केदारनाथ सिंह — याद आते हैं छीमी में रस की तरह / विनोद दास

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केदार जी की छवि जब मन में उभरती है तो कुरता पैजामा में सुकुमार गोरी काया, छोटा कद, घने-सँवरे पीछे काढ़े बाल.चेहरे पर पतली डण्डी का चश्मा, होठों पर खेलती बारीक मुस्कान और मझोली उम्र के कवि के साथ जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की पहाड़ी पगडण्डियों पर चलना याद आता है।

वह अपूर्व समय होता था। कभी झिलमिलाती सुबह होती थी, जब वह अपनी कक्षा लेने अपने घर ’16, दक्षिणायन’ से ’भारतीय भाषा केन्द्र’ तेज़ क़दमों से जा रहे होते या कभी सलेटी उदास शाम किसी मित्र के यहाँ अपना अकेलापन काटने के लिए पगडण्डियाँ नाप रहे होते थे। वे उबड़-खाबड़ पहाड़ी पगडण्डियाँ होती थीं। लेकिन केदार जी उनपर ऐसे चलते थे, जैसे खेतों की मेड़ों पर चल रहे हों। सड़क नीचे थी, लेकिन साँप की तरह जेएनयू परिसर से लिपटी हुई थी। दिल्ली के कोलाहलभरे शहर के बीच ज्ञान के अनोखे टापू में ऊँची-नीची पहाड़ी पगडण्डियों पर क्षिप्र गति से चढ़ते-उतरते मुझे हर बार एक नई अनुभूति होती थी। यहाँ की धूल भी घोर अपरिचय से मेरा स्वागत करती..। उन पगडण्डियों से उनके साथ गुज़रते हुए लगता, मानो सदियों का मौन वहाँ जमा हो। सिर्फ़ केदार जी कुछ न कुछ बोलते रहते और उनके जादुई सम्मोहन में यंत्रचालित सा खिंचा हुआ, मैं उनके साथ घिसटता चलता रहता। रास्ते में तरह-तरह के रूपाकार के पत्थर आँखों में अरझ जाते। कोई पत्थर गिलहरी की तरह दिखता तो कोई छिपकली की उठी हुई गर्दन की याद दिलाता था। कोई पत्थर असहमति में उठे हुए हाथ की तरह खड़ा दिखता था। आँखों ही आँखों में ख़ामोशी से इन सबसे दुआ-सलाम करते हुए केदार जी औपचारिक हालचाल लेने के बाद कभी ग़ालिब के किसी प्रसंग को तो कभी निराला की किसी काव्य-पंक्ति या शब्द की व्याख्या अपनी अनूठी अन्तरदृष्टि से करके नया अर्थ खोलते रहते। मैं उनका कभी छात्र नहीं रहा, लेकिन यह लगता था कि वह अपनी कक्षाओं में कविता को पढ़ाते हुए अपने विद्यार्थियों को कितना समृद्ध करते रहे होंगें। केदार जी बोलते समय अक्सर अपने में इतने खोए रहते कि उन्हें कई बार यह भान भी नहीं रहता कि साथ चल रहा नवयुवक उनके शब्दों से अधिक भू-दृश्य के मोहपाश में है। हालाँकि हमारे बीच जब कई दफ़े चुप्पी अजगर सी पसर जाती तो जिज्ञासा के लिए मैं भी कुछ स्फुट शब्द हवा में उछाल देता था। उल्लास की एक पतली धारा मेरे भीतर बहती रहती कि मैं अपने प्रिय कवि के साथ रहते हुए शुद्ध और ताज़ी हवा में सांस ले रहा हूँ ,जहाँ न चेचक की तरह बनी सड़कों पर रिरियाते टायर का विलाप था और न ही विषैली हवा में कुत्ते की तरह हॉर्न की भौं-भौं। दिल्ली में यह किसी अलौकिक वरदान से कम नही लगता। यह सैर जब ख़त्म हो जाती, तब लगता जैसे भोर में कोई सुन्दर सपना टूट गया हो।

