खोया पानी / भाग 12 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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जग में चले पवन की चाल

उन्होंने रहीम बख्श नाम का एक कोचवान नौकर रख लिया। तन्ख्वाह मुंह-मांगी, यानी पैंतालीस रुपये और खाना कपड़ा। घोड़ा उन्होंने केवल रंग, दांत और घनी दुम देखकर खरीदा था। वो इनसे इतने संतुष्ट थे कि बाकी घोड़े की जांच-पड़ताल आवश्यकता न समझी। कोचवान भी कुछ इसी प्रकार रखा अर्थात केवल जबान पर रीझ कर। बातें बनाने में माहिर था। घोड़े जैसा चेहरा, हंसता तो लगता कि घोड़ा हिनहिना रहा है। तीस वर्ष घोड़ों की संगत में रहते-रहते उनकी सारी आदतें, बुराइयां, और बदबुएँ अपना ली थीं। घोड़े की अगर दो टांगें होतीं तो इसी प्रकार चलता, बच्चों को कई बार अपना बायां कान हिला कर दिखाता। फुटबाल को एड़ी से दुलत्ती मारकर पीछे की ओर गोल करता तो बच्चे खुशी से तालियां बजाते। घोड़े के चने की चोरी करता था। बिशारत कहते थे, 'यह मनहूस चोरी-छुपे घास भी खाता है। वरना एक घोड़ा इतनी घास खा ही नहीं सकता। जभी तो इसके बाल अभी तक काले हैं। देखते नहीं, हरामखोर तीन औरतें कर चुका है!' विषय कुछ भी हो, सारी बातचीत साईसी भाषा में करता और रात को चाबुक साथ लेकर सोता। दो मील के भीतर कहीं भी घोड़ा या घोड़ी हो, वो तुरंत बू सूंघ लेता और उसके नथुने फड़कने लगते। रास्ते में कोई सुंदर घोड़ी दिखाई पड़ जाये तो वहीं रुक जाता और आंख मार-के तांगे वाले से उसकी उम्र पूछता। फिर अपने घोड़े से कहता 'प्यारे! तू भी जलवा देख ले, क्या याद करेगा!' और पंकज मलिक की आवाज, अपनी लय और घोड़े की टाप की ताल पर 'जग में चले पवन की चाल' गाता हुआ आगे बढ़ जाता। मिर्जा कहते थे कि यह व्यक्ति पूर्व-जन्म में घोड़ा था और अगले जन्म में भी घोड़ा ही होगा। ऐसा केवल महात्माओं और ऋषियों, मुनियों के साथ होता है कि वो जो पिछले जन्म में थे, अगले में भी वहीं हों। वरना ऐसे-वैसों की तो एक ही बार में जून पलट जाती है।

घोड़े-तांगे का उद्घाटन कहिये, मुहूर्त कहिये, जो कहिये - बिशारत के पिता के हाथों हुआ। सत्तर के पेटे बल्कि लपेटे में आने के पश्चात, लगातार बीमार रहने लगे थे। कराची आने के उपरांत उन्होंने बहुत हाथ-पांव मारे, मगर न कोई मकान और जायदाद अलाट करा सके, न कोई ढंग का बिजनेस शुरू कर पाये। बुनियादी तौर पर वो बहुत सीधे आदमी थे। बदली हुई परिस्थितियों में वो अपने बंधे-टिके उसूलों और आउट-आफ-डेट जीवन-शैली में परिवर्तन लाने को सरासर बदमाशी मानते थे। इसलिए असफलता के कारण दुखी अथवा शर्मिंदा होने की बजाय एक गौरव और संतोष अनुभव करते। वो उन लोगों में से थे, जो जीवन में नाकाम होने को अपनी नेकी और सच्चाई की सबसे रोशन दलील समझते हैं।

अत्यंत भावुक और स्वाभिमानी व्यक्ति थे, किसी से अधिक मिलते-जुलते भी न थे। कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया था, पॉमिस्ट के सामने भी नहीं। अब यह भी किया। खुशामद से जबान को कभी दूषित नहीं किया था। यह कसम भी टूटी मगर, काम न बनना था, न बना। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग का कहना है कि, जब स्वाभिमानी और बाउसूल व्यक्ति अपनी हिम्मतानुसार धक्के खाने के पश्चात डीमॉरलाइज होकर कामयाब लोगों के हथकंडे अपनाने का भोंडा प्रयास करता है तो रही-सही बात और बिगड़ जाती है। एकाएक उनको लकवा मार गया। शरीर के बायें भाग ने काम करना बंद कर दिया। डाइबिटीज, एलर्जी, पार्किंसन और खुदा जाने कौन-कौन से रोगों ने घेर लिया। कुछ ने कहा उनके घायल स्वाभिमान ने रोगों में शरण ढूंढ़ ली है। स्वयं स्वस्थ नहीं होना चाहते कि फिर कोई तरस नहीं खायेगा। अब उन्हें अपनी असफलता का इतना अफसोस नहीं था जितना कि अपनी जीवनशैली हाथ से जाने का दुख। लोग आ-आ कर उनका साहस बढ़ाते और कामयाब होने के तरीके सुझाते तो उनके आंसू बहने लगते।

