कविता के नए प्रतिमान : विसंगति और विडम्बना का सौन्दर्यशास्त्र / सुरेन्द्र चौधरी
विमल ने जब आग्रह के साथ कहा कि मुझे डॉ० नामवर सिंह की पुस्तक 'कविता के नए प्रतिमान' की समीक्षा करनी है तो मैं ठिठका। औपचारिक समीक्षा के लिए मैं तैयार न था, टाल जाना चाहता था, फिर सहसा ख़याल आया, समीक्षा को औपचारिक न रखूँ तो ! क्यों न सहयात्रा की चुनौती को स्वीकार किया जाए ! सीखने का तो सुख होगा ही। किसी वैचारिक कृति, किसी लम्बी विचार यात्रा का सहयात्री होना भी सुख है। इस कृति को लेकर डॉ. रामविलास शर्मा की शिकायतें याद आईं। उनकी खोजबीन और निष्कर्षों की याद आई। उनका सन्दर्भों का तोड़-जोड़ याद आया। मैंने विजयदेव नारायण साही का लम्बा लेख पढ़ा था, उसके वैचारिक परिरूप से परिचित था। साही विचारों का दृश्य-प्रवाह गढ़ने में माहिर हैं, वे विचारों का इतिहास नाटक की तरह प्रस्तुत करने की कला में दीक्षित हैं। उनके विचार-प्रवाह के रंग-रेशे नाटकीय कथा-नायक के संवादों की तरह प्रत्यक्ष लगते हैं, प्रत्यक्षता का आभास देते हैं। मुझे भी उनके लम्बे लेख ने प्रभावित किया था। समकालीन हिन्दी कविता के इतिहास पर लिखा गया यह लेख मुझे भी अकेला लगा था। उसकी रौ में बहा भी था। डॉ० नामवर सिंह की पुस्तक पढ़ते हुए बार-बार उसकी याद भी आई।
फिर सहसा ऐसा लगा कि साही के निबन्ध में इतिहास केवल अन्तर्ध्वनित होता है, पार्श्व संगीत की तरह बना रहता है, कभी धीमी संगीत लहरियों के प्रभाव की तरह, कभी उभर उठे नाटकीय स्वर की तरह चढ़ता हुआ, विचारों की नाटकीय परिणति में विचार-प्रवाह की इस पैटर्निंग में बौद्धिक चमत्कार है, साही के लगभग सभी लेखों में यह टोटल प्रभाव है ! क्या डॉ० नामवर सिंह इस विचार- प्रवाह से इतिहास के बिन्दुओं को निकाल कर उसकी रक्षा कर सके हैं? नामवर सिंह और साही दोनों अपनी रचनाओं में विचार को इतिहास से संगत करने की चेष्टा करते हैं, फिर भी उनके दृष्टिकोण में अन्तर है। मैं अपनी सहयात्रा के क्रम में इसी अन्तर को पहचानना चाहता था, उसे रेखांकित करने का आग्रही था।
समकालीन कविता पर 'कविता के नए प्रतिमान' अकेली पुस्तक है, जिसकी चर्चा होनी चाहिए थी। यह पुस्तक एक प्रस्तावना मात्र है, एक लम्बी विचार-यात्रा की चुनौती ! पुस्तक की 'वाद-शैली' की याद आई। लूकाच का स्मरण हो आया जहाँ उन्होंने 'खुले पोलमिक्स' की शर्तों पर विचार किया है। हिन्दी में खुले पोलमिक्स की सम्भावनाएँ बढ़ रही हैं। चूँकि खुला पोलमिक्स एकआत्मसंघर्ष भी होता है, इसलिए उसे दो अलग-अलग सरहदों पर एक साथ संघर्ष करना पड़ता है।
छायावाद का युग भारत में वामपंथी विचारधारा के जन्म और प्रसार का युग भी है। इस तथ्य की ओर, अन्तर्विरोध की ओर, नज़र जानी चाहिए। साही के निबन्ध में इस मूल अन्तर्विरोध को नज़रअन्दाज़ कर दिया गया है। यह सब उत्साह के आवेश में ही तो नहीं हुआ ! छायावाद के अन्तर्विरोधों को, उसकी ऐतिहासिक परिणतियों की समीक्षा के क्रम में पहचानना बेहद आवश्यक है। उस युग के रचनाकार का मानस इन अन्तर्विरोधों से अछूता न था। साहित्यिक मूल्यों के पुनर्निर्माण का प्रश्न बार-बार उठ रहा था और रचनाशील मानस के प्रवाह में वामपंथी विचारों के आवर्त्त भी उठने लगे थे। यह कहानी ’रूपाभ’ के जन्म के पहले की है और चतुर्थ दशक के प्रारम्भिक वर्षों की है। ’
