खोया पानी / भाग 14 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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घट घटना गयी

हम यह बताना भूल ही गये कि रहीम बख्श के जाने के बाद उन्होंने एक नया कोचवान रखा। नाम मिर्जा वहीदुज्जमां बेग, मगर नौकरी की शर्तों के अनुसार किबला इसे भी अलादीन ही बुलाते थे। बातचीत और शक्ल सूरत से भलामानुस लगता था। उसने अपना हुलिया ऐसा बना रखा था कि उसके साथ चाहे न चाहे भलाई करने को जी चाहता। मंगोल नैन नक्श, सांवला रंग, गठा हुआ बदन, छोटे-छोटे कान, ऊंचा माथा, काठी ऐसी ठांठी कि उम्र कुछ भी हो सकती थी। सदरी की अंदरूनी जेब में पिस्तौल के बजाय एक घिसी हुई नाल का शेरपंजा तेज करके रख छोड़ा था। बंदर रोड के पीछे ट्राम डिपो के पास जहां थियेटर कंपनी थी, उसके खेल-रुस्तम सोहराब में वो डेढ़ महीने तक रुस्तम का घोड़ा 'रख्श' बना था। स्टेज पर पूरी ताकत से हिनहिनाता तो थियेटर के बाहर खड़े हुए तांगों की घोड़ियां अंदर आने के लिए लगाम तुड़ाने लगतीं। उसकी एक्टिंग से खुश होकर एक दर्शक ने यह नाल स्टेज पर फेंकी थी। छोटे से शरीर पर बड़ी पाटदार आवाज पायी थी। आगा हश्र के धुंआधार ड्रामों के गरजते कड़कते संवाद जबानी याद थे, जिन्हें घोड़े के साथ बोलता रहता था। जिस समय की यह चर्चा है, उस समय तांगे वाले, मिलों के मजदूर और खोमचे वाले तक आपस में इन्हीं संवादों के टुकड़े बोलते फिरते थे।

मिर्जा वहीदुज्जमां बेग, जिसके नाम के आगे या पीछे कोचवान लिखते हुए कलेजा खून होता है, अपना हर वाक्य 'कुसूर माफ' से शुरू करता था। इंटरव्यू के दौरान उसने दावा किया कि मैं मोटर ड्राइविंग भी बहुत अच्छी जानता हूं। बिशारत ने जल कर कहा तो फिर तुम तांगा क्यों चलाना चाहते हो? दुआ के अंदाज में हाथ उठाते हुए कहने लगा, अल्लाह पाक आपको कार देगा तो कार भी चला लेंगे।

बिशारत ने उसे यह सोचकर नौकरी पर रखा था कि चलो सीधा-सादा आदमी है। काबू में रहेगा। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग ने टिप दी कि बुद्धिमानी पर रीझ कर कभी किसी को नौकर नहीं रखना चाहिये। नौकर जितना ठस होगा उतना अधिक आज्ञाकारी और सेवा करने वाला होगा। उसने कुछ दिन तो बड़ी आज्ञाकारिता दिखाई फिर यह हाल हो गया कि स्कूल से कभी एक घंटा लेट आ रहा है। कभी दिन में तीन तीन घंटे गायब। एक बार उसे एक आवश्यक इन्वाइस लेकर भेजा। चार घंटे बाद लौटा। बच्चे स्कूल के फाटक पर भूखे-प्यासे खड़े रहे। बिशारत ने डांटा तो अपनी पेटी, जिसे राछ औजार की पेटी बताता था और तांगे में हर समय साथ रखता था, की ओर इशारा करके कहने लगा, 'कुसूर माफ, घटना घट गयी। म्यूनिस्पिल कार्पोरेशन की बगल वाली सड़क पर घोड़ा ठोकर खा कर गिर पड़ा। एक तंग टूट गया था। नाल भी झांझन की तरह बजने लगी। कुसूर माफ, नाल की एक भी कील ढीली हो तो एक मील दूर से केवल टाप सुनकर बता सकता हूं कि कौन सा खुर है।' बिशारत ने आश्चर्य से पूछा, 'तुम स्वयं नाल बांध रहे थे?' बोला, 'और नहीं तो क्या, कहावत है, 'खेती, पानी, बिंती और घोड़े का तंग, अपने हाथ संवारिये चाहे लाखों हों संग', घोड़े की चाकरी तो खुद ही करनी पड़ती है।'

