काली-कलूटी / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
(काली-कलूटी / जयश्री राय से पुनर्निर्देशित)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाथरूम का दरवाजा अंदर से बंद करके उसने अपने कपडे उतारकर खूंटी पर टांग दिये थे. छोटे-से बाथरूम में ठीक से खडे होने के लिए भी पर्याप्त जगह नहीं थी. एक कोने को घेरकर बडा चहबच्चा था और दीवार पर कुछ कीलें गढी थीं. ऊपर एक छोटा रोशनदान था जिसपर साबुन, तेल, दंत मंजन जैसी चीजें रखी रहती थीं. उसके पीछे घर की चार दीवारी के पार एक बहुत बडा नीम का पेड था जिसपर दिनभर कौए बोलते रहते थे.

बाथरूम में दाखिल होते समय उसे शैम्पू के साथ साबुन की बट्टी थमाते हुए बडी भाभी ने विनोदपूर्ण अंदाज में उससे कहा था- खूब रगडकर नहाना लाडो, फिर देखना, तुम भी फिल्म तारिकाओं की तरह फेयर एंड लबली हो जाओगी. कहते हुए यथासंभव गंभीर रहने के बावजूद उनकी आँखों में गहरा व्यंग्य छलक आया था. आंगन में कुएँ के जगत पर बैठकर बर्तन मांजती हुई महरी मुँह दबाकर अपनी हँसी रोकने का प्रयत्न करती रही थी.

वह देखने में सुंदर नहीं है. उसका रंग गहरा साँवला है. इस कारण अबतक उसकी शादी नहीं हो पायी है. उम्न्न तीस पार कर रही है. पूरा घर उसकी शादी न हो पाने की वजह से परेशान है. अबतक न जाने कितने रिश्ते आये और टूट गये. किसी को उसका रूप पसंद नहीं आता तो किसी को उसका रंग ! पढाई-लिखाई में भी वह हमेशा से साधारण ही रही थी. किसी तरह पास क्लास में बी. ए. पास करने के बाद स्थानीय कचहरी में उसे टाईपिस्ट की नौकरी मिल गयी थी. यही गनीमत है. इस नौकरी की वजह से भैया-भाभी का रबैया उसके प्रति कुछ ठीक हो चला है, वर्ना वे तो उससे कटे-कटे ही फिरते थे.

उन सबके बीच में माँ थीं- अपनी मजबूरियों के सलीब में लटकी हुई. एक तरफ उनकी व्यस्क, विवाह योग्य बेटी थी तो दूसरी ओर उनकी बहू और बेटा जिनका मन रखकर चलना अब उनकी व्यावहारिकता ही नहीं, विवशता भी बन थी. अपनी अन्य दो बेटियों का विवाह कर अब वे रातदिन अपनी छोटी बेटी के विवाह को लेकर परेशान रहा करती थीं.

आज सुबह जब वह ऑफिस के लिए निकल रही थी, बडे भैया ने यह कहकर रोक लिया था उसे कि आज लडकेवाले उसे देखने आयेंगे. उन्होंने शायद अपने आने की सूचना अचानक ही दी थी. घर में एकदम से हडबडी मच गयी थी. भैया बाजार से खाने-पीने का सामान ले आये थे. माँ ने जल्दी-जल्दी दरवाजे, खिडकियों पर धुले हुए पर्दे डालकर मेज पर फूलकारीवाला सफेद मेजपोश बिछा दिया था. उसके द्वारा सीले गये तकिया के गिलाफ, चादर, मेजपोश आदि भी निकालकर बैठक में नुमाइश के लिए करीने से सजा दिए गये थे.

बडी भाभी ने बडे बेमन से अपनी लाल बार्डरवाली तसर सिल्क की साडी और मोतियों का सेट निकाल दिया था. कटाक्ष करने से भी नहीं चुकी थीं- इस बार अगर ऊपरवाले की कृपा से तुम्हारी शादी पक्की हो गयी तो तुमसे गिन-गिनकर दस ड्राई क्लीन के पैसे लूंगी ननदजी ! फिर महरी की तरफ मुडकर हल्के से अपनी बायीं आँख दबायी थी- इसे देखने-दिखाने के चक्कर में अबतक न जाने मेरी कितनी साडियों का सत्यानाश हो चुका है...

भैया ने उन्हें घुरकर देखा था और वह अपनी हँसी दबाती हुई दूसरे कमरे में चली गयी थी. माँ ने उसकी बात न सुनने का एक बार फिर अभिनय किया था. इसी तरह वह अपनी बेटी के अपमान और बहू के कोप भाजन बनने से स्वयं को बचाये रखती हैं.

सबकुछ सुन-समझकर भी वह अनजान बनी अपने नाखून तराशती रही थी. बीते कई वर्षों में वह अपने अंदर एकदम भोंथरा, कुंद हो आयी है . अब हर बात पर उसे दुख नही होता, एक तरह से उन्हें इनकी आदत-सी पड गयी है.