कामायनी’ में साम्यवाद की अन्तर्ध्वनियाँ सुनने वाले आलोचकों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भी थे। इस बदलते हुए परिदृश्य और उसकी मानसिक परिणतियों पर विचार करने के लिए इतिहास-प्रवाह में जाना जरूरी है । डॉ० नामवर सिंह की पुस्तक में ’विवाद शैली’ के आतंक में इतिहास का परिप्रेक्ष्य डूबता नजर आता है। यह नहीं कि वह नहीं है; प्रश्न होकर भी उसके अलक्ष्य रह जाने का है। ’कामायनी’ ’उर्वशी’, छायावादी कविता और ’तारसप्तक’ की चर्चा भी उसे ठीक-ठीक साकार नहीं कर सकी है। विचारधारा न सही, भावधारा के भीतर भी यह इतिहास अलक्ष्य क्यों रह जाता है। क्या इसके लिए यह कह देना भर काफ़ी है कि "वस्तुतः 1938 के आस-पास जो परिवेश था, उससे टकरा कर यथार्थ की ओर काव्य को मोड़ने का प्रयास पुराने छायावादी भी कर रहे थे। बुद्धिवाद को इतिहास से निकलता दिखलाना ग़लत नहीं है, किन्तु यह भी ठीक-ठीक तभी सम्भव है जब इतिहास दृश्य हो, अदृश्य नहीं। ’कविता के नए प्रतिमान” में जो सबसे बड़ा दोष है वह परिप्रेक्ष्य के खो जाने का नहीं है, इतिहास के अदृश्य रह जाने का है। वास्तविक इतिहास को विचारों से परिरूपों में बदला नहीं जा सकता, वह इतिहास की प्रक्रिया का स्थानापन्न नहीं हो सकता।"
साही के लिए छायावाद का अन्तर्विरोध नैतिक विजन के टूट जाने तक सीमित है। नामवर इसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेते हैं और फिर भावना-बुद्धि का पित हेगेलीय डायलेक्टिक गढ़ लिया जाता है। परिणाम? काव्य-सम्वेदना का विभाजनक यह सब क्या इतना निष्कर्ष प्राप्त है कि इस पर बहस नहीं की जा सकती या साही की इस स्थापना को आँख मूँदकर स्वीकार कर लेना होगा कि तीसरे दशक के काव्य में जो अनिवार्य गम्भीरता थी, उससे मनोभूमि को फिर से किस प्रकार गम्भीरता की ओर वापस लाया जाए, समस्या यहीं तक सीमित थी? संकट का आतंक खड़ा करने में साही को महारत हासिल है। संकट का यह आतंक नामवर पर भी है। छायावादी भावधारा में इस कल्पित संकट के आक्षेप का पर्दाफाश डॉ. रामविलास शर्मा की सद्यः प्रकाशित कृति से हो जाता है। ’छायावादी अगम्भीरता’ को तो मुक्तिबोध कब का ’कामायनी : एक पुनर्विचार’ में खण्डित कर चुके थे। छायावादी न तो अगम्भीर थे न अबौद्धिक, जैसाकि नामवर सिंह ख़ुद अपनी पुस्तक ’छायावाद’ में दिखला चुके हैं। दुख इस बात का है कि उन्होंने प्रस्तुत कृति में खुद अपने विचार - क्रम को उलट लिया है।