वो हर बार नयी कहानी, नया बहाना गढ़ता था। झूठे लपाड़ी आदमी की मुसीबत यह है कि वो सच भी बोले तो लोग झूठ समझते हैं। अक्सर ऐसा हुआ कि उसी की बात सच निकली, फिर भी उसकी बात पर दिल नहीं ठुकता था। एक दिन बहुत देर से आया। बिशारत ने आड़े हाथों लिया तो कहने लगा, 'जनाबे-आली मेरी भी तो सुनिये। मैं रेस क्लब की घुड़साल के सामने से अच्छा भला गुजर रहा था कि घोड़ा एक दम रुक गया। चाबुक मारे तो बिल्कुल ही अड़ गया। राहगीर तमाशा देखने खड़े हो गये। इतने में अंदर से एक बूढ़ा सलोतरी निकल के आया। घोड़े को पहचान के कहने लगा, 'अरे अरे! तू इस शहजादे को काये को मार रिया है। इसने अच्छे दिन देखे हैं, किस्मत की बदनसीबी को सैयाद क्या करे। यह तो अस्ल में दुर्रे-शहवार (घोड़ी का नाम) की बू लेता यहां आन के मचला है। जिस रेस में इसकी टांग में मोच आई, दुर्रे-शहवार भी इसके साथ दौड़ी थी। दो इतवार पहले फिर पहले नंबर पर आई है। अखबारों में फोटो छपे थे। भागवान ने मालिक को लखपती कर दिया।' फिर उसने इसके पुराने साईस को बुलाया। हम तीनों इसे तांगे से खोल के भीतर ले जाने लगे। इसे सारे रास्ते मालूम थे। सीधा हमें अपने थान पर ले गया। वहां एक बेडौल, काला भुजंग घोड़ा खड़ा दुलत्ती मार रहा था। जरा दूर पे दूसरी ओर दुर्रे-शहवार खड़ी थी। वो इसे पहचान के बेचैन हो उठी। कहां तो ये इतना मचल रहा था और कहां यह हाल कि बिल्कुल चुपका, बेसुध हो गया। गर्दन के घाव की मक्खियां तक नहीं उड़ायीं। साहब जी! इसका घाव बहुत बढ़ गया है। साईस ने इसे बहुत प्यार किया। कहने लगा, बेटा इससे तो अच्छा था कि तुझे उसी समय इंजेक्शन देकर सुला देते। ये दिन तो न देखने पड़ते, पर तेरे मालिक को तरस आ गया, फिर उसने इसके सामने क्लब का रातिब रखा। साहब, ऐसा चबेना तो इंसान को भी नसीब नहीं पर कसम ले लो जो उसने चखा हो। बस सर झुकाये खड़ा रहा। साईस ने कहा इसे तो बुखार है। उसने इसका सब सामान खोल दिया और लिपट के रोने लगा।

'साहब जी मेरा भी जी भर आया। हम दोनों जने मिलके रो रहे थे कि इतने में रेस क्लब का डॉक्टर आन टपका। उसने हम तीनों को निकाल बाहर किया। कहने लगा, अबे भिनकती हत्या को यहां काये को लाया है? और घोड़ों को भी मारेगा?'


