खोया पानी / भाग 20 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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प्रेम पत्र और गौतम बुद्ध के दांत

शहर में ये भी मशहूर है कि बॉक्स में उस शरणार्थी लड़की की चिट्ठियां और फोटो हैं जिसे वो ट्यूशन पढ़ाते थे। पता नहीं। ये बुद्धिज्म से पहले की बात है। मैं तो उस जमाने में कराची आ चुका था। सब उसकी टोह में हैं, मगर बक्से पे पीतल का सेर-भर का ताला पड़ा है, जिसकी चाबी वो अपने कमरबंद में बांधे फिरते हैं। लोगों की जबान किसने पकड़ी है। किसी ने कहा, लड़की ने ब्लेड से कलाई की नसें काट कर आत्महत्या की। किसी ने इसका एक अकथनीय कारण बताया। ये भी सुनने में आया कि लड़की को एक दूसरा ट्यूटर भी पढ़ाता था। कहने वाले तो कहते हैं श्मशान तक अर्थी से जीता-जीता खून टपकता गया। उसी रात उसका बाप नींद की तीस चालीस गोलियां खा कर ऐसा सोया कि फिर सुब्ह उसकी अर्थी ही उठी। लेकिन देखा जाये तो न लड़की मरी न उसका बाप, मौत तो उस विधवा और छह बच्चों की हुई जो उसने छोड़े। तीन-चार दिन बाद किसी ने गली के मोड़ पर मुल्ला आसी के पेट में छुरा घोंप दिया। आंतें कट कर बाहर निकल पड़ीं। चार महीने गुमनामी की मौत और बदनामी की जिंदगी के बीच झूलते हुए अस्पताल में पड़े रहे। सुना है जिस दिन डिस्चार्ज हुए, उसी दिन से जोग ले लिया। मगर साहब! जोगी तो वो जन्म-जन्म के थे। एक कहावत है कि जोगी का लड़का खेलेगा तो सांप से। सो, ये नागिन न भी होती तो किसी और सांप से खुद को डंसवा लेते।

अल्लाह जाने! मजाक में कहा या सच ही हो, इनआमुल्लाह बरमलाई कहने लगे कि ब्लैक बॉक्स में मुल्ला आसी के चार टूटे हुए दांत सुरक्षित हैं, जो अपने श्रद्धालुओं और भविष्य की नस्लों के लिए बतौर Relic छोड़ कर मरना चाहते हैं। आखिर महात्मा बुद्ध के भी तो कम से कम सौ दांत विभिन्न पवित्र स्थानों पर दर्शनार्थियों के लिए भारी पहरे में रखे हुए हैं।

कमरे में केवल एक चीज नयी देखी। पत्रिका `इरफान` का नया अंक। अल्लाह जाने किसी ने डाक से भेजा या कोई शरारतन छोड़ गया। जहां-तहां से पढ़ा। साहब! परंपरा का इस पत्रिका पर अंत है। पचास साल पहले और आज के `इरफान` में जरा जो अंतर आया हो। वही क्रम, वही छपायी और गैटअप, जो पचास बरस पहले थे, अल्लाह के करम से आज भी है। विषय और समस्यायें भी वही हैं जो सर सय्यद और शिबली के जमाने में थी। मुझे तो जपाखाना और कातिब भी वही मालूम देता है। काश ये अंक सत्तर अस्सी साल पहले छपा होता तो बिल्कुल `आप टू डेट` मालूम देता। मौलाना शिबली नोमानी और डिप्टी नजीर अहमद एल.एल.डी. इसे देख के कैसे खुश होते।


सांभर का सींग

कमरे में सांभर का सर अभी तक वहीं टंगा है। इस अजायबघर बल्कि पिरामिड में सिर्फ यही लाइफ लाइक दिखाई देता है, लगता है अभी दीवार से छलांग लगा कर जंगल की राह लेगा। उसके नीचे उनके दादा की सीपिया रंग की तस्वीर है। साहब, उस जमाने में सभी के दादाओं का हुलिया एक जैसा होता थ। भरवां दाढ़ी, पग्गड़ बांधे, फूलदार अचकन पहने, एक हाथ में फूल और दूसरे में तलवार पकड़े खड़े हैं। 1857 के बाद बल्कि इससे बहुत पहले भद्र लोग तलवार को वाकिंग स्टिक के तौर पर और शायर बतौर प्रतीक यानी अप्राप्य मिलन की कामना के आरोप में खुद को माशूक के हाथों कत्ल करवाने के लिए इस्तेमाल करने लगे थे। उपमहाद्वीप में यह शालीनता और शर्म का काल था। प्रयाणगीत के डफ डफली बन चुके थे और युद्ध के नगाड़ों की जगह तबले ने ली थी। साम्राज्य की महानता के सुबूत में सिर्फ खंडहर पेश किये जाते थे।

