कोमिल्ला, हरिपुरा, गया और पलासा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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सन 1938 ई. के मई मास में अखिल भारतीय किसान-सभा का तीसरा अधिवेशन बंगाल के पूर्वीय छोर पर कोमिल्ला में हुआ। मैं ही उसका अध्यक्ष था। मेरा भाषण अंग्रेजी, हिंदी और बंगला में छपा था। उस पर किसान-सभा के कुछ विरोधियों ने─ जो वामपक्षी कहे जाते हैं─ कुछ आक्षेप भी पीछे किए थे। उसका कराराउत्तरमुझे देना पड़ा! लोग कहते हैं कि मुसलमान लोग किसान-सभा नहीं चाहते, खासकर बंगाल के मुसलमान। मगर कोमिल्ला जिले में तो 95 फीसदी मुसलमान हैं। वहाँ सरकार ने,हक की मिनिस्ट्री ने और कुछ अपने कहे जानेवालों नेभी विरोध में खूब ही प्रचार किया। यहाँ तक कि सरकार ने सभा होने में ही दिक्कतें पेश कीं। मगर बंगाल प्रांतीय किसान-सभा के साथियों की मुस्तैदी और अथक उद्योग से उसका काम सानंद संपन्न हुआ। जिस परिस्थिति में उन्होंने सफलता प्राप्त की वह असाधारण थी!

मेरे पहुँचने पर जो जुलूस स्टेशन से चलकर शहर में घूमा वह लासानी था। विरोधी लोग सोचते भी न थे कि जुलूस को वैसी सफलता मिलेगी। उसके बाद उन्हें तमाचे लगे। फलत: सभा को सफल न होने देने में उनकी सारी शक्ति लगी। शहर के चारों ओर गुंडे तैनात हो गए और पीट-पीटकर आनेवाले किसानों के जत्थे लौटाए गए। हमारे प्रतिष्ठित साथी भी शहर में राह चलते पिटे और कोई पुर्सां हाल न था! चारों ओर मुसलिम लीगवाले शोर करते और जुलूस निकालते थे। कब कौन पिट जाएगा,यह खतरा बराबर बना था! फिर भी किसान आए और खूब ही आए। वहाँ मैंने जब धर्म के ढकोसले की पोल खोली तो मुसलमान किसान और मौलवी लोग लट्टू हो गए! वे उछल पड़े! मैंने साफ समझाया कि कैसे रोटी खुदा से भी बड़ी है।

मेरे भाषण का बंगला अनुवाद बीच-बीच में मेरे साथी श्री बंकिम मुखर्जी करते जाते थे। क्योंकि लिखित भाषण के अलावे मैं जबानी भी बोला था। लेकिन जब अंत में मुझे बोलने को कहा गया तो मैंने इस शर्त पर बोलना स्वीकार किया कि बंगला अनुवाद न हो और मेरी शादी हिंदी ही किसान समझ सकें। उन्होंने मान लिया और मुझे बुलवाकर ही छोड़ा। वहीं'ओरे भाई चासी, सत्य कथा शुन' नामक बंगाली गीत पर मैं मुग्ध हो गया। न जाने उसे कितनी बार गवाया!

कोमिल्ला की यात्रा में बंगाल में न जाने कितने ही स्टेशनों पर बंगीय युवकों का दल स्वागतार्थ मिला। कई अभिनंदन-पत्र भी मुझे मिले। मैं आश्चर्य में था। मेरी पूर्व बंगाल की, या यों कहिए कि बंगाल की ही यह पहली यात्रा थी। वे मुझसे परिचित भी न थे। थोड़ा सा जो किसानों में मैंने काम किया उसी का यह फल था।

यह चीज अच्छी भी है और बुरी भी। अच्छी तो इसलिए कि सार्वजनिक सेवकों को प्रोत्साहन मिलता है और इसी के बल पर कठिन-से-कठिन क्लेश वे भोग सकते हैं। मगर बड़ी हानि यह है कि इस तरह बरसाती मेढक की तरह नेताओं की संख्या हम बढ़ा देते हैं। जिसे हमने अच्छी तरह परखा नहीं और न ठोंक-ठाँक कर ठीक ही किया, उसे यों क्यों माना जाए?पीछे वही धोखा दे तो?आज तो किसानों तथा मजदूरों के संघर्ष में सबसे ज्यादा खतरा नेताओं से ही है।