नथ का साइज

एक और अवसर पर देर से आया तो इससे पूर्व कि बिशारत डांट डपट करें, खुद ही शुरू हो गया, 'साहब जी! कुसूर माफ, घटना घट गयी। म्यूनिस्पिल कार्पोरेशन के पास एक मुश्की घोड़ी बंधी हुई थी। उसे देखते ही दोनों बेकाबू हो गये। आगे-आगे घोड़ी उसके पीछे घोड़ा। फिर क्या नाम, यह रूसियाह। चौथे नंबर पे घोड़ी का धनी। साहब जी, अपना घोड़ा इस तरियो जा रिया था जैसे गले से मलाई उतर रही हो।' यहां उसने चाबुक अपनी टांगों के बीच में दबाया और दौड़कर बताया कि किस तरह घोड़ा, आपका गुलाम और घोड़ी का मालिक, इसी क्रम से घोड़े की इच्छा का पीछा करते सरपट जा रहे थे। 'जनाबे-वाला उस आदमी ने पहले तो मुझे, क्या नाम कि, नर्गिसी कोफ्ते जैसी आंखें से देखा, फिर उल्टा मुझी पे गुर्राया हालांकि मेरे घोड़े का कुसूर नहीं था। सारे रस्ते उसी की घोड़ी मुड़-मुड़ के अपुन के घोड़े को देखती रही कि पीछे बरोबर आ रहा है कि नहीं। मैंने उसको बोला कि ऐसा ही है तो अपनी बेनथनी शंखनी को संभाल के क्यों नहीं रखता। मालिक की इज्जत तो घोड़ी के हाथ में होती है। राह चलते घोड़े के साथ छेड़जड़ करती है। जिनावर को पैगंबरी इम्तिहान में डालती है। आखिर को मर्द जात है। बर्फ का पुतला तो है नहीं। साहब जी! मैंने क्या नाम कि उस दय्यूस को बोला कि जा जा! तेरी जैसी घोड़ियां बहुत देखी हैं। इस ठेटर (थियेटर) कंपनी में इस जैसी ही एक उजल छक्का छोकरी है पर उसकी नायिका मां उसे अब भी कुंवारपने की नथ पहनाये रहती है। जैसे-जैसे उस पटाखा का चाल-चलन खराब होता जाये है, नथ का साइज बड़ा होता जाता है। साहब जी! यह सुनते ही उसका गुस्सा रफूचक्कर हो गया। मुझसे ठेटर कंपनी का पता और छोकरी का नाम पूछने लगा। कहां तो गाली पे गाली बक रहा था और अब मुझे उस्ताद! उस्ताद! कहते जबान सूख रही थी। बोला उस्ताद! गुस्सा थूको, यह पान खाओ! कसम से अपुन का घोड़ा तो नजरें नीची किये, तोबड़े में मुंह डाले, म्यूनिसिपल कार्पोरेशन के पास खड़ा जुगाली कर रहा था। जनाबे-वाला! सोचने की बात है, उसकी घोड़ी तो बहुत ऊंची थी, ढऊ की ढऊ! जबकि घोड़ा बहुत से बहुत आपके कद के बराबर होगा।' बिशारत के आग ही तो लग गयी 'अबे कद के बच्चे! तेरे घोड़े के साथ हर घटना म्यूनिस्पिल कारर्पोरेशन के पास ही घटती है।'

हाथ जोड़ के बोला 'कुसूर माफ अबकी बार घटना घोड़े के साथ नहीं घटी बल्कि...'


बिशारत हेयर कटिंग सेलून

म्यूनिस्पिल कारर्पोरेशन वाली गुत्थी भी आखिर खुल गयी। उन दिनों बिशारत अपनी दुकान में सड़क वाली साइड पर कुछ परिवर्तन करना और बढ़ाना चाहते थे। नक्शा पास कराने के सिलसिले में म्यूनिस्पिल कार्पोरेशन जाने की आवश्यकता पड़ी, मगर कोचवान का कहीं पता न था। थक हार कर वो तीन बजे रिक्शा में बैठकर म्यूनिसिपल कार्पोरेशन चल दिये। वहां क्या देखते हैं कि फुटपाथ पर मिर्जा वहीदुज्जमां बेग कोचवान फटी दरी का टुकड़ा बिजये एक आदमी की हजामत बना रहा है। वो ओट में खड़े होकर देखने लगे। हजामत के बाद उसने अपनी कलाई पर लगे साबुन और शेव के टुकड़े उस्तरे से साफ किये और उस्तरा चिमोटे और अपनी कलाई पर तेज किया। फिर घुटनों के बल आधे खड़े होकर बगलें लीं। उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। लेकिन औजारों की जानी पहचानी पेटी से फिटकरी की डली और तिब्बत टेल्कम पाउडर निकालते देखा तो अपनी आंखों पर विश्वास बहाल हो गया। अब जो गौर से देखा तो दरी के किनारे पर गत्ते का एक साइन बोर्ड भी नजर आया, जिस पर बड़े सुंदर ढंग से मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था...

बिशारत हेयर-कटिंग सैलून हेडआफिस

हरचंद राय रोड पर बीच बाजार में उसे अपमानित करना उचित न जाना। क्रोध में भरे, रिक्शा लेकर दुकान वापस आ गये। उस रोज वो स्कूल से बच्चों को लेकर शाम को सात बजे घर लौटा। बिशारत ने आव देखा न ताव। उसके हाथ से चाबुक छीनकर धमकी भरे अंदाज में लहराते हुए बोले 'सच सच बता, वरना अभी चमड़ी उधेड़ दूंगा। हरामखोर, तुम नाई हो! पहले क्यों नहीं बताया? हर बात में झूठ, बात-बेबात झूठ। अब देखता हूं कैसे झूठ बोलता है। सच-सच बता कहां था। वो हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और थर-थर कांपते हुए कहने लगा 'कुसूर माफ! सरकार सच फर्माते हैं। आज से, कसम अल्लाह पाक की, हमेशा सच बोलूंगा।'

इसके बाद जीवन में उसकी जितनी भी बेइज्जती हुई, सब सच बोलने के कारण हुई। मिर्जा कहते हैं कि सच बोल कर जलील होने की तुलना में झूठ बोल कर अपमानित होना बेहतर है। आदमी को कम से कम सब्र तो आ जाता है कि किस बात की सजा मिल रही है।