ऐसी ही एक और सैर की याद मेरी स्मृति के तहख़ाने से ऊपर आ रही है। वह साँझ की बेला थी। सूरज डूबा नहीं था। नई किताबों पर नज़र डालने के लिए मैं जेएनयू परिसर स्थित गंगा बुक स्टोर गया था। वहां से नेरुदा का कविता संग्रह” इस्ला नेगरा” ख़रीदने के बाद अचानक केदार जी से मिलने की हुड़क सी जग गई। मेरे पाँव उनके घर की तरफ मुड़ गए। अभी मैं उनके घर पहुँचने वाला था कि वह अपनी चिर-परिचित पोशाक में अपने दरवाज़े से बाहर निकलते हुए दिखाई दिए। उनसे मिलने की मेरी हुलस को जैसे लकवा मार गया। लेकिन केदार जी ने न केवल मुझे देख लिया था बल्कि मेरे उहापोह को अपनी सम्वेदनशील आँखों से पढ़ भी लिया। उन्होंने अपनी स्मित की फुहार बरसाते हुए पूछा, ” कब आए ?” दिल्ली से बाहर रहने के कारण मुझसे वह अक्सर यह पूछते थे। फिर उन्होंने झट से अपनी सैर का राज़ खोल दिया, ”वरयाम सिंह ने बुलाया है। समय हो तो चलो।” मेरे मन में हिचकिचाहट थी। “मेरा उनसे परिचय नहीं है“ मैने अपनी दुविधा व्यक्त की। “बेहद सरल व्यक्ति हैं, वह खुश ही होंगे।” मैं तो केदार जी के साथ कुछ समय गुज़ारना चाहता था, फौरन तैयार हो गया। “थोड़ा दूर है, लेकिन पैदल जाया जा सकता है।” उन्होंने ऐसे कहा गोया यह बात कोई मायने नहीं रखती। सुबह से दिल्ली की दौड़-धूप की थकान मुझमें भरी हुई थी, लेकिन केदार जी के सत्संग को छोड़ना घाटे का सौदा था। उनके साथ चल पड़ा। गंगा बुक डिपो से क्या ख़रीदा, उनके इस सवाल पर जब मैंने बताया तो नेरुदा के संग्रह की उन्होंने प्रशंसा की। वरयाम सिंह का घर इतना भी क़रीब न था। वहाँ चलते हुए लग रहा था जैसे हम किसी पहाड़ी जगह पर आ गए हैं, जहाँ घर दूर-दूर होते हैं। हमारे पास से एक बस हमें चिढ़ाती हुई गुजर गई। फिर कुछ देर में वापस भी आ गई। केदार जी ने वरयाम सिंह की चर्चा छेड़ दी। रूसी कविताओं के उनके कुछ अनुवाद मैं पढ़ चुका था। रूसी कवि अलेक्सान्दर ब्लोक की कविताओं के अनुवाद की पुस्तक की उन दिनों चर्चा थी। जब वरयाम सिंह के घर की घण्टी केदार जी ने बजाई तो उनके घर की बत्तियाँ जल चुकी थीं।

वरयाम सिंह के बारे में केदार जी ने जो बताया था,वह उससे अधिक विनम्र और सज्जन निकले। उस शाम उन्होंने बताया कि किस तरह रात उनके घर के आसपास भेड़िया सहित अनेक जंगली पशु आ जाते थे। केदार जी ने भी उनके उस घर के रात का वर्णन अपनी काव्यात्मक शैली में सुनाया। मैंने चाय पी। केदार जी और वरयाम सिंह जी ने रसरंजन किया। बस की अन्तिम फेरी के समय के पहले हमने विदा ली। उस समय मैं सुखद विस्मय से भर गया, जब अचानक वरयाम सिंह जी ने अनुवाद की अपनी एक पुस्तक हस्ताक्षर सहित उपहार में दी। नेरुदा के संग्रह के बाद यह उस दिन की मेरे लिए दूसरी बड़ी सौगात थी।