लज्जा और अपमान की सबसे जलील सूरत यह है कि व्यक्ति स्वयं अपनी दृष्टि में भी कुछ न रहे। सो वो इस नर्क से भी गुजरे - उनका बायां बेजान हाथ अलग लटका इस गुजरने की तस्वीर खींचता रहता। लेकिन बेबसी का चित्रण करने के लिए उन्हें कुछ अधिक चेष्टा करने की आवश्यकता न थी। वो सारी उम्र दाग की गजलों पर सर धुनते रहे थे। उन्होंने कभी किसी तवायफ को फानी या मीर की गजल गाते नहीं सुना था। दरअस्ल उन दिनों नृत्य और गायन की महफिलों में किसी हसीना से फानी या मीर की गजल गवाना ऐसा ही था जैसे शराब में बराबर का नींबू का रस निचोड़ कर पीना, पिलाना। गुस्ताखी माफ, ऐसी शराब पीने के बाद तो आदमी केवल तबला बजाने योग्य रह जायेगा! तो साहब! बाबा सारी उम्र फानी और मीर से दूर रहे। अब जो शरण मिली तो उन्हीं के शेरों में मिली। वो मजबूत और बहादुर आदमी थे। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि उनको कभी रोते हुए देखूंगा। मगर देखा, इन आंखों से, कई बार।'


अलाहदीन अष्टम

उनके रोग न केवल बहुत से थे, बल्कि बहुत बढ़े हुए भी थे। इनमें सबसे खतरनाक रोग बुढ़ापा था। उनका एक दामाद विलायत से सर्जरी में नया-नया एफ.आर.सी.एस. करके आया था। उसने अपनी ससुराल में किसी का एपेंडिक्स बाकी नहीं छोड़ा। किसी की आंख में भी तकलीफ होती तो उसका एपेंडिक्स निकाल देता था। आश्चर्य इस पर होता कि आंख की तकलीफ जाती रहती। हालांकि वो सारी उम्र पेट के दर्द से परेशान रहे लेकिन अपने पेट पर हाथ रखकर सौगंध उठा कर कहते थे कि मैंने आज तक किसी डॉक्टर को अपने एपेंडिक्स पर हाथ नहीं डालने दिया। लंबे समय से बिस्तर पर पड़े थे लेकिन उनकी लाचारी अभी अपूर्ण थी। मतलब यह कि सहारे से चल-फिर सकते थे।

उन्होंने उद्घाटन इस प्रकार किया कि अपने कमरे के दरवाजे, जिससे निकले उन्हें कई महीने हो गये थे, एक लाल-रिबन बांध कर अपने डांवाडोल हाथ से कैंची से काटा। ताली बजाने वाले बच्चों में लड्डू बांटने के बाद शुक्राने (धन्यवाद) की नमाज अदा की। फिर घोड़े को अपने हाथ से गेंदे का हार पहनाया, उसके माथे पर एक बड़ी-सी भौंरी थी। केसर में उंगली डुबोकर उस पर 'अल्लाह' लिखा और कुछ पढ़कर फूंक मारी। चारों सुमों और दोनों पहियों पर शगुन के लिए सिंदूर लगाकर दुआ दी कि जीते रहो, सदा सरपट चलते रहो। रहीम बख्श कोचवान का मुंह खुलवा कर उसमें पूरा लड्डू फिट किया। खुद चांदी के वरक में लिपटा हुआ पान कल्ले में दबाया। पुरानी कश्मीरी शाल ओढ़-लपेट कर तांगे की पिछली सीट पर बैठे और अगली सीट पर अपना बीस साल पुराना हार्मोनियम रखवा कर उसकी मरम्मत कराने मास्टर बाकर अली की दुकान रवाना हो गये।

घोड़े का नाम बदल कर उन्होंने बलबन रखा। कोचवान से कहा, हमें तुम्हारा नाम रहीम बख्श बिल्कुल पसंद नहीं। तुम्हें अलादीन कह कर पुकारेंगे। जब से उनकी याददाश्त खराब हुई थी वो हर नौकर को अलादीन कह कर बुलाते थे। यह अलादीन-अष्टम था। इससे पहले वाला अलादीन सप्तम कई बच्चों का बाप था। हुक्के के तंबाकू और रोटियों की चोरी में निकाला गया। गरम रोटियां पेट पर बांध कर ले जा रहा था, चाल से पकड़ा गया। मान्यवर इस अलादीन अर्थात रहीम बख्श को आमतौर से अलादीन ही कहते थे। हां, यदि कोई खास काम जैसे पैर दबवाने हों या बेवक्त चिलम भरवानी हो या महज प्यार जताना हो तो अलादीन मियां कहकर बुलाते। परंतु गाली देना हो तो अस्ल नाम लेकर गाली देते थे।