कोमिल्ला के पहले ही उड़ीसा में प. नीलकंठ दास ने एक झमेला 1937 ई. की गर्मियों में खड़ा किया था। उनने स्वतंत्र किसान-सभा का विरोध करते हुए कही डाला था कि जो कांग्रेस का मेंबर न हो वह किसान-सभा का भी मेंबर नहीं बने, ऐसा ही किसान-सभा चाहिए। मैंने उन्हें उत्तर दिया कि उन्हें पता नहीं कि कांग्रेस और किसान-सभा के दृष्टिकोण में यह मौलिक अंतर है कि जहाँ कांग्रेस राजनीतिक आईने में अर्थनीति और रोटी को देखती और राजनीति से ही उस पर आती है तथा उसे राजनीति का साधन समझ के ही अपनाती है, तहाँ किसान-सभा अर्थनीति और रोटी के शीशे में ही राजनीति को देखती और वहाँ तक पहुँचती है उसे साधन समझकर ही। इसीलिए स्वतंत्र किसान-सभा अनिवार्य है।

पं. जवाहर लाल ने राष्ट्रपति की हैसियत से एक वक्तव्य में स्वतंत्र किसान-सभा का समर्थन तो किया था। मगर लाल झंडे पर आक्रमण किया और कहा था कि किसानों का झंडा तिरंगा ही होना चाहिए। इसी के बाद ही सन 1937 में ही आल इंडिया किसान कमिटी की बैठक नियामतपुर आश्रम (गया) में हुई। उसने किसान-सभा संबंधी मेरे उड़ीसावाले वक्तव्य का समर्थन करते हुए झंडे के बारे में पं. नेहरू का लंबा जवाब दिया। उसमें लाल झंडे का समर्थन भी किया। वहीं पर आल इंडिया किसान-सभा का विधान हमने पास किया। उसके बाद नवंबर में कलकत्ते में उसकी फिर बैठक हुई और लाल झंडा किसान रखें, यह प्रस्ताव पास हो गया।

सन 1938 के फरवरी में मैंने गुजरात का पहला दौरा किया। हरिपुरा कांग्रेस के समय किसानों के जत्थे पैदल चल के आए और सुंदर प्रदर्शन हो इसकी तैयारी भी की। श्री इंदुलाल जी याज्ञिक और उनके साथियों के अदम्य उत्साह एवं कार्यपरता के कारण वह प्रदर्शन अपूर्व रहा। 20-25 हजार किसानों ने उसमें भाग लिया। सरदार बल्लभ भाई की आज्ञा थी कि कांग्रेस नगर में कोई जुलूस नहीं निकाल सकता। मगर हमने उसे न माना और खूब ही जुलूस घुमाया। शाम को सभा करके भाषण भी हुए।

गुजरात की उसी यात्रा में मुझे पता लगा कि बारदोली का किसान सत्याग्रह केवल 10-15 फीसदी मध्यम श्रेणी और धनी किसानों की ही चीज थी। वहाँ के असली किसान तो रानीपरज, दुबला और हाली कहे जाते हैं। इनकी जमीनें छिन कर केवल 10-15 फीसदी लोगों के हाथ चली गई हैं। असली किसान लोग तो फसल का अर्ध्दभाग बँटाई में दे कर उन्हीं से धनियों से वही जमीनें लेते और जोतते हैं! जुल्म यह कि मूँगफली और रुई की फसलों में भी आधा देना पड़ता है। अगर फसल मारी गई तो वे लोग नगद रुपए ही देने को बाध्य किए जाते हैं! उनकी ओर अब तक न तो सरदार बल्लभ भाई का, न गाँधी जी का और न कांग्रेस का ही ध्यान गया है।

ये हाली और दुबला लोग महाजनों और धानियों के गुलाम होते हैं और उनकी राय के बिना कहीं आ-जा नहीं सकते! यदि गए तो पकड़ मँगाए जाते हैं। कोई उन्हें रखता भी नहीं!

