खोया पानी / भाग 13 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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अकेलेपन का साथी

इस किस्से से हमने उन्हें सीख दिलाई। किबला ने दूसरे पैंतरे से घोड़ी खरीदने का विरोध किया। वो इस बात पर गुस्से से भड़क उठते थे कि बिशारत को उनके चमत्कारी वजीफे पर विश्वास नहीं। वो खासे गलियर थे। बेटे को खुल कर तो गाली नहीं दी। बस इतना कहा कि अगर तुम्हें अपना वंश चलाने के लिए पेडिग्री घोड़ी ही रखनी है तो शौक से रखो, मगर मैं ऐसे घर में एक मिनट नहीं रह सकता। उन्होंने यह धमकी भी दी कि जहां बलबन घोड़ा जायेगा वो भी जायेंगे।

किस्सा दरअस्ल यह था कि किबला और घोड़ा एक दूसरे से इस हद तक घुल-मिल चुके थे कि अगर घर वाले न रोकते तो वे उसे ड्राइंग रूम में अपनी चारपायी के पाये से बंधवा कर सोते। वो भी उनके पास आकर अपने-आप सर नीचे कर लेता ताकि वो उसे बैठे-बैठे प्यार कर सकें। वो घंटों मुंह-से-मुंह भिड़ाये उससे घर वालों और बहुओं की शिकायतें और बुराइयां करते रहते। बच्चों के लिए वो जीता-जागता खिलौना था। किबला कहते थे जब से यह आया है, मेरे हाथ का कंपकंपाना कम हो गया है और बुरे सपने आने बंद हो गये हैं। वो अब उसे बेटा कहने लगे थे। सदा के रोगी से अपने-पराये सब उकता जाते हैं। एक दिन वो चार-पांच घंटे दर्द से कराहते रहे, किसी ने खबर न ली। शाम को घबराहट और मायूसी अधिक बढ़ी तो रसोइये से कहा कि बलबन बेटे को बुलाओ। बुढ़ापे और बीमारी के भयानक सन्नाटे में यह दुखी घोड़ा उनका अकेला साथी था।

इक तर निवाले की सूरत

घोड़े को जोत नहीं सकते, बेच नहीं सकते, मरवा नहीं सकते, खड़े खिला नहीं सकते, फिर करें तो क्या करें। जब ब्लैक मूड आता तो अंदर-ही-अंदर खौलते और अक्सर सोचते कि सेठ, सरमायेदार, वडेरे, जागीरदार और बड़े अफसर अपनी सख्ती और करप्शन के लिए जमाने-भर में बदनाम हैं। मगर, यह 'अत्याचार वाले' दो टके के आदमी किससे कम हैं। उन्हें इससे पूर्व ऐसे प्रतिक्रियावादी और आक्रांतकारी विचार कभी नहीं आये थे। उनकी सोच में इंसानों से परेशान व्यक्ति की झुंझलाहट उतर आई। ये लोग तो गरीब हैं, दुःखी हैं, मगर यह किसको छोड़ते हैं। संतरी बादशाह भी तो गरीब है, वो रेहड़ी वाले को कब छोड़ता है और गरीब रेहड़ी वाले ने कल शाम आंख बचाकर एक सेर सेबों में दो दागदार सेब मिलाकर तोल दिये। उसकी तराजू एक छटांक कम तोलती है। केवल एक छटांक इसलिए कि एक मन कम तोलने की गुंजाइश नहीं। स्कूल मास्टर दया और आदर के योग्य हैं। मास्टर नजमुद्दीन बरसों से चीथड़े लटकाये जालिम समाज को कोसते फिरते हैं। उन्हें साढ़े-चार सौ रुपये खिलाये, तब जा के भांजे के मैट्रिक के नंबर बढ़े और रहीम बख्श कोचवान से बढ़कर बदहाल कौन होगा?

जुल्म, जालिम और जुल्म सहने वाले दोनों को खराब करता है। जुल्म का पहिया जब अपना चक्कर पूरा कर लेता है और मजलूम की बारी आती है तो वो भी वही सब करता है जो उसके साथ किया गया था। अजगर पूरे का पूरा निगलता है, शार्क दांतों से खूनम-खून करके खाती है। शेर डॉक्टरों के बताये नियमों के अनुसार अच्छी तरह चबा-चबा के खाता है। बिल्ली, छिपकली, मकड़ी और मच्छर अपनी-अपनी हिम्मतानुसार खून की चुस्की लगाते हैं। वो यहां तक पहुंचे थे कि सहसा उन्हें अपने इन्कमटैक्स के डबल बहीखाते याद आ गये और वो अनायास मुस्कुरा उठे। भाई मेरे! छोड़ता कोई नहीं, हम सब एक-दूसरे का भोजन हैं। बड़े जतन से एक-दूसरे को चीरते-फाड़ते हैं। 'तब नजर आती है इक लुक्म-ए-तर की सूरत'

