कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-19 / रंजन

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सबों की एक ही इच्छा है कि किसी प्रकार आपके नेत्र आपको पुनः प्राप्त हो जायें।

भीममल्ल की एकलौती आँख में आश्चर्य उभरा, 'क्या यह संभव है कापालिक श्रेष्ठ? ... मेरे जिस नेत्र को इतनी नृशंसतापूर्वक निकाल लिया गया, क्या उसकी पुनः प्राप्ति संभव है?'

'यह सत्य है कि हममें से कोई ऐसा चमत्कार नहीं कर सकता परन्तु मेरे स्वामी यदि चाहें तो उनके लिए इस जग में कुछ भी असम्भव नहीं है वीरवर! ... हम सभी उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहे हैं... वे अपनी भार्या के संग आने ही वाले हैं। आप कृपाकर शांत होकर विराजें।'

टंका ने उसके अंतरमन में द्वंद्व उत्पन्न कर दिया।

क्या उसका कुँवर इतना बड़ा सिद्ध हो गया है? ... नहीं... ऐसा नहीं हो सकता... वह यदि ऐसा ही सक्षम है तो उसने भरोड़ा में पदार्पण के उपरांत ही उसकी पीड़ा क्यों नहीं हर ली... यह कापालिक न जानें क्यों उसे भ्रमित कर रहा है। ... यह सम्भव नहीं है।

द्वंद्व में निमग्न भीममल्ल को देख टंका पुनः मुस्कुराया और उसने भीममल्ल की भुजा थाम कर उसे आसन पर बिठा दिया।

कापालिक टंका की बातों ने रानी गजमोती के साथ-साथ राजा विश्वम्भरमल्ल को भी आश्चर्य में डाल दिया। काकी के अनुरोध पर, देवी भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी की प्रतिक्रिया इन्होंने देखी थी और अब टंका कह रहा है कि कुँवर की इच्छा हो जाए तो उसके वीरवर को पुनः अपने नेत्र प्राप्त हो सकते हैं। यह क्या चमत्कार है! क्या उनका पुत्र अवतारी हो गया है?

गर्व से वे दोनों गद्गद् हो गए, परन्तु साथ ही अपने पुत्र के गार्हस्त जीवन पर वे चिन्तित भी हो गए.

राजा-रानी विचारों में खोए थे कि तभी गीतों की स्वरलहरी ने उनके चिन्तन को भंग कर दिया। सबों ने देखा, कुँवर एवं अमृता को आगे कर, अंचल की युवतियों के साथ वहाँ की नारियाँ, मंगलगीत गाती चली आ रही हैं और स्वयं बहुरा, समूह के अंत में अकेली चल रही है।

अपनी भार्या के साथ गठबंधन में आते कुँवर को देखते ही सभामण्डप में उपस्थित समस्त जन हर्षित-हो खड़े हो गए. विश्वम्भरमल्ल के साथ उनकी रानी के पग आगे बढ़े तो उनके साथ सभी चल पड़े। मण्डप से नीचे उतर कर आते हुए कुँवर के स्वागत में सभी रुक गए. पास आते ही वर-वधू ने सर्वप्रथम राजा विश्वम्भरमल्ल एवं रानी गजमोती के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया तदुपरांत सभी से अभिवादन आशीर्वाद की प्रक्रिया प्रारंभ हो गयी।

और इसके उपरांत रानी गजमोती ने अपने पुत्र एवं पुत्र-वधू को साथ लिए मण्डप के मध्य बने विशेष आसन पर दोनों को बिठा दिया।

वर-वधू के विराजते ही मण्डप की शोभा बढ़ गई. गीत-संगीत रूके और हाथ जोड़े बहुरा खड़ी हो गयी। भैरव की प्रतिमा को श्रद्धापूर्वक नमन कर उसने उपस्थित अतिथियों को देखा। आँखों में भर आए अश्रु को हाथों से पोंछ कर उसने पुनः अपने कर जोड़े और अतिभावुक स्वर में कहना प्रारंभ किया-

