केतन का 'पहाड़' और क्वीन कंगना की जिद का 'ऊंट' / जयप्रकाश चौकसे

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केतन का 'पहाड़' और क्वीन कंगना की जिद का 'ऊंट'
प्रकाशन तिथि :31 अगस्त 2015


"मांझी : द माउंटेन मैन' के फिल्मकार केतन मेहता, पुणे फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित फिल्मकार हैं और उन्होंने भवनी भवई, मिर्च मसाला, माया मेमसाहब और मंगल पांडे जैसी फिल्में बनाई हैं। उन्होंने सरदार पटेल की बायोपिक भी बनाई है। सारांश यह कि वे एक स्थापित फिल्मकार हैं। कुछ माह पूर्व उन्होंने कंगना रनोट से रानी लक्ष्मीबाई पर सघन चर्चा की थी और कंगना ने इस बायोपिक में काम की इच्छा जाहिर की। अब खबर आ रही है कि कंगना फिल्म में सहयोगी निर्देशक का पद भी मांग रही हैं अर्थात क्रेडिट्स में आएगा निर्देशक केतन मेहता एवं कंगना रनोट। केतन के लिए यह प्रस्ताव कठिन है क्योंकि दो लोग मिलकर फिल्म निर्देशित कैसे कर सकते हैं? केतन की पत्नी दीपा साही ने भी एक फिल्म निर्देशित की है परंतु वे दोनों पति-पत्नी होते हुए भी मिलकर फिल्म निर्देशित नहीं कर सकते। हर व्यक्ति का एक नज़रिया होता है, व्यक्तिगत सोच होती है। सृजन के सारे काम व्यक्तिगत होते हैं। फिल्म निर्देशक के दिमाग में स्पष्ट होती है और उसकी परिकल्पना के अनुरूप काम करने के लिए तैयार लोगों की वह यूनिट बनाता है। शूटिंग के पूर्व सलाह मशविरे के लिए तैयार रहता है परंतु निर्माण प्रक्रिया में दखलंदाजी सहन नहीं कर सकता। इस तरह अनेक की सोच से बनी फिल्म चूं चूं का मुरब्बा ही हो सकती है।

राजेंद्र यादव और उनकी पत्नी मन्नू भंडारी ने 'एक इंच मुस्कान' नामक उपन्यास मिलकर लिखा था और वह कोई सफल प्रयोग नहीं रहा। कभी-कभी साहित्य गोष्ठी में दो कवि मिलकर कविता लिखते हैं परंतु इस तरह के प्रयास कभी मील का पत्थर सिद्ध नहीं हुए। स्वतंत्र व्यक्तिगत सोच और उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही एक स्वस्थ समाज की पहली आवश्यकता है। मतांतर के बाद हमारा साथ रहना ही सामान्य जीवन की विशेषता है। कुछ संस्थाओं की जिद है कि सभी एकसा सोचें और यह अस्वाभाविक है। प्राय: शिक्षण संस्थाओं मेंे एकसा यूनीफॉर्म पहनना आवश्यक कर दिया है। संभवत: संस्थाएं यूनीफॉर्म के माध्यम से पैसे कमाती हैं परंतु शिक्षा का मूल उद्‌देश्य ही है कि छात्र अपनी स्वतंत्र विचार शैली का निर्माण करें, अत: यह विरोधाभासी है। फौज में यूनीफॉर्म और अनुशासन आवश्यक है परंतु युद्ध के मैदान में अफसर स्वयं विवेक से निर्णय लेता है और मातहत उसी दिशा में काम करते हैं। अत: इस क्षेत्र में भी व्यक्तिगत सोच का महत्व है। पत्रकारिता के स्वर्ण युग में संपादक का सोच ही निर्णयात्मक होता था। दस लोग मिलकर एक संपादकीय नहीं लिख सकते परंतु दस अलग-अलग स्तम्भ से अखबार बनता है।

यह सच है कि कंगना ने अमेरिका जाकर पटकथा लेखन का अध्ययन किया है और भविष्य में वे फिल्म लिखना व निर्देशित करना चाहती हैं। वो खुद सोचें कि क्या 'क्वीन' या 'तनु वेड्स मनु' उन्होंने निर्देशित की है? कंगना केतन के साथ काम करें या न करें, यह उनका अधिकार है परंतु सामूहिक निर्देशन की उनकी जिद अनुचित है। गौरी शिंदे और आर. बाल्की पति-पत्नी हैं परंतु अलग-अलग अपनी फिल्में बनाते हैं और संभव है पटकथा लेखन के स्तर पर आपसी आलोचना और सलाह मशविरा किया जाता होगा। इसी तरह स्वस्थ परिवारों में विचार विनिमय होता है परंतु निर्णय लिए जाने के बाद विरोध के लिए स्थान नहीं रह जाता। हमारे फिल्म जगत में संगीतकारों की जोड़ियां रही हैं: हुसनलाल-भगतलाल, शंकर-जयकिशन, कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल इत्यादि। इस तमाम जोड़ियों ने अपने काम का बंटवारा कर लिया था, मसलन लक्ष्मीकांत धुन बनाकर प्यारेलाल को सुनाते और प्यारेलाल का सुझाव लेकर आवश्यक परिवर्तन करते थे। प्यारेलाल संगीत संयोजन करते थे और गीत रिकॉर्ड करते थे तथा रिकार्डिंग के समय लक्ष्मीकांत गायक-गायिका को धुन सुनाकर रिहर्सल कराते थे। शंकरजी प्राय: 8 बजे से 2 बजे तक संगीत कक्ष में काम करते थे और जयकिशन किए गए काम पर अपने विचार रखते और परिवर्तन करते थे। 3 बजे से रात 9 बजे तक जयकिशन काम करते थे। पार्श्व संगीत जयकिशन रचते थे और बाकी प्यारेलाल रचते थे। ऐसा नहीं होता कि दो संगीतकारों ने मिलकर एक धुन बनाई हो। सलीम साहब ने आनंदजी से 'खई के पान बनारस वाला' सुना और स्वीकार किया तब कल्याणजी ने कहा कि इस सिचुएशन के लिए कुछ और धुनें सुनें। कुछ समय बाद कल्याणजी बाथरूम गए तो आनंदजी ने उनसे कहा कि सलीम साहब आप धैर्य से कुछ और सुन लेंफिर भाई थक जाएंगे और 'खई के पान बनारस' को स्वीकार कर लेंगे। उसी दिन से 'थका देना' सलीम साहब का कोड वर्ड उस कार्य के लिए है, जिसमें भटकने के बाद सही राय पर लौटा जाता है।