समुद्र तल और गरीबी रेखा से नीचे

आये दिन के चालान, तावान से वो तंग आ चुके थे। कैसा अंधेर है। सारे देश में यही एक जुर्म रह गया है! बहुत हो चुकी। अब वो इसका दो टूक फैसला करके छोड़ेंगे। मौलाना करामत हुसैन से वो एक बार मिल चुके थे और सारी दहशत निकल चुकी थी। पौन इंच कम पांच फ़ुट का पोदना! उसकी गर्दन उनकी कलाई के बराबर थी। गोल चेहरे और तंग माथे पर चेचक के दाग ऐसे चमकते थे, जैसे तांबे के बर्तन पर ठुंके हुए खोपरे। आज वो घर का पता मालूम करके उसकी खबर लेने जा रहे थे। पूरा डायलॅाग हाथ के इशारों और आवाज के उतार-चढ़ाव के साथ तैयार था।

उन्हें मौलाना करामत हुसैन की झुग्गी तलाश करने में काफी परेशानी हुई। हालांकि बताने वाले ने बिल्कुल सही पता बताया था कि झुग्गी बिजली के खंबे नं.-23 के पीछे कीचड़ की दलदल के उस पार है। तीन साल से खंबे बिजली के इंतजार में खड़े हैं। पते में उसके दायीं ओर एक ग्याभिन भैंस बंधी हुई बतायी गयी थी। सड़कें, न रास्ते, गलियां, न फुटपाथ। ऐसी बस्तियों में घरों के नंबर या नाम का बोर्ड नहीं होता। प्रत्येक घर का एक इंसानी चेहरा होता है, उसी के पते से घर मिलता है। खंबा तलाश करते-करते उन्हें अचानक एक झुग्गी के टाट के पर्दे पर मौलाना का नाम सुर्ख रोशनाई से लिखा नजर आया। बारिश के पानी के कारण रोशनाई बह जाने से नाम की लकीरें खिंची रह गयी थीं। चारों ओर टखनों-टखनों बजबजाता कीचड़, सूखी जमीन कहीं दिखाई नहीं पड़ती थी। चलने के लिए लोगों ने पत्थर और ईंटें डालकर पगडंडियां बना लीं थीं। एक नौ-दस साल की बच्ची सर पर अपने से अधिक भारी घड़ा रखे अपनी गर्दन तथा कमर की हरकत से पैरों को डगमगाते पत्थरों और घड़े को सर पर संतुलित करती चली आ रही थी। उसके चेहरे पर पसीने के रेले बह रहे थे। रास्ते में जो भी मिला, उसने बच्ची को संभल कर चलने का मशवरा दिया। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पांच-छः ईंटों का ट्रैफिक आईलैंड आता था, जहां जाने-वाला आदमी खड़े रह कर आने वाले को रास्ता देता था। झुग्गियों के भीतर भी कुछ ऐसा ही नक्शा था। बच्चे, बुजुर्ग और बीमार दिन भर ऊंची-ऊंची खाटों और खट्टों पर टंगे रहते। कुरान-शरीफ, लिपटे हुए बिस्तर, बर्तन-भांडे, मैट्रिक के सर्टिफिकेट, बांस के मचान पर तिरपाल तले और तिरपाल के ऊपर मुर्गियां। मौलाना करामत हुसैन ने झुग्गी के एक कोने में खाना पकाने के लिए एक टीकरी पर चबूतरा बना रखा था। एक खाट के पाये से बकरी भी बंधी थी। कुछ झुग्गियों के सामने भैंसें कीचड़ में धंसी थीं और उनकी पीठ पर कीचड़ का प्लास्टर पपड़ा रहा था। यह भैंसों की जन्नत थी। इनका गोबर कोई नहीं उठाता था। क्योंकि उपले थापने के लिए कोई दीवार या सूखी जमीन नहीं थी। गोबर भी इंसानी गंदगी के साथ इसी कीचड़ में मिल जाता था। इन्हीं झुग्गियों में टीन की चादर के सिलेंडरनुमा डिब्बे भी दिखाई दिये। जिनमें दूध भरने के बाद सदर की सफेद टाइलों वाली डेरी की दुकानों में पहुंचाया जाता था। एक लंगड़ा कुत्ता झुग्गी के बाहर खड़ा था। उसने अचानक खुद को झड़झड़ाया तो उसके घाव पर बैठी हुई मक्खियों और अध-सूखे कीचड़ के छर्रे उड़-उड़ कर बिशारत की कमीज और चेहरे पर लगे।