' हे मान्यवरो! नहीं जानती मैं अभागी हूँ अथवा बड़भागी...अभागी इसलिए क्योंकि अपने अंश को मैं स्वयं अपने से, इस घड़ी विलग कर रही हूँ। मेरी पुत्री को न कभी मेरा स्नेह मिला, न ममता। इसने जब जन्म लिया, मैं पति-वियोग में विक्षिप्त थी। माता तो मैं थी, परन्तु इसका पालन काकी ने और दीदी ने किया। मेरी ममता से रिक्त रही यह। कलांतर में मेरी पुत्री बड़ी हुई तो मैं श्मशान-सिद्धियों में मगन थी। दैवयोग से मेरी पुत्री का गठबंधन उसी से हुआ, जिसके माता-पिता के विरूद्ध मैं शक्ति-संचय करती रही थी। कितनी भ्रमित थी मैं... प्रारंभ से ही मैंने जिनके प्रति शत्रुता पाल रखी थी, उन्हें देखा-जाना तो मुझे अपनी मूढ़ता पर आंतरिक पछतावा हुआ। मैंने अपने भाग्य को सराहा और समस्त वैवाहिक कार्यक्रम पूर्ण उत्साह के साथ सम्पन्न किया... परन्तु विधाता ने तो कुछ और ही रच रखा था।

अपने ही अंचल के एक दुष्ट के कुचक्र में मैंने अपना विवेक खो दिया और अपने ही समधियारे के सेनानायक के साथ ऐसा घृणित कुकृत्य कर बैठी, जिसने अब मुझसे मेरी सुख-शांति ही छीन ली है। इस ग्लानि के कारण मैं अत्यंत व्यथित हूँ। ऐसी कोई विधि होती कि मैं अपने नेत्र देकर, इस वीरवर की ज्योति लौटा सकती तो मुझे सौगंध है अपनी शक्ति माँ की; मैं तत्काल ऐसा ही करती।

सहल हो आए नेत्रों से उसने पुन5 कहा, 'इस सभा में इस घड़ी जितनी भी सिद्ध विभूतियाँ उपस्थित हैं, उनसे मेरी करबद्ध प्रार्थना है... अरदास है मेरी, यदि संभव हो तो मेरे दोनों नेत्र ले लें, परन्तु इस वीरवर का खोया नेत्र इन्हें लौटा दें... उपकार करें मुझपर... अन्यथा इस ग्लानि का भार मैं ढो न सकूंगी... उपकार करें...उपकार करें मुझपर।'

कहती-कहती बहुरा फूट-फूट कर रोने लगी।

बहुरा के रुदन ने सभामण्डल की स्थति ही बदल दी।

रानी गजमोती, देवी भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी के साथ ही काकी एवं माया भी एक साथ उठ खड़ी हुईं। इन पाँचों ने रोती बहुरा को सम्हाला। मण्डप में उपस्थित समुदाय के हृदय में बहुरा के प्रति अनायास करूणा का भाव उत्पन्न हो गया। सभी द्रवित हो गए थे। सेनापति भीममल्ल भी अपने संताप को उस घड़ी भूल-सा गया।

बहुरा अपने आसन पर विराज तो गयी, परन्तु अभी तक उसका चित्त शांत नहीं हुआ था। पाँचों देवियाँ उसे घेरे, उसके पास ही बैठी थी कि इसी पल कुँवर ने अपना आसन त्यागा। पति के उठते ही अमृता भी खड़ी हो गई.

कुँवर के नेत्र शांत थे और मुखमण्डल निर्विकार।

छोटे-छोटे पग उठाता कुँवर अपनी भार्या के साथ बहुरा के समीप आ पहुँचा।

'शांत हो जाओ माता।'

जवांई को समक्ष देख बहुरा ने अपने सजल नयनों को पोंछा और खड़ी हो गयी तो कुँवर ने पुनः उसके दोनों कांधे को स्पर्श कर सादर कहा, 'यह सत्य है कि तुमने मेरे काकाश्री का एक नेत्र निकाल लिया था, परन्तु सत्य तो यह भी है माता कि तुमने स्वयं उसे स्वीकारा नहीं...भैरव को अर्पित कर दिया था। स्मरण करो माता! तुमने उसी घड़ी काकाश्री के उस नुचे नेत्र को अपने भैरव के चरणों में अर्पित कर दिया था।'