यह सांभर सत्तर अस्सी साल का तो होगा। दादा ने नेपाल की तराई में गिराया था। लोगों की सेवा के लिए एक सींग आधा काट कर रख लिया है। घिस कर लगाने से गुर्दे के दर्द में आराम आ जाता है। दूर-दूर से लोग मांग कर ले जाते हैं। एक बेईमान मरीज ने एक इंच काट कर लौटाया। उसके दोनों गुरदों में दर्द रहता था। मुल्ला आसी अब सींग को अपनी निजी निगरानी में कुरंड की सिली पर घिसवाते हैं। हिंदोस्तान में अभी तक ये जाहिलों के टोटके खूब चलते हैं। वो इसके लेप की तारीफें करने लगे तो मैंने चुटकी ली `मगर मुल्ला गुर्दा तो बहुत अंदर होता है।` बोले हां, तुम्हारे वालिद ने भी पाकिस्तान जाने से पहले तीन-चार बार लेप लगाया था। एक सींग काट कर अपने साथ ले जाना चाहते थे। मैंने मना कर दिया। मैंने कहा, `किब्ला! बारहसिंहों के देस में इस घिसे-घिसाये सींग से काम नहीं चलने का।`


नटराज और मुरदा तीतर

मुल्ला आसी ने एक और यादगार फोटो दिखाया जिसमें मियां तजम्मुल हुसैन नटराज का सा विजयी पोज बनाये खड़े हैं, यानी नीलगाय के सर पर अपना पैर और 12 बोर का कुंदा रखे, खड़े मुस्कुरा रहे हैं, और मैं गले में जस्ते की नमदा-चढ़ी छागल, दोनों हाथों में एक-एक मेलर्ड मुरगाबी (नीलसर) और अपना मुंह लटकाये खड़ा हूं। मियां तजम्मुल हुसैन का दावा था कि थूथनी से दुम की नोक तक नीलगाय की लंबाई वही है जो बड़े से बड़े आदमखोर बंगाल टायगर की होती है। नीलगाय का शिकार हिंदुस्तान में बहुत दिन तक प्रतिबंधित रहा, अब खुल गया है। जब वो फस्लों की फस्लें साफ करने लगे तो नीलगाय को घोड़ा कह कर मारने की इजाजत मिल गयी है। जैसे इंग्लैंड में कालों और सांवलों को ब्लैक नहीं कहते एथनिक्स कह कर ठिकाने लगाते हैं।

ये फोटो चौधरी गुलजार मुहम्मद फोटोग्राफर ने मिनट कैमरे से मियां तजम्मुल हुसैन के घर के अहाते में खींचा था। फोटो खिंचवाने में इतनी देर सांस रोकनी पड़ती थी कि सूरत कुछ से कुछ हो जाती थी। चुनांचे सिर्फ मुर्दा नीलगाय का फोटो अस्ल के मुताबिक था। गुलजार मुहम्मद अक्सर शिकार में साथ लग लेता था। शिकार से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं रही। मेरा मतलब शिकार करने से है, खाने से नहीं। बस! मियां तजम्मुल हुसैन हर समय अपनी अर्दली में रखते थे। खुदा न ख्वास्ता कभी नर्क में भेजे गये तो मुझे यकीन है, अकेले हरगिज नहीं जायेंगे। एलची के तौर पर पी.आर. के लिए पहले मुझे भेज देंगे। शहर से सात-आठ मील पर शिकार-ही-शिकार था। आम तौर पर तांगे में जाते थे।

घोड़ा अपने ही वज्न, अपनी ही शक्ल और अपने ही रंग की नीलगाय को ढो कर लाता था। शिकार के तमाम कर्तव्य और व्यवस्था इस दुखियारे के जिम्मे थी, सिवाय बंदूक चलाने के। उदाहरण के लिए, न सिर्फ ठंसाठस भरा हुआ टिफिन-कैरियर उठाये फिरना, बल्कि अपने घर से सुब्ह चार बजे ताजा तरतराते परांठे और कबाब बनवा कर ठंसाठस भर-कर लाना और सब को ठुंसाना। दिसंबर के कड़कड़ाते जाड़े में तालाब में उतर कर छर्रा खाई हुई मुर्गाबी का पीछा करना। हिरन पर निशाना चूक जाये, जो कि आमतौर पर होता रहता था, तो मियां तजम्मुल हुसैन को कसमें खा-खा कर यकीन दिलाना कि गोली बराबर लगी है, हिरन बुरी तरह लंगड़ाता हुआ गया है। जरा ठंडा होगा तो बेशर्म वहीं पछाड़ खा कर ढेर हो जायेगा। तीतर हलाल होने से पहले दम तोड़ दे तो उसके गले पर पहले हलाल हुए तीतर का खून लगाना भी मेरे दायित्वों में सम्मिलित था। इसलिए कि अगर छुरी फेरने से पहले मर जाये तो हफ्तों मुझे बुरा-भला कहते थे। लिहाजा छर्रा या गोली लगने के बाद मैं जख्मी जानवर की उम्र बढ़ने की प्रार्थना करता था ताकि उसे जिंदा हालत में हलाल कर सकूं।

मुर्दा तीतर और मुर्गाबियां वो सर आर्थर के बंगले पर भिजवा देते थे। भिजवा क्या देते थे, मुझी को साइकिल पर लाद कर ले जाना पड़ता था। पीछे वो कैरियर पर शिकार को खुद अपनी गोद में ले कर बैठते थे कि साइकिल पर बोझ न पड़े। उनका अपना वज्न (खाली पेट) 230 पौंड था। इसके बावजूद मैं बहुत तेज साइकिल चलाता था, वर्ना शिकार की बू पर लपकते कुत्ते फौरन आ लेते। मियां तजम्मुल कहते थे - बंदूक मेरी, कारतूस मेरे, निशाना मेरा, शिकार मेरा, छुरी मेरी, साइकिल मेरी। हद ये कि साइकिल में हवा भी मैंने ही भरी, अब अगर इसे चलाऊं भी मैं ही तो आप क्या करेंगे?