क्या छायावादी बौद्धिकता काव्य-रचना का सर्जनात्मक तत्व नहीं बन पाती ? इस प्रश्न पर बड़े सतही ढंग से विचार करते हुए प्रश्न को ही पीछे ढकेल दिया है। साही ने नई कविता के समर्थन में छायावाद को बुद्धि के संकट का साहित्य ही घोषित नहीं किया, बल्कि नई कविता के व्यक्तिवादी बौद्धिक चरित्र पर भी पर्दा डाल दिया था। नामवर सिंह से इस बात की आशा की जाती थी कि वे इतिहास के वास्तविक मोड़ों को अपनी विचार-यात्रा में ’हाइ-लाइट’ करेंगे। नई कविता की ’आत्मचेतना’ के रहस्य का उद्घाटन करने के बजाय वे ’अन्वेषण’ सूनी अन्तर्यात्राओं में खो गए। ’तारसप्तक’ के आधे से ज़्यादा कवि सीधे वामपंथी राजनीति में थे और जो शेष थे वे इस विचारधारा के प्रभाव में थे। किन्तु उसकी ट्रेजेडी की ओर नामवर सिंह की नज़र नहीं गई, वामपंथी असर के बावजूद उन्हें अज्ञेय की भूमिका ’व्यक्तिवादी आलोचना’ के बाहर नहीं ले गई। अज्ञेय ने काव्य-रचना की एक निश्चित विचारधारा से प्रभावित होकर ऐसा किया था, शुद्ध भाव-प्रवाह में नहीं। यही कारण है कि सप्तकों का अगला रूप वैसा नहीं रहा जैसा ’तारसप्तक” का था। धीरे-धीरे उसका व्यक्तिवादी बौद्धिक चरित्र भी नष्ट होता गया और ’तीसरे सप्तक’ तक आकर वह लभ्य बच गया। समय और कला के अन्तर्विरोध को ही नहीं बल्कि उसके अपने- अपने अन्तर्विरोधों को भी इस क्रम में साफ़ पहचाना जा सकता है।
साही और नामवर कहते हैं कि छायावाद का ’नैतिक विजन’ टूट गया। अज्ञेय का कहना कि छायावाद के साथ मानवीय नैतिक दृष्टि प्रतिष्ठित हुई। जोश और जवानी की जैसी ऐतिहासिक भूमिका साही ने तैयार की, वैसी वस्तुतः थी नहीं। नामवर को भी यह भूमिका शायद पसन्द न आई। उन्होंने दबे स्वर में उसका विरोध किया, "इस मस्ती के आलम में सारी समस्याएँ अपने आप हवा हो गईं। इस सरलता का लोकप्रिय होना आवश्यक था।" और फिर बाद में सप्तकों के चरित्र को लक्षित कर उन्होंने लिखा, "अज्ञेय के इस काव्य-सिद्धान्त की नवीनता यह है कि इसमें बड़े कौशल से तारसप्तक की परम्परा को आत्मनिष्ठ मोड़ दे दिया गया।" काश ! नामवर सिंह तारसप्तक के अन्तर्विरोध को इसी रोशनी में देख सके होते !
नई कविता का जन्म छद्म बौद्धिक विरोध के रूप में हुआ था, इसे मानने में नामवर सिंह को कठिनाई नहीं होती। वे उस प्रक्रिया को सहज ही पहचान लेते हैं, जो बौद्धिक सजगता को रागात्मकता में बदल देती है। अनुभूति के दिन फिरते हैं और कविता एक बार फिर रागदीप्त हो उठती है !!! कवि की सामाजिक हैसियत को नकार कर, सारे रचनात्मक अन्तर्विरोधों पर पर्दा डालकर नई कविता का आत्मसंसार उठ खड़ा होता है। इस ’आत्मसंसार’ में इतिहास की मूर्त्तता घुल जाती है और एक अमूर्त मैं का जन्म होता है, जिसके नाटकीय व्यक्तित्व की आवृत्तियाँ होती हैं। इतिहास इन आवर्तों में डूब जाता है।
नई कविता का आत्मवाद निस्सहाय न था। उसे पश्चिमी शीतयुद्ध की विचारधारा का पोषण प्राप्त था। यह विचारधारा इतिहास और जातीयता के चरित्र को नज़रअन्दाज़ ही नहीं करती थी, बल्कि उसके सांस्कृतिक स्वरूप को विकृत भी करती थी। इस प्रकार नई कविता में पहली बार आत्म-चेतना का इतिहासेतर आयाम उद्घाटित हुआ जिसमें व्यक्ति की सही पहचान खो गई। नई कविता के अनुभव संसार की वर्गीय संरचना को लक्ष्य करते हुए मुक्तिबोध ने जो कुछ लिखा उसके बावजूद उनकी भावधारा अपनी विचारधारा से संगत न हो पाई। डॉ० रामविलास शर्मा ने बेलाग ढंग से इस पर टिप्पणी भी की।