उसके हाथ-पाँव सूखे और असुंदर हैं. गाँठ पडी अंगुलियों पर की त्वचा ढीली और झुर्रियोंदार है. पाँव की अंगुलियाँ भी मोटी और ऊपर की तरफ से एक अनुपात में छँटी हुई हैं. मैनीक्योर, पैडिक्योर की तो कोई गुंजाइश नहीं थी, किसी तरह नाखूनों को गोलाई में काटकर उन पर हल्के मोतिया रंग की नेल पॉलिश की लीपा-पोती कर दी गयी थी.

माँ ने बेसन, मलाई का लेप तैयार कर सुबह ही उसके चेहरे पर लगा दिया था. वह बिना कुछ कहे सबका कहा किये जा रही थी. माँ को कभी-कभी अपनी बेटी की इस चुप्पी से बहुत डर लगता है. उन्हें लगता है, उसकी बेटी के अंदर कभी बहनेवाली जीवन की उजली नदी धीरे-धीरे मरती जा रही है. वह उन्हीं के सामने चुपचाप ऊसर होती जा रही है. कितनी जीवंत, प्रांजल हुआ करती थी कभी. हँसी में किसी अल्हड नदी का-सा किल्लोल हुआ करता था... गहरी साँस लेकर वह आकाश की तरफ देखती हैं- ईश्वर ने उसे कैसा उजला मन दिया है, मगर कोई उसे देखना नहीं चाहता. सबको रूप चाहिए, गोरा रंग चाहिए... अपनी बेटी को तिल-तिलकर घुटते-मरते हुए देखने के लिए वह विवश भी है और अभिशप्त भी. उसके सूने, क्लांत चेहरे की तरफ देखकर वह एकांत में अपनी आँखें पोंछती है और भगवान् के उद्देश्य में हाथ जोडती हैं.

मलाई, बेसन का उबटन लगाकर भी उसके रूखे चेहरे पर कोई निखार नहीं आता. बल्कि चेहरा और ज्यादा पीला और त्वचा रूक्ष लगने लगता है. न जाने क्यों उसके माता-पिता ने उसका नाम लावण्य रख दिया था. यह एक बहुत बडी विडंबना हो गयी थी उसके साथ. लोग उसका नाम सुनते ही कौतुक से मुस्कराते- लावण्य...! अच्छा !

‘बांझ धरती पर कभी फूल नहीं खिलते...‘ आईने में अपने चेहरे की तरफ देखकर उसे कहीं बहुत पहले पढी किसी कविता की यह पंक्ति याद आती और वह अपना मुँह फेर लेती. सुबह उठकर आईने में अपना चेहरा देखने से भी वह कतराती है.

बडी भाभी कामकाज के बीच उसे बहुत हिकारत से देख रही थी. वह स्वयं बहुत खूबसूरत है. गोरी और सुडौल. दो बच्चों के जन्म के बाद शरीर और भी भरकर खिल आया है. सोने के आभूषण उनके शरीर पर झलमलाते हैं. गहरे, चटकीले रंग की साडियों और मांगभर सिंदूर में सूरजमुखी की तरह दर्प और गुमान से दपदपाती फिरती हैं. भैया पूरी तरह उनके वश में हैं. ऊपर से उनका मायका भी सम्पन्न है. अपने साथ घरभर कर दहेज लायी हैं. सभी पर उनका रौब जमा हुआ है.

उनके भव्य व्यक्तित्व के सामने लावण्य का पहले से ही दबा-ढँका स्वभाव और भी दयनीय होकर रह गया है. भाभी भी उसे उसकी तुच्छता, हीनता का बोध कराने का एक भी अवसर हाथ से जाने नहीं देतीं. उनके रातदिन के ताने, उलाहने और ह्यदयहीन कटाक्ष से लावण्य के अंदर का रहा-सहा आत्म विश्वास भी एक तरह से समाप्त हो गया था. वह किसी योग्य नहीं. उसे कभी कोई नहीं अपनायेगा. अक्सर वह बाथरूम में नहाते हुए रोती है, इतना धीरे कि कोई सुन न सके- मुझे भी प्यार चाहिए, अपना घर, परिवार चाहिए...

वह जहाँ भी जाती है, उसका अभी तक विवाह न हो पाना ही मुख्य मुद्दा बना रहता है. पहले-पहले इनके जबाव में जो बहाने गढे जाते थे वे अब उसे स्वयं ही हास्यास्पद प्न्नतीत होने लगे थे. इसलिए अब वह अधिकतर सामाजिक, धार्मिक कार्यक्रमोँ जैसे शादी, मुंडन, जनेऊ आदि में जाने से कतराने लगी थी...