मुगल वंश का पतन

बिशारत ने झुग्गी के बाहर खड़े होकर मौलाना को आवाज दी। हालांकि उसके 'अंदर' और 'बाहर' में कुछ ऐसा अंतर नहीं था। बस चटायी, टाट और बांसों से अंदर के कीचड़ और बाहर के कीचड़ के बीच हद बंदी करके एक काल्पनिक एकांत, एक संपत्ति की लक्ष्मण रेखा खींच ली गयी थी।

कोई जवाब न मिला तो उन्होंने हैदराबादी अंदाज से ताली बजाई, जिसके जवाब में अंदर से छः बच्चों का तले ऊपर की पतीलियों का-सा सेट निकल आया। इनकी आयु में नौ-नौ महीने से भी कम का अंतर दिखाई दे रहा था। सबसे बड़े लड़के ने कहा, मगरिब की नमाज पढ़ने गये हैं। तशरीफ रखिये। बिशारत की समझ में न आया, कहां तशरीफ रखें। उनके पैरों-तले ईंटें डगमगा रही थीं। सड़ांध से दिमाग फटा जा रहा था। 'जहन्नुम अगर इस धरती पर कहीं हो सकता है तो, यहीं है, यहीं है, यहीं है।'

वो दिल-ही-दिल में मौलाना को डांटने का रिहर्सल करते हुए आये थे - यह क्या अंधेर है मौलाना? किचकिचा कर मौलाना कहने के लिए उन्होंने बड़े कटाक्ष और कड़वाहट से वह स्वर कंपोज किया था - जो बहुत सड़ी गाली देते समय अपनाया जाता है, लेकिन झुग्गी और कीचड़ देखकर उन्हें अचानक खयाल आया कि मेरी शिकायत पर इस व्यक्ति को अगर जेल हो भी जाये तो इसके तो उल्टे ऐश हो जायेंगे। मौलाना पर फेंकने के लिए लानत-मलामत के जितने पत्थर वो जमा करके आये थे, उन सब पर दाढ़ियां लगाकर नमाज की चटाइयां लपेट दी थीं ताकि चोट भले ही न आये, शर्म तो आये - वो सब ऐसे ही धरे रह गये।

उनका हाथ जड़ हो गया था। इस व्यक्ति को गाली देने से फायदा? इसका जीवन तो खुद एक गाली है। उनके गिर्द बच्चों ने शोर मचाना शुरू किया तो सोच का सिलसिला टूटा। उन्होंने उनके नाम पूछने शुरू किये। तैमूर, बाबर, हुमायूं, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब, या अल्लाह! पूरा मुगल वंश इस टपकती झुग्गी में ऐतिहासिक रूप से सिलसिलेवार उतरा है।

ऐसा लगता था कि मुगल बादशाहों के नामों का स्टॉक समाप्त हो गया, मगर औलादों का सिलसिला समाप्त नहीं हुआ। इसलिए छुटभैयों पर उतर आये थे। मिसाल के तौर पर एक जिगर के टुकड़े का प्यार का नाम मिर्जा कोका था जो अकबर का दूध-शरीक भाई था, जिसको उसने किले की दीवार पर से नीचे फिंकवा दिया था। अगर सगा भाई होता तो इससे भी कड़ी सजा देता यानी समुद्री डाकुओं के हाथों कत्ल होने के लिए हज पर भेज देता या आंखें निकलवा देता। वो रहम की अपील करता तो भाई होने के नाते दया और प्रेम की भावना दिखाते हुए जल्लाद से एक ही वार में सर कलम करवा कर उसकी मुश्किल आसान कर देता।

हम अर्ज यह कर रहे थे कि तैमूरी खानदान के जो बाकी कुलदीपक झुग्गी के अंदर थे, उनके नाम भी तख्त पर बैठने, बल्कि तख्ता उलटने के क्रम के लिहाज से ठीक ही होंगे, इसलिए कि मौलाना की स्मरण शक्ति और इतिहास का अध्ययन बहुत अच्छा प्रतीत होता था। बिशारत ने पूछा तुममें से किसी का नाम अकबर नहीं? बड़े लड़के ने जवाब दिया, नहीं जी, वो तो दादा जान का शायरी का उपनाम है।

