़ी / सात जनम

कवि का यह 'सात जनम' प्रेम निबाहने का अखण्ड विश्वास, प्यार की मीठी नोंक-झोंक के ऐसे क्षणों की सृष्टि करता है-

आओ झगड़ें / सुलझाने को मिले / सात जनम

यह खण्ड संग्रह का सर्वाधिक विस्तृत खण्ड है और दज़र्नों हाइकु एक से एक अनूठी भाव-भंगिमा एवं सुन्दर शिल्प के नायाब नमूने हैं:

चाँद निचोड़ा / और दे दिया वह / रूप तुमको

रिश्तों के नाम / गिरवी न रखेंगे / सुबह-शाम

प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि यह प्रेम अपार्थिव-अतीन्द्रिय काल्पनिक संरचना (मात्र छाया-जाल) नहीं वरन् इसी धरती पर पनपा पार्थिव प्रेम है। निःस्वार्थ समर्पण की सोंधी गन्ध लिये, सर्वथा कामना-रहित, केवल प्रेमास्पद के दुरूखों को बाँटने की इच्छा-

कभी न चाहा / सुख में कोई हिस्सा / दुःख तो बाँटो

आँसू न पोंछे / कभी तेरी आँख के / चुभन यही

उदात्त मनोभूमि पर स्थित इस पावन प्रेम की उपलब्धि एक मात्र चरम परितृति है:

आए जो आप / जनम-जनम के / मिटे सन्ताप

गुलाब की पाँखुरी जैसे मख़मली अहसास और तितली के पंख जैसी नाज़ुक छुअन लिये ऐसी प्रेम-कविता आज के दौर में प्रायः दुर्लभ है!

'भीगे किनारे' खण्ड में कवि का प्रकृति के प्रति सहज लगाव दृष्टिगत होता है। ऋतु-परिवर्तन के साथ-साथ प्रकृति की चित्र-पटी के विभिन्न मोहक चित्र इस खण्ड में उपलब्ध हैं-

बजा माँदल / घाटियों में उतरे / मेघ चंचल

चढ़ी उचक / ऊँची मुँडेर पर / साँझ की धूप

बूढ़ा मौसम / लपेटे है कम्बल / घनी धुंध का

ठिठुरी रात / किटकिटाती दाँत / कब हो प्रात

सभी चित्र एक से बढ़कर एक! अनूठे दृश्य व श्रव्य बिम्बों ने, सहज सम्प्रेष्य भाषा ने चमत्कारिक सृष्टि की है। सूरज और चाँद के दो चित्रः

नन्हा सूरज / भोर ताल में कूदे / खूब नहाए

लहरें झूला / खिल-खिल करता / चाँद झूलता

हाइकुकार की लेखनी का समर्थ 'कैमरा' ऐसे छवि-चित्र भी क़ैद कर लेता है-

शोख़ तितली / खूब खेलती खो-खो / फूलों के संग

उल्टा लटका / हरियल तोता भी / प्यार से देखे

सुन्दर प्रतीकों के माध्यम से आज का मानवीय परिदृश्य और समाज की ज्वलन्त समस्याओं / वेदनाओं को प्रस्तुत करने में हाइकुकार सफल रहा है:

तितली बिंधी / लम्पट गुलाब ने / खींचा आँचल

पेड़ भी पूछें / कहाँ गए हैं बच्चे / रोती डालियाँ

यथार्थ के धरातल पर, 'उत्तर आधुनिक' दौर की 'उपभोक्तावादी संस्कृति' , 'विश्व बाज़ारवाद' जैसी स्वार्थपूर्ण निर्मम नीतियों से टकराकर कवि-मन आहत होता है, छटपटाता है _ धरती की उजड़ती हरीतिमा उसे बैचैन करती है:

