खोया पानी / भाग 1 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी
वो आदमी है मगर, देखने की ताब नहीं
मैंने 1945 में जब किबला (माननीय) को पहले-पहल देखा तो उनका हुलिया ऐसा हो गया था जैसा अब मेरा है लेकिन बात हमारे अलबेले दोस्त बिशारत अली फारूकी के ससुर की है, इसलिए परिचय भी उन्हीं की जबान से ठीक रहेगा। हमने तो बहुत बार सुना, आप भी सुनिए :
वो हमेशा से मेरे कुछ न कुछ लगते थे। जिस जमाने में मेरे ससुर नहीं बने थे तो फूफा हुआ करते थे और फूफा बनने से पहले मैं उन्हें चचा हुजूर कहा करता था। इससे पहले भी वो मेरे कुछ और जुरूर लगते होंगे, मगर उस वक्त मैंने बोलना शुरू नहीं किया था। हमारे यहां मुरादाबाद और कानपुर में रिश्ते-नाते उबली हुई सिवइयों की तरह उलझे और पेच-दर-पेच गुंथे हुए होते हैं।
ऐसा रौद्ररूप, इतने गुस्से वाला आदमी जिंदगी में नहीं देखा। उनकी मृत्यु हुई तो मेरी उम्र, आधी इधर-आधी उधर, चालीस के लगभग तो होगी, लेकिन साहब! जैसा आतंकित मैं उनकी आंखें देख कर छुटपन में होता था, वैसा ही न सिर्फ उनके आखिरी दम तक रहा, बल्कि अपने आखिरी दम तक भी रहूंगा। बड़ी-बड़ी आंखें अपने साकेट से निकली पड़ती थीं -लाल, सुर्ख, ऐसी-वैसी? बिल्कुल कबूतर का खून। लगता था, बड़ी-बड़ी पुतलियों के गिर्द लाल डोरों से अभी खून के फव्वारे छूटने लगेंगे और मेरा मुंह खूनम-खून हो जायेगा। हर वक्त गुस्से में भरे रहते थे। जाने क्यों गाली उनका तकिया-कलाम थी और जो रंग बोलचाल का था, वही लिखायी का भी।
'रख हाथ निकलता है धुआं मग्जे- कलम से'
जाहिर है, कुछ ऐसे लोगों से भी पाला पड़ता था जिन्हें किसी कारण से गाली नहीं दे सकते थे। ऐसे अवसरों पर जबान से तो कुछ न कहते, लेकिन चेहरे पर ऐसा एक्सप्रेशन लाते कि सर से पांव तक गाली नजर आते। किसकी शामत आई थी कि उनकी किसी भी राय से असहमति व्यक्त करता। असहमति तो दर-किनार, अगर कोई व्यक्ति सिर्फ डर के मारे उनसे सहमत होता तो, अपनी राय बदल कर उल्टा उसके सर हो जाते।
अरे साहब! बातचीत तो बाद की बात है, कभी-कभी सिर्फ सलाम से भड़क उठते थे! आप कुछ भी कहें; कैसी ही सच्ची और सामने की बात कहें, वो उसका खंडन जरूर करेंगे। किसी से सहमत होने में अपनी हेठी समझते थे। उनका हर वाक्य 'नहीं' से शुरू होता था। एक दिन कानपुर में कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। मेरे मुंह से निकल गया कि आज बड़ी सर्दी है। बोले 'नहीं, कल इससे जियादा पड़ेगी।'
वो चचा से फूफा बने और फूफा से ससुर, लेकिन मेरी आखिरी वक्त तक निगाह उठा कर बात करने की हिम्मत न हुई। निकाह के वक्त वो काजी के पहलू में थे, काजी ने मुझसे पूछा 'कुबूल है?' उनके सामने मुंह से 'हां' कहने का साहस न हुआ - अपनी ठोड़ी से दो ठोंगें-सी मार दीं, जिन्हें काजी और किबला ने रिश्ते के लिए नाकाफी समझा। किबला कड़क कर बोले, 'लौंडे! बोलता क्यों नहीं?' डांट से मैं नर्वस हो गया। अभी काजी का सवाल पूरा भी नहीं हुआ था कि मैंने 'जी हां! कुबूल है' कह दिया। आवाज एकदम इतने जोर से निकली कि मैं खुद चौंक पड़ा। काजी उछल कर सेहरे में घुस गया, सब लोग खिलखिला कर हंसने लगे। अब किबला इस पर भिन्ना रहे हैं कि इतने जोर की 'हां' से बेटी वालों की हेठी होती है। बस तमाम-उम्र उनका यही हाल रहा, तमाम-उम्र मैं रिश्तेदारी के दर्द और निकटता में घिरा रहा।