बहुरा के मौन नेत्र कुँवर से जा मिले।

कुँवर के अधर पर स्मिति उभरी, 'जिसे तुमने ग्रहण ही नहीं किया, उसे किस प्रकार वापस करोगी माता? ... किस प्रकर? ...उसे तो उन्हीं से माँगना होगा जिन्होंने इसे ग्रहण किया है... और वे इस कार्य में सर्वथा समर्थ भी हैं...जानती हो तुम, फिर व्यर्थ विलाप क्यों करती हो? ... भैरव से प्रार्थना करो... बड़े दयालु हैं वे। मुझे विश्वास है तुम्हारी प्रार्थना वे अवश्य स्वीकारेंगे। प्रार्थना करो उनसे...प्रार्थना करो माता।'

बहुरा के नेत्रों में विस्मय भर आया।

जड़वत् खड़ी रही वह, तभी मुस्कुराती भुवनमोहिनी ने निकट आकर कहा, 'यूँ विस्मित न हो देवि...कुँवर ने अनुचित नहीं कहा है। एक पल भी अब नष्ट न करो। जैसा इसने कहा है, वही करो।'

उत्सुकता की पराकाष्ठा थी यह।

सांस रोके सम्पूर्ण मण्डप मौन था। क्या सेनापित के नेत्र पुनः उग आयेंगे? दम साधे सबों की दृष्टि कभी सेनापति पर, कभी बहुरा पर घूमने लगी और मंद गति से बढ़ती बहुरा भैरव के समक्ष जा पहुँची। उसके घुटने मुड़े, दोनों कर जुड़े और नेत्रों से पुनः अश्रुजल प्रवाहित होने लगे।

' हे भैरव! साक्षी हो तुम... तुमने स्वयं देखा, मेरे जवाँई ने मुझसे क्या कहा। तुम्हारी ऐसी अहैतुकी कृपा होगी या नहीं यह तो मैं नहीं जानती परन्तु अपने कुँवर के विश्वास पर अविस्वास कैसे करूँ... नहीं जानती... यह मेरी प्रार्थना है या प्रलाप? ...इतना ही जानती हूँ कि मेरा कुँवर तुम्हारा... मेरी शक्ति माँ का... सबका दुलारा है... तुमने... स्वयं तुमने भी उसका आदर किया है भैरव... मेरे अमोघ मारण पात्र को तुमने ही उसके समक्ष विफल किया है... और अब उसी की इच्छा है कि मैं तुमसे प्रार्थना करूँ।

अपना जीवन तो मैं तुम्हें अर्पित कर ही चुकी हूँ... चाहो तो मेरे प्राण ही ले लो... परन्तु वीरवर के नेत्र लौटा दो भैरव! ... लौटा दो। ' कहते-कहते उसके स्वर अवरुद्ध हो गए.

सूक्ष्म रूप में उपस्थित योगिनियों का भान होते ही कापालिक टंका के नेत्र बंद हो गए, 'तुम सब यहाँ?' विस्मित टंका ने पूछा तो वे मुस्कुराने लगीं। तत्काल टंका को ज्ञात हो गया; वे सभी उत्सुकतावश आ उपस्थित हुई हैं।

कुँवर भी ध्यानस्थ था। ध्यान में उतरने हेतु उसे न प्रयत्न करने की आवश्यकता थी, न नेत्रों को बंद करने की परन्तु इस घड़ी उसके नेत्र बंद थे और चेतना में कमला मैया उपस्थित थीं।

'क्या चाहते हो पुत्र?'

'तुम्हें तो ज्ञात ही है माता!'

माता मुस्कुराई, 'इस लीला की क्या आवश्यकता थी पुत्र! ... तुम तो स्वयं उसे ज्योति प्रदान कर सकते थे, तुम्हें मात्र इच्छा ही तो करनी थी।'

'तुम्हारा पुत्र तो इच्छाहीन हो चुका है माते...वह भला किस प्रकार इच्छा करता?' माता का निश्चल हास उभरा और कुँवर ने नेत्रों को खोल दिया।

स्थिर पगों से अपनी भार्या के साथ वह सेनापति के समीप आया। भीममल्ल की असहज दृष्टि उठी, कुँवर मुस्कुराया, 'काकाश्री! मुझे विश्वास है, भैरव, मेरी माताश्री की प्रार्थना अवश्य स्वीकार करेंगे। मेरी माता अपने बाल्यकाल से ही उनके प्रति समर्पित हैं... और देखिए इस घड़ी उन्होंने आपके लिए।'