तारसप्तक में मुक्तिबोध और अज्ञेय एक साथ होकर भी दो अलग-अलग रचना धाराओं के अंग दिखते हैं। इसे जानने के लिए अनुभूति की बनावट तक जाना आवश्यक नहीं है। विचारधारा के स्तर पर दो अलग छोरों पर खड़े इन कवियों को मनोभूमि कहाँ एक हो जाती है, इस प्रश्न से कतराना नहीं होगा। क्या तारसप्तक की भूमिका में मुक्तिबोध ने बड़ी ईमानदारी से यह स्वीकार नहीं किया था कि "आन्तरिक विनष्ट शान्ति और शारीरिक ध्वंस के इस समय में मेरा व्यक्तिवाद कवच की तरह काम करता था।" विचारधारा के स्तर पर तो मुक्तिबोध इस व्यक्तिवाद से सतत् संघर्ष करते रहे और उसे लाँघने में भी सफल हुए, पर क्या भावधारा के स्तर पर भी वे इससे ऊपर उठ सके थे? इस प्रश्न का उत्तर डॉ० नामवर सिंह ने विश्लेषण से नहीं दिया। सृजन के स्तर पर कला के संघर्ष को अस्तित्व के संघर्ष से एकाकार कर लेने की व्याख्या नामवर ने नहीं की।
विचारधाराओं का इतिहास अन्तर्विरोधी और परस्पर न संगत होने वाले विकास स्तर के उदाहरणों से भरा पड़ा है। मुक्तिबोध को पूरे विवेचन के केन्द्र में रखकर नामवर सिंह ने सही ढंग से विचारधाराओं के रचनात्मक उपयोग की असंगतियों को लक्षित किया है। किन्तु इस क्रम में नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, सुमन और दूसरे कई कवियों को वे एकदम लाँघ गए हैं। जिस जागरूकता और गम्भीर व्यंग्य-मुद्रा की उन्होंने इतनी वकालत की है, उसके काव्यात्मक इतिहास से इन सर्जनात्मक प्रतिभाओं को निकाल देना इतिहास की अवमानना करना है।
मुक्तिबोध के कला के तीसरे क्षण वाले सिद्धान्त का दोष उनकी अपनी काव्य- प्रक्रिया का अन्तर्विरोध भी है। कला के जिस तीसरे क्षण को वे सम्पूर्ण रचनात्मक क्षण सिद्ध करते हैं, क्या वह ’आत्मपूर्ण तात्कालिकता’ का पर्याय नहीं है? क्या यह आत्मपूर्ण तात्कालिकता सारे कला-सत्य को अपने भीतर की परिस्थितियों में या परम स्थिति में फ्रीज़ नहीं कर देती ? सारे विकास को अपने भीतर ही नहीं समेट लेती ? यह इतिहास का निषेध है और इस बर्गसाँनियन गुणात्मक काल-संरचना से मुक्तिबोध की भावधारा पीड़ित रही, इससे इनकार नहीं किया जाना चाहिए। नई कविता ने आत्म-चेतना का जो संसार गढ़ा था, उसके हिस्सेदार मुक्तिबोध भी थे। फ़र्क यह था कि इस आत्म-चेतना को वे इतिहास की चेतना से संगत करने की पीड़ा झेल रहे थे। उनका आत्मसंघर्ष इसी लक्ष्य को पाने के लिए था, काश ! वे इस लक्ष्य को पाने के लिए जीवित होते।
नई कविता का विचार-संयोजन जिस चालाकी से किया गया था, वह रचना के प्रवाह में टिक न सका। अनेक छोटे कवियों ने आकर उसके संयोजन को अपने भाव-प्रवाह में खण्डित कर दिया। एक विशाल रचना पीढ़ी सप्तकों के संयोजन में अँट नहीं सकती थी, नई कविता के अंकों में भी वह सिमट न सकी। रचना के प्रवाह में नई कविता ही किसिम-किसिम की कविता हो गई। इस संयोजनहीन किन्तु व्यक्तिवादी भावधारा से प्रभावित काव्य-संरचना के रूपों पर विचार करने की अलग से आवश्यकता थी।