उसके साथ की लडकियाँ अबतक एक-एककर ब्याही जा चुकी थीं. शादी के कुछ महीनों बाद ही वे अक्सर गर्भवती होकर अपने मायके लौट आती थीं. उनके निखरे चेहरे, सुहाग-राग की कहानियाँ, गर्व, तुष्टि से आप्लावित रूप... इन बातों से एक तरह से उसे वितृष्णा ही हो गयी है. उसे लगता है मानो सब जान-बुझकर उसका दिल दुखाने के लिए ही अपने सौभाग्य और भरी-पूरी गृहस्थी की कहानी उसके सामने सुनाते रहते हैं. अपने सुख की ढेर सारी बातें बताकर वे चेहरे पर सहानुभूति के कृतिम भाव ओढकर उससे पूछते- और... तेरा कुछ हुआ? जो जग जाहिर है, उसका जबाव देना वह जरूरी नहीं समझती थी. चुपचाप उठकर वहाँ से चली आती थी. उसे लगता था, उसे देखते ही यकायक लोग चुप हो जाते हैं या उसके पीछे कानाफूसियाँ तेज हो जाती हैं.

सभी से किनारा करते-करते आज वह प्रायः निसंग हो आयी है. दफ्तर में अपने काम से काम रखती है और घर में फुर्सत के क्षणों में अपने में डूबी अकेली पडी रहती है. शामें उसकी अधिकतर छत के एकांत में खडी-खडी कट जाती हैं.

अफ्नैल की उल्टी-पल्टी चलती हवा में सहजन के फूल झरते रहते हैं, दूर डैम के शांत बँधे हुए पानी में पूरा आकाश तैरता रहता है. वह मौसम की करवटें देखती है, धरती का हर पल बदलता रूप भी. बस एक वह है जो वही की वही रह गयी है- अपनी ठहरी हुई किस्मत के साथ. एक साँवले शरीर की कैद में मन का सारा उजलापन भी धीरे-धीरे धूसर पडता जा रहा है. गुजरते हुए समय के साथ मन का सोना देह की माटी में दवा पडा अपनी चमक, अपना रंग खोता जा रहा है... मगर इस माटी की दुनिया को माटी का ही मोह है, स्नेह, संवेदना जैसी चीजों का कोई मोल नहीं... कोई उसे अपनाने, मांजने को तैयार नहीं होता.

मगर अपनी मैली त्वचा के नीचे वह भी उतनी ही इंसान है जितनी गोरी रंगतवाली लडकियाँ. उसके सपने, उसकी इच्छाएँ, उसका मन सिर्फ काली होने से दूसरों से अलग नहीं हो जाता. कोई उसे छूकर क्यों नहीं देखता, उसके परस में उतनी ही कोमलता है जितनी किसी खूबसूरत लडकी के स्पर्श में होती है. उसकी साँसों में वही हरारत है, वही चाहना जो एक सुंदर शरीर की मालिक के पास होती है. कोई उसकी आँखों में झाँके तो ! सुने तो उसकी मूक चावनी की भाषा... वह प्यार देना चाहती है- स्वयं को उजाडकर- ढेर-ढेर सारा... कोई बस ले ले उसे, सब रह गया है उसके भीतर- पहाड बनकर- स्नेह, करूणा, कामनाएँ, इस मैले-कुचैले, असुंदर शरीर के भीतर वह दबकर रह गयी है, मकबरा बन गया है यह साँवला रूप उसकी आत्मा का, जिसका कोई रंग नहीं होता, होती है बस अरूप संवेदनाएँ, जिसका कहीं कोई दाम नहीं...

वह अकेले में पडी-पडी सोचती है, जिंदगी अब बाजार में पडी हुई एक वस्तुमात्र है, उसी के हाथों रेहन चढकर रह गया है. इंसान को कैसा होना चाहिए, यह यही बाजार तय करता है. दुनिया कैसी है, यह बात नहीं, दुनिया कैसी होनी चाहिए, यह बात अहम् हो गयी है. और यह बात बताती है लोगों को कोई और नहीं, यही बाजार- बडी-बडी बहु राष्ट्रिय कम्पनियाँ- अपने तरह-तरह के उत्पादों के विज्ञापन के जरिये. यह कम्पनियाँ तय करती है, इंसान को कैसा दिखना चाहिए, कैसे उठना-बैठना चाहिए, कैसे जीना चाहिए... सुबह से लेकर राततक- हर बात, हर काम के लिए इनका मशविरा लेकर चलना जरूरी हो गया है. वर्ना आज के दौर में पिछड जाने का डर है और यह कोई भी नहीं चाहता. सभी को अप टु डेट और टेंड्री बने रहना है.