बातचीत का सिलसिला कुछ उन्होंने कुछ बच्चों ने शुरू किया। उन्होंने पूछा, तुम कितने भाई-बहन हो? जवाब में एक बच्चे ने उनसे पूछा, आपके कितने चचा हैं? उन्होंने पूछा, तुम में से कोई पढ़ा हुआ भी है? बड़े लड़के तैमूर ने हाथ उठा कर कहा, जी हां, मैं हूं। मालूम हुआ यह लड़का जिसकी उम्र तेरह-चौदह साल होगी, मस्जिद में बगदादी कायदा पढ़ कर कभी का निबट चुका। तीन साल तक पंखे बनाने की एक फैक्ट्री में मुफ्त काम सीखा। एक साल पहले दायें हाथ का अंगूठा मशीन में आ गया, काटना पड़ा। अब एक मौलवी साहब से अरबी पढ़ रहा है। हुमायूं अपने हमनाम की भांति अभी तक आवारागर्दी की मंजिल से गुजर रहा था। जहांगीर तक पहुंचते-पहुंचते पाजामा बार-बार हो रहे राजगद्दी परिवर्तन की भेंट चढ़ गया। हां! शाहजहां का शरीर फोड़ों, फुंसियों पर बंधी पट्टियों से अच्छी तरह ढंका हुआ था। औरंगजेब के तन पर केवल अपने पिता की तुर्की टोपी थी। बिशारत को उसकी आंखें और उसे बिशारत दिखाई न दिये। सात साल का था, मगर बेहद बातूनी। कहने लगा, ऐसी बारिश तो मैंने सारी जिंदगी में नहीं देखी। हाथ पैर माचिस की तीलियां, लेकिन उसके गुब्बारे की तरह फूले हुए पेट को देखकर डर लगता था कि कहीं फट न जाये। कुछ देर बाद नन्हीं नूरजहां आई। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में काजल और कलाई पर नजर-गुजर का डोरा बंधा था। सारे मुंह पर मैल, काजल, नाक, और धूल लिपी हुई थी। केवल वो हिस्से इससे अलग थे जो अभी-अभी आंसुओं से धुले थे। उन्होंने उसके सर पर हाथ फेरा। उसके सुनहरे बालों में गीली लकड़ियों के कड़वे-कड़वे धुएं की गंध बसी हुई थी। एक भोली-सी सूरत का लड़का अपना नाम शाह आलम बता कर चल दिया। आधे रास्ते से लौट कर कहने लगा कि मैं भूल गया था। शाह आलम तो बड़े भाई का नाम है। ये सब मुगल शहजादे कीचड़ में ऐसे मजे से फचाक-फचाक चल रहे थे जैसे इनकी वंशावली अमीर तैमूर के बजाय किसी राजहंस से मिलती हो।

हर कोने-खुदरे से बच्चे उबले पड़ रहे थे। एक कमाने वाला और यह टब्बर! दिमाग चकराने लगा।


कोई दीवार सी गिरी है अभी

कुछ देर बाद मौलाना आते हुए दिखाई दिये। कीचड़ में डगमग-डगमग करती ईंटों पर संभल-संभल कर कदम रख रहे थे। इस डांवाडोल पगडंडी पर इस तरह चलना पड़ता था जैसे सरकस में करतब दिखाने वाली लड़की तने हुए तार पर चलती है। लेकिन क्या बात है, वो तो अपने आप को खुली छतरी से संतुलित करती रहती है। जरा डगमगा कर गिरने लगती है तो दर्शक पलकों पर झेल लेते हैं। मौलाना खुदा जाने बिशारत को देखकर बौखला गये या संयोग से उनकी खड़ाऊं ईंट पर फिसल गयी, वो दायें हाथ के बल जिसमें नमाजियों की फूंकें मारे हुए पानी का गिलास था - गिरे। उनका तहबंद और दाढ़ी कीचड़ में लथपथ हो गयी और हाथ पर कीचड़ की जुराब-सी चढ़ गयी। एक बच्चे ने बिना कलई के लोटे से पानी डालकर उनका मुंह हाथ धुलाया, बिना साबुन के। उन्होंने अंगोछे से तस्बीह, मुंह और हाथ पोंछकर बिशारत से हाथ मिलाया और सर झुका कर खड़े हो गये। बिशारत ढह चुके थे, इस कीचड़ में डूब गये। अनायास उनका जी चाहा कि भाग जायें, मगर दलदल में व्यक्ति जितनी तेजी से भागने का प्रयास करता है उतनी ही तेजी से धंसता चला जाता है।