इस पूरे रचना-संसार की आन्तरिक बनावट को समझने के लिए एक स्वतंत्र अध्याय की आवश्यकता थी। डॉ० नामवर सिंह ने इसे परिवेश और मूल्य में केवल प्रासंगिक रूप में बाँधा है। वे काव्य-संसार की अमूर्तता को लक्षित करते हुए एक सही निष्कर्ष तक पहुँचते हैं। काव्य-संसार का आत्म-सम्भव विश्व बनकर इतिहास वर्जित हो जाता है। काव्य-संसार को आत्म-सम्भवता तक ले जाने वाली प्रक्रिया ’कलावाद’ कहलाती है। मार्क्सवादी विचारक की हैसियत से नामवर इसका विरोध करते हैं किन्तु जिन कवियों का चुनाव उन्होंने इस ग्रन्थ में किया है, उसमें स्वयं उनके विरोध का विरोध है। बहुत विस्तार से इस पूरी काव्य-प्रक्रिया की चर्चा यहाँ नहीं की जा सकती। फिर भी मूलभूत स्थितियों की ओर संकेत करना ज़रूरी हो जाता है।
नई कविता के साथ जो अन्तर्यात्रा शुरू हुई थी वह कवि को भी कहीं ले न गई। आत्म-चेतना के आडम्बर के बावजूद कविता का आत्म-संसार न बन सका। भाव दृश्य न बन सके तो काव्य-संसार की संरचना सम्भव नहीं है। कविता का आत्म-संसार भी दृश्यहीन नहीं होता, प्रगीतात्मक और नाटकीय दोनों रूपों में वह दृश्य हो सकता है, बशर्ते कवि भावों को विचारों में न बदलने लग जाए। नई कविता का भाव-संसार किन उपादानों से बनता है? एक वृहत्तर अध्ययन की खोज (आँगन के पार द्वार) से शुरू होकर राग-सम्बन्धों की वैचारिकता (कनुप्रिया) तक की इस यात्रा का लक्ष्य बार-बार उलझता चलता है। ऐसा नहीं लगता जैसे यह पूरा सर्जनात्मक दौर किसी ऐतिहासिक पीड़ा से होकर गुज़र रहा हो ! कहीं बाहरी विश्व से कवि की भाव-सम्वेदना की टकराहट नहीं होती, कहीं वह अपने से बाहर की घटनाओं से नहीं जूझता, कहीं किसी परिस्थिति में नहीं होता। प्रगीतात्मक और नाटकीय दोनों प्रकार की रचनाओं का यही हश्र होता है।
नामवर सिंह लिखते हैं, "अहंकेन्द्रित अनुचिन्तन के कारण कविता की संरचना में जहाँ वर्तुल विधान के कारण एक सीमा प्रकट हुई, वही वर्तुल संरचना ने भावबोध को भी सीमित किया।" और इस निष्कर्ष के आधार पर उन्होंने काव्य- रचना की अगली कड़ी पकड़ ली है, ऐसी रचनाओं की समीक्षा जो आत्मपरकता का आभास देकर भी अप्रगीतात्मक है। रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा और राजकमल चौधरी की कविताओं के सन्दर्भ में इस चर्चा को आगे बढ़ाया गया है। ’समाधि लेख’ श्रीकान्त वर्मा की एक लम्बी नाटकीय कविता है। ’आत्महत्या के विरुद्ध’ नाटकीय एकालाप है और ’मुक्ति-प्रसंग’ एक लम्बा प्रलाप है। पैराडाक्सेज नामवर सिंह को प्रिय है। चूँकि ये तीनों ही कवि एक ख़ास अन्दाज में पैराडाक्स की सृष्टि करते हैं, इसलिए इन पर इकट्ठा विचार किया गया है। वैसे इन तीनों रचनाओं की संरचना, सम्वेदना और विचार-सम्पदा में काफ़ी अन्तर है। मूलरूप में असंगत होता हुआ एक भावबोध है, जो कवियों को अन्दर-बाहर से जोड़ता है।