वफा भी हुस्न ही करता तो आप क्या करते?

मुलाहिजा फर्माया आपने। बस! क्या अर्ज करूं! इस यारी में कैसी-कैसी मिट्टी पलीद हुई है। ये तो कैसे कहूं कि मियां तजम्मुल हुसैन ने सारी उम्र मेरे कंधे पर रख कर बंदूक चलाई है। अरे साहब कंधा खाली था ही कहां कि बंदूक रखते। कंधे पर तो वो खुद मय-बंदूक सवार रहते थे। खुदा की कसम! सारी उम्र उनके नाज नखरे ही नहीं Literally खुद उन्हें भी उठाया है।


ऊंट की मस्ती की सजा भी मुझको मिली

ये तो शायद मैं पहले भी बता चुका हूं कि बड़े हाजी साहब, यानी तजम्मुल के वालिद तांगा और मोटर कार रखने को घमंड और काहिली की निशानी समझते थे। साइकिल और ऊंट की सवारी पर अलबत्ता ऐतराज नहीं करते थे। इसलिए कि वो इनकी गिनती इंद्रिय-दमन के साधनों में करते थे। अक्सर फर्माते कि, `मैं पच्चीस साल का हो गया, उस वक्त तक मैंने हीजड़ों के नाच के अलावा कोई नाच नहीं देखा था, वो भी तजम्मुल (अपने बेटे) की पैदाइश पर, छब्बीसवें साल में चोरी-छिपे एक शादी में मुजरा देख लिया तो वालिद साहब ने हंगामा खड़ा कर दिया` मुझे बेदख्ल करने की धमकी दी, हालांकि विरसे में मुझे सिवाय उनके कर्जों के, और कुछ मिलने वाला नहीं था। कहने लगे कि `लौंडा बदचलन हो गया है। चेंवट बिरादरी में मैं पहला बाप हूं जिसकी नाक बेटे के हाथों कटी। चुनांचे बतौर सजा मुझे उधार कपास खरीदने चेंवट से झंग एक मस्ती में आये हुए ऊंट पर भेजा, जिसके माथे से बदबूदार मद रिस रहा था।` चलता कम, बिलबिलाता जियादा था। डूबते सूरज की रौशनी में सरगोधे के पेड़ों के झुंड और हद दिखाई देने लगी तो एकाएक बिदक गया। उसे एक ऊंटनी नजर आ गयी। उसका पीछा करने में सरगोधा पार करके मुझे अपने कूबड़ पर हाथ-हाथ भर उछालता पांच मील आगे निकल गया। मुझे तो एक मील बाद ही ऊंटनी दिखाई देनी बंद हो गयी, इसलिए कि मैं ऊंट नहीं था मगर वो मादा की गंध पर लपका जा रहा था। मैं एक मस्त भूकंप पर सवार था। अंत में ऊंट इंतहाई जोश की हालत में एक दलदल में मुझ समेत घुस गया और तेजी से धंसने लगा। मैं न ऊपर बैठा रह सकता था, न नीचे कूद सकता था। गांव वाले रस्से, सीढ़ी और कब्र खोदने वाले को ले कर आये तो जान बची।

हौदा गज भर चौड़ा था। एक हफ्ते तक मेरी टांगें एक दुखती गुलैल की तरह चिरी-की-चिरी रह गयीं। इस तरह चलने लगा जैसे खतरनाक खूनी-कैदी डंडा-बेड़ी पहन कर चलते हैं या लड़के खत्नों के बाद। मेहतर से कह कर कदमचे एक-एक गज की दूरी पर रखवाये। ऊंट की मस्ती की सजा भी मुझी को मिली। किब्ला का विचार था कि बेटे की चाल देख कर ऊंट भी सुधर गया होगा।


अलीगढ़ कट पाजामा, अरहर की दाल

हाजी साहब किबला ने कानपुर में एक हिंदू सेठ के यहां 1907 में 4 रुपये महीना की नौकरी से शुरुआत की। इंतहाई ईमानदार, दबंग, लंबे और डील-डौल के मजबूत आदमी थे। सेठ ने सोचा होगा उगाही में आसानी रहेगी। दूसरे विश्व युद्ध के बाद हाजी साहब करोड़पति हो गये। मगर रखरखाव में जरा जो बदलाव आया हो। मतलब ये कि खुद को यातना देने तक पहुंची हुई कंजूसी। विनम्रता, बातचीत और ढंग से यही लगता था कि अब भी 4 ही रुपये मिलते हैं। गाढ़ी मलमल का कुरता और टखने से ऊंची चारखाने की लुंगी बांधते थे। शलवार सिर्फ किसी फौजदारी मुकदमे की पैरवी के लिए अदालत में जाने और जनाजे में सम्मिलित होने के अवसर पर पहनते थे। गॉगल्स लगाने वाले, पतलून और चूड़ीदार पाजामा पहनने वाले को कभी उधार माल नहीं देते थे।

कुछ नहीं तो चालीस पैंतालीस बरस तो यू.पी. में जुरूर रहे होंगे, मगर लगी हुई फिरनी, निहारी और अरहर की दाल दुबारा नहीं खाई। न कभी दुपल्ली टोपी और पाजामा पहना। अलबत्ता 1938 में ऑप्रेशन हुआ तो नर्सों ने बेहोशी की हालत में पाजामा पहना दिया जो उन्होंने होश में आते ही उतार फेंका। बकौल शायर-