हाफ मास्ट चाबुक

दूसरे दिन से तांगा सुब्ह बच्चों को स्कूल ले जाने लगा। उसके बाद बिशारत को दुकान छोड़ने जाता। तीन दिन यही नियम रहा। चौथे दिन कोचवान बच्चों को स्कूल छोड़कर वापस आया तो बहुत परेशान दिखाई पड़ा। घोड़ा फाटक से बांधकर सीधा बिशारत के पास आया। हाथ में चाबुक ऐसे उठा रखा था जैसे पुराने समय में ध्वजवाहक युद्धध्वज लेकर चलता था, बल्कि यूं कहना चाहिये, जिस प्रकार न्यूयार्क की स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी ने अपने हाथ को आखिरी सेंटीमीटर तक ऊंचा करवा कर आजादी की मशाल बुलंद कर रखी है। आगे चलकर मालूम हुआ कि कोई बिजोग पड़ जाये या अशुभ समाचार सुनाना हो तो वो इसी प्रकार चाबुक का झंडा ऊंचा किये आता था। चाबुक को सीधी हालत में देख बिशारत ऐसे व्याकुल होते, जैसे हेमलेट घोस्ट देखकर होता था।

Here it cometh, my Lord!

बिशारत के निकट आकर उसने चाबुक को हाफ-मास्ट किया और पंद्रह रुपये मांगे। कहने लगा 'स्कूल की गली के नुक्कड़ पे अचानक चालान हो गया। घोड़े के बायें पैर में लंगड़ापन है! स्कूल से निकला ही था कि अत्याचार वालों ने धर लिया। बड़ी मिन्नतों से पंद्रह रुपये देकर घोड़ा छुड़ाया है वरना उसके साथ सरकार भी बेफिजूल खिंचे-खिंचे फिरते। मेरी आंखों के सामने 'अत्याचार' वाले एक गधागाड़ी के मालिक को चाबुक से मारते हुए हंकाल के थाने ले गये। उसके गधे का लंग तो अपने घोड़े के मुकाबले कुछ भी नहीं 'कोचवान ने गधे के लंग की बात इतने मामूली ढंग से कही और अपने घोड़े का लंग इतना बढ़ा-चढ़ा कर बयान किया कि बिशारत ने क्रोध से कांपते हाथ से पंद्रह रुपये देकर उसे चुप किया।


शेर की नीयत और बकरी की अक्ल में फितूर

उसी समय एक सलोतरी को बुलाकर घोड़े को दिखाया। उसने बायीं नली हाथ से सूंती तो घोड़ा चमका। पता चला कि पुराना लंग है। सारा घपला अब कुछ-कुछ समझ में आने लगा। संभवतः, नहीं निःसंदेह, घोड़ा इसी कारण रेस में डिसक्वालिफाई हुआ होगा। ऐसे घोड़े को तो उसी समय गोली मार दी जाती है और यह उसके लिए तांगे में जुतकर जलील होने से कई गुना बेहतर सूरत होती है, लेकिन सलोतरी ने उम्मीद दिलाई कि छः महीने तक मुर्गाबी के तेल की मालिश करायें। मालिश का मेहनताना पांच रुपये रोज! यानी डेढ़ सौ रुपया माहवार। छह महीने के नौ सौ रुपये हुए। नौ सौ का घोड़ा, नौ सौ की मालिश अर्थात टाट की गुदड़ी में मखमल का पैवंद! अभी कुछ दिन हुए अपने अब्बा की मालिश और पैर दबाने के लिए एक आदमी को अस्सी रुपये माहवार पर रखा था। इसका मतलब तो यह हुआ कि उनकी कमाई का आधा हिस्सा तो इन्कम टैक्स वाले रखवा लेंगे और एक-तिहाई चंपी मालिश वाले खा जायेंगे। हलाल की कमाई के बारे में उन्होंने कभी नहीं सुना था कि वो इस अनुपात से गैर हकदारों में बंटती है। चार बजे तांगा जुतवा कर वो सेठ से निपटने के लिए रवाना हो गये। तांगे में बैठने से पहले उन्होंने गहरे रंग का धूप का चश्मा लगा लिया, ताकि कड़ी, खरी, खोटी सुनाने में झिझकें नहीं और चेहरे पर एक रहस्यमय खूंखारी का भाव आ जाये। आधा रास्ता ही तय किया होगा कि एक व्यक्ति ने बम पकड़ कर तांगा रोक लिया। कहने लगा, आपका घोड़ा बुरी तरह लंगड़ा रहा है, चालान होगा। बिशारत भौंचक्के रह गये। पता चला 'अत्याचार' वाले आजकल बहुत सख्ती कर रहे हैं। हर मोड़ पर बात-बेबात चालान हो रहा है। वो किसी प्रकार न माना तो बिशारत ने कानूनी पेंच निकाला कि आज सुब्ह ही इसका चालान हो चुका है। सात घंटे में एक ही अपराध में दो चालान नहीं हो सकते। इंस्पेक्टर ने यह बात भी चार्जशीट में टांक ली और कहा कि इससे तो अपराध और संगीन हो गया। बचने का कोई मार्ग न सूझा तो बिशारत ने कहा, 'अच्छा बाबा! तुम्हीं सच्चे सही, दस रुपये पे मामला रफा-दफा करो। ब्रांड न्यू घोड़ा है, खरीदे हुए तीसरा दिन है। 'यह सुनते ही वो व्यक्ति आग बबूला हो गया।' कहने लगा 'बड़े साब! गागल्ज के बावजूद आप भले आदमी मालूम होते हैं, मगर आपको पता होना चाहिये कि आप पैसे से लंगड़ा घोड़ा खरीद सकते हैं', आदमी नहीं खरीद सकते। चालान हो गया।