यह सह्यदय, अच्छी प्न्नसाधन कम्पनियाँ बताती हैं, आज की औरत को गोरी, खूबसूरत, जीरो फिगर की होनी चाहिए, जिसके बाल रेशमी, मुलायम और रंगीन हो, पलके मसकारा लगाकर घनी, लंबी हों, होंठ इस रंग के हों और गाल उस रंग के हों. वह डिजाइनर अंतर वस्त्र पहने और सुबह अमूक कम्पनी का कार्न फ्लैक अमूक स्किमड् मिल्क के साथ करे. तभी उसकी शादी होगी, तभी उसे कार्पोरेट कम्पनियों में ग्लैमरस् नौकरी मिलेगी, उसके बच्चे गोल-मटोल और हाई आई क्यूवाले पैदा होंगे तथा पति मिलेगा गुड लूकिंग, हैंडसम और बेहद प्यार करनेवाला जो उसे अक्षय तृतीया तथा धन तेरस के अवसर पर हीरों का हार दिलवायेगा तथा मॉरिसस में हॉली डे करवाते हुए प्रेम के लिए चाकलेट फ्लेवरवाले कंडोम का इस्तेमाल करेगा. इसे वे एक्स फैक्टर का नाम देते हैं. यह एक्स फैक्टर का होना सबके लिए बहुत जरूरी हो गया है.

वह उदास हो जाती है. सोचती है, वह तो सबकुछ इस्तेमाल करती है- गोरेपन की क्निम, शैम्पू, साबुन, टुथ पेस्ट... सबकुछ ! फिर भी वह अबतक वही की वही क्यों बनी हुई है- साँवली, सपाट, असुंदर...

विज्ञापन तो चिल्ला-चिल्लाकर यही बताता है कि किसी के पास अपना कुछ भी होने की जरूरत नहीं. सबकुछ बाजार में उपलब्ध है, बस जाओ और उठाकर ले आओ- चेहरा, फिगर, प्रेम और भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति, रिश्ते और रिश्तों की जमापूंजी... कोई चाय लोगों को अन्याय, भ्रष्टाचार के खिलाफ लडने की प्रेरणा देती है तो कोई सुगंध इंसान में प्रेम और इच्छा जगाती है. उसने तो उनकी सारी बातें मानी- माननी पडी, उनपर अमल भी किया, इन सबके बावजूद... सब मृग मरीचिका ही तो निकला- सोने का हिरण !

आकाश में मौसम का एक टुकडा नया चाँद उगता है, तुलसी पर हर सिंगार के उजले फूल अलस झरते हैं, वह देखती है और देरतक देखती रहती है. अंदर धीरे से एक पूरे आकाश का सुनापन घिर आता है.

कभी गिरती हुई सांझ में घर लौटते पक्षियों की काले मनकों की-सी कतारें यहाँ-वहाँ से टूटती हुई साँवली हवा में अस्पष्ट बिला जाती है, दूर कहीं अकेली पड गयी किसी टिटहरी की अनवरत पुकार उसे अनाम दुख से भर देती है...

कभी-कभी माँ पास आ खडी होती है. अपनी पीठ पर रखा उनका हाथ वह महसूस करती है, उससे निसृत होती संवेदना भी, मगर कुछ कह नहीं पाती. इच्छा नहीं होती. एक मौन संवाद बहुत कुछ कहता-सुनता देरतक दोनों के बीच बना रहता है. अंत में रह जाती है दो जोडी गीली आँखें और कुछ उच्छ्वास- लंबी और गहरी... यही माँ-बेटी के साझ का है, बाकि वही अजनबीपन और पथराया हुआ अछोर मौन...

छत से उतरते हुए माँ अपना मुखौटा तलाशने लगती हैं, उन्हें अभी जिंदगी निभानी है. उनका साथ देती हुई वह भी अपनी उदासी तह करके रख लेती है.अभी इनके लिए अवकास नहीं. फिर कभी फुर्सत के किसी महफूज-से क्षण में इन्हें ओढ-बिछा लेगी.

इन दिनों माँ कुछ अजीब-सी हरकतें करने लगी हैं. रोज कोई न कोई नया टोटका, किसी मंदिर या थान काप्न्नसाद, भभूति, मंत्रपुत ताबीज आदि लाकर उसे थमाती रहती है. उस दिन फेयर एंड लबली का बडा ट्यूब खरीद लायी थी. साथ में पैडेट ब्रा और शरीर के अनचाहे बाल उठाने का महंगा क्रिम...एकदिन स्वयं ही फैशन टी. वी. का चैनल लगाकर उससे कहने लगीं- कैसी सीधी-सादी रह गयी रे तू लावण्य. दूसरी लडकियों को देख, उनका उठना-बैठना, चाल-चलन... नये जमाने का कुछ सीखेगी नहीं तो दूसरों की नजर में पडेगी कैसे. कहते हुए वह स्वयं उसे मॉडलों की तरह चलने का तरीका सीखाने लग पडी थीं. ऐसा करते हुए कितना दयनीय, कितनी भद्दी लगने लगी थीं वे... उसने संकोच से अपनी आँखें मूँद ली थी.