उनके घर का एक दृश्य बारहा मन में घुमड़ता रहता है। जाड़े की सुबह थी, लेकिन धूप खिली हुई थी। दिल्ली में जाड़ों के दिनों में ऐसे सुहावने दिन कम होते हैं, अक्सर वहाँ धुन्ध की चादर आसमान को घेरे रहती है। केदार जी की माँ सफ़ेद धोती पहने घर के पिछवाड़े अहाते में धूप सेंक रही थी। धूप से बचने के लिए उन्होंने अपनी धोती के पल्लू को सर पर खींच रखा था। उनके चेहरे पर दरारें पड़ी हुई थीं — सूखी ज़मीन की तरह। रसोईं से खटर-पटर की आवाज़ छनकर आ रही थी। केदार जी और हम काफ़ी देर बरामदे में बैठकर बातचीत करते रहे। केदार जी की छोटी बेटी रचना वहाँ बरामदे में ज़मीन पर बैठी सुबह का अख़बार पढ़ रही थी। केदार जी ने रचना से मुझे चाय पिलाने के लिए कहा। जाड़ों में चाय पीने का मन किसे नहीं करता। मेरा भी कर रहा था, लेकिन मुझे लग रहा था कि बेटियों को कई बार बिन बुलाए मेहमानों की ख़ातिरदारी करना नहीं सुहाता। संकोच में मैंने मना भी किया, लेकिन केदार जी का कहना था कि वह भी चाय पीना चाहते हैं। चाय के बहाने कई बार सत्संग का समय बढ़ जाता है। बातचीत के दौरान मैं केदार जी की माँ को चोर निगाहों से देखता रहा। उस समय मुझे उनकी अविस्मरणीय कविता “सुई और तागे के बीच” में याद आती रही।

उसके बाद सर्दियाँ आ जाएँगी और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं तो माँ थोड़ा और झुक जाती हैं अपनी परछाईं की तरफ़। ऊन के बारे में उसके विचार बहुत सख़्त हैं मृत्यु के बारे में बेहद कोमल पक्षियों के बारे में वह कभी कुछ नहीं कहती हालाँकि नींद में वह खुद एक पक्षी लगती है।

बहरहाल जाड़ों की एक साँझ का क़िस्सा सुनाने का लोभ संवरण करना मुझे कठिन लग रहा है। उस दिन किटकिटाती ठण्ड थी। केदार जी स्वेटर के ऊपर चादर ओढ़े हुए थे। पहली बार मुझे अपने डुप्लेक्स घर की स्टडी में ऊपर ले गए। कुछेक मिनट के बाद वह उठे और अपनी किताबों की रैक के पीछे से एक छोटी बोतल उन्होंने निकाली। "ठण्ड बहुत है, चलो थोड़ी-थोड़ी ब्राण्डी ले लेते हैं।” ठण्ड से मेरी नाक सुर-सुर कर रही थी। लेकिन मैं ड्रिंक नहीं करता था। उनका कहना था कि मुझसे संकोच मत करो। वैसे भी यह ब्राण्डी है। इसे दवाई की तरह लिया जाता है। दुबारा मेरे मना करने पर उन्होंने ज़ोर नहीं दिया। नीचे जाकर मेरे लिए चाय बनाने के लिए बोलकर आ गए। उस दिन मुझे वह अपने बहुत करीब लगे.जब वह मुझे बाहर छोड़ने आये तो चाँद की फांक आकाश में नाव सी तैर रही थी.दरअसल मुझे किताबों की पीछे ब्रांडी को छिपाने का अंदाज़ रोचक लगा.मुझे भी अब कभी पत्नी से छिपाकर कुछ खाना होता है,तो उसे केदार जी की तरह किताबों के पीछे छिपाकर रखता हूँ.हालांकि पत्नी के कान और आँख से बचना मुश्किल होता है.वह जानबूझकर इसे भले अनदेखा कर दे.

यहाँ यह उल्लेख करना संगत होगा कि केदार जी की कविता से मेरा पहला परिचय अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा तारसप्तक से हुई थी.वे गर्मियों के दिन थे.हिंदी पुस्तकालय से गाँव में पढने के लिए तारसप्तक ले गया था.छप्पर के नीचे दोपहरी में तारसप्तक की कविताएँ पढ़ रहा था.कुंवर नारायण,विजय देव नारायण साही,सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के नामों से परिचित था.केदार नाथ सिंह और मदन वात्स्यायन की कविताओं ने भी ध्यान खींचा था.लोकजीवन से जुडी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता “चुपाऊ रहो दुलहिन मारा जाई कौवा” को मैं उन दिनों पूरे दिन गुनगुनाता रहता था.लेकिन मदन वात्स्यायन की कविताओं में कारखानों और विज्ञान से जुड़े शब्दों के प्रयोग को लेकर जहाँ चमत्कृत था,वहां इस बात से निराश भी कि उनकी चर्चा पहले बहुत कम सुनी थी.लेकिन केदार जी की कविताओं को जब मैंने “आलोचना” पत्रिका में और “पूर्वग्रह” पत्रिका के साथ जारी की गई एक पतली सुंदर पुस्तिका में पढ़ा तो उनका मुरीद हो गया.