स्टील री-रोलिंग मिल पहुंचे तो सेठ घर जाने की तैयारी कर रहा था। आज इसके यहां एक पीर की याद में डेढ़-दो सौ फकीरों को पुलाव खिलाया जा रहा था। उसका मानना था कि इससे महीने-भर की कमाई पाक हो जाती है और यह Laundering कोई अनोखी बात नहीं थी। एक बैंक में पंद्रह बीस वर्ष तक यह नियम रहा कि प्रत्येक ब्रांच में जितने नये खाते खुलते, शाम को उतने ही फकीर खिलाये जाते। यह पता नहीं चल पाया कि यह खाना, खाते खुलने की खुशी में खिलाया जाता था या ब्याज के व्यापार में बढ़ोतरी के प्रायश्चित में। हमारा एक बार मुल्तान जाना हुआ। वहां उस दिन बैंक के मालिकों में से एक बहुत सीनियर सेठ इंस्पेक्शन पर आये हुए थे। शाम को ब्रांच में बराबरी का यह दृश्य देखकर हमारी खुशी की सीमा न रही कि सेठ साहब पंद्रह-बीस फकीरों के साथ जमीन पर पंजों के बल बैठे पुलाव खा रहे हैं और हर फकीर और उसके बीबी-बच्चों का अकुशल-अमंगल पूछ रहे हैं। परंतु मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग को गुब्बारे पंक्चर करने की बड़ी बुरी आदत है। उन्होंने यह कहकर हमारी सारी खुशी किरकिरी कर दी कि जब शेर और बकरी एक ही घाट पानी पीने लगें तो समझ लो कि शेर की नीयत और बकरी की अक्ल में फितूर है। महमूद व अयाज का एक ही पंक्ति में बैठकर खाना भी 'ऑडिट एंड इंस्पेक्शन' का हिस्सा है। सेठ साहब वास्तव में यह पता लगाना चाहते हैं कि खाने वाले अस्ली फकीर हैं या मैनेजर ने अपने यारों-रिश्तेदारों की पंगत बिठा दी है।

हम कहां से कहां आ गये। बात स्टील मिल वाले सेठ की थी, जो सात-आठ वर्ष से काले धन को प्रत्येक महीने नियाज के लोबान की धूनी से पाक और 'व्हाइट' करता रहता था।


महात्मा बुद्ध बिहारी थे

सेठ ने घोड़े के लंग के बारे में एकदम अज्ञानता व्यक्त की। उल्टा उन्हीं के सर हो गया कि 'तुम घोड़े को देखने हाफ-डजन टाइम तो आये होगे। घोड़ा तलक तुम को पिछानने लगा था। दस-दफे घोड़े के दांत गिने... क्या? तुमने हमको यहां तलक बोला कि घोड़ा नौ हाथ लंबा हैं उस समय तुम्हें यह नौ-गजा दिखलाई पड़ता था। आज चार-पांच दिन बाद घोड़े के गॉगल्ज खुद पहन के इल्जाम लगाने आये हो... क्या? तीन दिन में तो कब्र में मुर्दे का भी हिसाब-किताब बरोबर खल्लास हो जाता है। उस टेम आपको माल में यह डिफेक्ट दिखलाई नहीं पड़ा। तांगे में जोत के गरीबखाने ले गये तब भी नजर नहीं आया।' बिशारत सेठ के सामने अपने घर को इतनी बार गरीबखाना कह चुके थे कि वो यह समझा कि यह उनके घर का नाम है।