कुँवर का कथन पूर्ण न हो पाया, क्योंकि भीममल्ल ने अपनी दाहिनी आँख के खोरड़ में अनायास तीव्र वेदना का अनुभव किया। हाथों से अपनी दाहिनी आँख के स्थल को दबाता वह चित्कार लगा। उसकी पीड़ा असह्य होने लगी और पीड़ा जब असह्य हुई तो वह तड़पता हुआ अचेत हो गया।

समस्त जन चौंके...क्या हुआ यह?

बहुरा भी चौंकी। भैरव को छोड़ कर दौड़ी, ' हे शक्ति माँ! यह क्या किया तूने? मैं तो प्रार्थना कर रही थी भैरव से, अपने प्राण अर्पित कर रही थी उन्हें और तूने

...यह क्या किया माँ... यह क्या किया।

किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है। तीव्र गति से घटित होते घटनाक्रमों ने सबको स्तंभित-सा कर दिया था। बहुरा के विलाप को सुन कर लगा कि सेनापति अनायास ही मृत हो गए... यह क्या हुआ! सभी अचंभित, सभी विस्मित!

तभी सेनापति की चेतना शनैः-शनैः लौटने लगी।

'काकाश्री के पास जाओ माता, उन्हें तुम्हारी आवश्यकता है...नेत्रदान दो उन्हें।'

मुस्कुराते कुँवर के कथन ने बहुरा को उलझा दिया, ' पहेलियाँ न बुझाओ पुत्र

...भैरव ने तो मेरा तिरस्कार कर दिया... अब क्या करूँ, वह कहो। '

'भैरव की कृपा हुई है माता... वे तुम पर प्रसन्न हैं। ... काकाश्री की पट्टी खोलो।'

उलझी बहुरा ने यंत्रवत आदेश का पालन किया।

'हे शक्ति माँ! ... हे भैरव! ...' कहती उसने भीममल्ल के दाहिनी आँख पर पड़ी काली पट्टी को घड़कते हृदय से अलग किया... और उसके अंतस का अह्लाद सम्पूर्ण प्रांगण में तत्काल फैल गया।

सेनापति के नेत्र लौट आए थे।

अपने नेत्र को पुनः प्राप्त कर सेनापति हतप्रभ थे तो बहुरा विस्मित। बखरी में उपस्थित समस्त जन इस अलौकिक घटना से मुदित थे परन्तु कुंवर की माता को चिन्ताओं ने आ घेरा था। उसका पुत्र कुँवर अवश्य ही दिव्यात्मा है, वह जान चुकी थी। इस स्थिति में क्या वह गृहस्थ-जीवन ग्रहण करेगा? उसे अपने वंश की चिन्ता सताने लगी। कुछ इसी प्रकार की चिन्ता राजा को भी थी। देवी भुवनमोहिनी और देवी कामायोगिनी के तेज से परिचित राजा ने, अपने पुत्र की अलौकिक दिव्यता को प्रत्यक्ष देखा था। वह तो इन सभी से कई गुणा बढ़ा-चढ़ा था। उसका पुत्र क्या सिद्ध योगी हो चुका है? शंखाग्राम से पुत्र की वापसी के उपरांत उसके हाव-भाव, एवं व्यवहार पर जब उसने चिन्तन प्रारंभ किया तो उसे कुछ भी असामान्य न लगा। पूर्व में कुँवर कुछ संकोची था, बाद में गंभीर परन्तु उसे ऐसा आभास कभी न हुआ कि उसका पुत्र योग के सर्वोच्च शिखर पर आरूढ़ हो चुका है। तभी उसे माता कमला की कृपा का स्मरण हो आया। रानी के गर्भ धारण करने के पूर्व का स्वप्न और स्वप्न में माता का आशीष...पुनः राज ज्योतिषी का कथन, एक-एक घटना सहसा स्मृति में सजीव होने लगी।