बेहोश ही अच्छा था, नाहक मुझे होश आया

अक्सर फर्माते कि अगर चिमटे को किसी शरई तकाजे (धार्मिक निर्देश) के तहत या फुकनी के फुसलावे में कुछ पहनना पड़े तो इसके लिए अलीगढ़ कट पाजामे से अधिक उपयुक्त कोई पहनावा नहीं।


नीलगाय और परी जैसे चेहरे वाली नसीम

मैंने मुल्ला आसी को छेड़ा, `अब भी शिकार पर जाते हो?` कहने लगे `अब न फुरसत, न शौक, न गवारा। हिरन अब सिर्फ चिड़ियाघर में दिखाई पड़ते हैं। मैं तो अब मुर्गाबी के परों का तकिया तक इस्तेमाल नहीं करता।` फिर उन्होंने अलगनी पर से एक लीर-लीर बनियान उतारा। कुछ देर रगड़ा तो बातचीत के दूसरे ैनइरमबज के नीचे से एक शीशा और शीशे के नीचे से फोटो बरामद हुआ। ये फोटो चौधरी गुलजार मुहम्मद ने जंगल में शिकार के दौरान खींचा था। इसमें ये दुखियारा और एक चमार काले हिरन को डंडा-डोली करके तांगे तक ले जा रहे हैं। गनीमत है इसमें वो चील कव्वे नजर नहीं आ रहे जो हम तीनों के सरों पर मंडरा रहे थे। क्या बताऊं साहब! हमारे यार ने हमसे क्या-क्या बेगार ली है। मगर सब कुछ गवारा था।

फरिश्तों को कुएं झंकवा दिये इस इश्क जालिम ने

बड़ा खूबसूरत और कड़ियल हिरन था वो। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें बहुत उदास थीं। मुझे याद है, उसे हलाल करते समय मैंने मुंह फेर लिया था। अच्छे शिकारी आमतौर पर काला नहीं मारते। सारी डार बेआसरा, बेसिरी हो जाती है। आपने वो कहावत तो सुनी होगी `काला हिरन न मारो सत्तर हो जायेंगी रांड` चौधरी गुलजार मुहम्मद पिंडी भटियां का रहने वाला, पंद्रह बीस साल से कानपुर में आबाद और नाशाद था। अपने स्टूडियो में ताजमहल और कुतुबमीनार के फोटो, जो उसने खुद खींचे थे, बेचता था। अपने मकान की दीवारों को पिंडी भटियां के दृश्यों से सजा रक्खा था। इसमें उसका फूस के छप्पर वाला घर भी शमिल था, जिस पर तुरई की बेल चढ़ी थी। दरवाजे के सामने एक झिलंगे पर एक बुढ्ढन टाइप के बुजुर्ग हुक्का पी रहे थे। पास ही एक खूंटे से गुब्बारा थनों वाली बकरी बंधी थी। हर दृश्य लैला की तरह था जिसे सिर्फ मजनूं की आंख से देखना चाहिये।

वो देगची को देचगी और तमगा को तगमा कहता तो हम सब उस पर हंसते थे। लंबा-चौड़ा आदमी था। बड़ी से बड़ी हड्डी तोड़ने के लिए भी बुगदा केवल एक बार मारता था। चार-मन वज्नी नीलगाय की खाल आधे घंटे में उतार तिक्का बोटी कर के रख देता था। कबाब लाजवाब बनाता था। हर समय बंबई के सपने देखता रहता था। खाल उतारते समय अक्सर कहता कि कानपुर में नीलगाय के अलावा और क्या धरा है? देख लेना एक दिन मिनर्वा मूवीटोन में कैमरामैन बनूंगा। माधुरी और महताब के क्लोज-अप ले कर भेजूंगा। फिर खुद ही नृत्य करके सैक्सी पोज बनाता और खुद ही काले कपड़े के बजाय अपने सिर पर खून में लिथड़ा हुआ झाड़न डाल कर फर्जी कैमरे से खुद का क्लोज-अप लेता हुआ इमैजिन करता। एक बार इसी तरह परी-चेहरा नसीम का क्लोज अप लेते-लेते उसकी छुरी बहक कर नीलगाय की खाल में घुस गयी। मियां तजम्मुल चीखे, `परी चेहरा गयी भाड़ में। ये तीसरा चरका है। तेरा ध्यान किधर है। खाल दागदार हुई जा रही है` कानपुर में एक लाजवाब Tascidermist था। शेर का सर अलबत्ता बंगलौर भेजना पड़ता था। रईसों के फर्श पर शेर की और मिडिल क्लास घरानों में हिरन की खाल बिछी होती थी। गरीबों के घरों में औरतें गोबर की लिपाई के कच्चे फर्श पर पक्के रंगों से कालीन के से डिजाइन बना लेती थीं।