बिशारत की जिरह पर पहला सच जो उसने बोला वो ये था कि म्यूनिस्पिल कार्पोरेशन के बंधे हुए ग्राहकों को निपटा कर मैं साढ़े चार बजे बर्नस रोड पर खत्ने करने गया। खत्ने के बरातियों को जमा होने में खासी देर हो गयी फिर लौंडा किसी तरह राजी नहीं होता था। इकलौता लाड़ला है, आठ साल का धींगड़ा, उसके बाप ने बहुतेरा बहलाया-फुसलाया कि बेटा! मुसलमान डरते नहीं। जरा तकलीफ नहीं होगी, मगर लौंडा अड़ा हुआ था कि पहले आप! आपके तो दाढ़ी भी है। बिशारत का चेहरा गुस्से से लाल हो गया।

एक और सच चाबुक के जोर पर उससे यह बुलवाया गया कि उसका अस्ल नाम बुद्धन है। उसके मेट्रिक पास बेटे को उसके नाम और काम दोनों पर आपत्ति थी, बार-बार आत्महत्या की धमकी देता था। उसने बहुत समझाया कि बेटा! बुजुर्गों के नाम ऐसे ही होते हैं। नाम में क्या धरा है। झुंझला के बोला 'अब्बा! यह बात तो शेख पीर (शेक्सपियर) ने कही थी, पर उसके बाप का नाम बुद्धन थोड़े ही था। वो क्या जाने। तुम और कुछ नहीं बदल सकते तो कम से कम नाम तो बदल लो।' इसलिए जब कुछ दिन उसने ईस्टर्न फेडरल इंश्योरेंस कंपनी में चपरासी की नौकरी की तो अपना नाम मिर्जा वहीदुज्जमां बेग लिखवा दिया। बस उसी समय से चला आ रहा है। दरअस्ल यह उस अफसर का नाम था, जिसकी वो बीस बरस पहले हजामत बनाया करता था। वो निःसंतान मरा। रिश्वत से बनायी हुई जायदाद पर भतीजियों, भांजों ने और नाम पर उसने अधिकार जमा लिया।

अब जो कमबख्त सच बोलने पर आया तो बोलता ही चला गया। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग का कहना है कि आज के युग में 100 प्रतिशत सच बोल कर जीना ऐसा ही है जैसे बजरी मिलाये बिना सिर्फ सीमेंट से मकान बनाना। कहने लगा, कुसूर माफ! अब मैं सारा सच एक ही किस्त में बोल देना चाहता हूं। मेरा खानदान गैरतदार है। अल्लाह का शुक्र है, मैं जात का साईस नहीं। सौ वर्षों से बुजुर्गों का पेशा हज्जामी है। माशाअल्लाह, दस-बारह खाने वाले हैं। सरकार जानते हैं कि एक घोड़े पर जितना खर्च आता है उसकी आधी तन्ख्वाह मुझे मिलती है। सत्तर रुपये से किस किसकी नाक में धूनी दूं। झक मार कर यह प्राइवेट प्रेक्टिस करनी पड़ती है। बरसों अपना और बीबी बच्चों का पेट काट के बड़े लड़के को मेट्रिक करवाया।

'अलीमुद्दीन साहब के बाल बीस बरस से काट रहा हूं। सरकार! सर पे तो अब कुछ रहा नहीं। बस भौंहे बना देता हूं। सरकार! इस फन के कद्रदान तो सब अल्लाह को प्यारे हो गये। अब तो बाल्बर (बार्बर) इस तरह बाल उतारें हैं, जैसे भेड़ मूंड रहे हों। मेरी नजर मोटी हो गयी है, मगर आज भी पैर के अंगूठे के नाखून निहरनी रोके बिना एक बार में काट लेता हूं। अलीमुद्दीन साहब के हाथ पैर जोड़ के लौंडे को बैंक में क्लर्क लगवा दिया। अब वो कहता है मुझे तुम्हारे नाई होने में शर्म आती है, पेशा बदलो। सरकार! मेरे बाप-दादा नाई थे, नवाब नहीं। मेहनत मुशक्कत से हक-हलाल की रोटी कमाता हूं। पर साब जी, मैंने देखा है कि जिन कामों में मेहनत अधिक पड़ती है लोग उन्हें नीचा और घृणित समझते हैं। बेटा कहता है कि मेरे साथ के सब लड़के एकाउंटेंट हो गये। तिजोरी की चाबियां बजाते फिरते हैं। केवल बाप के कारण मेरी तरक्की रुकी हुई है, अगर तुमने नाई का धंधा नहीं छोड़ा तो तुम्हारे ही उस्तरे से अपना गला काट लूंगा। कभी-कभी अपनी मां को डराने के लिए रात गये ऐसी आवाजें निकालने लगता है, जैसे बकरा काटा जा रहा हो। वो भागवान मुझे खुदा-रसूल के वास्ते देने लगी। मजबूर हो के मैंने कोचवानी शुरू कर दी। यह प्राइवेट प्रेक्टिस उससे लुक-छुप के करता हूं। उसकी बेइज्जती के डर से पेटी, औजार आदि कभी घर नहीं ले जाता। यकीन कीजिये, इसी वज्ह से अपने हेयर ड्रेसिंग-सेलून के साइन-बोर्ड पे हुजूर का नाम पता लिखवाया, बड़ी बरकत है आपके नाम में -कुसूर माफ!'