पहले यही माँ-बाबूजी उन्हें टी. वी. पर ऐसा-वैसा कार्यक्न्नम तक देखने से रोकते थे. बचपन में एकबार ’’हम तुम एक कमरे में बंद हों...‘ गाने के लिए बडे भैया को पिताजी से मार पडी थी. माँ उन्हें अक्सर अजीब नजरों से घूरने लगती हैं. दूसरों की नजर से देखते हुए उन्हें भी अपनी बेटी में खोट ही खोट नजर आती हैं- साँवली, ठींगनी है उनकी बेटी. हिन्दी माध्यम से पास क्लास में बी. ए. पास. अंग्न्नेजी बोलनी नहीं आती... वह उसकी सूखी देह देखती है और मन मसोसकर रह जाती है. न जाने किस अकाल की पैदाइश है ! जी चाहता है, हाथ में कैंची लेकर उसे खुद हीं काँट-छाँटकर बराबर कर दें, कहीं से ज्यादा तो कहीं से कम कर दें.

पडोस की सकालो देवी का का भतीजा हाल ही में अमेरिका से कॉस्मेटिक सजर्न बनकर लौटा है. वह दूसरे ही दिन अपना सारी लाज, शरम ताक पर धरकर उसके पास चली गयी थी और प्लास्टिक सर्जरी के बाबद सारी जानकारी लेकर आयी थी. मगर बाद में खर्चे की बात सुनकर उनका सारा उत्साह एकदम से ठंडा पड गया था. दो अदद सुडौल स्तनों का मूल्य डेढ लाख रूपये... ! उन्होंने आखिर लावण्य की खुराक में एक कप दूध अतिरिक्त जोड दिया था. हो सकता है शरीर के भरने के साथ उसके वक्ष भी भर आये. उनकी बातों से त्रस्त होकर लावण्य घंटों अपने कमरे का दरवाजा बंदकर पडी रहती है. अवसाद की धूसर, मटमैली अनुभूतियों में उसका अंतस बोझिल हो उठता है. एकबार उसने किसी लडके की माँ से कहा था, आप मुझे स्वीकार लो माँजी, मैं अपने हाथ-पाँव तराश लूंगी... उनके ठिंगने बेटे से वह लंबी निकली थी. तरह-तरह के अपमान, तिरस्कार उसे मँथता रहता है. किसने उसके साधारण रूप, रंग का मजाक नहीं उडाया, उसकी उपेक्षा नहीं की. सोचते हुए उसे आलोक की याद आती है. अनायास ही अंदर जैसे कोई कच्ची दीवार-सी गिरती है. वह सुलगते हुए तीखे काँटों से आपाद-मस्तक बिंधकर रह जाती है.

आलोक थोडे दिनों के लिए उसके ऑफिस में काम करने के लिए आया था. उसका विभाग अलग था, मगर आते-जाते रास्ते में उनका आमना-सामना हो जाता था. पहली बार अपने जन्मदिन का केक देने वह उसके कैबिन में आया था.वह देखने में जितना आकर्षक था, स्वभाव से भी उतना ही भला था. पहली बार उससे बात करके उसे बहुत अच्छा लगा था. उसदिन शाम को घर जाते हुए उसने उसे बस स्टैंड तक अपनी स्कूटर में लिफ्ट दी थी. इसके बाद वह अक्सर उसे घर जाते हुए रास्ते में मिल जाता था. कईबार वह उसके स्कूटर में लिफ्ट भी ले लेती थी. एकबार उसके आग्नह पर उसके साथ रेस्तरां भी चली गयी थी. उसदिन दोनों ने साथ लंच किया था.

धीरे-धीरे दोनों का औपचारिक परिचय घनिष्ठता में बदल गयी थी. उसने शायद पहली बार किसी पुरूष की आँखों में अपने लिए प्न्नशंसा और कामना के भाव देखे थे. आजतक किसी ने उसे इस तरह से महत्वपूर्ण महसूस नहीं कराया था. वह उससे मिलने के लिए आग्रह करता था, उसकी प्रतीक्षा में देरतक खडा रहता था, उसकी छोटी-छोटी बातों, कामों की तारीफ करता था. लावण्य के ऊसर, बंजर जीवन में जैसे यकायक फूल खिल उठे थे. वह आलोक के प्रेम में सारा दुनिया-जहान भूला बैठी थी.

आलोक ने उसे बताया था, उसपर उसके पूरे परिवार की जिम्मेदारी है, दो बहनों की शादी भी उसे ही करनी है. इस समय यदि उसने अपने घरवालों से उसकी बात की तो वे परेशान हो जायेंगे, इसलिए बहनों की शादी के बाद ही वह घर में उसकी बात करे सकेगा. उसे थोडा-सा इंतजार करना पडेगा. वह इसके लिए खुशी-खुशी तैयार हो गयी थी.