हालांकि इकलौती बेटी, बल्कि इकलौती औलाद थी और बीबी को शादी के बड़े अरमान थे, लेकिन किबला ने 'माइयों' के दिन ठीक उस वक्त, जब मेरा रंग निखारने के लिए उबटन मला जा रहा था, कहला भेजा कि दूल्हा मेरी मौजूदगी में अपना मुंह सेहरे से बाहर नहीं निकालेगा। दो सौ कदम पहले सवारी से उतर जायेगा और पैदल चलकर अक्दगाह (निकाह के स्थान) तक आयेगा। अक्दगाह उन्होंने इस तरह कहा जैसे अपने फ़ैज साहब (शाइर फ़ैज अहमद फ़ैज) कत्लगाह का जिक्र करते हैं और सच तो यह है कि उनका आतंक दिल में कुछ ऐसा बैठ गया था कि मुझे छपरखट भी फांसी-घाट लग रहा था। उन्होंने यह शर्त भी लगाई कि बराती पुलाव-जर्दा ठूंसने के बाद यह हरगिज नहीं कहेंगे कि गोश्त कम डाला और शकर ड्योढ़ी नहीं पड़ी। खूब समझ लो, मेरी हवेली के सामने बैंड-बाजा हरगिज नहीं बजेगा और तुम्हें रंडी नचवानी है तो अपने कोठे पर नचवाओ।
किसी जमाने में राजपूतों और अरबों में लड़की की पैदाइश अपशकुन और खुदा के क्रोध की निशानी समझी जाती थी। उनका आत्माभिमान यह कैसे गवारा कर सकता था कि उनके घर बरात चढ़े। दामाद के खौफ से वो लड़की को जिंदा गाड़ आते थे। किबला इस वहशियाना रस्म के खिलाफ थे। वो दामाद को जिंदा गाड़ देने के पक्ष में थे।
चेहरे, चाल और तेवर से शहर के कोतवाल लगते थे। कौन कह सकता था कि बांस मंडी में उनकी इमारती लकड़ी की एक मामूली-सी दुकान है। निकलता हुआ कद। चलते तो कद, सीना और आंखें, तीनों एक साथ निकाल कर चलते थे। अरे साहब क्या पूछते हैं, अव्वल तो उनके चेहरे की तरफ देखने की हिम्मत नहीं होती थी और कभी जी कड़ा करके देख भी लिया तो बस लाल-भभूका आंखें-ही-आंखें नजर आती थीं,
'निगहे- गर्म से इक आग टपकती है असद'
रंग गेहुँआ, जिसे आप उस गेहूं जैसा बताते हैं, जिसे खाते ही हजरत आदम एकदम जन्नत से निकाल दिये गये। जब देखो झल्लाते, तिनतिनाते रहते। मिजाज, जबान और हाथ, किसी पर काबू न था, हमेशा गुस्से से कांपते रहते। इसलिए ईंट, पत्थर, लाठी, गोली, गाली किसी का भी निशाना ठीक नहीं लगता था। गछी-गछी मूंछें, जिन्हें गाली देने से पहले और बाद में ताव देते। आखिरी जमाने में भौंहों को भी बल देने लगे, गठा हुआ कसरती बदन मलमल के कुर्ते से झलकता था। चुनी हुई आस्तीन और उससे भी महीन चुनी हुई दुपलिया टोपी। गर्मियों में खस का इत्र लगाते। कीकरी की सिलाई का चूड़ीदार पाजामा - चूड़ियां इतनी अधिक कि पाजामा नजर नहीं आता था। धोबी उसे अलगनी पर नहीं सुखाता था, अलग बांस पर दस्ताने की तरह चढ़ा देता था। आप रात को दो बजे भी दरवाजा खटखटा कर बुलायें तो चूड़ीदार में ही बाहर निकलेंगे।