किस्सा एक मृगछाला का

मुल्ला आसी के कमरे में दरी पर अभी तक निसार अहमद खां की मारी हुई हिरनी की खाल बिछी है। खां साहब के चेहरे, स्वभाव और लहजे में खुशवंत थी। आस्था में हमेशा से वहाबी प्रसिद्ध थे, खुदा जाने। शिकार के लती। मुझ पर बहुत मेहरबान थे। मियां तजम्मुल कहते थे, तुम्हें पसंद करने का कारण तुम्हारा मुंडा हुआ सर और टखने से ऊंचा पाजामा है। गर्राब जहां लगा था, उसका छेद खाल पर ज्यों का त्यों मौजूद है। उसके पेट से पूरे दिनों का बच्चा निकला। किसी ने मांस नहीं खाया। खुद निसार अहमद दो रातें नहीं सोये। इतना असर तो उनके दिल पर उस समय भी नहीं हुआ था जब तीतर के शिकार में उनके फायर के छर्रों से झाड़ियों के पीछे बैठे हुए किसान की दोनों आंखें जाती रही थीं। दो सौ रुपयों में मामला रफा-दफा हुआ।

हिरनी वाली घटना के तीन महीने के अंदर-अंदर उनका इकलौता बेटा जो बी.ए. में पढ़ रहा था, जख्मी मुर्गाबी को पकड़ने की कोशिश में तालाब में डूब कर मर गया। कहने वालों ने कहा ग्याभन, गर्भवती का श्राप लग गया। जनाजा दालान में ला कर रखा गया तो जनाने में कोहराम मच गया, फिर एक भिंची-भिंची चीख कि सुनने वाले की जती फट जाये। निसार अहमद खां ने भर्रायी हुई आवाज में कहा, `बीबी! सब्र, सब्र, सब्र` ऊंची आवाज में रोने से अल्लाह के रुसूल ने मना किया है। वो बीबी खामोश हो गयी, पर खिड़की के जंगले से सर टकरा-टकरा के लहूलुहान कर लिया। मांग खून से भर गयी। लाश कब्र में उतारने के बाद जब लोग कब्र पर मिट्टी डाल रहे थे तो बाप दोनों हाथ से अपने सफेद सर पर मुट्ठी भर-भर के मिट्टी डालने लगा। लोगों ने बढ़ कर हाथ पकड़े।

मुश्किल से छह महीने बीते होंगे कि बीबी को सब्र के लिए समझाने वाला कफन ओढ़ के मिट्टी में जा सोया। वसीयत के मुताबिक कब्र बेटे के पहलू में बनायी गयी है। उनकी पांयती बीबी की कब्र है। बड़ी मुश्किल से कब्र मिली। शहर तो फिर भी पहचाना जाता हैं कब्रिस्तान तो बिल्कुल बदल गया है। पहले हर कब्र को सारा शहर पहचानता था कि मरने वाले से जन्म-जन्म का नाता था। साहिब! कब्रिस्तान भी सीख लेने की जगह है। कभी जाने का मौका मिलता है तो हर कब्र को देख कर ध्यान आता है कि जिस दिन इसमें लाश उतरी होगी, कैसा कुहराम मचा होगा। रोने वाले कैसे बिलख-बिलख कर, तड़प-तड़प कर रोये होंगे। फिर यही रोने वाले दूसरों को रुला-रुला कर यहीं बारी-बारी मिट्टी का पैवंद होते चले गये। साहब! यही सब कुछ होना है तो फिर कैसा शोक किसका दुख, काहे का रोना।

बात दरअस्ल मृगछाला से निकली थी। एक बार मैंने लापरवाही से होल्डर झटक दिया था। रौशनाई के छींटे अभी तक खाल पर मौजूद हैं। मैंने देखा कि आसी खाल पर पांव नहीं रखते। सारे कमरे में यही सबसे कीमती चीज है। आपने भी किसी बिजनेस एक्जीक्यूटिव का जिक्र किया था, जिसके इटालियन मार्बल के फ्लोर पर हर साइज के ईरानी कालीन बिछे हैं। कमरे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाना हो तो वो इन पर कदम नहीं रखते। इनसे बच-बच कर नंगी राहदरियों पर इस तरह कदम रखते आड़े-तिरछे जाते हैं जैसे वो खुद सांप-सीढ़ी की गोट हों। अरे साहब! मैं भी एक बिजनेसमैन को जानता हूं। उनके घर पर कालीनों के लिए फर्श पर जगह न रही तो दीवारों पर लटका दिये। कालीन हटा-हटा कर मुझे दिखाते रहे कि इनके नीचे निहायत कीमती रंगीन मारबल है।

मैं भी किन यादों की भूल-भुलैया में आ निकला। वो मनहूस बंदूक निसार अहमद खां ने मुल्ला आसी को बख्श दी कि उनके बेटे के जिगरी दोस्त थे। दंगों के समय पुलिस ने सारे मुहल्ले के हथियार जमा कराये तो ये बंदूक भी मालखाने पहुंच गयी, फिर उसकी शक्ल देखनी भी नसीब नहीं हुई। केवल मुहर लगी रसीद हाथ में रह गयी। दौड़-धूप तो बहुत की, एक वकील भी किया। मगर थानेदार ने कहला भेजा कि, `डी.आई.जी. को पसंद आ गयी है। जियादा ऊधम मचाओगे तो बंदूक तो मिल जायेगी मगर पुलिस तुम्हारे यहां से शराब खेंचने वाली भट्टी बरामद करवा लेगी। तुम्हारे सारे रिश्तेदार पाकिस्तान जा चुके हैं। तुम्हारा मकान भी इवेक्वेट प्रोपर्टी घोषित किया जा सकता है, सोच लो।