पुत्रवधू की विदाई में सम्पूर्ण बखरी सम्मिलित था। बहुरा, काकी और माया; सभी व्यस्त थीं। चंद्रचूड़, भीममल्ल एवं वज्रबाहु भरोड़ा प्रस्थान की व्यवस्था हेतु शिविर के लिए प्रस्थान कर चुके थे। बहुरा की हवेली में कुँवर और अमृता को घेरे, बखरी की युवतियां चुहल कर रही थीं। हवेली के समक्ष अमृता की पालकी आ चुकी थी और वादकों की मंडली उसे घेरे मंगल वादन कर रहे थे।

प्रातः का प्रथम प्रहर व्यतीत हो रहा था। पक्षियों की चहचहाट समाप्त हो चुकी थी। सारे पक्षी डालों पर बैठे अमृता की विदाई की मानो राह देख रहे थे और इसी घड़ी अपने शिविर में राजा-रानी, एक दूसरे के सम्मुख मौन बैठे, अपनी-अपनी चिन्ताओं में खोये थे।

देवी कामायोगिनी और भुवनमोहिनी को साथ लिए बहुरा ने समधी के शिविर में प्रवेश किया, तो दोनों को इस प्रकार मौन-गंभीर देखकर वह अकचका-सी गयी। उसके प्रश्नात्मक नेत्र दोनों देवियों की ओर उठे तो बहुरा ने देखा, वे मुस्कुरा रही थीं। उनकी मृखाकृति ने बहुरा को संयत तो कर दिया, परन्तु फिर भी उसकी आँखें प्रश्नविहीन न हुईं। तत्काल अवश्य कुछ घटित हुआ है-सोचती, वह आगे बढ़ कर अपनी समधन के सम्मुख हाथ जोड़े खड़ी हो गयी।

कहा-'हमसे क्या भूल हुई जो।'

तड़प गयी रानी! बहुरा का कथन पूर्ण न हो पाया। रानी ने समधन के जुड़े करों को थाम लिया।

'हमें यूं लज्जित न करें समधन।'

'परन्तु आप दोनों यूं मौन...किस चिन्ता में निमग्न हैं?'

रानी की दृष्टि अपने स्वामी पर घूमी। वे आसन त्याग कर स्वागत में उठ चुके थे।

'आपने सत्य ही लक्ष्य किया है' , राजा ने मुस्कुराते हुए कहा-'वास्तव में मैं अपने पुत्र के लिए चिन्तित था।'

'कुँवर के प्रति चिन्ता? ...' बहुरा के अधर पर हास्य उभरा, 'सम्पूर्ण अंग महाजनपद को आज जिस कुँवरश्री पर गर्व है, उसी के प्रति आप चिन्तित हैं... आश्चर्य है मुझे।'

इस घड़ी तक देवी भुवनमोहिनी, कामायोगिनी एवं रानी गजमोती, सभी पास आ गयी थीं। राजा तथा बहुरा सहित सभी ने आसन ग्रहण कर लिया तो बहुरा ने पुनः कहा, -'यदि मेरे जानने योग्य हो तो कृपाकर मेरी चिन्ता दूर करें महाराज। पुत्री को विदा करते हुए माता की कैसी दशा होती है, यह तो जग में सर्वविदित है। विह्वल तो मुझे होना चाहिए क्योंकि अपने अंश को आज विदा करूंगी मैं और आपको तो हर्षित होना चाहिए क्योंकि आपकी पुत्रवधू आपके साथ जा रही है।'

'सत्य कह रही हैं आप, परन्तु मेरी चिन्ता कुछ और है। रानी जी क्या सोच रही हैं, मुझे ज्ञात नहीं, संभव है वे भी मेरी भाँति अपने कुँवर के लिए ही चिन्तित हों।'

मौन बैठी देवी भुवनमोहिनी के अधर एवं नेत्रों में स्मित भाव उभर आया-' आप दोनों की उद्विग्नता का कारण एक ही है, जिसे व्यक्त करने में आप संकोच कर रहे हैं। परन्तु आपकी चिन्तायें निराधार हैं। ऐसा कुछ घटित नहीं होगा... जो आप सोच रहे हैं।

'मेरे हृदय की बात आप जान रही हैं...यह तो आश्चर्य की बात है देवी; परन्तु यदि मेरी शंका से आप अवगत हैं तो कृपया इसके समाधान की कृपा कर दें।'

उत्सुक बहुरा के साथ-साथ रानी गजमोती तथा देवी कामायोगिनी की भी दृष्टि देवी भुवनमोहिनी की ओर उठी।

