कांग्रेस को खत्म होना चाहिए / अब क्या हो? / सहजानन्द सरस्वती

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कुछ समय पूर्व-राष्ट्रपति के आसन पर आसीन होने के पहले-आचार्य कृपलानी ने एक लेखमाला तैयार की थी, जो अंग्रेजी अखबारों में छपी थी और जिसके अनुवाद भी छपे थे। अगर मेरी समझ मुझे धोखा नहीं दे रही है, तो उनने स्वीकार किया था कि आजादी मिलने के बाद कांग्रेस की जरूरत न रहेगी। मगर आज तो वह भी यह बात शायद नहीं मानते और उसे कायम रखना चाहते हैं। उनने तो यह भी माना था कि कांग्रेस के द्वारा समाजवाद की स्थापना नहीं की जा सकती। यह हैं उनके शब्द, 'For all these reasons the congress cannot be an organisation for the estableshment of socialism, not atleast till Purna Swaraj is attained. And afterwords the Congress as Congress that is as an organisation that works and fights for Indian national independence ceases to exist. The old name may be appropriated by a reforming or reactonary or neutral group, but, it will not be the congress whose goal is complete independence of India or Purna Swaraj, for the simplereason that has been achieved already.'

इसका आशय यह है कि 'इन्हीं कारणों से समाजवाद की स्थापना करनेवाली संस्था कांग्रेस नहीं हो सकती, कम-से-कम पूर्ण स्वराज्य की स्थापना तक तो यह नहीं ही हो सकती। और, उसके बाद तो यह कांग्रेस कांग्रेस के रूप में या यों कहिए कि उस संस्था के रूप में, जो भारत की राष्ट्रीय आजादी के लिए लड़ती है, रही न जाएगी, खत्म हो जाएगी। कोई सुधारवादी, प्रतिक्रियावादी या उदासीन दल कांग्रेस के इस नाम का उपयोग भले ही कर ले। लेकिन यह वह कांग्रेस हर्गिज न होगी, जिसका लक्ष्य है भारत की पूर्ण स्वतंत्रत या पूर्ण स्वराज्य और इसका सीधा कारण यही है कि वह लक्ष्य तो हासिल होई गया है।'

यहाँ आचार्य कृपलानी तीन बातें कहते हैं। पहली यह कि कांग्रेस के जरिए समाजवाद की स्थापना नहीं हो सकती कम-से-कम पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति तक तो नहीं ही। दूसरी यह कि उसके बाद कांग्रेस रही न जाएगी, खत्म हो जाएगी। तीसरी यह कि केवल सुधारवादी या प्रतिक्रियावादी ही दल कांग्रेस के नाम का उपयोग पूर्ण स्वराज्य-प्राप्ति के बाद भी करना चाहेंगे, न कि क्रांतिकारी। इनमें पहली बात में जो अंत में यह पंख लगा दिया है कि कम-से-कम स्वराज्य प्राप्ति तक तो नहीं ही, वह उनका निजी मत नहीं है। क्योंकि उसके बाद तो वह कांग्रेस की निर्वाणमुक्ति या उसका खात्मा मानते हैं। फलत: वह कहना केवल उन लोगों की दृष्टि से है, जो कांग्रेस को बाद में भी ठीक उसी तरह घसीटे फिरना या उससे चिपके रहना चाहते हैं, जैसे बंदरिया अपने मरे बच्चे के साथ चिपकी रहती है और उसे छोड़ती नहीं।

अब हमारा सीधा सवाल उन लोगों से है जो कांग्रेस के द्वारा ही जनतांत्रिक समाजवाद की स्थापना चाहते हैं, कि पूर्ण स्वराज्य गत 15 अगस्त को मिला या नहीं? यदि मिल गया, तो अपनी लक्ष्य सिध्दि के बाद कांग्रेस खत्म हो गई, मुक्त हो गई, जैसा कि राष्ट्रपति ने खुद माना है। और अगर वह नहीं मिला और उसकी स्थापना अभी बाकी ही है तो, उन्हीं के शब्दों में समाजवाद की स्थापना कांग्रेस के द्वारा तब तक नहीं हो सकती जब तक पूर्ण स्वराज्य स्थापित न हो ले। फलत: समाजवाद के रूप में कांग्रेस के लक्ष्य को बदल कर जो उसे आगे भी घसीटना और साथ ही क्रांतिकारी कहलाना चाहते हैं ऐसे लोग अपने भीतर ही पहले खुद तो निपट लें। यदि उसके प्रधानमंत्री श्री शंकरराव जी ऐसा चाहते हैं, तो राष्ट्रपति साफ कहते हैं कि नहीं-नहीं, यह तो असंभव है। आजादी मिलने के बाद तो कांग्रेस प्रतिगामी, प्रतिक्रियावादी और दकियानूसों की ही जमात हो सकती है, न कि क्रांतिकारियों की। यह तो केवल एक ही काम में क्रांतिकारी रह सकती है, क्रांतिकारियों की जमात रह सकती है, और वह है राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई, जिसमें सारा राष्ट्र लड़ता है। यही बात राष्ट्रपति उसी लेख में यों कहते हैं, 'It can afford revolutionary action only on one front and that is the notional front.'