उनकी समझ में न आया कि अब शिकायत और चेतावनी की शुरुआत कहां से करें, इसी सोच एवं संकोच में उन्होंने अपने दाहिने हाथ से जिससे कुछ देर पहले हाथ मिलाया था, होंठ खुजाया तो उबकाई आने लगी। इसके बाद उन्होंने उस हाथ को अपने शरीर और कपड़ों से एक बालिश्त की दूरी पर रखा। मैलाना आने का उद्देश्य भांप गये। खुद पहल की। यह मानने के साथ कि मैं आपके कोचवान रहीम बख्श से पैसे लेता रहा हूं - लेकिन पड़ोसन की बच्ची के इलाज के लिए। उन्होंने यह भी बताया कि मेरी नियुक्ति से पहले यह नियम था कि आधी रकम आपका कोचवान रख लेता था। अब जितने पैसे आपसे वसूल करता है, वो सब मुझ तक पहुंचते हैं। उसका हिस्सा समाप्त हुआ। हुआ यूं कि एक दिन वो मुझसे अपनी बीबी के लिए तावीज ले गया। अल्लाह ने उसका रोग दूर कर दिया। उसके बाद वो मेरा भक्त हो गया। बहुत दुखी आदमी है।

मौलाना ने यह भी बताया कि पहले आप चालान और रिश्वत से बचने के लिए जब भी उसे रास्ता बदलने का आदेश देते थे, वो महकमे वालों को इसका एडवांस नोटिस दे देता था। वो हमेशा अपनी इच्छा, अपनी मर्जी से पकड़ा जाता था। बल्कि यहां तक हुआ कि एक बार इंस्पेक्टर को निमोनिया हो गया और वो तीन सप्ताह तक ड्यूटी पर नहीं आया तो रहीम बख्श हमारे आफिस में ये पता करने आया कि इतने दिन से चालान क्यों नहीं हुआ, खैरियत तो है? बिशारत ने कोचवान से संबंधित दो-तीन प्रश्न तो पूछे, परंतु मौलाना को कुछ कहने सुनने का साहस अब उनमें न था। उनका बयान जारी था, वो चुपचाप सुनते रहे।

मेरे वालिद के कूल्हे की हड्डी टूटे दो बरस हो गये। वो सामने पड़े हैं। बैठ भी नहीं सकते। चारपायी काट दी है। लगातार लेटे रहने से नासूर हो गये हैं। पड़ोसी आये दिन झगड़ता है कि 'तुम्हारे बुढ़ऊ दिन भर तो खर्राटे लेते हैं और रातभर चीखते-कराहते हैं, नासूरों की सड़ांध के मारे हम खाना नहीं खा सकते।

वो भी ठीक ही कहता है। खाली चटायी की दीवार ही तो बीच में है। चार माह पहले एक और बेटे ने जन्म लिया। अल्लाह की देन है। बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख। जापे के बाद ही पत्नी को Whiteleg हो गयी। मौला की मर्जी! रिक्शा में डालकर अस्पताल ले गया। कहने लगे, तुरंत अस्पताल में दाखिल कराओ, मगर कोई बेड खाली नहीं था। एक महीने बाद फिर ले गया। अब की बार बोले - अब लाये हो, लंबी बीमारी है, हम ऐसे मरीज को दाखिल नहीं कर सकते। फज्र और मगरिब की नमाज से पहले दोनों का गू-मूत करता हूं। नमाज के बाद स्वयं रोटी डालता हूं तो बच्चों के पेट में कुछ जाता है। एक बार नूरजहां ने मां के लिए बकरी का दूध गर्म किया तो कपड़ों में आग लग गयी थी। अल्लाह का लाख-लाख शुक्र है, मेरे हाथ-पांव चलते हैं।

पलीद हाथ

मौलाना को जैसे कोई बात अचानक याद आ गयी। वो 'एक्सक्यूज मी' करके कुछ देर के लिए अंदर चले गये। इधर बिशारत अपने विचारों में खो गये। इस एक आरपार झुग्गी में जिसमें न कमरे हैं, न पर्दे, न दीवारें, न दरवाजे, जिसमें आवाज, टीस और सोच तक नंगी है, जहां लोग शायद एक दूसरे का सपना भी देख सकते हैं। यहां एक कोने में बूढ़ा बाप पड़ा दम तोड़ रहा है, दूसरे कोने में बच्चा पैदा हो रहा है और बीच में बेटियां जवान हो रही हैं। भाई मेरे! जहां इतनी रिश्वत ली थी, वहां थोड़ी-सी और लेकर पत्नी को अस्पताल में दाखिल करा देते तो क्या हरज था। जान पर बनी हो तो शराब तक हराम नहीं रहती, लेकिन फिर हांडी, चूल्हा, बुहारी कौन करता? इस टब्बर का पेट कैसे भरता? मौलाना ने बताया था कि उन्होंने बच्चों के लिए रोटी पकायी और कपड़े धोये थे। बिशारत सोचने लगे कि उन जंगजू तातारी स्त्रियों की प्रशंसा से तो इतिहास भरा पड़ा है जो अरब शाह के कथनानुसार तैमूर की फौज में कंधे से कंधा मिला कर लड़ती थीं। अगर यात्रा के दौरान किसी स्त्री को प्रसव पीड़ा आरंभ हो जाती तो वो दूसरे घुड़सवारों के लिए रास्ता छोड़कर एक तरफ खड़ी हो जाती। घोड़े से उतर कर बच्चा जनती, फिर उसे कपड़े में लपेट कर अपने गले में लटकाती और घोड़े की नंगी पीठ पर सवार होकर फौज से जा मिलती, मगर झुग्गियों में चुपचाप जान से गुजर जाने वाली इन महिलाओं का शोकगीत कौन लिखेगा?