'आप दोनों अपने पुत्र की अलौलिकता से भिज्ञ होने लगे हैं,' देवी भुवनमोहिनी कह रही थी, ' दिव्य माता कमला के अनुग्रह से आपको जो पुत्ररत्न प्राप्त हुआ है, वह कोई साधारण मानव नहीं है, यह अब सब जानते हैं। गुरु मंगल, मैं एवं देवी कामायोगिनी तो माध्यम मात्र हैं। हम तीनों ऐसे गुरु हैं जिनकी प्रतिष्ठा हमारे शिष्य ने बहुगुणित कर दी है। सत्य तो यही है कि एक दिव्य आत्मा ही माता कमला की कृपा से आप दोनों का पुत्र बन कर उत्पन्न हुआ है। वात्सल्य मोह के कारण आप दोनों, अपने प्रिय पुत्र के वास्तविक स्वरूप से पूर्ण परिचित नहीं हैं। इसी कारण इस उत्सव की घड़ी में अनायास चिन्तित हो गए हैं। अपने प्रिय पुत्र को सिद्ध योगी मान कर आप दोनों चिन्ता कर रहे हैं कि आपका प्रिय कुँवर गृहस्थ आश्रम में

बंधा रहेगा या नहीं। आप दोनों अपने आने वाली वंश-परम्परा को लेकर शंकित हो गए हैं। परन्तु यह श्ंाका निराधार है। प्रकृति और पुरूष की गुप्त लीला से आप अनभिज्ञ हैं महाराज! इसीलिए आपके अंदर ऐसी शंका उत्पन्न हुई है। उन शंकाओं से मुक्त होकर पुत्रवधू को विदा कराइए अन्यथा यदि इस घड़ी प्रकृति और पुरूष विषयक चर्चा प्रारंभ हो गई तो कई प्रहर व्यर्थ ही व्यतीत हो जायेंगे। '

राजा-रानी यद्यपि अब प्रायः संतुष्ट थे, परन्तु उन दोनों के साथ बहुरा के हृदय में प्रकृति और पुरूष विषयक जिज्ञासा जाग्रत हो गयी। यह क्या रहस्य है? बहुरा को लगा कि कितनी अल्पज्ञ है वह। पहली बार उसे सिद्धि और ज्ञान के मध्य खाई का भान हुआ।

'सिद्धि से ज्ञान प्रकट नहीं होता देवी' , भुवनमोहिनी ने बहुरा को समझाया, 'वरन आत्मज्ञान प्राप्त होने के क्रम में अनेक सिद्धियां स्वतः प्रकट होने लगती हैं।'

'आप तो वास्तव में अन्तर्यामी हैं देवी' , बहुरा के अधर से साश्चर्य निकला, परन्तु इस पुरूष और प्रकृति का क्या अर्थ है, इसकी जिज्ञासा अत्यंत प्रबल हो गयी है। विदाई की व्यवस्था काकी तथा माया दीदी ने सम्हाल ली है। किसी भी क्षण उनका संदेश अपेक्षित है। इस मध्य यदि आप उचित समझें तो संक्षेप में इस रहस्य से मुझे अवगत कराने की कृपा करें। '

देवी भुवनमोहिनी की दृष्टि कामायोगिनी पर पड़ी। वे मुस्कुरा रही थीं। देवी के नेत्रों का संकेत उन्होंने समझ लिया था। -'देवी चाहती हैं कि मैं इस गूढ़ रहस्य को अनावृत करूँ तो उनकी इच्छा शिरोधार्य है।' कामायोगिनी ने अपना कथन प्रारंभ करते हुए कहा-'प्रकृति और पुरूष अनादि तथा अनंत हैं। प्रकृति ही कर्ता है, प्रकृति ही भोक्ता है; पुरूष असंग है। वह चेतन, विभु तथा नित्य है। पुरूष से प्रभावित होकर ही प्रकृति विकास की क्रिया में संलग्न होती है। पुरूष ज्ञाता तथा प्रकृति ज्ञेय है। वस्तुतः प्रकृति ही सृष्टि का मूल तत्व है। प्रकृति का अर्थ' प्रधान'है। इसे' प्रधान'इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें समस्त परिणाम अथवा विकृतियाँ अव्यक्त रूप से समाहित हैं और यह सृष्टि तथा इसके विषयों का आदि कारण है।'