इससे पहले कि मैं भूल जाऊं,मैं बता दूँ कि केदार जी से मेरी पहली मुलाक़ात हिमाचल से निकलने वाली केशव द्वारा संपादित “शिखर” पत्रिका के लिए उनसे एक इंटरव्यू लेने के संदर्भ में दिल्ली में जेएनयू के पास बेर सराय स्थित उनके घर पर हुई थी.उन दिनों वह प्रवेश परीक्षा संबंधी कामकाज में मशरूफ़ थे.यह वह समय था जब कवि-संपादक अशोक वाजपेयी ने हिंदी कविता की वापसी की घोषणा की थी और “पूर्वग्रह” पत्रिका के भारी भरकम कविता विशेषांक का विमोचन दिल्ली के श्री राम सेंटर में बड़े शानदार ढंग से हुआ था,उस अवसर पर कवि अरुणकमल को पहला “भारत भूषण अग्रवाल स्मृति” का पहला पुरस्कार उनकी कविता “उर्वर प्रदेश” के लिए दिया गया था.उस आयोजन में कवि राजेश जोशी ने भी अपनी कविता “बिजली बनानेवाले”पढ़ी थी.इस कार्यक्रम में पहली बार मैंने केदार जी के काव्य पाठ को सुनकर उसके जादू से अभिभूत हो गया था.काव्य पाठ के दौरान उनकी आवाज़ के आरोह-अवरोह से जहाँ शब्दों के अर्थ खुल रहे थे,वहीं उनके कविता की गूँज वायुमंडल में अपना एक अनोखा वृत्त रच रही थी.केदार जी की कविता अभिव्यंजना में व्यक्त होती है जिसमें संकेतों की बड़ी भूमिका होती है.केदार जी के काव्य पाठ से वे संकेत ज्यादा प्रभावी ढंग से व्यंजित होते थे.उनको सुनते हुए लगता था कि उनके शब्द हमारी त्वचा को छू रहे हैं.अगले दिन केदार जी से मिलने राजेश जोशी और अरुण कमल आये थे.केदार जी ने उनसे मेरा परिचय कराया.मैं भी उन दोनों कवियों के साथ गोरख पांडे जी से मिलने गया था.गोरख पांडे उन दिनों सहज नहीं लगे थे.लुंगी और बनियाइन में थे.उस दिन जबरन उन्होंने बामुश्किल दो चार वाक्य ही बोले होंगें.

उस दिन शाम को युवा कवियों का अड्डा कवि-आलोचक श्याम कश्यप के यहाँ जमा.उनकी पत्नी आलोचक गीता शर्मा आवभगत में लगने के साथ-साथ बीच-बीच में आकर बैठ जाती थीं.केदार जी भी सहजता से वहां आ गये थे.वह किसी ओढी हुई मुद्रा,भंगिमा और औपचारिकता के बातचीत में हिस्सा ले रहे थे.बातचीत के केंद्र में त्रिलोचन शास्त्री थे.उनके जीवन के तमाम दिलचस्प प्रसंग उस दिन उनसे सुने थे.केदार जी वयस्कता और प्रतिष्ठा को वजन कहीं पर महसूस होने नहीं देते थे.मेरे लिए यह एक सुखद अनुभव था और वह शाम अविस्मरणीय.शिखर पत्रिका में छपा उनका इंटरव्यू लोगो को बेहद पसंद आया.जहाँ तक मुझे याद है कि किसी पत्रिका में प्रकाशित उनका यह पहला इंटरव्यू था.