चुनांचे उन्होंने सोचा और चुप हो रहे। अल्लाह, अल्लाह, एक समय था शहर कोतवाल उनके बाबा से मिलने तीसरे-चौथे आता था। परडी की बड़ी नायाब बंदूक थी। आजकल छह लाख कीमत बतायी जाती है, मगर साहब मुझसे पूछिये तो छह लाख की बंदूक से नरभक्षी शेर, नरभक्षी राजा या खुद से कुछ कम मारना, इतनी कीमती बंदूक का अपमान है। मुल्ला आसी अभी तक जब्त की हुई बंदूक की मुहर लगी रसीद और लाइसेंस दिखाते हुए कहते हैं कि आधा मील दूर से उसका गर्राब उचटता हुआ भी लग जाये तो काला (ब्लैक बक) पानी न मांगे।


स्वाभाविक मृत्यु

पुराने दोस्त जब मुद्दतों के बाद मिलते हैं तो कभी-कभी बातों में अचानक एक तकलीफदे मौन का अंतराल आ जाता है। कहने को इतना होता है कि कुछ भी तो नहीं कहा जाता। हजार यादें, हजार बातें उमड़ कर आती हैं और कुहनी मार-मार कर, कंधे पकड़-पकड़ कर एक-दूसरे को आगे बढ़ने से रोकती हैं। पहले मैं, पहले मैं। तो साहब! मैं एक ऐसे ही अंतराल में उनकी बदहाली और कंगाली पर दिल-ही-दिल में तरस खा रहा था और सोच रहा था कि अगर वो हमारे साथ पाकिस्तान आ गये होते तो सारे दलिद्दर दूर हो जाते। अचानक उन्होंने मौन तोड़ा। कहने लगे, तुम वापिस क्यों नहीं आ जाते। तुम्हारे हार्ट अटैक की जिस दिन खबर आई तो यहां रोनी पड़ गयी। तुम्हें ये राजरोग, रईसों की बीमारी कैसे लगी। सुना है, मैडिकल साइंस को अभी तक इसका कारण पता नहीं चला। मगर मुझे विश्वास है कि एक-न-एक दिन ऐसा माइक्रोस्कोप जुरूर बना लिया जायेगा जो इस बीमारी के कीटाणु करैंसी नोटों में ट्रेस कर लेगा। खुदा के बंदे! तुम काहे को पाकिस्तान चले गये।

यहां किस चीज की कमी है। देखो! वहां तुम्हें हार्ट अटैक हुआ। मियां तजम्मुल हुसैन को हुआ, मुनीर अहमद का बाईपास हुआ, जहीर सिद्दीकी के पेसमेकर लगा, मंजूर आलम के दिल में छेद निकला मगर मुझे विश्वास है पाकिस्तान में ही हुआ होगा, यहां से तो साबुत-सलामत गये थे। खालिद अली लंदन में एन्जियोग्राफी के दौरान मेज पर ही अल्लाह को प्यारे हो गये। और! तो और दुबले सींक-छुआरा भय्या एहतशाम भी लाहौर में हार्ट-अटैक में गये। सिब्तैन और इंस्पेक्टर मलिक गुलाम रुसूल लंगड़याल को हार्ट-अटैक हुआ। मौलाना माहिर-उल-कादरी को हुआ। यूं कहो, किसको नहीं हुआ। भाई मेरे, यहां मानसिक शांति है, त्याग है, सब अल्लाह-भरोसे है। यहां किसी को हार्ट-अटैक नहीं होता, हिंदुओं में अलबत्ता केसेज होते रहते हैं।

यानी सारा जोर किस पर हुआ? इस पर कि कानपुर में हर आदमी स्वाभाविक मौत मरता है। हार्ट-अटैक से बेमौत नहीं मरता। अरे साहब! मेरे हार्ट-अटैक को तो उन्होंने खूंटी बना लिया और जिस पर जान-पहचान के गड़े मुर्दे उखाड़-उखाड़ कर टांगते चले गये। मुझे तो सब नाम याद भी नहीं रहे। दूसरे हार्ट अटैक के बाद मैंने दूसरों की राय से असहमत होना छोड़ दिया है। अब अपनी राय हमेशा गलत समझता हूं। सब खुश रहते हैं, लिहाजा चुपका बैठा सुनता रहा और वो उन सौभाग्यवान मृतकों का नाम गिनवाते रहे जो हार्ट अटैक में नहीं मरे, किसी और बीमारी में मरे।

`अपने मौलवी मोहतशिम टी.बी. में मरे। खान बहादुर अजमतुल्लाह खां के पोते सीनियर क्लर्क हमीदुल्ला का गले के कैंसर में देहांत हुआ। शहनाज के मियां, आबिद हुसैन वकील, हिंदू-मुस्लिम दंगे में मारे गये। कायमगंज वाले अब्दुल वहाब खां पूरे पच्चीस दिन टाइफाइड से जकड़े रहे। हकीम की कोई दवा काम न आई। पूरे होशो-हवास के साथ दम छोड़ा। मरने से दो मिनट पहले हकीम का पूरा नाम ले कर गाली दी। मुंशी फैज मुहम्मद हैजे में एक दिन में चटपट हो गये। हाफिज फखरुद्दीन फालिज में गये, मगर अल्लाह के करम से हार्ट अटैक किसी को नहीं हुआ। कोई भी अस्वाभाविक मौत नहीं मरा। पाकिस्तान में मेरी जान-पहचान का कोई शख्स ऐसा नहीं जिसके दिल का बाईपास नहीं हुआ। यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं जब खाते-पीते घरानों में खत्ने और बाईपास एक साथ होंगे।