अलादीन बेचिराग

वो हाथ जोड़ कर जमीन पर बैठ गया और फिर हिल-हिल के उनके घुटने दबाने लगा, जैसे ही वो पसीजे उसने एक और सच बोला। कहने लगा कि सरकार के चेहरे को रोजाना सुब्ह देखकर उसका दिल खून हो जाता है। देसी ब्लेड बाल कम और खाल अधिक उतारता है, खूंटियां रह जाती हैं। कुसूर माफ! कलमें भी ऊंची-नीची। जैसे नौ बजकर बीस मिनट हुए हों। उसने अनुरोध किया कि उसे घोड़े का खरेरा करने से पहले उनकी शेव बनाने की इजाजत दे दी जाये। अन्य सेवायें ये कि बच्चों के बाल काटेगा, निहारी, कबाब, बंबइया बिरयानी, मुर्ग का कोरमा और शाही टुकड़े लाजवाब बनाता है। देग का हलीम और ढिबरियों की फीरनी ऐसी कि उंगलियां चाटते रह जायें। सौ-डेढ़ सौ आदमियों की दावत के लिए तीन घंटे में पुलाव जर्दा बना सकता है। बिशारत चटोरे आदमी ठहरे। यूं भी अंग्रेजी मुहावरे के अनुसार, आदमी के दिल तक पहुंचने का रास्ता पेट से हो कर गुजरता है। कार्ल मार्क्स भी यही कहता है।

हर रह जो उधर को जाती है

मेदे से गुजर कर जाती है

उन्हें यह हज्जाम अच्छा लगने लगा। उसने यह भी कहा कि घोड़े के खरेरे के बाद वो उनके वालिद के पैर दबायेगा और रात को उनकी (बिशारत की) मसाज करेगा। गर्दन के पीछे जहां से रीढ़ की हड्डी शुरू होती है, एक रग ऐसी है कि नरम-नरम उंगलियों से हौले-हौले दबायी जाये तो सारे बदन की थकान उतर जाती है। यह आंख को दिखाई नहीं देती। उसके उस्ताद स्वर्गवासी लड्डन मियां कहते थे कि मालिशिया अपनी उंगली की पोर से देखता है। यही उसकी दूरबीन है, जो छूते ही बता देती है कि दर्द कहां है। फिर उसने बिशारत को लालच दिया कि जब वो रोगन-बादाम से सर की मालिश करेगा और अंगूठे से हौले-हौले कनपटियां दबाने के बाद दोनों हाथों को सर पर परिंदे के बाजुओं की तरह फड़फड़ायेगा तो यूं महसूस होगा जैसे बादलों से नींद की परियां कतार-बांधे रुई के परत-दर-परत गौलों सी हौले-हौले उतर रही हैं। हौले-हौले, हौले-हौले।

बिशारत दिन भर के थके हारे थे। उसकी बातों से आंखें आप-ही-आप बंद होने लगीं।

और अंतिम नॉक आउट वार उस जालिम ने ये किया कि 'माशाल्लाह से नन्हें मियां तीन महीने के होने को आये। खत्ने जित्ती कम उम्र में हो जायें वित्ती जल्दी खुरंड आयेगा'।

अब तो चेहरे का गुलाब खिल उठा। बोले, 'भई, खलीफा जी! तुमने पहले क्यों न बताया, अमां हद कर दी! तुम तो छुपे रुस्तम निकले!' इस पर उसने जेब से वो नाल निकाल कर दिखाई जो उसे रुस्तम का घोड़ा बनने पर इनआम में मिली थी।