बिशारत का दम घुटने लगा। अब तलक मौलाना ने कुल मिलाकर यही सौ, डेढ़ सौ रुपये वसूल किये होंगे। वो फिजूल यहां आये। उन्होंने विषय बदला और फूंकें मारे हुए पानी के प्रभाव के बारे में सोचने लगे कि अभी तो ये बेचारी एक रोग से ग्रस्त है। सौ आदमियों का फूंका हुआ पानी पी कर सौ नयी बीमारियों में घिर जायेगी।

कुछ देर बाद मौलाना ने अंदर पर्दा कराया यानी जब नूरजहां ने अपनी बीमार मां को सर से पैर तक चीकट लिहाफ उढ़ा कर लिटा दिया तो मौलाना ने बिशारत से झुग्गी में चलने को कहा। दोनों एक चारपायी पर पैर लटका कर बैठ गये। अदवान पर दो कप रखे थे। कप के किनारे पर मक्खियों की कुलबुलाती झालर, मौलाना ने कप में थोड़ी सी चाय डाली और उंगली से अच्छी तरह रगड़ कर धोया। फिर उसमें चाय बनाकर बिशारत को पेश की। अगर वो उस उंगली से न धोते जो कुछ देर पहले कीचड़ में सनी हुई थी तो शायद इतनी उबकाई न आती। मौलाना चाय देने के लिए झुके तो उनकी दाढ़ी से गटर की गंध आ रही थी।

मौलाना का बयान जारी था। बिशारत में अब इतना साहस बाकी नहीं रहा था कि नजर उठाकर उनकी सूरत देखें। मुझे महकमा साठ रुपये तन्ख्वाह देता है। एक बेटा सात बरस का है। दिमाग, डील डौल और शक्ल-सूरत में सबसे अच्छा। चार-पांच महीने हुए, उसे तीन दिन बड़ा तेज बुखार रहा। चौथे दिन बायीं टांग रह गयी। डॉक्टर को दिखाया, बोला, पोलियो है। इंजेक्शन लिख दिये। खुदा का शुक्र किस मुंह से अदा करूं कि मेरा बच्चा केवल एक ही टांग से अपाहिज हुआ। पड़ोस में चार झुग्गी छोड़कर एक बच्ची की दोनों टांगें रह गयीं। महामारी फैली हुई है। जो रब चाहता है वही होता है। बिन बाप की बच्ची है। डॉक्टर की फीस कहां से लायें। मैंने अपने बेटे के तीन इंजेक्शन उस बच्ची के लगवा दिये। क्या बताऊं उस विधवा ने कैसी दुआयें दीं। हर नमाज में उस बच्ची के लिए भी दुआ करता हूं। प्रत्येक शुक्रवार को जंगली कबूतर के खून और लौंग तथा बादाम के तेल से बेटे और उस बच्ची की टांगों की मालिश करता हूं। वैसे डॉक्टरी उपचार भी चल रहा है। आपके कोचवान से जितनी बार पैसे लिए उसी के लिए लिए।

बिशारत को ऐसा लगा, जैसे दिमाग सुन्न हो गया हो। बीमारी, बीमारी, बीमारी! यहां लोग कचर-धान बच्चे पैदा करने और बीमार पड़ने के अतिरिक्त कुछ और भी करते हैं या नहीं? इस आधे घंटे में उनके मुंह से मुश्किल से दस-बारह वाक्य निकले होंगे। मौलाना ही बोलते रहे। बिशारत की जबान पर एक प्रश्न आ-आ कर रह जाता था। क्या सब झुग्गियों में यही हाल है? क्या हर घर में लोग इसी तरह रिंझ-रिंझ कर जीते हैं?