इसके बाद आलोक उसे अपने फ्लैट में ले जाने लगा था. एक रूम का छोटा-सा फ्लैट था उसका, किराये पर लिया हुआ. वहाँ कभी वे सारा-सारा दिन पडे रहते थे. आलोक की बाँहों में सिमटकर वह सबकुछ भूल जाया करती थी. एक मरू की तरह वह न जाने कितने जन्मों से तृषित थी. किसी के प्यार के लिए, छुअन के लिए आकुल, अधीर... आलोक के प्यार का परस पाकर वह किसी तटबंध टूटी नदी की तरह ही उद्दाम आवेग से बह आयी थी, सारा कूल-किनारा तोडते हुए, सीमाएँ लांघते हुए. उमर की पहली उठान से जो कामनाएँ अंदर ही अंदर बेआवाज परवान चढती रही थी, वे यकायक गहरे-गहरे तक तुष्ट हो आयी थी.

किसी जलभरे मेघ-सा आलोक उसपर बरसा था, प्यास से दरकी जमीन की तरह वह उसे बूँद-बूँद पीती रही थी, रेत पड गयी देह से अँखुआती, सब्ज होती रही थी. पहली बार उसने जाना था, प्यार किसे कहते हैं, चाहना क्या होती है. अपनी ही देह में इतना सुख छिपा होता है, यह भी उसे मालूम नहीं था. वह भी एक स्त्री है, कमनीय और इच्छित है, इसका अहसास जीवन में पहली बार आलोक ने ही दिलाया था उसे. वह किसी बाढ चढी नदी की तरह अपने कूल-किनारों तक भर आयी थी, छलकी पड रही थी रह-रहकर...

उनदिनों नेह के मृदुल छुअन से उसका अंग-अंग भर आया था. अंदर की खुशी लावण्य की धार बनकर चेहरे पर रिस आयी थी. लोगबाग उसे मुडकर देखने लगे थे, और भाभी ने भी नोटिस किया था. माँ भी उसमें आये इस आकस्मिक् परिवर्तन से आश्चर्य चकित थीं. कई बार उससे घुमा-फिराकर जानने की कोशिश भी की थी, मगर वह चुप रह गयी थी. उनसे इस विषय में कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई थी.

गर्मियों की छुट्टियों में जब कचहरी बंद हुई थी, आलोक अपने घर चला गया था महीने भर के लिए. उसके बाद उसकी कोई खबर नहीं आयी थी. वह चिट्ठियाँ लिखकर हार गयी थी, फोन भी किया था. मगर आलोक ने किसी भी तरह का जबाव उसे नहीं भेजा था. छुट्टियाँ खत्म हुईं तो उसने पाया आलोक दफ्तर में भी नहीं आया है. पूछताछ करने पर उसे बताया गया था आलोक की शादी हो गयी है और वह नयी नौकरी लेकर किसी और शहर में चला गया है.

सुनकर वह चुपचाप अपनी मेज पर आकर बैठ गयी थी. उससे ठीक तरह से टाईप भी नहीं किया गया था, हजार गलतियाँ होती रही थीं और इसके लिए अच्छी-खासी ढाँट भी पडी थी उसे. तो इसलिए आलोक उसके पत्रों के जबाव नहीं दे रहा था ! कचहरी के गंदे, पान के पिक से भरे हुए टॉयलेट में वह खडी-खडी लंच बे्न्नेक के दौरान रोती रही थी. बाहर से लगातार दरवाजा खटखटाया जा रहा था और आखिरकार जब उसने हारकर दरवाजा खोला था, बाहर एक अच्छी-खासी भीड जुट गयी थी. नीला अंदर आकर उसका चेहरा धुलाकर उसे सहारा देकर बाहर ले आयी थी.

रिक्शा में बैठते हुए उसने देखा था, लगभग पूरी अदालत ही बाहर खडी होकर उसे देख रही थी. रास्ते में उसे अपना रूमाल देते हुए नीला ने कहा था- तुझे तो मैंने कितनी बार समझाने की कोशिश की थी लावण्य. मगर तू तो उसके प्यार में ऐसी पागल हुई थी कि... खैर जाने दे. पता है, अरूण क्या कह रहा था, आलोक उसे कहा करता था, ऐसी उपेक्षित और कुरूप लडकियों को जाल में फंसाना बहुत आसान होता है. वे हीन ग्रंथि की शिकार होती हैं. और फिर बत्ती गुल होने के बाद अंधेरे मेँ हर लडकी सुंदर हो जाती है... अरूण उसकी शादी में भी शामिल हुआ था, कह रहा था, उसकी पत्नी बहुत खूबसूरत हुई है- दूध-सी गोरी...