मिर्जा वहीदुज्जमां बेग उस दिन से खलीफा कहलाये जाने लगे। वैसे यह अलादीन नवम था। काम कम करता था, डींगें बहुत मारता था। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग इसे अलादीन बेचिराग कहते थे। आदरणीय ने उसको अलादीन के बजाय खलीफा कहना इस शर्त पर स्वीकार कर लिया कि आइंदा उसकी जगह कोई और कोचवान या नौकर रखा जायेगा तो उसे भी खलीफा ही कहेंगे।


घोड़े के आगे बीन

आहिस्ता-आहिस्ता मौलाना, खलीफा, घोड़ा और बुजुर्गवार महत्व के लिहाज से इसी क्रम में परिवार के सदस्य समझे जाने लगे। यह मेल जोल इतना संपूर्ण था कि घोड़े की लंगड़ी टांग भी कुनबे का अटूट अंग बन गयी। घोड़े की वज्ह से घर के मामलात में आदरणीय का दुबारा अमल-दख्ल हो गया। अमल-दख्ल हमने मुहावरे में कह दिया, वरना सरासर दख्ल ही दख्ल था।

सब घर वाले बलबन को चुमकारते, थपथपाते। दाना चारा तो शायद अब भी उतना ही खाता होगा। प्यार की नजर से उसकी दुम और चमड़ी ऐसी चमकीली और चिकनी हो गयी कि निगाहें और मक्खियां फिसलें। बच्चे छुप-छुप कर उसे अपने हिस्से की मिठाई खिलाने आते और उसी की तरह कान हिलाने का प्रयास करते। कुछ बच्चे अब फुटबाल को आगे किक करने के बजाय एड़ी से दुलत्ती मार कर पीछे की ओर गोल करने लगे थे, बैतबाजी के मुकाबले में जब किसी लड़के का गोला बारूद समाप्त हो जाता या कोई गलत शेर पढ़ देता तो विरोधी टीम और श्रोतागण मिलकर हिनहिनाते। स्वयं आदरणीय कोई अच्छी खबर सुनते या सूरज के सामने बादल का कोई टुकड़ा आ जाता तो तुरंत घोड़े को हार्मोनियम सुनाने बैठ जाते। अक्सर कहते कि जब वाकई अच्छा बजाता हूं तो ये अपनी दुम चनोर की तरह हिलाने लगता है। हमें उनके दावे की सच्चाई में न तब संदेह था न अब है, आश्चर्य इस पर है कि उन्होंने कभी यह गौर नहीं किया कि घोड़ा उनकी कला की दाद किस अंग से दे रहा है!

बलबन आदरणीय का खिलौना, संतान का विकल्प, अकेलेपन का साथी, आंसुओं से भीगा तकिया-सभी कुछ था। उसके आने से पहले वो सारा समय अपनी जंग खाई चूल पर अनघड़ किवाड़ की भांति कराहते रहते। चाहे दर्द हो या न हो, अगर उनके सामने कोई दूसरा बोझ उठाता तो मुंह से ऐसी आवाजें निकालते मानों स्वयं भी बोझा भर रहे हों। कोई पूछता तबियत कैसी है तो उत्तर में दायां हाथ आसमान की ओर उठाकर नकारात्मक ढंग से डुगडुगी की तरह हिलाते और दो तीन मिनट तक सुर बदल-बदल कर खांसते। ऐसा लगता था जैसे वो अपनी बीमारी को 'एंज्वाय' करने लगे हैं।

कुछ अभ्यासी रोगी यह मानना अपने रोग की शान के विरुद्ध समझते हैं कि अब दर्द में फायदा है। आदरणीय बड़ी जबर्दस्त आत्मशक्ति के मालिक थे, यदि रोग कभी दूर हो जाता तो महज अपनी आत्मशक्ति के बल पर दुबारा पैदा कर लेते। आपने उन्हें नहीं देखा, मगर उन जैसे चिररोगी बुजुर्ग अवश्य देखे होंगे जो अपनी पाली-पोसी बीमारियों का हाल इस तरह सुनाते हैं जैसे निन्यानवे पर आउट होने वाला बैट्समैन अपनी अधूरी सेंचुरी और देहात की औरतें अपने प्रसवों के किस्से सुनाती हैं, मतलब ये कि हर बार नयी कमेंट्री और नये पछतावे के साथ। बलबन के आने से पूर्व तबीयत बेहद चिड़चिड़ी रहने लगी थी। लोग उनका हाल चाल पूछने आने से कतराने लगे थे। सबने उनको अपने हाल पर छोड़ दिया। किसी का साहस नहीं था कि उनके रोगानंद में विघ्न डाले।