मौलाना जारी थे 'आपके कोचवान ने धमकी दी थी कि हमारा साब कहता है दढ़ियल को बोल देना ऐसा जलील करूंगा, ऐसा मटियामेट करूंगा कि याद करेगा। यह आप देख रहे हैं, बरसता बादल हमारा ओढ़ना और कीचड़ हमारा बिछौना है। इसके बाद अब और क्या होगा? मौला से दुआ की थी, इज्जत की रोटी मिले। गुनाहगार हूं, दुआ कुबूल न हुई। उससे कुछ छुपा नहीं। आज सुब्ह नाश्ते में एक रोटी खाई थी। उसके बाद खील का दाना भी मुंह में गया हो तो सुअर खाया हो। वो जिसको चाहता है बेहिसाब देता है। वो कहता है, तुम इतने बेबस और लाचार हो कि तुम्हारे हाथ से मक्खी भी एक जर्रा उठाकर ले जाये तो तुम उससे छीन नहीं सकते।

मौलाना ने कुर्ता उठाकर अपना पेट दिखाया जिसमें गार पड़ा हुआ था। धोंकनी-सी चल रही थी। बिशारत ने नजरें झुका लीं।

अर्से से हजरत जहीन शाह ताजी का मुरीद होना चाहता हूं। एक पड़ोसी ने जो उस विधवा से शादी करने का इच्छुक है और मुझे इसमें रुकावट समझता है, पीरो-मुर्शिद को एक गुमनाम पत्र भेजा कि मैं रिश्वत लेता हूं। अब हजरत फर्माते हैं कि हजरत बाबा फरीदुद्दीन गंजे-शकर ने हलाल के खाने को इस्लाम का छटा स्तंभ माना है। जब तक तुम रिश्वत का एक-एक पैसा वापस न कर दोगे दीक्षा नहीं दूंगा। खुदा मुझ पर रहम करे। मेरे लिए दुआ कीजिये।

दो अकेले

एक सप्ताह बाद देखा कि मौलाना करामत हुसैन बिशारत की दुकान पर मुंशी की ड्यूटी अंजाम दे रहे हैं, और फीता हाथ में लिए 'देवदार' और 'पेन' लकड़ी नापते खुश-खुश फिर रहे हैं। उनकी तन्ख्वाह तिगुनी हो गयी। तीन चार दिन बाद बिशारत ने केवल इतना कहा कि मौलाना ईमानदारी अच्छी चीज है, मगर आप ग्राहक के सामने लकड़ी की गांठ को इस तरह न तका कीजिये जैसे घोड़े की गर्दन के घाव को देख रहे हों। रहीम कोचवान को बर्खास्त करने की आवश्यकता न पड़ी। मौलाना के आते ही वो बिना कहे सुने गायब हो गया।

घोड़े के बिकने के कोई आसार नजर नहीं आते थे। मौलाना के लिहाज में 'अत्याचार' वालों ने सताना छोड़ दिया। बिशारत ने आदरणीय से इशारों में कहा कि आपकी दुआ से चालानों का सिलसिला समाप्त हो गया है, अब आप ड्राइंग रूम से अपने कमरे में तशरीफ ले जा सकते हैं। लेकिन आदरणीय घोड़े के इतने आदी हो गये थे कि किसी प्रकार वजीफा छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। घोड़ा उन्हें देखते ही (कोचवान के कहे अनुसार) बुचियाने लगता था, यानी मारे खुशी के अपने कान खड़े करके दोनों सिरे मिला देता था। तड़के घोड़ा ड्राइंग रूम में आग्रह करके आवश्यक तौर पर बुलवाया जाता। जैसे ही 'घोड़ा आ रहा है!' का शोर होता तो जिसे दीनो-दिल या कुछ और भी अजीज होता, रास्ता छोड़कर तमाशा देखने दूर खड़ा हो जाता। यह दृश्य दूल्हा दुल्हन के आईने में एक दूसरे को देखने की रस्म की याद दिलाता था। जब दूल्हा को जनाने में बुलवाया जाता है तो बार-बार ऐलान किया जाता है 'लड़का आ रहा है! लड़का आ रहा है!' यह सुनकर लड़कियां बालियां और पर्दानशीन बीबियां नकाब उलट कर चेहरे खोलकर बैठ जाती हैं।

यह धारणा अकारण प्रतीत नहीं होती कि कुछ मर्द बुढ़ापे में शादी केवल 'लड़का आ रहा है' सुनने के लालच में करते हैं। वरना जहां तक महज निकाह या स्त्री का संबंध है तो