इसके बाद कई महीनों तक उसका ऑफिस जाना दुर्भर हो गया था. उसे लगता था हजार जोडी आँखें उसे हिकारत, उपहास और कौतुहल से हर समय घूर रही हैं. उसे उसके कपडों के पार देख रही हैं. विवस्त्र हो जाने की-सी मनःस्थिति में हो आती थी वह. उस भयानक और अकल्पनीय पीडा को वह सह नहीं पा रही थी. कई बार जी चाहा था, अपनी जान दे दे, मगर हिम्मत नहीं हुई थी. वह जीना चाहती थी, इस सब के बाद भी...

प्रेम के नाम पर छल, प्रवंचना, तिरस्कार... उसकी भावनाओं का निरंतर उपहास ! यह बलात्कार ही था, देह के साथ मन का भी, मगर इसकी कोई सजा नहीं हो सकती... वह किससे शिकायत करती और क्या !

सोचते हुए न जाने कितनी अनझिप रातें उसने पलकों पर काट दी हैं. जिस शरीर में कभी आलोक ने सुख के इतने गहरे उत्स ढूँढे थे, इच्छाओं के जीवित पराग बोये थे, उसमें आज घुन लग गया है, क्षर रहा है हर क्षण दीमक लगे दरख्त की तरह. कभी उसे स्वयं से घिन आती है, कभी ग्लानि के बहाव से मन आप्लावित हो जाता है. दुर्बलता के विरल क्षणों में कस्तूरी मृग की भाँति अपनी ही देह में आलोक का स्पर्श ढूँढती फिरती है. यातना और आत्मदंश का एक लंबा, भयावह दौर... आईना के सामने कभी खडी होती तो प्रतीत होता, किसी शवगृह में खडी होकर अपनी ही मृतदेह का शिनाख्त कर रही है. बहुत डर जाती थी वह. अपने में सिमट-सिकुडकर दिनों तक पडी रहती थी.

आलोक के परस से जो सोने के पानी की तरह लावण्य की परतें चढी थीं देह पर, वे समय के साथ धीरे-धीरे उतर गयी थीं. बची रह गयी थी वही पुरानी लावण्य- अपनी रूखी-सूखी काया और टूटे हुए स्वप्न के साथ.

इसके बाद भी कई रिश्ते आये थे उसके लिए, मगर कहीं कोई बात नहं बन पायी थी. बार-बार सज-धजकर वह नुमाईश पर बैठती और बार-बार नापसंद कर दी जाती. ठुकरा दिए जाने की जिल्लत में रातदिन जीते हुए वह एक पथराये हुए मौन से दिन पर दिन घिरती जा रही थी. यही उसका अपने बचाव के लिए ढाल और कवच था.लोगों से वही पुरानी टिप्पणियाँ सुनने को मिलतीं- लडकी बहुत काली है, स्वास्थ्य भी गिरा हुआ है, नाक-नक्श भी खास नहीं...

वह रंग-रोगन ले लीपी-पुती आँखें झुकाये बैठी रहती और लोग खाते-पीते हुए उसे देखते-परखते रहते. कोई उसे उठकर खडी हो जाने के लिए कहता तो कोई चलकर दिखाने के लिए कहता. दूसरे कमरे में ले जाकर घर की बडी-बूढियाँ उसके कपडे हटाकर देह का मुआयना करतीं, अशोभनीय प्रश्न करतीं. इन सबको झेलते हुए वह किसी तरह अपने आँसू जब्त किये रहती. जाते हुए सभी यही कहते कि हम जाकर आपलोगों को सूचित करेंगे.

यह सुनकर सभी समझ जाते कि इसबार भी लावण्य को नापसंद कर दिया गया है. माँ चुपचाप बिस्तर पर जाकर लेट जाती, भैया घर से बाहर निकल जाते और भाभी बडबडाती हुई अपनी साडी, गहने समेटने लगती. लावण्य अपने कमरे या एकमात्र आश्रय छत के कोने पर जाकर खडी रहती. आदत हो जाने के बावजूद न जाने क्यों हर बार वह रोती है और देरतक उदास रहती है. उसे लगता है, वह किसी अदालत के कठघरे में खडी है और लोग उससे उस गुनाह का जबाव मांग रहे हैं, जो उसने कभी किया ही नहींहै.

कभी उससे उसकी इच्छा पूछी नहीं जाती, पसंद-नापसंद भी नहीं. मोटे, ठिंगने, काले, कदर्य पुरूष उसके रूप-गुण पर निःसंकोच टिप्पणी करते, उसका उपहास उडाते और वह गूंगी-बहरी बनी बैठी रहती.

न जाने क्य-क्या सोचती हुई वह देर तक बाथरूम के फर्श पर बैठी हुई थी. भाभी ने एकबार फिर बाहर से दरवाजा पीटा तो उसे होश आया. जल्दी-जल्दी देह पर साबुन रगडते हुए ख्याल आया था उसे कि काश साबुन के इन झागों के साथ अपने रंग की मैल भी वह उतार फेंक पाती ! चेहरे पर थोडा लावण्य और चाक्-चिक्य ला पाती !