वल्लाह! मैं तो यह कल्पना करने का भी साहस नहीं कर सकता कि दाई ने भी उन्हें चूड़ीदार के बगैर देखा होगा। भरी-भरी पिंडलियों पर खूब जंचता था, हाथ के बुने रेशमी नाड़े में चाबियों का गुच्छा छनछनाता रहता था। जो ताले बरसों पहले बेकार हो गये थे, उनकी चाबियां भी इसी गुच्छे में सुरक्षित थीं। हद यह कि उस ताले की भी चाबी थी, जो पांच साल पहले चोरी हो गया था। मुहल्ले में इस चोरी की बरसों चर्चा रही, इसलिए कि चोर सिर्फ ताला, पहरा देने वाला कुत्ता और वंशावली चुरा कर ले गया। कहते थे कि इतनी जलील चोरी सिर्फ कोई रिश्तेदार ही कर सकता है। आखिरी जमाने में यह इजारबंदी गुच्छा बहुत वज्नी हो गया था और मौका-बेमौका फिल्मी गीत के बाजूबंद की तरह खुल-खुल जाता। कभी भावातिरेक में झुककर किसी से हाथ मिलाते तो दूसरे हाथ से इजारबंद थामते। मई-जून में टेंप्रेचर बहुत हो जाता और मुंह पर लू के थप्पड़ से पड़ने लगते तो पाजामे से एयर कंडीशनिंग कर लेते। मतलब यह कि चूड़ियों को घुटनों-घुटनों पानी से भिगो कर, सर पर अंगोछा डाले तरबूज खाते। खस की टट्टी और ठंडा पानी कहां से लाते। इसके मुहताज भी न थे। कितनी ही गर्मी पड़े, दुकान बंद नहीं करते थे, कहते थे, मियां! यह तो बिजनेस है, पेट का धंधा है, जब चमड़े की झोपड़ी में आग लगी रही हो तो क्या गर्मी, क्या सर्दी लेकिन ऐसे में कोई शामत का मारा ग्राहक आ निकले तो बुरा-भला कहकर भगा देते थे। इसके बावजूद वो खिंचा-खिंचा दुबारा उन्हीं के पास आता था, इसलिए कि जैसी उम्दा लकड़ी वो बेचते थे, वैसी सारे कानपुर में कहीं नहीं मिलती थी। फर्माते थे, दागी लकड़ी बंदे ने आज तक नहीं बेची, लकड़ी और दागी! दाग तो दो-ही चीजों पर सजता है, दिल और जवानी।
शब्द के लच्छन और बाजारी पान
तंबाकू, किवाम, खरबूजे और कढ़े हुए कुर्ते लखनऊ से, हुक्का मुरादाबाद और ताले अलीगढ़ से मंगवाते थे। हलवा सोहन और डिप्टी नजीर अहमद वाले मुहावरे दिल्ली से। दांत गिरने के बाद सिर्फ मुहावरों पर गुजारा था।
गालियां अलबत्ता स्थानीय बल्कि खुद की गढ़ी हुई देते, जिनमें रवानी पायी जाती थी। सलीम शाही जूतियां और चुनरी आपके जयपुर से मंगवाते थे। साहब! आपका राजस्थान भी खूब था, क्या-क्या उपहार गिनवाये थे उस दिन आपने खांड, सांड, भांड और रांड। यह भी खूब रही कि मारवाड़ियों को जिस चीज पर भी प्यार आता है उसके नाम में ठ, ड और ड़, लगा देते हैं मगर यह बात आपने अजीब बतायी कि राजस्थान में रांड का मतलब खूबसूरत औरत होता है। मारवाड़ी भाषा में सचमुच की विधवा के लिए भी कोई शब्द है कि नहीं लेकिन यह भी ठीक है कि सौ-सवा-सौ साल पहले तक रंडी का मतलब सिर्फ औरत होता था, जबसे मर्दों की नीयतें खराब हुईं, इस शब्द के लच्छन भी बिगड़ गये।
साहब! राजस्थान के तीन तुहफों के तो हम भी कायल और घायल हैं। मीराबाई, मेंहदी हसन और रेशमा। हां! तो मैं कह यह रहा था कि बाहर निकलते तो हाथ में पान की डिबिया और बटुवा रहता। बाजार का पान हरगिज नहीं खाते थे। कहते थे बाजारी पान सिर्फ रंडवे, ताक-झांक करने वाले और बंबई वाले खाते हैं। साहब! यह रखरखाव और परहेज मैंने उन्हीं से सीखा। डिबिया चांदी की, नक्शीन (बेल-बूटे बने हुए) भारी, ठोस। इसमें जगह-जगह डेंट नजर आते थे जो इंसानी सरों से टकराने की वज्ह से पड़े थे। गुस्से में अक्सर पानों