बहुत पहले मैंने रघुवीर सहाय की कविताओं को रक्तचापहीन रिपोर्ताज कहा था। नामवर सिंह ने मेरी आत्मीयता की व्याख्या को आत्मीय कहकर टाल दिया था। अब ज़रा इस आत्मीयता की अन्तरंग व्याख्या करूँ। पत्रकार की नाटकीय आत्मीयता में सब कुछ एक ’मैं’ के अधीन होता है। इसमें की कीमियागीरी में घुलनशील तत्व : मैं बने की घोल में सारा तथ्य घुल जाता है- उसकी स्वतंत्रता और वास्तविकता समाप्त हो जाती है। ’आत्महत्या के विरुद्ध’ में एक नाटकीय मैं का ऐसा ही स्फार है, जिसमें तथ्यों की वस्तुनिष्ठता घुलती रहती है। सब कुछ मैं के गुन्जलक में क़ैद हो जाता है और अपने सारे करतब के साथ यही मैं स्थितियों, घटनाओं और सम्बन्धों पर गुन्जलक मार कर बैठा शेष रह जाता है। इतिहास को नचाता हुआ, इतिहास के बीच गतिशील इकाई के रूप में नहीं, सर्वतंत्र स्वतंत्र सत्ता के विस्फोट के रूप में। इस अनात्म मैं का यही रहस्य है जिसकी और मैंने इशारा किया था। मैं के स्फार की यह मुद्रा आत्मीय नहीं हो सकती। वह अपनी समस्त आन्तरिक गतियों का नाटक करती हुई भी स्थित और बेजान साबित होती है, उसकी गतियाँ हमें कहीं नहीं ले जातीं, न किसी भावना तक और न ठोस मूर्त्त स्थितियों तक !
’समाधि-लेख’ में तो यह सब भी नहीं है जो ’आत्महत्या के विरुद्ध’ के आवेश में है। यहाँ एक नितान्त ठहरी और शिलीभूत भावना बार-बार अपने को दुहराकर व्यर्थ करती जाती है। खिड़की से झाँककर चिल्लाने की व्यर्थता के सिवा कुछ नहीं होता। यह चीख़ भी खिड़की के बाहर सुनाई नहीं पड़ती, चीख़ने वाले तक ही प्रतिध्वनि छोड़ जाती है, "मुझ से नहीं होगा / जो मुझ से / नहीं हुआ वह मेरा संसार नहीं।" पूरी कविता की मन्द-मंथरता की तारीफ़ करने का श्रेय ज़रूर नामवर सिंह को मिल सकता है, मगर मुझे यह मन्द मंथरता पंक्तियों के उठान की टकराहट को सम्भालने का परिणाम दिखती है। और इस कविता का निष्कर्ष एक ग़लत होते हुए भी भाव-सम्बन्ध की पीड़ा को चीख़ बनाकर खिड़की से बाहर फेंक देना ! वैसे पूरी कविता के लहजे में नाटकीयता ज़रूर है।
अन्दर से बाहर को संगत करने की पीड़ा मुक्तिबोध को ज़रूर है, किन्तु उनके पैराडाक्स के स्तर को रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा या राजकमल से एक नहीं किया जा सकता। अन्तिम दो कवियों से तो बिल्कुल ही नहीं। नामवर सिंह इसे ठीक- ठीक स्वीकार करते हैं और एकालाप के भीतर फैंटेसी के अन्यथाकृत अर्थ की व्याप्ति को पहचानकर साही की कविता ’अलविदा’ और मुक्तिबोध की ’अन्धेरे में’ की चर्चा करते हैं। इन दोनों कविताओं में फैंटेसी बराबर कवि के विज़न से जुड़ती रहती है, प्रतिकृतियों से बचकर निकलती रहती है और अर्थ को व्यापकता देती है। मगर ’मुक्तिप्रसंग’ में या ऐसी अनेक रचनाओं में प्रतिकृतियों से बचाव की कोई दृष्टि नहीं है।