फिर वो आवागमन और निर्वाण की फिलासफी पर लैक्चर देने लगे। बीच लैक्चर में उन्हें एक और उदाहरण याद आ गया। अपनी ही बात काटते हुए और महात्मा बुद्ध को बोधिवृक्ष के नीचे अकेला ऊंघता छोड़ कर कहने लगे, `हद ये है कि ख्वाजा फहीमुद्दीन का भी हार्ट फेल नहीं हुआ। बीबी के मरने के बाद दोनों बेटियां ही सब कुछ थीं। उन्हीं में मगन थे। एक दिन अचानक पेशाब बंद हो गया। डाक्टर ने कहा प्रोस्टेट बढ़ गया है। फौरन एमरजेन्सी में आप्रेशन करवाना पड़ा, जो बिगड़ गया। तीन चार महीने में लोटपोट के ठीक हो गये।

लेकिन बड़ी बेटी ने बिना खबर दिये अचानक एक हिंदू वकील और छोटी ने एक सिख ठेकेदार से शादी कर ली तो जानो कमर टूट गयी। पुरानी चाल और पुराने खयाल के आदमी हैं। अटवाटी-खटवाटी लेकर पड़ गये और उस वक्त तक पड़े रहे, जब तक उस क्रिस्चियन नर्स से शादी न कर ली जिसने प्रोस्टेट के आप्रेशन के दौरान उनका गू-मूत किया था। वो कट्टो तो जैसे उनके इशारे के इंतजार में बैठी थी। इन्हीं की तरफ से हिचर-मिचर थी।

बाप के सेहरे के फूल खिलने की खबर सुनी तो दोनों भागी हुई बेटियों ने कहला भेजा हम ऐसे बाप का मुंह देखें तो बुरे जानवर (सुअर) का मुंह देखें। वो चीखते ही रह गये कि कमबख्तो! मैंने कम-से-कम ये काम शरीयत के हिसाब से तो किया है। मियां! ये सब कुछ हुआ, मगर हार्ट अटैक ख्वाजा फहीमुद्दीन को भी नहीं हुआ। तुम्हारे हार्ट अटैक की खबर सुनी तो देर तक अफसोस करते रहे। कहने लगे, यहां क्यों नहीं आ जाते? साहब! मुझसे न रहा गया। मैंने कहा, प्रोस्टेट बढ़ गया तो मैं भी आ जाऊंगा।

पिंडोले का पियाला : लड़कपन में खाने के मामले में बड़े नफासत पसंद थे। दोप्याजा गोश्त, लहसुन की चटनी, सिरी पाये, कलेजी, गुर्दे, खीरी और मग्जे से उन्हें बड़ी घिन आती थी। दस्तरख्वान पर कोई ऐसी डिश हो तो भूखे उठ जाते थे। इस विजिट में एक जगह मेरे सम्मान में दावत हुई तो भुना हुआ मग्ज भी था। साहब! लहसुन का छींटा दे दे कर भूना जाये तो सारी बसांद निकल जाती है बशर्ते कि गर्म-मसाला जरा बोलता हुआ और मिर्चें भी चहका मारती हों। मुझे ये देख कर आश्चर्य हुआ कि उन्होंने खाया भी और बुरा भी न माने। मैंने पूछा, हजरत, ये कैसी बदपरहेजी? बोले, जो सामने आ गया, जो कुछ हम पर उतरा, खा लिया। हम इन्कार करने, मुंह बनाने वाले कौन।

फिर कहने लगे, `भाई! तुमने वो भिक्षु वाला किस्सा नहीं सुना, भिक्षु से सात बरस भीख मंगवायी जाती थी ताकि घमंड का फन ऐड़ियों तले बिल्कुल कुचल जाये। इसके बगैर आदमी कुछ पा नहीं सकता। भिक्षा-पात्र को महात्मा बुद्ध ने सम्राट का मुकुट कहा है। भिक्षु को कोई अगर एक समय से अधिक का खाना देना भी चाहे तो भी वो स्वीकार नहीं कर सकता और जो कुछ भी उसके पात्र में डाल दिया जाये उसे बिना ना-नुकर के खाना उसका कर्तव्य है। पाली के पुराने ग्रंथों में आया है कि पिंडोले नाम के एक भिक्षु के पात्र में एक कोढ़ी ने रोटी का टुकड़ा डाला। डालते समय उसका कोढ़ से गला हुआ अंगूठा भी झड़ कर पात्र में गिर गया। पिंडोले को दोनों का स्वाद एक सा लगा, यानी कुछ नहीं।

साहब! वो तो ये किस्सा सुना कर सर झुकाये खाना खाते रहे, मगर मेरा ये हाल कि मग्ज तो एक तरफ रहा, मेज पर रखा सारा खाना जहर हो गया। साहब! अब उनका दिमाग भी पिंडोले का पात्र हो गया है।


मुल्ला भिक्षु

लड़की की आत्महत्या वाली घटना 1953 की बतायी जाती है। सुना है, उस दिन के बाद अपने में सिमट आये और पढ़ाने का मेहताना लेना छोड़ दिया। तीस साल हो गये, किसी ने कुछ खिला दिया तो खा लिया वरना तकिया पेट पर रखा और घुटने सिकोड़, दोनों हाथ जोड़, उन्हें दायें गाल के नीचे रख कर सो जाते हैं। क्या कहते हैं इसको? जी, Foetal Posture! उर्दू में इसे कोख-आसन या जन्म-आसन (गर्भासन) कह लीजिये मगर मैं आपकी इस फ्रायड वाली बात से बिल्कुल सहमत नहीं। आप खुद भी तो इस तरह कुंडली मार कर सोते हैं मगर इसका कारण तपस्या नहीं अल्सर है।