मेरा दौरा गुजरात के कई जिलों में खूब सफल रहा। उसी साल गुजरात प्रांतीय किसान-सभा की नींव पड़ी उसे श्री इंदुलाल और उनके साथियों की लगन ने आज तो काफी मजबूत कर दिया है। हमारी सभा के करते ही हाली लोगों की गुलामी बहुत कुछ खत्म हो गई है और साहूकारों की नादिरशाही नहीं के बराबर रह गई। हालाँकि, अभी भी जुल्म होते हैं। आज हालियों में हिम्मत है।

हरिपुरा कांग्रेस में श्री सुभाष बाबू अध्यक्ष थे। उनने अपने भाषण में किसान-सभा का समर्थन किया। इसके विपरीत सरदार बल्लभ भाई ने अपने भाषण में बेमौके ही हम लोगों पर आक्रमण किया। फलत: विषय समिति में ऐसा हो-हल्ला मचा कि मजबूरन सभापति ने उन्हें बीच में ही बैठा दिया! तब कहीं शांति स्थापित हो सकी!

सन 1939 ई. के अप्रैल में रेवड़ा सत्याग्रह की सफलता के बाद और त्रिपुरी कांग्रेस के पश्चात शीघ्र ही गया में अखिल भारतीय किसान-सभा का चौथा वार्षिक अधिवेशन आचार्य नरेंद्रदेव की अध्यक्षता मंस संपन्न हुआ। गया के हमारे असली स्तंभ पं. यदुनंदन शर्मा तो रेवड़ा सत्याग्रह के सिलसिले में जेल में थे। वे अधिवेशन से एक ही मास पूर्व छूटे थे! फलत: अधिवेशन की तैयारी का समय असल में 15 ही दिन मिला। उसी दरम्यान प्राय: 8-10 हजार रुपए और सामान आदि का संग्रह एवं सारी तैयारी करनी पड़ी। स्वागताध्यक्ष तो हमने उन्हें ही पहले ही चुना था। बेशक,हमारे कार्यकर्ता लोग उसमें पिल पड़े। गया शहर से उत्तर का जितना इलाका है, जिसमें कुछ हिस्सा सदर सबडिवीजन का और शेष जहानाबाद का पड़ता है,उसने धान संग्रह करने और किसान सेवक दल को तैयार करने में कमाल किया। प्राय: सब भार उसी इलाके के मत्थे पड़ा। नवादा ने भी थोड़ा-बहुत किया। औरंगाबाद तो लापता ही रहा।

जमींदारों और कुछ कांग्रेसी दोस्तों ने सारी शक्ति लगा कर उसमें विघ्न डालना चाहा। किसानों को भड़काने के सैकड़ों रास्ते निकाले गए। न जानें कितनी नोटिसें और कितने लेख विरोध में छापे गए। सभा में किसान न आए इसी पर ज्यादा जोर रहा। बात यह थी कि थोड़े ही दिन पूर्व गया में दंगा हो चुका था। इसलिए हिंदू-मुस्लिम संघर्ष की बात कह के भड़का देना आसान था।

मगर हम भी पूरे सजग थे। मीटिंगें करके गया शहर का वायुमंडल हमने ऐसा कर दिया कि वह खतरा ही जाता रहा। सम्मेलन में सवा लाख से ज्यादा किसान आए, ऐसा अनुमान औरों का था। पंडाल गिरजाघर के मैदान में था। कम खर्च में वह खूब ही शानदार था। सभी ने माना कि हम सब तरह से सफल रहे। किसान कोष में पैसा देने की अपील तो किसानों से की ही थी। बीसियों बक्सों में ताले लगाने के बाद ऊपर सूराख करके स्थान-स्थान पर रख दिया था। लालवर्दीवाले सेवक किसानों को चेतावनी देते थे कि किसान कोष में पैसा डालो। पैसे पड़े भी बहुत।