दीवार पर टंगी आईने के धुंधलाये हुए शीशे में वह अपनी आकृति देखती रही थी - यहाँ-वहाँ से झांकती हडिड्याँ, नीर्जिव, रूखी त्वचा, हाड-मांस एक हुआ शरीर...अपनी अपुष्ट, अविकसित वक्षों को दोनों हथेलियों में भरकर वह सोच उठी थी, काश उसके पास डेढ लाख रूपये होते... होते तो वह अंदर शिलिकॉन डलवाकर दो सुडौल उरोज वनवा लेती, बटक्स के इंजेक्शनस् से अपने माथे की झुर्रिया सँवार लेती, त्वचा की सलवटें खींचवाकर सोलह साल की लडकी की तरह उन्हें सतर, दुरूस्त कर लेती, नितंबों की मांस पेशियों में हवा भरवाकर उन्हें गुब्बारे की मानिंद फुला लेती... आजकल तो रूप-रंग बाजार के शो केस में पडी हुई चीज है, जिसके पास पैसे हों, खरीद ले...

अपनी उश्रृंखल होती सोच पर वह सायास अंकुश लगाती है और जल्दी-जल्दी कपडे पहनकर बाथरूम से बाहर निकल आती है. भाभी लगातार उससे जल्दी से तैयार हो लेने के लिए ताकीद किये जा रही है. लडकेवालों के आने का समय लगभग हो चुका है.

भाभी के सवालों का कोई जबाव दिये बिना वह अपने कमरे बंद हो गयी थी. भाभी अभी तक पूरा घर सर पर किये हुए थी. माँ भी हर दो मिनट में आदतन आकर उसका दरवाजा खटका जाती थी.

थोडी देर बाद भैया ने आकर सूचना दी थी, लडकेवाले आ चुके हैं. भाभी रसोई में नाश्ते का बंदोबस्त देखने दौड गयी थी. भैया बैठक का मोर्चा सँभाले हुए थे. माँ अधैर्य होकर फिर से उसका दरवाजा ही पीटने लगी थी. एक छोटे-से अंतराल के बाद अचानक लावण्य दरवाजा खोलकर बाहर निकल आयी थी और उसपर नजर पडते ही आंगन में खडी माँ के मुँह से अनायास चीख निकल गयी थी. शर्बत की ट्रे हाथ में लिए भाभी भी रसोई की दहलीज पर स्तब्ध खडी रह गयी थी. बैठक से निकलकर भैया ने लावण्य पर नजर पडते ही अपनी आँखों पर हाथ रख लिया था.

पूरी देह में गोरेपन का कोई क्निम चूने की तरह पोतकर लावण्य लाल, चमकीली साडी में किसी मॉडल की-सी अद्भुत भंगिमा में खडी मुस्करा रही थी. उसके होंठों पर लाल लिप्सटिक लिसरा हुआ था, आँखों में काजल... तरह-तरह के रंगों से अपने पूरे शरीर को सजाकर उसने स्वयं को कार्निवाल ही बना लिया था. ब्लाउज में भी चिथडे ढूँसकर उसने अपने सीने पर दो छोटे-मोटे भद्दे, बेढप पहाड उगा लिए थे...

देखने में वह भयावह लग रही थी. उसकी आँखों में अजीब तरह का उन्माद भरा हुआ था. हंसी की भंगिमा में रोती हुई-सी वह सबसे पूछ रही थी- मैं अच्छी लग रही हूँ न..? देखो अब मैं गोरी भी हो गयी हूँ, स्मार्ट भी... अंग्रेजी भी बोल लेती हूँ- ए बी सी डी... आई एम फाइन, थैंक यु... गुडनाइट... इसबार तो मैं जरूर पसंद कर ली जाऊंगी माँ !

बरामदे में अचेत पडी अपनी माँ को हिलाती हुई लावण्य लगातार बोले जा रही थी. साथ में रो भी रही थी, हंस भीरही थी. मगर यह सब कहते हुए उसके चेहरे पर या आवाज में कोई उम्मीद नहीं थी... शायद यह गहरी निराशा या अवसाद से आगे की कोई चीज थी जहाँ आज वह पँहुचा दी गयी थी.

भैया जल्दी-जल्दी अपने मोबाइल पर डॉक्टर का फोन नम्बर मिला रहे थे. भाभी अचेत पडी माँ के चेहरे पर पानी के छींटे मार रही थी. उधर ड्राइंग रूम में मिठाई खाते हुए लडकीवाले लडकी के इंतजार में अधीर हुए जा रहे थे. उन्हें आज यहाँ से निबटकर एक दूसरी जगह भी लडकी देखने जाना था. उन्हें बताया गया है, वहाँ शानदार लंच का बंदोबस्त किया गया है.