जो लोग अब कांग्रेस के द्वारा ही समाजवाद की स्थापना का सब्जबाग दिखा कर जनता को फाँसना चाहते हैं, उन्हें आचार्य कृपलानी की स्पष्टोक्तियों को गौर से विचारना और अपना विचार बदलना उचित है। यदि वे कोई और ही कांग्रेस बना कर उसके जरिए यह काम करना चाहें, तो बात दूसरी है। मगर गत 62 साल से जिस कांग्रेस ने आजादी का संघर्ष चलाया है, यदि उसी से उनका मतलब है, तो वे भूलते हैं, बेअदबी माफ हो। घरेलू मामले में उसने निरंतर वर्ग-सामंजस्य का पाठ पढ़ा है और सदा सुधारवादी रही है। वही अब बुढ़ापे में वर्ग-विद्वेष और क्रांति का पाठ इसी मामले में पढ़ेगी, यह असंभव है। बूढ़े तोते को रामनाम नहीं पढ़ाया जा सकता।

अच्छा, तो अब उसी लेखमाला में से कृपलानीजी के कुछ वचनों को सुनें। ये वचन यद्यपि उस बड़े लेख में जगह-जगह से लिए गए हैं, फिर भी इनका आशय गड़बड़ होने नहीं पाया है। वे यों हैं, 'The national movement must ever be anxious to eliminate internal conflicts and achieve unity of purpose. A national movement has, therefore, to strike a middle path. In removing internal injustices, whatever its theoretical beliefs and predilections, it must content itself with reformatory activity. Again, the origin and evolution of the Congress precludes it from being a purely class organisation. Socialism is based upon class antagonism, if not class hatred and class war. A national organisation is fundamentally bases upon class collaboration. An organisation working for the establishment of socialism cannot include as its members zamindars, capitalists and what are generally called bourgeois classes. In the present context an organisation for the establishment of socialism can only be a sectional organisation.'

अभिप्राय यह है कि 'राष्ट्रीय आंदोलन सदा फिक्रमंद रहता है कि देश के भीतर संघर्ष होने न पाए और सभी लोगों की दृष्टि एक ही चीज आजादी पर हो। इसीलिए उसे मध्यमार्ग या वर्ग-समन्वय का रास्ता अपनाना होता है। चाहे उसके सैध्दांतिक विचार और झुकाव कुछ भी क्यों न हों, फिर भी मुल्क के भीतरी संघर्षों को मिटाने के लिए उसे सुधारवादी मार्ग का ही अनुसरण करना पड़ता है। कांग्रेस की उत्पत्ति तथा विकास भी इसे किसी वर्ग-विशेष की संस्था होने में बाधक हैं। समाजवाद का आधार यदि वर्ग-युध्द एवं वर्गों की पारस्परिक घृणा न भी हो, तो उनके स्वार्थों का परस्पर विरोध तो उसका आधार हुई। राष्ट्रीय संस्था का आधार बुनियादी तौर पर वर्गों का पारस्परिक सामंजस्य ही है। समाजवाद की स्थापना के लिए प्रयत्नशील संस्था जमींदारों, पूँजीवादियों और आमतौर से 'बुर्जुवा' नामधारियों को अपने मेंबर नहीं बना सकती। वर्तमान दशा में समाजवाद की स्थापना के लिए उद्योगशील संस्था राष्ट्रीय न हो कर सिर्फ वर्ग-विशेष की ही हो सकती है।'

जो लोग सचमुच विश्वास रखते हैं कि राष्ट्रीय कांग्रेस को क्रांतिकारी जमात और समाजवाद की स्थापना का यंत्र बना लिया जा सकता है, उनके लिए भी ऊपर लिखे वचनों में काफी मसाला है, जिससे वे अपनी भूल सुधार सकते हैं। आजादी मिलने के बाद राष्ट्रीय संस्था प्रतिगामी बन जाती है, ऐसा मानने के लिए बुनियादी बातें ऊपर लिखी गई हैं। एक तो कांग्रेस का जन्मजात आधार ही इस बात का विरोधी है। तुर्रा यह कि बराबर 62 वर्षों तक वही कायम रह के अभ्यस्त हो गया है, उसके रग-रग में प्रविष्ट कर गया है। फलत: वह बदला नहीं जा सकता। जो लोग उसे बदलने का यत्न करेंगे वे खुद बदल दिए जाएँगे, अब ऐसी ताकत उसमें आ गई है। इसीलिए 'तजहु आस निज-निज गृह जाहू'। यह तो दरिया की धारा है, जिसके अनुकूल ही बवंडर भी बह रहा है। फिर भी उसके प्रतिकूल जाने का यत्न अपने आपको डुबाने के लिए दुस्साहस-मात्र है। इतना ही नहीं जनसाधारण में ऐसा विश्वास पैदा कर के उनके लिए इस प्रकार भविष्य में भारी खतरा भी खड़ा करे दिया जाएगा, जिसमें वे आसानी से जा फँसेंगे। लगातार एक बड़ी मुद्दत तक कांग्रेस को मानने-जानने का जादू तो जनसाधारण पर चढ़ा ही है। उन्हें विश्वास भी है कि अब उनके ही हाथ में सत्ता आ जाएगी। जनता भोली-भाली होती जो है। हमारा तो फर्ज है कि उस जनता के ऊपर से यह जादू हटाएँ और बताएँ कि यह विश्वास निराधार है, धोखा है, खतरनाक है। न कि उसे और भी मजबूत करे दें और इस प्रकार नया जादू चढ़ने का मौका दें। आज हमारी ताकत इस वस्तुस्थिति के स्पष्टी करण और नवीन मार्ग के निधर्रण में लगनी चाहिए, न कि इस भूलभुलैया को कायम रखने एवं स्थायी बनाने में। यह तो जनता के प्रति-किसानों एवं मजदूरों के प्रति-भारी विश्वासघात होगा, उन्हें ले डूबने की तैयारी होगी। इससे प्रतिगामियों को बड़ी ताकत मिलेगी।