वहाँ मेरी राय के विरुध्द कुछ दोस्तों ने प्रदर्शनी का झमेला खड़ा करके हमें बहुत परेशान किया। इसमें खद्दर ही रहेगा इस पर हठ करके और भी दिक्कत पैदा की। फलत: हजारों रुपए का घाटा हमें उठाना पड़ा। यदि किसानों के फायदे की चीजें रहतीं और सभी ढंग के सामान आने पाते तो घाटे के बजाए नफा रहता। वह तो कोई कांग्रेस की प्रदर्शनी थी नहीं।

उस मौके पर पुलिस ने तो हमारे साथ पूरा सहयोग किया, यह हम कहेंगे। प्रतिनिधियों और दर्शकों के लिए ठहरने आदि का बहुत ही सुंदर प्रबंध था। रेलवे ने शुरू में थोड़ी गड़बड़ी की और बिना टिकट स्वागतार्थ जाने के लिए भी प्लैट फार्म पर रोक लगाई, मगर जब हम बिगड़े तब इजाजत मिल गई। मगर थोड़ी रोक का भी नतीजा उसे बुरी तरह भोगना पड़ा। जब सभा के बाद समूची गाड़ी में बिना टिकट के किसान बैठ गए और ट्रेन रोकना पड़ा। आखिर पुलिस ने रात में हमें खबर दी और जब हमने मोटर से बजीरगंज में जाकर किसानों को समझा के हटाया, तब कहीं गाड़ी जा सकी। उनने ट्रेन ही रोक दी थी। उससे पहले मानपुर में भी ऐसा ही हुआ था। वहाँ भी पुलिस के जवान हार चुके थे। तब हमने ही किसानों को वहाँ भी हटाया था। असल में पं. यदुनंदन शर्मा की गिरफ्तारी के बाद पटना-क्यूल लाइन पर हजारों किसान गया जाते-आते थे, जब-जब उनका केस होता था। वेकभी टिकट लेते न थे। पहले भी हमें एकाध बार भरी ट्रेन में से उन्हें उतारना पड़ा था। वहाँ के किसानों को इसका अभ्यास हो गया है। मगर खास-खास मौके पर ही।

गया के अधिवेशन में और प्रस्तावों के साथ विधान के संशोधान के लिए एक कमिटी बनी। उसने पीछे किसान-सभा के विधान का संशोधान तैयार किया और उसे सन 1939 ई. के जून में बंबई में अखिल भारतीय किसान कमिटी ने पास किया। आज उसी विधान के अनुसार किसान-सभा का काम हो रहा है।

उस सभा में एक बात और हो गई। सभापति जी ने लाल झंडे के विपक्ष में अपने भाषण में जो छपा हुआ था, कुछ बातें कही थीं। वे कुछ साथियों को खटकीं। फिर तो गड़बड़ी होते-होते बची। बड़ी दिक्कत से हमने सँभाला। सभापति जी ने कहा था कि किसान-सभा का रुख तिरंगे झंडे के प्रति पूर्ण सम्मानात्मक नहीं है। प्रत्युत उसे रखने का विरोधी जैसा है। मगर पीछे हमने नियामतपुर के तत्संबंधी वक्तव्य और उसके बादवाले कलकत्ते के प्रस्ताव की प्रतिलिपि उनके पास भेज कर उनसे पूछा कि इसमें आपकी लिखी बात कहाँ है और क्या कमी है जिसे आप पूरा करना चाहते हैं? मगर उनने कोई उत्तर न दिया। फलत: झंडे के बारे में हमारी किसान-सभा का जो पहले से मन्तव्य था वही रहा। इस प्रकार लाल झंडा, जिस पर हँशिए और हथौड़े का आकार बना हो, किसान-सभा का झंडा मान्य हुआ। फलत: बिहार प्रांतीय किसान-सभा को भी उसे ही मानना पड़ा। इस तरह उसका विवाद ही खत्म हो गया।