केदार जी का लोक जीवन से गहरा अनुराग था.उनकी कविता लोकजीवन के रंगारंग वैभव से मालामाल है,एक मायने में वह खाँटी पूरबिहा थे और उसे कभी छिपाते भी नहीं थे.अक्सर मैं देखता था कि उन्हें अगर कोई भोजपुरी बोलनेवाला मिल जाता था तो खड़ी बोली हिंदी से भोजपुरी में उतरने में उन्हें पल भर भी देर नहीं लगती थी.

लेकिन एक प्रसंग से हमारे बीच भ्रम के कुछ जाले छा गये.केदार जी का कविता संग्रह “अकाल में सारस” प्रकाशित हुआ था.उन दिनों संपादक की मांग पर अनिच्छा से सही लेकिन गाहे बगाहे पुस्तक समीक्षा करने लगा था.इस बहाने मुझे कविता को जानने-समझने का अवसर मिलता था.एक संपादक के अनुभव से कह सकता हूँ कि किसी पत्रिका के लिए यह खंड सबसे अधिक चुनौती पूर्ण होता है.अधिकांश श्रेष्ठ पत्रिकाओं का आलोचना खंड सबसे कमजोर और भर्ती का होता है.ऐसे में जो कोई भी थोड़ा भी ठीक-ठाक समीक्षा लिख लेता है,अनुभवी और विवेकवान संपादक उस पर समीक्षा लिखने का दबाव डालते रहते हैं.केदार जी की किताब पर लिखने के लिए उत्साह में मैंने “पहल” पत्रिका के यशस्वी संपादक और विलक्षण कथाकार ज्ञानरंजन से कर दिया था.ज्ञान जी को जो जानते हैं,उन्हें पता होगा कि वह किस तरह पहले किंचित प्रेम से फिर जोरदार धमकी से अपनी पत्रिका के लिए लिखवाने में सिद्धहस्त हैं,बहरहाल मैने कविता के एक विद्यार्थी की तरह केदार जी की समीक्षा लिखी.उस समीक्षा के जरिये मैंने उनकी कविता के स्वभाव को समझने की कोशिश की थी और मुझे यह लगा था कि यथार्थ को सुन्दर बनाने के लोभ में उनकी कविता की प्रभुविष्णुता कई बार कुछ कम हो जाती है.यहाँ मैं हलफ़ लेकर कह सकता हूँ कि केदार जी की कविता पर आलोचनात्मक लिखने के लिए कहना तो दूर, ज्ञान जी ने कोई संकेत भी नहीं दिया था.केदार जी की कविताओं की उन दिनों धूम मची हुई थी.इस समीक्षा से वह काफ़ी आहत हुए.उन्होंने मुझे एकमात्र और पहला पोस्टकार्ड लिखा जिसमें उन्होंने इस समीक्षा के प्रति रोष व्यक्त करते हुए लिखा कि यह एक चतुराई भरी समीक्षा है.एक कवि का दूसरे कवि के बारे में ऐसा लिखना एक विरल उदाहरण है.केदार जी के मन में कहीं यह भ्रांति घर कर गयी थी कि यह एक सुनियोजित हमला है जिसमें ज्ञान जी भी शामिल हैं.लेकिन सच यह है कि केदार जी मेरे लिखने के संताप से दुखी हैं,यह सोचकर मेरा अंतर्मन कलपता था.ऐसा भी क्या लिखना जिससे आपके प्रिय कवि की आत्मा को चोट पहुंचे.मैंने तभी यह मन ही मन फैसला लिया कि अब मैं आलोचना कर्म से दूर ही रहूँगा.यही मैंने किया भी.हालांकि मैंने केदार जी को न तो कभी कोई सफाई दी और न ही बाद में केदार जी ने मुझसे कभी इस बाबत पूछा.इस समीक्षा को बेहद सराहा गया.केदार जी से मिलना कम लेकिन जारी रहा लेकिन उस गर्माहट की कमी बनी रही जो पहले उनसे मिलने में होती थी,केदार जी अजातशत्रु कहे जाते थे और यह प्रसंग इसका उज्ज्वल उदाहरण है.वह रिश्तों को कभी टूटने नहीं देते थे.