भरी डिबिया फेंक के मारते। बड़ी देर तक तो यह पता ही नहीं चलता था कि घायल होने वालों के सर और चेहरे से खून निकल रहा है या बिखरे पानों की लाली ने गलत जगह रंग जमाया है। बटुवे खास-तौर से आपके जन्म-स्थान, टोंक से मंगवाते थे। कहते थे कि वहां के पटवे ऐसे डोरे डालते हैं कि इक जरा घुंडी को झूठों हाथ लगा दो तो बटुआ आप-ही-आप जी-हुजूर लोगों की बांछों की तरह खिलता चला जाता है। गुटका भोपाल से आता था, लेकिन खुद नहीं खाते थे। कहते थे, मीठा पान, ठुमरी, गुटका और नावेल, ये सब नाबालिगों के व्यसन हैं। शायरी से कोई खास दिलचस्पी न थी। रदीफ-काफिये से आजाद शायरी से खास-तौर पर चिढ़ते थे। यूं उर्दू-फारसी के जितने भी शेर लकड़ी, आग, धुएं, हेकड़ी, लड़-मरने, नाकामी और झगड़े के बारे में हैं, सब याद कर रखे थे। स्थिति कभी काबू से बाहर हो जाती तो शायरी से उसका बचाव करते। आखिरी जमाने में एकांतप्रिय इंसानों से हो गये थे और सिर्फ दुश्मनों के जनाजे को कंधा देने के लिए बाहर निकलते थे। खुद को कासनी और बीबी को मोतिया रंग पसंद था। अचकन हमेशा मोतिया रंग के टसर की पहनी।
वाह क्या बात कोरे बर्तन की
बिशारत की जबानी परिचय खत्म हुआ। अब कुछ मेरी, कुछ उनकी जबानी सुनिए और रही-सही आम लोगों की जबान से, जिसे कोई नहीं पकड़ सकता। कानपुर में पहले बांसमंडी और फिर कोपरगंज में किबला की लकड़ी की दुकान थी। इसी को आप उनका रोटी-रोजी कमाने और लोगों को सताने का साधन कह सकते हैं। थोड़ी-बहुत जलाने की लकड़ी भी रखते थे मगर उसे लकड़ी नहीं कहते। उनकी दुकान को अगर कभी कोई टाल कह देता तो दो सेरी लेकर दौड़ते। जवानी में पंसेरी लेकर दौड़ते थे। तमाम उम्र पत्थर के बाट इस्तेमाल किये। फर्माते थे कि लोहे के फिरंगी बाट बेबरकत होते हैं। इन देसी बाटों को बाजुओं में भर-के, सीने से लगा-के उठाना पड़ता है। कभी किसी को यह साहस नहीं हुआ कि उनके पत्थर के बाटों को तुलवा कर देख ले। किसकी बुरी घड़ी आयी थी कि उनकी दी हुई रकम या लौटायी हुई रेजगारी को गिन कर देखे। उस समय में, यानी इस सदी की तीसरी दहाई में इमारती लकड़ी की खपत बहुत कम थी। साल और चीड़ का रिवाज आम था। बहुत हुआ तो चौखट और दरवाजे शीशम के बनवा लिए। सागवान तो सिर्फ अमीरों और रईसों की डाइनिंग टेबल और गोरों के ताबूत में इस्तेमाल होती थी। फर्नीचर होता ही कहां था। भले घरों में फर्नीचर के नाम पर सिर्फ चारपाई होती थी। जहां तक हमें याद पड़ता है, उन दिनों कुर्सी सिर्फ दो अवसरों पर निकाली जाती थी। एक तो जब हकीम, वैद्य, होम्योपैथ, पीर, फकीर और सयानों से मायूस हो कर डाक्टर को घर बुलाया जाता था। उस पर बैठ कर वो जगह-जगह स्टेथेस्कोप लगा कर देखता कि मरीज और मौत के बीच जो खाई थी, उसे इन महानुभावों ने अपनी दवाओं और तावीज, गंडों से किस हद तक पाटा है। उस समय का दस्तूर था कि जिस घर में मुसम्मी या महीन लकड़ी की पिटारी में रुई में रखे हुए पांच अंगूर आयें या सोला-हैट पहने डाक्टर और उसके आगे-आगे हटो-बचो करता हुआ तीमारदार उसका चमड़े का बैग उठाये आये तो पड़ोस वाले जल्दी-जल्दी खाना खा कर