गया के बाद पाँचवाँ अधिवेशन आंधार देश में आमंत्रित हुआ। सन 1940 ई. के मार्च के अंत में विजगापटम जिले के पलासा स्टेशन के पास काशी बुग्गा में वह अधिवेशन हुआ। मगर उसकी ख्याति पलासा के ही नाम से रही। अधिवेशन तो,प्रतिदिन घोर वृष्टि के बावजूद सफल हुआ। पर्याप्त संख्या में किसान उसमें सम्मिलित भी हुए। उसकी कई बातें तो उल्लेखनीय हैं। एक तो उसके मनोनीत सभापति महापंडित श्री राहुल सांकृत्यायन ऐन मौके पर गिरफ्तार हो जाने के कारण वहाँ पहुँच ही न सके। केवल उनका छपा हुआ भाषण ही पहुँचा और वह वितीर्ण हुआ। उनके अभाव में पंजाब के पुराने किसान सेवक वयोवृध्द और योध्दा बाबा सोहन सिंह भकना ने सभापतित्व किया। पीछे तो सभापति इस साल के लिए वही स्थनापन्न चुन लिए गए।

दूसरी घटना यह हुई कि अधिवेशन के अंतिम दिन जमींदारी प्रथा का पुतला जलाने की घोषणा हो जाने से सरकार घबराई और मजिस्ट्रेट ने दफा 144 के अनुसार एक नोटिस सभापति जी, स्वागताध्यक्ष श्री श्याम सुंदर राव एम.एल. ए., श्री प्रोफेसर रंगा आदि छ: आदमियों पर तामील की कि जो यह घोषणा हुई है कि किसी जमींदार का पुतला जलाया जाएगा, उससे अशांति फैल सकती है। इसीलिए ऐसा काम न किया जाए। पुलिस और मजिस्ट्रेट को यह भी तमीज नहीं कि जमींदार का नहीं,जमींदारी प्रथा का, पुतला जलाने को था। जो पुतला बना था उस पर यही लिखा था भी। फिर भी पुलिस की बड़ी तैनाती थी और यह भी खतरा था कि रात में पुतला जलाने पर वह धरपकड़ के साथ शायद मारपीट भी करे। यह भी डर था कि जमींदारों के गुंडे बीच सभा में बैठे हों और ठीक उसी समय गड़बड़ी करें। इसलिए सभा के अंत में वह पुतला सभा के बीच में नहीं, किंतु थोड़ी दूर हट के जलाया गया। अत: कोई बाधा न हुई। श्री इंदुलाल जी ने अपने भाषण में अधिकारियों को फटकारा भी। वे अपना सा मुँह ले के रह गए। मैंने देखा कि दिन में उस पुतले को ले कर वहाँ के किसान जुलूस के साथ बाजार में घूमे और उसे जूते, लाठी आदि से पीटते थे। मैंने अजीब उमंग उनमें देखी।

उसी अधिवेशन के बाद ही श्री रंगा जी गिरफ्तार हुए और पीछे वहीं के भाषण के लिए भारत रखा कानून के अनुसार उन पर केस भी चला। हालाँकि गिरफ्तारी तो दूसरे कारण से हुई और एक वर्ष की सजा अलग ही थी। 500 रुपए जुर्माना भी था। इस प्रकार सभापति और उपसभापति दोनों ही जेल में गए। मैं बचा उसका जेनरल सेक्रेटरी, सो मैं भी पलासा से लौटने के बाद 19वीं अप्रैल को पकड़ लिया गया। लेकिन यह सब तो होना ही था और इसमें खुशी ही थी। खेद की बात सिर्फ यही हुई कि प्राय: दो ही मास के बाद पलासा के स्वागताध्यक्ष श्री श्याम सुंदर राव को सरकार ने उनके गाँव में नजरबंद किया और उसके बाद ही उनका शरीरांत हो गया!

पलासा में जो प्रस्ताव हमने राष्ट्रीय युध्द और यूरोपीय समर के संबंध में पास किया वह अखिल भारतीय किसान-सभा के इतिहास में एक ऐतिहासिक चीज रहेगी। सरकार ने उसे पीछे जब्त भी कर लिया। पलासा में मैं ज्यादा न बोला। पहले दिन जब लाल झंडे का उत्थान मैंने किया तो हिंदी में बोला। फिर दूसरे दिन अंत में 10-15 मिनट अंग्रेजी में ही भाषण किया।