कांग्रेस का झंडा ही न रहा / अब क्या हो? / सहजानन्द सरस्वती

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और जब कांग्रेस का अपना झंडा भी जाता रहा, उसका त्याग कर दिया गया तो फिर वह जिंदा रहेगी क्यों कर? उस पर से चर्खे का चिद्द हट कर चक्र का बन गया। कांग्रेसी झंडे के सामने मुस्लिम लीगवाले कभी न झुके। मगर इसके सामने झुके, इसका आदर किया। इस थोड़े से परिवर्तन के फलस्वरूप वह झंडा बदल गया। पाकिस्तान में भी लीगी झंडे में जरा-सा परिवर्तन कर के ऐलान कर दिया गया कि यह सरकार का, राष्ट्र का झंडा है, न कि लीग का। वही बात यहाँ भी हो गई। यह सरकारी झंडा हो गया। कांग्रेस का निजी झंडा कोई न रहा। फिर श्रीयुत देव के शब्दों में सामाजिक क्रांतिSocial revolution वह किस झंडे के नीचे करेगी? क्या सरकारी झंडे के ही नीचे? तो क्या सरकार इसे होने देगी? क्या वह इसे बर्दाश्त भी कर सकती है? क्या भारत सरकार यह ऐलान करेगी कि वह जनतांत्रिक समाजवाद की स्थापना के लिए क्रांति करना चाहती है? और क्या कांग्रेस और सरकार एक ही है?

तबतो बला होगी और लोगों के गुस्से का ठिकाना न रहेगा। आज अन्न, वस्त्र, नमक, तेल, दवादारू, लोहालक्कड़ के लाले पड़े हैं और जनसाधारण की वेदना का अंत नहीं है। घूसखोरी और चोरबाजारी से नाकोदम है। पुलिस की मनमानी घरजानी आसमान छू रही है! खून-खराबी, लूट-पाट जारी है। तो क्या इन सभी बातों के लिए जनता अपना क्रोध कांग्रेस पर ही निकाले? मगर उस दशा में कांग्रेस सामाजिक क्रांति करने के बजाय आत्महत्या कर लेगी, उसे मर जाना होगा, उसका साथ देने को कोई तैयार न होगा! और अगर दोनों एक ही हैं तो कई प्रांतों में प्रधानमंत्रियो के साथ कांग्रेस के अधयक्षों की तनातनी क्यों चलती है? यदि प्रधानमंत्री झंडे की सलामी लेना चाहता है तो प्रांतीय कांग्रेस के सभापति क्यों बुरा मानते और खुद सलामी लेने को दौड़ पड़ते हैं? इसी तरह की सैकड़ों बातें चिल्ला-चिल्ला के बताती हैं कि कांग्रेस और सरकार दो संस्थाएँ हैं। इसीलिए कांग्रेस चाहती है, जैसा कि श्री देव कहते हैं, कि सरकार जो अपनी, किसान-मजदूरों की नहीं है उनकी बन जाए। मगर झंडे के अभाव में उनकी चाह केवल पवित्र इच्छा मात्र है। वह कुछ कर नहीं सकती।