नश्शा बढ़ता है शराबी जो शराबी से मिले

उनके एक पुराने, बड़े रख-रखाव वाले मित्र फिदा हुसैन खां तायब हर शुक्रवार मिलने आते थे। किसी समय बड़े जिंदादिल और रंगीनमिजाज हुआ करते थे। चोरी छुपे पीते भी थे, मगर मुफ्त की। गुनाह समझ कर चोरी छुपे पीने में फायदा ये है कि एक पैग में सौ बोतलों का नशा चढ़ जाता है, लेकिन एक अजीब आदत थी। जब बहुत चढ़ जाती तो सारे विषय छोड़ कर केवल इस्लाम पर बातचीत करते। इस पर तीन-चार बार शराबियों से पिट भी चुके थे। वो कहते थे हमारा नशा खराब करते हो, लेकिन शेख हमीदुद्दीन, जिनके साथ तायब पीते थे, उनके विषय पर कोई ऐतराज नहीं करते थे। शेख साहब बड़े एहतमाम से पीते और यारों को पिलाते थे। बढ़िया व्हिस्की, चेकोस्लोवाकिया के क्रिस्टल के गिलास, तेज मिर्चों की भुनी कलेजी और कबाब, रियाज खैराबादी के अशआर और एक तौलिए से मदिरापान आरंभ होता। तायब को जैसे ही चढ़ती अपनी पहली पत्नी को याद करके भूं भूं रोते और तौलिए से आंसू पोंछते जाते। कभी लंबा नागा हो जाता तो शराब पर केवल इसलिए टूट पड़ते कि

इक उम्र से हूं लछजते-गिरिया से भी महरूम

कभी नशा अधिक चढ़ जाता और घर या मुहल्ले में जाकर चांदनी रात में स्वर्गवासी पत्नी को याद करके दहाड़ें मारते, या गुल-गपाड़ा करते तो मौजूदा बीबी और मुहल्ले वाले मिलकर उनके सर पर भिश्ती से एक मशक छुड़वा देते। एक बार जनवरी में ठंडी बर्फ मशक से उन्हें जुकाम हो गया, जिसने बाद में निमोनिया का रूप धारण कर लिया। इसके बाद पत्नी उनको तुर्की टोपी उढ़ा कर मशक छुड़वाती थीं।


फिदा हुसैन खां तायब

फिदा हुसैन खां तायब की उम्र यही साठ के लगभग होगी, लेकिन ताकने-झांकने का लपका नहीं गया था। जिस नजर से वो परायी बहू बेटियों को देखते थे, उस नजर के लिए उनकी अपनी बीबी एक उम्र से तरस रही थी। तीसरे बच्चे के बाद उनके पति प्रेम में कुछ अंतर आ गया था कि हमारे यहां गृहस्थी, मुहब्बत के लिए बच्चे स्पीड ब्रेकर्ज का काम देते हैं। उदार स्वभाव ने एक ही पत्नी तक सीमित न रहने दिया। मुद्दतों शीघ्र-प्राप्त सुंदरियों के बिस्तरों में निर्वाण ढूंढ़ते रहे। जब तक बादशाह होने की हिम्मत रही, निकाह की तंग गली से निकल-निकल कर रात के अंधेरे में जपामारी करते रहे। उधर बेजबान बीबी यह समझ कर सब सहती रही।

'कुछ और चाहिये वुस्अत मेरे मियां के लिए'

तायब किसी समय एक सहकारी बैंक में नौकरी और शायरी करते थे। अंकों, संख्याओं के साथ भी शायरी करने की कोशिश की और गबन के आरोप में निकाले गये। शायरी अब भी करते थे, मगर साल में केवल एक बार, पचासवीं वर्षगांठ के उपरांत यह नियम बना लिया था कि हर साल पहली जनवरी को अपनी मरण-तिथि मानकर इस मौके पर कित्आ कह कर रख लेते, जो बारह-तेरह बरस से उनके काम आने से वंचित था। साल के दौरान किसी मित्र या परिचित का निधन हो जाता तो उसका नाम किसी मिसरे में ठूंस कर अपनी कविता उसे बख्श देते।