खुद को शोक व्यक्त करने और कंधा देने के लिए तैयार कर लेते थे। सच तो यह है कि डाक्टर को सिर्फ उस अवस्था में बुला कर इस कुर्सी पर बिठाया जाता था, जब वह स्थिति पैदा हो जाये जिसमें दो हजार साल पहले लोग ईसा मसीह को आजमाते थे। कुर्सी के इस्तेमाल का दूसरा और आखिरी अवसर हमारे यहां खत्ने (लिंग की खाल काटना) के अवसर पर आता था, जब लड़कों को दूल्हा की तरह सजा, बना और मिट्टी का खिलौना हाथ में दे कर इस कुर्सी पर बिठा दिया जाता था। इस जल्लादी कुर्सी को देखकर अच्छे-अच्छों की घिग्घी बंध जाती थी। गरीबों में इस काम के लिए भाट या लंबे-वाले कोरे मटके को उल्टा करके लाल कपड़ा डाल देते थे।
चारपाई
सच तो यह है कि जहां चारपाई हो, वहां किसी फर्नीचर की जरूरत, न गुंजाइश, न तुक। इंग्लैंड का मौसम अगर इतना जलील न होता और अंग्रेजों ने वक्त पर चारपाई का आविष्कार कर लिया होता तो न सिर्फ ये कि वो मौजूदा फर्नीचर की खखेड़ से बच जाते, बल्कि फिर आरामदेह चारपाई छोड़ कर उपनिवेश बनाने की खातिर घर से बाहर निकलने को भी उनका दिल न चाहता। 'ओवरवर्क्ड' सूरज भी उनके साम्राज्य पर एक सदी तक हर वक्त चमकते रहने की ड्यूटी से बच जाता। कम से कम आजकल के हालात में अटवाटी-खटवाटी लेकर पड़े रहने के लिए उनके घर में कोई ढंग की चीज तो होती। हमने एक दिन प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस, एम.ए.,बी.टी. से कहा कि आपके कथनानुसार सारी चीजें अंग्रेजों ने आविष्कृत की हैं, सुविधा-भोगी और बेहद प्रैक्टिकल लोग हैं - हैरत है कि चारपाई इस्तेमाल नहीं करते! बोले, अदवान कसने से जान चुराते हैं। हमारे खयाल में एक बुनियादी फर्क जह्न में जुरूर रखना चाहिए, वो ये कि यूरोपियन फर्नीचर सिर्फ बैठने के लिए होता है, जबकि हम किसी ऐसी चीज पर बैठते ही नहीं, जिस पर लेट न सकें। मिसाल में दरी, गदैले, कालीन, जाजिम, चांदनी, चारपाई, माशूक की गली और दिलदार के पहलू को पेश किया जा सकता है। एक चीज हमारे यहां अलबत्ता ऐसी थी जिसे सिर्फ बैठने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। उसे हुक्मरानों का तख्त कहते थे, लेकिन जब उन्हें उसी पर लटका कर, फिर नहला दिया जाता तो यह तख्ता कहलाता था और इस काम को तख्ता उलटना कहते थे।
स्टेशन, लकड़मंडी और बाजारे - हुस्न में बिजोग
मकसद इस भूमिका का ये है कि जहां चारपाई का चलन हो वहां फर्नीचर का बिजनेस पनप नहीं सकता। अब इसे इमारती लकड़ी कहिए या कुछ और, धंधा इसका भी हमेशा मंदा ही रहता था कि दुकानों की तादाद ग्राहकों से जियादा थी। इसलिए कोई भी ऐसा नजर आ जाये तो हुलिए और चाल-ढाल से जरा भी ग्राहक मालूम हो तो लकड़मंडी के दुकानदार उस पर टूट पड़ते। जियादातर ग्राहक आस-पास के देहाती होते जो जिंदगी में पहली और आखिरी बार लकड़ी खरीदने कानपुर आते थे। इन बेचारों का लकड़ी से दो ही बार वास्ता पड़ता था। एक, अपना घर बनाते समय; दूसरे अपना क्रिया कर्म करवाते समय।