बिशारत ने कुछ कहना चाहा तो बात काटते हुए बोला - अरे बाबा! घोड़े का कोई पार्ट, कोई पुर्जा ऐसा नहीं बचा, जिसपे तुमने दस-दस दफे हाथ नहीं फेरा हो! क्या? तुम बिजनेसमेन हो के ऐसी कच्ची बात मुंह से निकालेगा तो हम किधर को जायेंगा? बोलो जी! हल्कट मानुस के माफिक बात नहीं करो... क्या?' सेठ जिम्मेदारी से बरी हो गया।

बिशारत ने तंग आकर कहा, 'हद तो यह कि सौदा करने से पहले यह भी न बताया कि घोड़ा जनाजा उलट चुका है। आप खुद को मुसलमान कहते हैं' सीने पर हाथ रखते हुए सेठ बोला तो क्या तुम्हारे को बुद्धिष्ट दिखलाई पड़ता हूं? हमने जूनागढ़ काठियावाड़ से माइग्रेट किया है... क्या? अपने पास बरोबर सिंध का डोमेसाइल है। महात्मा बुद्ध तो बिहारी था। (अपने मुंह के पान की ओर संकेत करते हुए) मेरे मुंह में रोजी है। तुम भी बच्चों की कसम खा के बोलो। जब तुमने पूछा - घोड़ा काये को बेच रहे हो, हमने तुरंत बोल दिया। सौदा पक्का करने से पहले पूछते तो हम पहले बोल देते। तुम लकड़ी बेचते हो तो क्या ग्राहक को लक्कड़ की हर गांठ, हर दाग पे उंगली रख-रख के बताते हो कि पहले इसे देखो? हम साला अपना व्यापार करे कि तुम्हारे को घोड़े की बयाग्राफी (बायोग्राफी) बताये। फादर मेरे को हमेशा बोलता था कि ग्राहक 420 हो तो पहले देखो भालो, फिर सौदे की टेम बोलो कम, तोलो जियादा। पर तुम्हारे ऊपर तो -खोलो, अभी खोलो! - की धुन सवार थी। तुम्हारे मुंह में पैसे बज रहे थे। गुजराती में कहावत है कि पैसा तो शेरनी का दूध है! इसे हासिल करना और पचाना दोनों बराबर मुश्किल है। पर तुम तो साला शेर को ही दुहना मांगता है। हम करोड़ों का बिजनेस करेला है। आज दिन-तलक जबान दे-के नईं फिरेला। अच्छा अगर तुम कुरान पर हाथ रख के बोल दो कि तुम घोड़ा खरीदते टेम पियेला था तो हम तुरंत एक-एक पाई रिफंड कर देगा।'

बिशारत ने मिन्नतें करते हुए कहा 'सेठ, सौ-डेढ़ सौ कम में घोड़ा वापस ले लो। मैं बीबी-बच्चों वाला आदमी हूं। जिंदगी भर अहसानमंद रहूंगा।' सेठ आपे-से बाहर हो गया, 'अरे बाबा! खच्चर के माफिक हमसे अड़ी नईं करो। हमसे एक दम कड़क उर्दू में डायलाग मत बोलो। तुम फिलम के विलन के माफिक गॉगल्ज लगा के इधर काये को तड़ी देता पड़ा हैं। भाई साहब! तुम पढ़ेला मानुस हो। कोई फड्डेबाज मवाली, मल्बारी नईं, जो शरीफों से दादागीरी करे। तुमने साइन-बोर्ड नईं पढ़ा। बाबा! यह री-रोलिंग मिल है। इसटील री-रोलिंग मिल। इधर घोड़े का धंधा नईं होता... क्या? कल को तुम बोलेंगा कि तांगा भी वापस ले लो। हम साला अक्खा उम्र इधर बैठा घोड़े-तांगे का धंधा करेंगा तो हमारा फेमिली क्या घर में बैठा कव्वाली करेंगा? भाई साब! अपुन का घर तो गिरस्तियों का घर है, किसी बुजुर्ग का मजार नईं कि बाई लोग गज-गज भर के लंबे बाल खोल के धम्माल डाल दें। धमा धम मस्त कलंदर!'