ठूँठ जहाँ हैं / कभी हरे-भरे थे / गाछ वहाँ पर

उठते गए / भवन फफोले-से / हरी धरा पे

हरीतिमा की / ऐसी िक़स्मत फूटी / छाया भी लूटी

लोभ ने रौंदी / गिरिवन की काया / घाटी का रूप

'भरी भीड़ में' और 'यही सच है' शीर्षक दो खण्ड आज के कटु यथार्थ और कड़वी सच्चाइयों से सीधी-सीधी मुठभेड़ है—सामाजिक विसंगतियों, अनीतियों, राजनीतिक कलुष, नारी-दुर्दशा, मित्र-द्वेष, मित्र-द्रोह जैसे युग-सत्य जो आज के चर्चित मुहावरे 'युगबोध' के अन्तर्गत आ जाते हैं, सभी का सामना यहाँ है, कवि की उल्लेख्य सफलता यह है कि 'नीरस सपा ट बयानी' नहीं, 'कलात्मकता' की पूरी रक्षा करते हुए, लक्षणा, व्यंजना का आश्रय लेकर बड़े ही खूबसूरत तरीक़े से वह अपनी बात कह देता हैः

बेटी मुस्काई / बहू बन पहुँची / लाश ही पाई

आज की सीता / तनमन देकर / दुःख उठाए

पीठ है खुली / कुछ वार करेंगे / यार करेंगे

काला कम्बल / ओढ़, नाचती देखो / पागल कुर्सी

कामुक बाघ / लार ही टपकाए / बाज न आए

अन्तिम खण्ड 'सीपी के मोती' मानवीय रिश्तों में पवित्रतम रिश्ते-माँ, बहन और बेटी को समर्पित हैं—पावन चन्दनी सुगन्धि से भरे हाइकु पढ़कर पाठक को ऐसा लगता है कि वह मन्दिर के पूजा-कक्ष में आ पहुँचा हैः

बिटिया आई / गूँजी ऋचाएँ मेरे / सूने आँगन

मन-आँगन / चिड़िया-सी चहके / प्यारी बहना

बहिनें आँखें / कब भारी लगतीं / पाखी को पाँखें

अश्रु-धार में / जो शिकायतें-गिले / धूल से धुले

बस अनुभवजन्य शाश्वत सत्य का साक्षात्कार है, प्रत्येक हाइकु सीपी का अनमोल मोती है!

गम्भीर अध्येता और साहित्य-मर्मज्ञ हाइकुकार 'हिमांशु' जी के हाइकु सम्बन्धी शिल्प के विषय में कोई अभ्युक्ति व्यर्थ है—संग्रह के सभी हाइकु 'खरा सोना' , सतरह वर्ण, पाँच-सात-पाँच का सर्वत्र निर्वाह, शब्द-चयन में सतर्क-सावधान-पैनी दृष्टि, बहु-आयामी अर्थ ध्वनि। 'दौंगड़ा' जैसे आंचलिक शब्दों का माधुर्य जैसा आत्मसात् किया, अपूर्व है! आज के साहित्य से पूरी तरह ग़ायब अतः प्रायः दुर्लभ ही नहीं- 'अलभ्य' ही।

यों भूमिका का अभिप्राय / उद्देश्य मात्र इतना कि पुस्तक के मूल कथ्य से परिचय करा दे_ किन्तु 'मेरे सात जनम' के हाइकु के प्रति एक विशेष आकर्षण में बँधकर भूमिका निःसन्देह कुछ लम्बी हो गई है—

अन्त में सिर्फ़ इतना कि 'मेरे सात जनम' हाइकु-संग्रह पढ़कर हिन्दी हाइकु-प्रेमी निश्चय ही रसान्वित होंगे। लोक-मंगल का स्वर इस संग्रह का सर्वाधिक मुखर स्वर है _ जो इस संग्रह को लोक-प्रियता के उदात्त धरातल पर प्रतिष्ठित करता है। सहज विश्वास है कि हिन्दी-जगत में यह संग्रह समादृत होगा।

जया एकादशी / 14-2-2011