पाकिस्तान बनने से पहले जिन पाठकों ने दिल्ली या लाहौर के रेलवे स्टेशन का नक्शा देखा है, वो इस छीना-झपटी का बखूबी अंदाजा कर सकते हैं। 1945 में हमने देखा कि दिल्ली से लाहौर आने वाली ट्रेन के रुकते ही जैसे ही मुसाफिर ने अपने जिस्म का कोई हिस्सा दरवाजे या खिड़की से बाहर निकाला, कुली ने उसी को मजबूती से पकड़ कर पूरे मुसाफिर को हथेली पर रखा और हवा में उठा लिया और उठाकर प्लेटफार्म पर किसी सुराही या हुक्के की चिलम पर बिठा दिया लेकिन जो मुसाफिर दूसरे मुसाफिरों के धक्के से खुद-ब-खुद डिब्बे से बाहर निकल पड़े उनका हाल वैसा ही हुआ जैसा उर्दू की किसी नई-नवेली किताब का आलोचकों के हाथ होता है। जो चीज जितनी भी, जिसके हाथ लगी सर पर रख-कर हवा हो गया। दूसरे चरण में मुसाफिर पर होटलों के दलाल और एजेंट टूट पड़ते। सफेद कोट-पतलून, सफेद कमीज, सफेद रूमाल, सफेद कैनवस के जूते, सफेद मोछो, सफेद दांत मगर इसके बावजूद मुहम्मद हुसैन आजाद (19वीं शताब्दी के महान लेखक) के शब्दों में हम ये नहीं कह सकते कि चमेली का ढेर पड़ा हंस रहा है। उनकी हर चीज सफेद और उजली होती, सिवाय चेहरे के। हंसते तो मालूम होता तवा हंस रहा है। ये मुसाफिर पर इस तरह गिरते जैसे इंग्लैंड में रग्बी की गेंद और एक-दूसरे पर खिलाड़ी गिरते हैं। उनके इन तमाम प्रयत्नों का मकसद खुद कुछ पाना नहीं, बल्कि दूसरों को पाने से दूर रखना होता था। मुसलमान दलाल तुर्की टोपी से पहचाने जाते। वो दिल्ली और यू.पी. से आने वाले मुसलमान मुसाफिरों को टोंटीदार लोटे, पर्दादार औरतों, बहुत-से बच्चों और कीमे-परांठे के भबके से पहचान लेते और अस्सलामो-अलैकुम कहकर लिपट जाते। मुसलमान मुसाफिरों के साथ सिर्फ मुसलमान दलाल ही धींगा-मुश्ती कर सकते थे। (जिस दलाल का हाथ मुसाफिर के कपड़ों के सब से मजबूत हिस्से पर पड़ता वो वहीं से उसे घसीटता हुआ बाहर ले आता। जिनका हाथ लिबास के कमजोर या फटे-गले पुराने हिस्से पर पड़ता, वो बाद में उसको रूमाल की तरह इस्तेमाल करते।) अर्धनग्न मुसाफिर कदम-कदम पर अपने बाकी कपड़े भी उतरवाने पर मजबूर होता। स्टेशन के बाहर कदम रखता तो असंख्य पहलवान, जिन्होंने अखाड़े को नाकाफी पाकर तांगा चलाने का पेशा अपना लिया था, खुद को उस पर छोड़ देते। अगर मुसाफिर के तन पर कोई चीथड़ा संयोग से बच रहा होता तो उसे भी नोच कर तांगे की पिछली सीट पर रामचंद्र जी की खड़ाऊं की तरह सजा देते, अगर किसी के चूड़ीदार के नाड़े का सिरा तांगे वाले के हाथ लग जाता तो वो गरीब गांठ पे हाथ रखे उसी में बंधा चला आता। कोई मुसाफिर का दामन आगे से खींचता, कोई पीछे से फाड़ता।
अंतिम राउंड में एक तगड़ा-सा तांगे वाला सवारी का दायां हाथ और दूसरा मुस्टंडा उसका बायां हाथ पकड़ कर Tug of War खेलने लगते लेकिन इससे पहले कि दोनों दावेदार अपने-अपने हिस्से की रान और हाथ उखाड़ कर ले जायें, एक तीसरा फुर्तीला तांगे वाला टांगों के चिरे हुए चिमटे के नीचे बैठ कर मुसाफिर को एकाएक अपने कंधों पर उठा लेता और तांगे में जोतकर हवा हो जाता।