Thy need is yet greater than mine

नाम परिवर्तन की वज्ह से बहुत से कित्ओं का छंद टूटता, जिसे वो काव्य की आवश्यकता तथा मृत्यु के तकाजे के तहत जाइज समझते थे। कुछ दोस्त, जिनके पैर कब्र में लटक रहे थे, महज उनकी कविता के डर से मरने से बच रहे थे। आदरणीय को तायब साहब का आना भी नागवार गुजरने लगा। एक दिन कहने लगे, 'यह मनहूस क्यों मंडराता रहता है। मैं तो जानूं, इसकी नीयत मुझ पे खराब हो रही है। इस बरस का कित्आ मेरे सर, मेरे सरहाने चिपकाना चाहता है।' फिर विशेष रूप से वसीयत की कि अव्वल तो मैं ऐसा होने नहीं दूंगा, परंतु मान लो, अगर मैं फिदा हुसैन खां तायब से पहले मर जाऊं, अगरचे मैं हरगिज ऐसा होने नहीं दूंगा - तो इसका कित्आ मेरी पांयती लगाना।

जिन कब्रों के समाधिलेख पर यह कित्ए स्वर्गवासियों के नामों और उनके उपनाम 'तायब' के साथ लिखे थे, उनसे यह पता नहीं चलता था कि वास्तव में कब्र में कौन दफ्न है। बकौल काजी अब्दुल कुदू्दस, निधन कब्र वाले का हुआ है अथवा शायर का?

कुछ लोग यह शिलालेख देखकर आश्चर्य करते कि एक ही शायर को बार-बार क्यों कब्र में उतारा गया लेकिन जब कित्आ पढ़ते तो कहते कि ठीक ही किया। किसी शायर ने ही कहा है कि बहुत से शरीर ऐसे होते हैं जो मृत्यु के उपरांत भी जीवित रहते हैं। शायर मर जाता है, मगर कलाम बाकी रह जाता है। उर्दू शायरी को यही चीज ले डूबी।


महफिले - समाखराशी ( कानों को कष्ट देनी वाली महफिल )

यूं कोई दिन ऐसा नहीं जाता था कि आदरणीय मरने की धमकी न देते हों। कब्रिस्तान में एक भूखंड खरीद कर अपना पक्का मजार बनवा लिया था जो काफी समय से गैरआबाद पड़ा था क्योंकि उस पर अधिकार लेने से वो अभी तक कतराते थे। अक्सर खुद पर निराशा तारी करके यह शेर पढ़ते

देखते ही देखते दुनिया से उठ जाऊंगा मैं

देखती की देखती रह जायेगी दुनिया मुझे

शेर में अपनी चटपट मौत पर जबान का खेल दिखाया गया है। इससे तो मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग के कथानुसार यही पता चलता है कि आदरणीय की मृत्यु जबान के चटखारे के कारण हुई, यानी जबान से अपनी कब्र खोदी।

जिस दिन से घोड़ा उनकी संगीत की महफिल में आने लगा, उन्होंने पुरानी कमख्वाब की अचकन उधड़वा कर हार्मोनियम का गिलाफ बनवा लिया। खलीफा धोंकनी संभालता और वो लरजती कांपती उंगलियों से हार्मोनियम बजाने लगते। कभी बहुत जोश में आते तो मुंह से अनायास गाने के बोल निकल जाते। यह फैसला करना मुश्किल था कि उनकी आवाज जियादा कंपकंपाती है या उंगलियां। जैसे ही अंतरा गाते सांस झकोले खाने लगता, उनके पड़ोसी चौधरी करम इलाही, रिटायर्ड एक्साइज इंस्पेक्टर टिलकते हुए आ निकलते। अर्सा हुआ पानी उतर आने के कारण उनकी दोनों आंखों की रोशनी जाती रही थी। उन्होंने खासतौर पर गुजरात से एक घड़ा मंगवाकर उसके चटख रंग पर सिंधी टाइल्ज के चित्र पेंट करवा लिए थे। कहते थे - औरों को तो नजर आता है। वो जब अपनी आस्तीन चढ़ाकर चौड़ी कलाई पर चमेली का गजरा लपेटे घड़े पर संगत करते तो समां बांध देते। वो अक्सर कहते थे कि जब से आंखें गयी हैं मालिक ने मुझ पर सुर, संगीत और सुगंध के अनगिनत भेद खोल दिये हैं। गम्मत हो चुकती और राग खुशबू बन कर सारे में रच बस जाता तो आदरणीय कहते 'वाह वा! चोई साहब! भई खूब बजाते हो' और चौधरी साहब अपने अंधेरी आंखें आनंद में बंद करते हुए कहते 'लो जी! तुसी भी अज वड्डा कमाल कीता ए' और यह वास्तव में कला की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या थी कि दोनों अपाहिज बुजुर्ग जब झूम-झूम के अपने-अपने साज पर एक साथ अपने अपने राग यानी राग दरबारी और तीन ताल बेताल में माहिया की धुन बजा कर एक दूसरे की संगत करते तो ये कहना बहुत कठिन होता कि कौन किसका साथ नहीं दे रहा।