क्या यह सही नहीं है कि नामवर सिंह ने ’कविता के नए प्रतिमान’ में सामयिक इतिहास की मूल लाक्षणिक विशेषता की प्रायः अवहेलना कर दी है? ऐसा दृष्टिकोण क्या संयोगवश अपनाया गया है ? या इसके पीछे इतिहास की भूमिका को नकारने का सचेत प्रयास है ? डॉ० नामवर सिंह से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे ऐसा सचेत रूप से करेंगे। जब वे विसंगति और विडम्बना को समकालीन इतिहास की मूल लाक्षणिक विशेषता के रूप में प्रतिष्ठित करने लग जाते हैं, तब आश्चर्य होता है। जिस ढंग से समकालीन कविता में विसंगति और विडम्बना की गहरे अर्थ से काटकर फ्राइवालस (Frivalous) बना दिया गया है, वह हास्यापद है। कहीं- कहीं नामवर सिंह की व्याख्या के उत्साह पर भी आश्चर्य होता है। क्या यह विडम्बना नहीं है कि नामवर ढेर सारी ऐसी कविताओं की व्याख्या कर लेते हैं जो सामाजिक जीवन के संसार में हमें नहीं ले जा पातीं और न विविधतापूर्ण मानवीय भावनाओं में ही गहरे उतार पाती हैं।
इनकी व्याख्या के लिए अगर एकदम नए कवियों की कुछ कविताएँ ली जातीं तो शायद कविता की बहुमुखी दृश्य-घटना का कोई रूप बन पाता। अकाल, आर्थिक संकट, युद्ध का आसन्न संकट, राजनीतिक अव्यवस्था और वामपंथी शक्तियों के बिखराव वाले समकालीन ऐतिहासिक परिवेश को आदमी की आन्तरिक व्यर्थता में न बदल कर जो कवि सार्थकता की तलाश में है उनका उदाहरण भी होना चाहिए था। सामयिक भारतीय जीवन और मानवीय आदर्शों के लिए संघर्ष करने वाले कवियों की कमी नहीं है जो इस विडम्बना को सहने की स्थिति में नहीं है, मज्जाक-मज़ाक़ में भी नहीं।
सामाजिक यथार्थ और रचनात्मक चेतना के अन्तर्य को समझने के लिए आज हमें आलोचना के नए हथियार ही नहीं गढ़ने हैं बल्कि गढ़े हुए हथियारों की आलोचना भी करनी है। क्या आधुनिक रचनाएँ केवल रचनाकार के विचार के रूप में विकसित हो सकती हैं ? क्या कविता का कथ्य उसकी संरचना को, कार्य विस्तार को, निश्चित नहीं कर सकता? क्या उसकी जगह स्वतंत्र संरचनाएँ काव्यगति और प्रवाह का निर्माण करती हैं ? इन सबको नामवर सिंह ने प्रश्न के रूप में स्वतंत्र रूप में नहीं उठाया, आलोचना के क्रम में विकसित किया है। और ऐसे कवियों के विश्लेषण के क्रम में विकसित किया है जो स्वयं सामाजिक विचारों और यथार्थ के अन्तर्य को एक हद तक स्थायी मानते हैं। बुर्जुआ काव्यशास्त्रीय पद्धति इतिहास के समकालीन लाक्षणिक अर्थ को इसी रूप में ग्रहण करती है।
आश्चर्य है कि नामवर सिंह जैसे लेखक आलोचना के उन हथियारों का इस्तेमाल करते हैं, जो इस अन्तर्य को ही काव्य- सत्य मानकर इतिहास को पृष्ठभूमि में ले जाते हैं। श्रीकान्त वर्मा, रघुवीर सहाय और साही के उदाहरण से यह सिद्ध नहीं होता कि ये कवि यथार्थ को काव्य-संरचना की ऐतिहासिक गति और परिवर्तन से जोड़ने के लिए विचारों से बाहर जाते दिखाई पड़ते हैं। नामवर सिंह ने इन कवियों के इस अन्तर्विरोध को पूरी पुस्तक में कहीं विश्लेषित नहीं किया। वे कहीं बौद्धिक कविता पर लट्टू होते हैं, कहीं कविता में बिम्ब धर्म को नकारते हुए सपाटबयानी की वकालत करते हैं और कहीं बिम्ब को यथार्थ से भागने का आधार बता देते हैं। कविता से ऐन्द्रियता का निषेध समकालीन बुर्जुआ सौन्दर्यशास्त्र का एक पहलू बन गया है। अनेक विचार रूपों और संरचनात्मक कोटियों द्वारा जब इस ऐन्द्रियता को बदला जा रहा हो, अनुभूति की जटिलता और प्राथमिकता के चर्चे जोर पकड़ रहे हों, तब एक सचेत मार्क्सवादी को सम्भल- सम्भलकर क़दम रखना चाहिए। अन्यथा बुर्जुआ सौन्दर्यशास्त्र की उलझनों में उसके भटक जाने की पूरी सम्भावना रहती है।