लगभग यही नक्शा कोपरगंज की लकड़मंडी का हुआ करता था जिसके बीच में किबला की दुकान थी। गोदाम आम-तौर पर दुकान से ही जुड़े हुए पीछे होते थे। ग्राहक पकड़ने के लिए किबला और दो-तीन चिड़ीमार दुकानदारों ने ये किया कि दुकानों के बाहर सड़क पर लकड़ी के छोटे-छोटे केबिन बना लिए। किबला का केबिन मसनद, तकिये, हुक्के, उगालदान और स्प्रिंग से खुलने वाले चाकू से सजा हुआ था। केबिन जैसे एक तरह का मचान था, जहां से वो ग्राहक को मार गिराते थे, फिर उसे चूम-पुचकार कर अंदर ले जाया जाता, जहां कोशिश यह होती थी खाली-हाथ और भरी-जेब वापस न जाने पाये।
जैसे ही कोई व्यक्ति जो अंदाजे से ग्राहक लगता, सामने से गुजरता तो दूर और नजदीक के दुकानदार उसे हाथ के इशारे से या आवाज देकर बुलाते : 'महाराज! महाराज!' इन महाराजों को दूसरे दुकानदारों के पंजे से छुड़ाने और खुद घसीटकर अपनी कछार में ले जाने के दौरान अक्सर उनकी पगड़ियां खुल कर पैरों में उलझ जातीं। इस सिलसिले में आपस में इतने झगड़े और हाथापाई हो चुकी थी कि मंडी के तमाम व्यापारियों ने पंचायती फैसला किया कि ग्राहक को सिर्फ वही दुकानदार आवाज देकर बुलायेगा, जिसकी दुकान के सामने से वो गुजर रहा हो, लेकिन जैसे ही वह किसी दूसरे दुकानदार के आक्रमण-क्षेत्र में दाखिल होगा तो उसे कोई और दुकानदार हरगिज आवाज न देगा। इसके बावजूद छीना-झपटी और कुश्तम-पछाड़ बढ़ती ही गई तो हर दुकान के आगे चूने से हदबंदी की लाइन खींच दी गई। इससे यह फर्क पड़ा कि कुश्ती बंद हो गई और कबड्डी होने लगी। कुछ दुकानदारों ने मार-पीट, ग्राहकों का हांका और उन्हें डंडा-डोली करके अंदर लाने के लिए बिगड़े पहलवान और शहर के छंटे हुए शुहदे और मुस्टंडे पार्ट-टाइम नौकरी पर रख लिये थे। आर्थिक मंदी अपनी चरम-सीमा तक पहुंची हुई थी। यह लोग दिन में लकड़-मंडी के ग्राहकों को डरा-धमका कर खराब और कंडम माल खरीदवाते और रात को यही फर्ज बाजारे-हुस्न में अंजाम देते। बहुत-सी तवायफों ने हर रात अपनी आबरू को जियादा से जियादा असुरक्षित रखने के उद्देश्य से इनको बतौर 'पिंप' नौकर रख छोड़ा था। किबला ने इस किस्म का कोई गुंडा या कुचरित्र पहलवान नौकर नहीं रखा, उन्हें अपने हाथों की ताकत पर पूरा भरोसा था लेकिन औरों की तरह माल की चिराई-कटाई में मार-कुटाई का खर्चा भी शामिल कर लेते थे।
खून निकालने के तरीके: जोंक, सींगी, लाठी
हर वक्त क्रोधावस्था में रहते थे। सोने से पहले ऐसा मूड बना कर लेटते कि आंख खुलते ही, गुस्सा करने में आसानी हो। माथे के तीन बल सोते में भी नहीं मिटते थे। गुस्से की सबसे खालिस किस्म वह होती है जो किसी बहाने की मुहताज न हो या किसी बहुत ही मामूली सी बात पर आ जाये। गुस्से के आखिर होते-होते यह भी याद नहीं रहता था कि आया किस बात पर था। बीबी उनको रोजा नहीं रखने देती थीं। यह शायद 1935 की बात है। एक दिन-रात की नमाज के बाद गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ा कर अपनी पुरानी परेशानियां दूर होने की दुआएँ मांग रहे थे कि एक ताजा परेशानी का खयाल आते ही एकदम क्रोध आ गया। दुआ में ही कहने लगे कि तूने मेरी पुरानी परेशानियां ही कौन-सी दूर कर दीं, जो अब यह नई परेशानी दूर करेगा। उस रात मुसल्ला (नमाज पढ़ने की चादर) तह करने के बाद फिर कभी नमाज नहीं पढ़ी।