अपना कथन समाप्त कर देवी कामायोगिनी ने देवी भुवनमोहिनी पर दृष्टिपात किया तो उन्होंने उनके कथन का नेत्रों से अनुमोदन करते हुए आगे कहा, -'इसीलिए मैंने कहा था कि प्रकृति और पुरूष की गुप्त लीला को जान लेने के पश्चात् आपकी शंका निर्मूल हो जाएगी राजन। आपका पुत्र तथा मेरा प्रिय शिष्य' पुरूष'है। आपकी पुत्रवधू तथा कुँवर की पत्नी... उसकी अर्धांगिनी अमृता' प्रकृति'रूप है। इसीलिए आत्मदर्शन प्राप्त सिद्ध प्रकृति का त्याग कर दे, अथवा उससे विमुख हो उसके प्रति उदासीन हो जाए, यह संभव नहीं। आपकी शंका निर्मूल, निराधार है। आप प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्रवधू को विदा करायें। शेष मंगल ही मंगल है।'

कहते ही देवी भुवनमोहिनी उठीं तो हर्षित होकर सभी उठ गए.

इसी क्षण देवी भुवनमोहिनी के अंतस में कमलगंध व्याप्त हो गयी। उनके नेत्र बंद हुए तो मानस पटल पर मुस्कुराता कुँवर विराजा था।

'कहो प्रिय!'

देवी ने अंतस संवाद प्रारंभ किया तो कुँवर ने हँसते हुए कहा, -'यह तो सत्य है देवी कि प्रकृति तथा पुरूष... दोनों ही अनादि तथा अनन्त हैं। परन्तु यह भी सत्य है देवी कि इनमें एकत्व-दर्शन ही जन्म-मरण का हेतु है तथा इनके पार्थक्य के बोध से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है।'

देवी कामायोगिनी भी हँस पड़ी, -'तो क्या करती मैं... तुमने देखा नहीं... तुम्हारे माता-पिता कितने उद्विग्न हो गए थे?' -'देखा था देवी!' -'तो फिर?' ...इस उलाहना का क्या अर्थ है...और फिर यह तो कहो...अपनी भार्या को त्यागने का तो विचार नहीं है तुम्हारा? ' -' नहीं देवी...कदापि नही। ' -' तो मौन रहो। ' -' कुछ न कहूँ? ' -' नटखट हो तुम...परन्तु कहो, मैं सुनूंगी। ' -' पुरूष प्रकृति से परे है देवी. यह उससे नित्य भिन्न या मूलतः पृथक है। पुरूष अनादि, अनन्त, निर्गुण तथा निर्विशेष है। यह सूक्ष्म, सर्वव्यापी एवं मन, बुद्धि, इन्द्रिय, काल, दिक्, तथा कार्य-कारण-सम्बन्ध के परे है। यह नित्य द्रष्टा, पूर्ण, अविकार्य तथा चिद्रूप है।

प्रकृति के व्यापार के पर्यवेक्षण हेतु प्रकृति की अपेक्षा किसी उच्चतर तत्व की आवश्यकता है। यह पर्यवेक्षक तत्व ही पुरूष या आत्मा है। परन्तु वह कर्ता न होकर मात्र साक्षी है। प्रकृति तथा इसकी विकृति भोग के विषय हैं। इनके भोग के लिए किसी ऐसे भोक्ता का होना अनिवार्य है जो चेतन हो। यह चेतन भोक्ता ही आत्मा अथवा पुरूष है। प्रत्येक पुरूष एक पृथक सृष्टि का साक्षी होता है और इसके प्रति तटस्थ रहता है। वह प्रकृति से संयुक्त होकर सृष्टि के उस व्यापार का अवलोकन किया करता है, जिसमें प्रकृति स्वयं असमर्थ है। पुरूष अथवा आत्मा साक्षी, द्रष्टा, मध्यस्थ कैवल्य, अकर्ता तथा उदासीन है। गतिहीनता उसकी नियति है परन्तु मुक्त होने के पश्चात् उसका कोई गन्तव्य नहीं रह जाता। ' -' कह चुके? '