इससे गरज निशात है किस रू-सियाह को

(इससे खुशी कौन कलमुंहा हासिल करना चाहता है- गालिब) ।

किबला उसके माथे पर तर्जनी से 'अल्लाह' लिखते। कुछ अर्से से उसके पैर पर दुआ पढ़के, फूंक मार के हाथ भी फेरने लगे थे। जिस दिन से वो उसकी दुम में उंगलियों से कंघी करते हुए उससे घर वालों की शिकायतें नाम ले-लेकर करने लगे, उस दिन से रिश्ता इंसान और जानवर का नहीं रहा। जब वो अपनी नयी तकलीफों का हाल सुनाकर चुप हो जाते तो वो बड़े प्यार से अपना मुंह उनके लक्वाग्रस्त शरीर से रगड़ता और फिर सर झुका लेता। जैसे कह रहा हो कि बाबा! आप तो मुझसे भी अधिक दुखी निकले। वो कहते थे कि मुझे ऐसा महसूस होता है, मेरी बायीं टांग में फिर से सेंसेशन आ रही है।

गरज यह कि आदरणीय अब उसे घोड़ा समझ कर बात नहीं करते थे। उधर घोड़ा भी उनसे इतना हिल गया और ऐसा अपनापन दिखाने लगा मानो वो इंसान न हों। वो अब उसे कभी घोड़ा नहीं कहते थे बलबन या बेटा कहकर बुलाते। वो आता तो दोनों के मिलने का दृश्य देखने-सुनने वाला होता।

किबला एक दिन कहने लगे कि घोड़े की टांगों के जोड़ अकड़ गये हैं। फिर उसके जोड़ खोलने के लिए ड्राइंग रूम में अंगीठी जलवा कर अपनी निगरानी में तीन सेर खोये और अस्ली घी में घीक्वार का हलवा बनवा कर चालीस दिन तक खुद खाया, जिससे उनकी अपनी जबान और भूख खुल गयी। इधर कुछ दिनों से वो यह भी कहने लगे थे कि घोड़े में जिन्न समा गया है। उसे उतारने के लिए हर बृहस्पतिवार को मिर्चों की धूनी देते और आधा सेर दानेदार कलाकंद पर नियाज देकर बांट देते। मतलब यह कि आधा खुद खाते, आधा अपने दोस्त चौधरी करम इलाही के यहां भिजवाते। कलाकंद खाते जाते और फर्माते जाते कि कुछ जिन्नों की नीयत किसी तरह नहीं भरती। पूर्व कोचवान रहीम बख्श भी कहता था कि यह घोड़ा नहीं जिन्न है। जिन्न नापाक पलीद लोगों को दिखाई नहीं देते।

उसी का कहना है कि एक दिन मैं बलबन को सुब्ह ड्राइंगरूम में न ले जा सका तो शाम को नमाज के बाद रस्सी तुड़ाकर खुद ही दुआ पढ़वा के वापस आ गया। मैं दाना चारा ले के गया तो उधर कुछ और ही दृश्य था। देखा कि उसके खुर कपूर के हो गये हैं और उनमें से ऐसी चकाचौंध करने वाली किरणें निकल रही हैं कि आप उधर आंख भर-कर देख नहीं सकते। नथुनों से लोबान का धुआं निकल रहा है। इस पर अब्दुल्लाह गजक वाले ने रहीम बख्श के सर की कसम खाकर कहा, जिस समय यह घटना घटी, ठीक उसी समय मैंने घोड़े को हजरत अब्दुल्लाह शाह गाजी की दरगाह के सामने खड़ा देखा। उस पर एक नूरानी दाढ़ी वाले हरे कपड़े पहने बुजुर्ग सवार थे।

आदरणीय ने घोड़े के चमत्कार को अपना चमत्कार समझा। कुरेद कुरेद-कर कई बार बुजुर्ग का हुलिया पूछा और हर बार उन्हें झुंझलाहट हुई, क्योंकि बुजुर्ग का हुलिया उनसे नहीं मिलता था। अब वो बलबन बेटे को शाम की नमाज के बाद भी अपने पास बुलवाने लगे। दोनों रात तक सर जोड़े ऐसी बातें करते कि

'लोग सुन पायें तो दोनों ही को दीवाना कहें।'

इस घटना के पश्चात कोचवान घोड़े को बलबन साहब और शाह जी कहने लगा। आदरणीय अक्सर फर्माते कि घोड़ा शुभ है। बिशारत के यहां पुत्र जन्म को वो घोड़े के आने से जोड़ते थे। मोहल्ले की कुछ बांझ औरतें शाह जी के दर्शन को आईं।