समय के साथ रिश्तों में जमी बर्फ़ किस तरह पिघली,यह एक प्रसंग से मुझे पता चला.मेरी कविता की दूसरी किताब “वर्णमाला से बाहर”को श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार देने की घोषणा हुई.आयोजन दिल्ली में था और मैं उन दिनों जयपुर में रहता था.पुरस्कार समारोह की पूर्व संध्या पर में दिल्ली वसंत कुंज स्थित अपने पिताजी के पास पहुंचा.घर में थोड़ी उदासी थी.मेरे भाई का तबादला मनमाफ़िक ज़गह पर नहीं हुआ था.समारोह की सुबह चर्चित आलोचक और पुरस्कार संयोजक डॉक्टर अरविंद त्रिपाठी का फ़ोन आया कि कार्यक्रम के लिए आपको कार लेने वसंत कुंज आयेगी.चूँकि वसंत कुंज की तरफ़ ही जेएनयू भी है,इसलिए साथ में केदार जी भी रहेंगे.मेरे लिए इससे बड़ी और खुशी की बात और क्या हो सकती थी.मुझे तब तक कार्यक्रम का कार्ड नहीं मिला था.कार्यक्रम की रूपरेखा से मैं बिलकुल अनजान था.

उस दिन कार में डॉक्टर मैनजेर पाण्डेय और केदार जी के साथ हम सभा स्थल पहुंचे.रास्ते में केदार जी ने जयपुर प्रवास का हालचाल पूछने के साथ यह कहा कि तुम्हारा पहले कविता संग्रह ज्ञानपीठ में अनुपलब्ध है.मैंने उन्हें सूचित किया कि उसका दूसरा संस्करण काफ़ी पहले छप चुका है.वह भी खत्म हो चुका है,इसकी मुझे जानकारी नहीं है.फिर डॉक्टर मैनेजर पाण्डेय और केदार जी में विविध विषयों पर बातचीत होती रही.मैं मूक श्रोता बना रहा.मैं मन ही मन प्रसन्न था कि इन दो बड़ी हस्तियों की उपस्थिति में मुझे यह सम्मान मिलेगा.

कार्यक्रम में मंच पर डॉक्टर नामवर सिंह,केदार नाथ सिंह,डॉक्टर विश्व नाथ त्रिपाठी,और श्री कान्त वर्मा की पत्नी वीणा वर्मा थीं.अचरज तब हुआ जब केदार नाथ सिंह को मेरी कविताओं पर बोलने के लिए आह्वान किया गया। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि उनका नाम सुनते ही मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई.मुझे अचानक उनकी चिट्ठी याद हो आयी.लेकिन दूसरा आश्चर्य यह हुआ कि उन्होंने मेरी कविताओं की व्याख्या नयी दृष्टि से की जिसकी ओर मेरा कभी ध्यान ही नहीं गया था.उन्होंने उदाहरणों से यह रेखाकिंत किया कि विनोद दास की कविताओं का सौन्दर्य कुरूपता और हाशिये का सौन्दर्य है.इस दृष्टि से मेरी कविताओं का मूल्याकंन कभी नही हुआ था और अभी भी नहीं हुआ है.उस दिन केदार जी की सह्रदयता और क्षमाशीलता को लेकर उनके लिए मेरे मन में आदर और बढ़ गया.

मेरे पिताजी दिल्ली से लखनऊ आ गये थे.ऐसे में मेरा दिल्ली जाना कम होता गया.उधर मेरा तबादला कोलकाता हो गया.कोलकाता में केदार जी की बहन रहती थीं जिन्हें वह बहुत प्यार करते थे.हर साल जाड़ों में वह उनके पास कुछ दिन आकर रहते थे.एक बार जब वह वहां आये और अचानक मुझे भारतीय भाषा परिषद में मिल गये.एक शाम परिषद में कविता पाठ के लिए मैंने उनसे विनम्र निवेदन किया.वह बिना किसी शर्त के तैयार हो गये.उन दिनों परिषद के कामकाज में रूचि ले रहा था.परिषद की सचिव डॉ.कुसुम खेमानी मेरे प्रस्ताव पर राज़ी हो गयीं.जहाँ तक मुझे याद है कि वह पहली बार भारतीय भाषा परिषद में उनका काव्य पाठ हुआ.कार्यक्रम छोटा लेकिन प्रभावी था.

