क्षुधा के अनुभव ─ अन्य घटनाएँ / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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हमारी यात्रा उरई आदि स्थानों से हो कर हुई। हम ज्यों-त्यों आगे बढ़ते गए खाने-पीने का कष्ट विशेष होने लगा। फलस्वरूप हमें एक-एक दिन में बहुत ज्यादा चलना पड़ता था। क्योंकि जंगली प्रदेश होने से हम समझते थे कि दूर जाने पर शायद कोई शहर या संपन्न गाँव मिले और भोजन की प्राप्ति आसानी से हो जाए। परिणाम यह हुआ कि हम झाँसी होते ललितपुर तक किसी प्रकार पहुँच सके। हम दोनों काफी कमजोर हो गए और चलने की हिम्मत न होती थी। अब तो चौबीस घंटे का प्रश्न ही न था। प्राय: डेढ़ और दो दिनों पर एक बार मुश्किल से यदि भोजन मिल जाता तो हम गनीमत समझते! सभी जातियों के यहाँ भोजन करते थे भी नहीं। सिर्फ ब्राह्मण के ही घर भरसक करते थे और ऐसा न होने पर क्षत्रिय के घर में शायद ही कभी। कट्टरपन जो था और पोथी-पत्रो का ज्ञान भी तो ताजा ही था।

ललितपुर में, हमें ख्याल है, कई दिन ठहरे और जरा थकावट दूर की। असल में गंगा के किनारे तो लोग संन्यासियों को जानते-मानते हैं। क्योंकि सह्त्रो वर्षों से असंख्य संन्यासी बराबर पैदल ही गंगा तट में घूमते रहे हैं। हजारों स्थान पर उनकी कुटिया भी बनी है। इसीलिए उधर ठीक रहता है अब भी। मगर झाँसी और बुंदेलखंड के जंगलों में संन्यासी क्यों जाने लगे?इसीलिए वहाँ के लोग समझ भी नहीं पाते थे कि हम कौन और क्या हैं और हमें क्यों खिलाना-पिलाना चाहिए। इसी से ज्यादा कष्ट हुआ और ललितपुर में विश्राम करने की नौबत आई।

वहाँ एक ठाकुरबाड़ी में, जो सजी-धजी थी, हम एक दिन गए। वह शहर से बाहर तालाब के किनारे थी ऐसी याद-सी है। हमने वैष्णव साधुओं की तरह ठाकुर जी को जमीन पर लोट कर (साष्टांग) दंडवत नहीं किया। किंतु यों ही जरा सिर झुका लिया। फिर बैठ गए। पुजारी पढ़े-लिखे थे। उन्हें यह बात रुची तो नहीं। फिर भी सभ्यतापूर्वक कहने लगे कि महापुरुष (संन्यासी को महापुरुष कहते हैं), लोग भगवान को साष्टांग क्यों नहीं करते?इस पर हम लोगों का उनके साथ कुछ देर तक मनोविनोद और शास्त्रीय कथनोपकथन होता रहा। वह खूब दिलचस्प था।

आखिर, एक स्थान पर ज्यादा टिकना अवांछनीय समझ हमने बीना होते सागर और वहाँ से नर्मदा पहुँचने की सोची। मगर चलने की तो हिम्मत न थी। इसलिए ललितपुर के स्टेशन मास्टर से कहा कि किसी प्रकार बीना तक हमें पहुँचा देने का यत्न करें। हमने उसे अपनी मजबूरी सुना दी। वह बेचारा तैयार हो गया। पैसा तो कहाँ खर्च करता। उसने कहा कि ट्रेन आते ही गार्ड से कह दूँगा और आप लोग निरबाधा चले जाएगे। ट्रेन आई। मैं उसके पास ही था। उसने गार्ड से अंग्रेजी में, कुछ कहा भी जो मैं सुनता था। गार्ड का चमड़ा गोरा था, उसने अंग्रेजी में, मुझे देख कर, उत्तर दे दिया कि यह साधु नहीं, यह तो लड़का मात्र हैं "He is not a Sadhu, but a more child" कुछ इसी ढंग के उसके शब्द थे जिनमें एकाध आज बत्तीस वर्षों के बाद कदाचित भूलने पर भी वे आज तक कानों में गूँजते हैं। गार्ड ने क्या समझा कि ये शब्द मैं समझूँगा और इन्हें अमर बना रखूँगा। मगर यह निराली घटना थी जो जीवन में पहली-बार हुई। अब तक कभी मुफ्त रेल में चढ़ने की इच्छा न की थी और इस बार यदि की भी, तो बेबसी थी। फिर भी चोरी से न चढ़ कर गार्ड की दया का भिखारी बने। लेकिन उसने वह प्रार्थना ठुकरा दी। उसे अपनी अक्ल का घमंड था कि वह साधुओं को पहचानता था। मुझे तो उसने निरा लड़का समझा।

लेकिन इससे हमारा निश्चय और भी पक्का हो गया कि जरूर गाड़ी से चलेंगे। चुपके-चोरी हजारों रेल में चढ़ते और निकल भागते हैं। कोई गार्ड नहीं कहता कि ये लड़के हैं, साधु नहीं हैं, वे ऐसा मौका देते ही नहीं। क्योंकि काफी चतुर-यार होते हैं। मगर हमने जब चोरी से चढ़ना ठीक न समझा तो घृणापूर्वक ठुकराए गए। बस, फिर क्या था, हम दोनों गाड़ी में जा बैठे। स्टेशन मास्टर ने भी अपना फर्ज अदा कर दिया था, गार्ड से कहने मात्र से ही। उसे हमारी क्या फिक्र?मगर एक गरीब प्वांइट्स मैन ने कहा कि बीना से एक स्टेशन पहले ही आप लोग उत्तर जाइएगा, नहीं तो बीना में टिकट का झमेला होगा। उसने यह भी कहा कि वहाँ (पहले स्टेशन) का स्टेशन मास्टर भला है। ठीक ही है, प्वाइंट्समैन तो गरीब दुखिया था। फिर वह हमारे जैसे दुखियों का कष्ट क्यों न पहचानता?