’कविता के नए प्रतिमान’ वस्तुतः प्रतिमानों की भीड़ है, जिसमें सही प्रतिमान दबा पड़ा रह जाता है। इन फुटकल प्रतिमानों के विनियोग में नामवर सिंह उतनी संगति भी नहीं बरत पाते, जितना बुर्जुआ सौन्दर्यशास्त्र बरतते हैं। एक सुसंगत भौतिकवादी के रूप में नामवर सिंह का सही रूप नहीं उभर पाता। सबसे बड़ी कमी इसी बात की है, जो इस पुस्तक को पढ़ते हुए बार-बार ध्यान में आ जाती है। कविता के मूल्यांकन में संरचनावादी दृष्टि कहाँ मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र की मान्यताओं से टकराती है, इसे जानना हो तो नामवर की यह पुस्तक एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण बन सकती है। जिस तरह हेगेलियन द्वन्द्ववाद विचारों की गत्यात्मकता पर आश्रित है और काल-चाप से आपकी प्रत्यवस्थाएँ निर्मित कर उन्हें एक उच्च संश्लेषण में बदल लेता है, उसी तरह नामवर का संरचनावादी दृष्टिकोण भी एक कल्पित ’पूर्णता’ का संश्लेषण बन कर रह जाता है, जिसका इतिहास, अनुभव और मानवीय कार्य-व्यापारों तथा भावनाओं के मूर्त विश्व से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। ’कविता के नए प्रतिमान’ की यह संरचनावादी दृष्टि ख़तरनाक औजारों से खेलती है और इस खेल में इतनी उलझ जाती है कि उसका क्रमिक रूपान्तरण भाववाद में हो जाता है। प्रतिमानों की भीड़ का यही कारण है। पूरी पुस्तक पढ़ लेने के बाद भी ऐसा नहीं लगता जैसे लेखक एक रचनात्मक लड़ाई को सही दिशा में बढ़ाने का आग्रही हो। खण्डों की आत्म स्वतंत्र स्थिति और पुस्तक में उनकी सहउपस्थिति की कोई योजनाबद्ध रूपरेखा नहीं उभरती।
जो सबसे बड़ी चूक, इस पुस्तक को बलात् सीमित कर देती है, वह है समकालीन कवियों की एक पूरी पीढ़ी के रचनात्मक संघर्ष को नज़रअन्दाज़ कर देने वाली भूमिका। कमलेश, ऋतुराज, कैलाश वाजपेयी, से मणि मधुकर, विजेन्द्र, श्रीहर्ष आदि तक कविता के जो अनेक समकालीन परिरूप उभर रहे हैं, उनकी चर्चा न करके इस पूरे प्रकरण को किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुँचाया जा सकता। धूमिल की चर्चा भी व्यवस्थित ढंग से नहीं है। इस प्रकार एक पूरे रचनाशील समुदाय को इस प्रतिमान की खोज से ’एलियनेट’ करके वस्तुतः नामवर ने स्वयं अपने निष्कर्षों का निषेध किया है।
वास्तविकता को जिस पूरक भूमिका के रूप में वे साहित्य की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं, उसी की कई सीमाएँ उभर आई हैं और यह पूरा संवाद एक भंगिमा बनकर रह गया है, दृष्टिकोण नहीं बन सका है।
(सामयिक, 1970)
श्रीधर करुणानिधि के सहयोग से 'गद्य कोश’ में प्रकाशित