केदार जी से आख़िरी मुलाक़ात वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण के 75 वर्ष पूरे होने पर दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित कार्यक्रम में हुई थी.इस आयोजन के कर्ताधर्ता कवि-संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी थे.कुंवर नारायण की कविता पर एक लिखित वक्तव्य पढने के लिए उनका एक पत्र आया था.उन दिनों मैं कोलकाता में था.अशोक जी का आग्रह मेरे लिए किसी अचरज से कम नहीं था.उनकी सुरुचि और संगति के दायरे से मैं हमेशा बाहर रहा हूँ.मैं उनकी इस पेशकश को लेकर पशोपेश में था.कविता आलोचना से विरत होने के बाद उन दिनों मैं फिल्म आलोचना पर कभी-कभार लेख लिख रहा था.कविता पर लिखने का मेरा मन नहीं था.दूसरे कुंवरनारायण की कविता के बारे में मेरी समझ बहुत धुंधली थी.उनके बेहद निकट होने के कारण कभी उनकी कविता के बारे में आलोचकीय दृष्टि से कभी सोचा न था.हालांकि जब अपनी पत्नी विनीता से इस बाबत चर्चा की तो उनका विचार था कि कुंवर जी के निकट होने के कारण मुझे लेख लिखना चाहिए और दिल्ली भी जाना चाहिए.बहरहाल मैंने लेख लिखने की हामी भर दी.लेकिन कुंवर जी की कविताओं का अध्ययन करते समय कई ऐसी प्रवृतियां प्रकट हो रही थीं जिनको रेखांकित करने से लेख किंचित आलोचनापरक हो रहा था जो उनकी हीरक जयंती के अवसर पर पाठ के लिए अनुकूल नहीं था.मेरा एक बार मन हुआ कि दिल्ली जाने का टिकट रद्द करा दूँ.अंततःउस कार्यक्रम में हिस्सेदारी की.आयोजन सादा और गरिमापूर्ण था.कुंवर जी की प्यार करनेवालों की बड़ी संख्या वहां मौजूद थी.कवि अनुवादक गिरधर राठी ने उनकी आलोचना और कवि-कला-संगीत की पारखी यतीन्द्र मिश्र ने उनके कथेतर गद्य कला फिल्म संगीत पर आलेख पढ़ा.उन दोनों के लेख समयानुकूल और उत्कृष्ट थे.मेरा लेख किंचित तल्ख़ था.अधिकाँश लोगों के चेहरों से लग रहा था कि मेरे विश्लेषण से सहमत होते हुए भी उस अवसर पर उसे सराह नहीं पा रहे थे.मुझे यही डर भी था.कार्यक्रम के बाद चाय नाश्ते की व्यवस्था थी.कई लोगों ने मुझे बधाई दी.उसी भीड़ में केदार जी मेरा हाथ पकड़कर मुझे एक कोने में ले गये और बधाई दी. उनका हाथ उनकी कविता की तरह गरम और सुंदर था.फिर आगे जो उन्होंने कहा,उसे सुनकर में दंग रह गया.”विनोद ! मैंने ही अशोक को कहा था कि कुंवर जी की कविता पर विनोद दास से लिखवाओ.”ऐसा केदार जी ने क्यों किया यह आज भी मेरे लिए रहस्य है.

तबादले पर मुंबई आने के बाद दिल्ली जाना लगभग खत्म सा हो गया.कभी गया तो पारिवारिक झमेले में मशगूल रहा.उनसे मुलाक़ात नहीं हुई.हालांकि उनके छोटे जामाता और सहकर्मी सुबोध कुमार से उनका हालचाल मिलता रहता था.अंतिम बार उनसे फोन पर बात हुई.मुंबई में एक संस्था किसी प्रतिष्ठित कवि को आमंत्रित करना चाहती थी.मैंने केदार जी का नाम सुझाया था.केदार जी से बात की तो उनका कहना था कि तुम जहाँ कहोगे,आ जाऊँगा.

लेकिन संस्था को कोई मंचीय कवि मिल गये.इस तरह उनका मुंबई आना टल गया.लेकिन उनकी मीठी आवाज़ कान में अभी भी गूंजती रहती है.“तुम जहाँ कहोगे,आ जाऊँगा.”उन्होंने बिलकुल सच कहा था.जब भी मैं उनकी कविता पढता हूँ ,वह आ जाते हैं “छीमी में रस की तरह.”