बिशारत ने तांगा स्टील री-रोलिंग मिल के बाहर खड़ा कर दिया और स्वयं एक थड़े पर पैर लटकाये प्रतीक्षा करने लगे कि अंधेरा जरा गहरा हो जाये तो वापस जायें, ताकि नौ घंटे में तीसरी बार चालान न हो। गुस्से से अभी तक उनके कानों की लवें तप रही थीं और हल्क में कैक्टस उग रहे थे। बलबन गुलमोहर के पेड़ से बंधा सर झुकाये खड़ा था। उन्होंने पान की दुकान से एक लोमोनेड की गोली वाली बोतल खरीदी। एक ही घूंट में उन्होंने अनुमान लगा लिया कि उनकी प्रतीक्षा में यह बोतल कई महीनों से धूप में तप रही थी। फिर अचानक याद आया कि इस परेशानी में आज दोपहर बलबन को चारा और पानी भी नहीं मिला। उन्होंने बोतल रेत पर उंडेल दी और गॉगल्ज उतार दिये।


जादू मंत्र द्वारा उपचार

रिश्वत और मालिश की रकम अब घोड़े की कीमत और उनकी सहनशक्ति की सीमा को पार कर चुकी थी। पकड़-धकड़ का सिलसिला किसी प्रकार समाप्त होने में नहीं आता था। तंग आकर उन्होंने रहीम बख्श की जबानी इंस्पेक्टर को यह तक कहलाया कि तुम मेरी दुकान में उगाही की नौकरी कर लो। तुम्हारी तन्ख्वाह से अधिक दूंगा। उसने कहला भेजा 'सेठ को मेरा सलाम बोलना और कहना कि हम तीन हैं।'

उन्होंने घोड़ा-तांगा बेचना चाहा तो किसी ने सौ रुपये भी न लगाये। अंततः अपने वालिद से इस बारे में बात की। वो सारा हाल सुनकर कहने लगे 'इसमें परेशानी की कोई बात नहीं। हम दुआ करेंगे। तांगे में जोतने से पहले एक गिलास फूंक मारा हुआ दूध पिला दिया करो। अल्लाह ने चाहा तो लंग जाता रहेगा और चालानों का सिलसिला भी बंद हो जायेगा। एक बार वजीफे का प्रभाव तो देखो।

पिताश्री ने उसी समय रहीम बख्श से बिस्तर पर हार्मोनियम मंगाया। वो धोंकनी से हवा भरता रहा और पिताश्री कांपती-कंपकंपाती आवाज में हम्द (ईश्वर की स्तुति) गाने लगे।

आंख जहां पड़ती, वहां उंगली नहीं पड़ रही थी और जिस पर्दे पर उंगली पड़ती, उस पर पड़ी ही रह जाती। एक पंक्ति गाने और बजाने के बाद यह कहकर लेट गये कि इस हार्मोनियम के काले पर्दे के जोड़ अकड़ गये हैं। मास्टर बाकर अली ने क्या खाक मरम्मत की है!

दूसरे दिन किबला की चारपायी ड्राइंग रूम में आ गयी। क्योंकि यही ऐसा कमरा था जहां घोड़ा रोज-सुब्ह अपने माथे पर 'अल्लाह' लिखवाने और फूंक मारने के लिए अंदर लाया जा सकता था। तड़के किबला ने नमाज के बाद गुलाब जल में उंगली डुबो कर घोड़े के माथे पर 'अल्लाह' लिखा और खुरों को लोबान की धूनी दी। कुछ देर बाद उस पर साज कसा जाने लगा तो बिशारत दौड़े-दौड़े किबला के पास आये और कहने लगे घोड़ा दूध नहीं पी रहा। किबला हैरान हुए। फिर आंखें बंद करके सोच में पड़ गये। कुछ पलों के बाद आंखें अधखुली करके बोले, कोई हरज नहीं कोचवान को पिला दो, घोड़ा दांतों के दर्द से पीड़ित है। इसके बाद यह नियम बन गया कि दुआ पढ़कर फूंका गया दूध रहीम बख्श पीने लगा। ऐसी अरुचि के साथ पीता जैसे उन दिनों यूनानी दवाओं के पियाले पिये जाते थे अर्थात नाक पकड़ के, मुंह बना बना के। दूध के लिए न जाने कहां से धातु का बहुत लंबा गिलास ले आया जो उसकी नाभि तक पहुंचता था। किबला के उपचार का प्रभाव पहले ही दिन नजर आ गया। वह इस प्रकार कि उस दिन चालान एक दाढ़ी वाले ने किया। रहीम बख्श अपना लहराता हुआ चाबुक हाफ मास्ट करके कहने लगा 'सरकार! बावजूद धर लिया' फिर उसने विस्तार से बताया कि एक दाढ़ी वाला आज ही जमशेद रोड के हल्के से तबादला होकर आया है। बड़ा ही दयालु, अल्लाह-वाला व्यक्ति है। इसलिए केवल साढ़े तीन रुपये लिए, वह भी चंदे के तौर पर। पड़ोस में एक विधवा के बच्चे के इलाज के लिए। आप चाहें तो चल के मिल लीजिये। मिल के बहुत खुश होंगे। हर समय भीतर ही भीतर जाप करता रहता है। अंधेरी रात में सिजदे के निशान से ऐसी रौशनी निकलती है कि सुई पिरो लो। (अपने बाजू से तावीज खोलते हुए) घोड़े के लिए ये तावीज दिया है।

कहां पच्चीस रुपये, कहां साढ़े तीन रुपये! किबला ने रिश्वत में कमी को अपने आशीर्वाद और उसके चमत्कार का परिणाम समझा और कहने लगे कि तुम देखते जाओ। इंशाल्लाह चालीसवें दिन 'अत्याचार' के इंस्पेक्टर को घोड़े की टांग नजर आनी बंद हो जायेगी। उनकी चारपायी के चारों ओर उनका सामान भी ड्राइंग रूम में सजा दिया गया। दवाएँ, बैडपैन, हुक्का, सिलफ्ची, हार्मोनियम, आगा हश्र के ड्रामे, एनीमा का उपकरण और कज्जन एक्ट्रेस का फोटो। ड्राइंग रूम अब इस योग्य नहीं रहा था कि उसमें घोड़े, किबला और इन दोनों का पाखाना उठाने वाली मेहतरानी के अतिरिक्त कोई और पांच मिनट भी ठहर सके। बिशारत के दोस्तों ने आना छोड़ दिया परंतु वो घोड़े की खातिर किबला को सहन कर रहे थे।


एक घोड़ा भरेगा कितने पेट?

जिस दिन से दाढ़ी वाले मौलाना नियुक्त हुए, रहीम बख्श हर चौथे-पांचवें दिन आ के सर पे खड़ा हो जाता। 'चंदा दीजिये।' परंतु ढाई-तीन रुपये या अधिक-से-अधिक पांच में आई बला टल जाती। उससे जिरह की तो पता चला कि कराची में तांगे अब केवल इसी इलाके में चलते हैं। तांगे वालों का हाल घोड़ों से भी खराब है। उन्होंने पुलिस और 'अत्याचार' वालों का नाम-मात्र को महीना बांध रखा है, जो उनकी गुजर बसर के लिए बिल्कुल अपर्याप्त है। उधर नंगे, भूखे गधागाड़ी वाले मकरानी सर फाड़ने पर उतर आते हैं। घायल गधा, पसीने में तर-ब-तर गधागाड़ी वाला और फटे हाल 'अत्याचार' का इंस्पेक्टर। यह निर्णय करना मुश्किल था कि इनमें कौन अधिक बदहाल और जुल्म का शिकार है। यह तो ऐसा ही था जैसे एक सूखी-भूखी जोंक, दूसरी सूखी-भूखी जोंक का खून पीना चाहे। नतीजा यह कि 'अत्याचार वाले' तड़के ही इकलौती मोटी आसामी यानी उनके तांगे की प्रतीक्षा में गली के नुक्कड़ पे खड़े हो जाते और अपने पैसे खरे करके चल देते। अकेला घोड़ा सारे स्टाफ के बाल-बच्चों का पेट पाल रहा था। लेकिन करामत हुसैन (दाढ़ी वाले मौलाना का यही नाम था) का मामला कुछ अलग था। वो अपने हुलिए और फटे-हाल होने के कारण ऐसे दिखाई पड़ते थे कि लगता था उन्हें रिश्वत देना पुण्य का काम है और वो रिश्वत लेकर वास्तव में रिश्वत देने वाले को पुण्य कमाने का अवसर प्रदान कर रहे हैं। वो रिश्वत मांगते भी ऐसे थे जैसे दान मांग रहे हों। ऐसा प्रतीत होता था कि उनके भाग का सारा अन्न घोड़े की लंगड़ी टांग के माध्यम से ही उतरता है। ऐसे फटीचर रिश्वत लेने वाले के लिए उनके भीतर न कोई सहानुभूति थी न डर।


कुत्तों के चाल चलन की चौकीदारी

दोस्तों ने सलाह दी कि घोड़े को इंजेक्शन से ठिकाने लगवा दो, लेकिन उनका मन नहीं मानता था। किबला तो सुनते ही रुआंसे हो गये। कहने लगे आज लंगड़े घोड़े की बारी है, कल अपाहिज बाप की होगी। शरीफ घरानों में आई हुई दुल्हन और जानवर तो मर कर ही निकलते हैं। वो स्वयं तीन दुल्हनों के जनाजे निकाल चुके थे, इसलिए घोड़े के बारे में भी ठीक ही कहते होंगे। रहीम बख्श भी घोड़े की हत्या कराने का कड़ा विरोध करता था। जैसे ही बात चलती, अपना तीस वर्ष के अनुभव बताने बैठ जाता। यह तो हमने भी सुना था कि इतिहास अस्ल में बड़े लोगों की बायोग्राफी है परंतु रहीम बख्श कोचवान की सारी आटोबायोग्राफी दरअस्ल घोड़ों की बायोग्राफी थी। उसके जीवन से एक घोड़ा पूरी तरह निकल नहीं पाता था कि दूसरा आ जाता। कहता था कि उसके तीन पूर्व-मालिकों ने 'वैट' से घोड़ों को जहर के इंजेक्शन लगवाये थे। पहला मालिक तीन दिन के भीतर चटपट हो गया। दूसरे का चेहरा लक्वे से ऐसा टेढ़ा हुआ कि दायीं बांछ कान की लौ से जा मिली। एक दिन गलती से आईने में खुद पर नजर पड़ी तो घिग्घी बंध गयी। तीसरे की बीबी जॅाकी के साथ भाग गयी। देखा जाये तो इन तीनों में - जो तुरंत मर गया, उसी का अंत सम्मानजनक मालूम होता है।

उन्हीं दिनों एक साईस ने सूचना दी कि लड़काना में एक घोड़ी तेलिया कुमैत बिलकुल मुफ्त यानी तीन सौ रुपये में मिल रही है। बस वडेरे के दिल से उतर गयी है। गन्ने की फस्ल की आमदनी से उसने गन्ने ही से लंबाई नाप कर एक अमरीकी कार खरीद ली है। आपकी सूरत पसंद आ गयी तो हो सकता है मुफ्त ही दे दे। इसका विरोध पहले हमने और बाद में किबला ने किया। उन दिनों कुत्ते पालने का नया-नया शौक हुआ था। हर बात उन्हीं के संदर्भ में करते थे। कुत्तों के लिए अचानक मन में इतना आदर-भाव पैदा हो गया था कि कुतिया को मादा-कुत्ता कहने लगे थे।

हमने बिशारत को समझाया कि खुदा के लिए मादा घोड़ा न खरीदो। आमिल कालोनी में दस्तगीर साहब ने एक मादा-कुत्ता पाल लिया है। किसी शुभचिंतक ने उन्हें सलाह दी थी कि जिस घर में कुत्ते हों, वहां फरिश्ते, बुजुर्ग और चोर नहीं आते। उस जालिम ने यह न बताया कि फिर सिर्फ कुत्ते ही आते हैं। अब सारे शहर के बालिग कुत्ते उनकी कोठी का घेराव करे पड़े रहते हैं। शहजादी स्वयं शत्रु से मिली हुई है।

ऐसी तनदाता नहीं देखी। जो ब्वॅाय स्काउट का 'मोटो' है - वही उसका - Beprepared - मतलब यह कि हर आक्रमणकारी से सहयोग के लिए पूरे तन-मन से तैयार रहती है। फाटक खोलना असंभव हो गया है। महिलाओं ने घर से निकलना छोड़ दिया। पुरुष स्टूल रखकर फाटक और कुत्ते फलांगते हैं। दस्तगीर साहब इन कुत्तों को दोनों वक्त नियमित रूप से खाना डलवाते हैं, ताकि आने-जाने वालों की पिंडलियों से अपना पेट न भरें। एक बार खाने में जहर डलवा कर भी देख लिया। गली में मुर्दा कुत्तों के ढेर लग गये। अपने खर्च पर उनको दफ्न किया। एक साहब का पालतू कुत्ता जो बुरी संगत में पड़ गया था, उस रात घर वालों की नजर बचा कर सैर-तमाशे को चला आया था, वो भी वहीं खेत रहा। इन चंद कुत्तों के मरने से जो रिक्त-स्थान पैदा हुआ, वो इसी प्रकार पूरा हुआ जैसा साहित्य और राजनीति में होता है। हम तो इतना जानते हैं कि स्वयं को indispensable समझने वालों के मरने से जो रिक्त-स्थान पैदा होता है, वह वास्तव में केवल दो गज जमीन में होता है, जो उन्हीं के पार्थिव शरीर से उसी समय पूरा हो जाता है। खैर! यह एक अलग किस्सा है। कहना यह था कि अब दस्तगीर साहब सख्त परेशान हैं। खानदानी मादा है। नीच जात के कुत्तों से वंशावली बिगड़ने का डर है। मैंने तो दस्तगीर साहब से कहा था कि इनका ध्यान बंटाने के लिए कोई मामूली जात की कुतिया रख लीजिये ताकि कम-से-कम यह धड़का तो न रहे, रातों की नींद तो हराम न हो। इतिहास में आप पहले व्यक्ति हैं जिसने कुत्तों के चाल-चलन की चौकीदारी का बीड़ा उठाया है।