मुल्ला आसी भिक्षु कहते हैं कि महात्मा बुद्ध भी दाहिने पांव पर बायां पांव और सर के नीचे हाथ रख कर दाहिनी करवट सोते थे। इसे सिंह शय्या कहते हैं। भोग विलासी यानी अय्याश बायीं करवट सोते हैं। इसे कामभोगी शय्या कहते हैं। ये मुझे इन्हीं से पता चला कि बदचलन आदमी केवल सोने के आसन से भी पकड़ा जा सकता है। बहरहाल, अब हाल ये है कि जो किसी ने पहना दिया, पहन लिया, जो मिल गया, खा लिया। जिससे मिला जैसा मिला, जब मिला। जहां थक गये वहीं रात हो गयी। जहां पड़ रहे, वहीं रैन बसेरा। तन तकिया, मन विश्राम। चार-चार दिन घर नहीं आते, मगर क्या अंतर पड़ता है।

जैसे कंथा घर रहे वैसे रहे बिदेस

खुदा भला करे उनके चेलों का। वही-देख रेख करते हैं। ऐसे चाहने वाले, सेवा करने वाले शिष्य नहीं देखे।

एक दिन मुल्ला हाथ का पियाला-सा बना कर कहने लगे। बस मुट्ठी भर दानों के लिए बंजारा कैसा घबराया, कैसा बौलाया फिरता है। हर व्यक्ति पर अगर ये खुल जाये कि जीवन जीना कितना आसान है तो ये सारा कारखाना ठप्प हो जाये, ये सारा पाखंड, ये सारा आडंबर पल-भर में खंडित हो जाये। हर आदमी का शैतान उसके अंदर होता है और इच्छा इस शैतान का दूसरा नाम है। आदमी अपनी इच्छाओं को जितना बढ़ाता और हुशकारता जायेगा, उसका मन उतना ही कठोर और उसका जीवन उतना ही कठिन होता जायेगा। डायनासौर का बदन जब इतना बड़ा हो गया और खाने की इच्छा इतनी विकट हो गयी कि जिंदा रहने के लिए उसे लगातार चौबीस घंटे चरना पड़ता था तो उसकी प्रजाति ही नष्ट हो गयी। खाना केवल इतनी मात्रा में ही उचित है कि शरीर और प्राण का संबंध बना रहे। बदन दुबला होगा तो आत्मनियंत्रण होना सहज है। मैंने आज तक कोई पतला मौलवी नहीं देखा। भरे-पेट इबादत और खाली-पेट अय्याशी नहीं हो सकती।

ये कहते हुए वो मेज पर से अपने अनुवाद किये हुए बोध मंत्रों की हस्तलिखित प्रति उठा लाये और इसकी प्रस्तावना से श्लोक पढ़ने वाली शैली में लहक-लहक कर भूमिका सुनाने लगे।

बोधिसत्व ने भगवान सचक से कहा ऐ अगी वेसन! जब मैं दांतों पर दांत जमा कर और जीभ को तालु से लगा कर अपने मन-मस्तिष्क को नियंत्रण में करने की कोशिश करता था तो मेरी बगलों से पसीना छूटने लगता था। जिस तरह कोई बलवान आदमी किसी कमजोर आदमी का सर या कंधा पकड़ कर दबाता है, ठीक उसी तरह मैं अपने दिल और दिमाग को दबाता था, ऐ अगी वेसन! इसके बाद मैंने सांस रोक कर तपस्या की। इस समय मेरे कानों से सांस निकलने की आवाजें आने लगीं। लोहार की धोंकनी जैसी ये आवाजें बहुत तेज थीं। फिर ऐ अगी वेसन! मैं सांस रोक कर और कानों को हाथों से दबा कर तपस्या करने लगा। ऐसा करने से मुझे यों लगा जैसे कोई तलवार की तेज नोक से मेरे माथे को छलनी कर रहा है, फिर भी ऐ अगी वेसन! मैंने अपनी तपस्या जारी रखी।

ऐ अगी वेसन! तपस्या और उपवास से मेरा शरीर दिन प्रतिदिन कमजोर पड़ता गया। बांस की गांठों की तरह मेरे शरीर का जोड़-जोड़ साफ दिखाई देता था। मेरा कूल्हा सूख कर ऊंट के पांव की तरह हो गया। मेरी रीढ़ की हड्डी सूत की तकलियों की माला की तरह दिखाई देती थी। जिस तरह गिरे हुए मकान की बल्लियां ऊपर नीचे हो जाती हैं मेरी पसलियों की भी वही दशा हो गयी। मेरी आंखें किसी गहरे कुएं में सितारों की परछाईं की तरह अंदर को धंस गयीं। जैसे कच्चा-कड़वा कद्दू काट कर धूप में डाल देने से सूख जाता है वैसे ही मेरे सर की चमड़ी सूख गयी। जब पेट पर हाथ फेरता था तो मेरे हाथ में रीढ़ की हड्डी आ जाती थी और जब पीठ पर हाथ फेरता तो हाथ पेट की चमड़ी तक पहुंच जाता था। इस तरह मेरी पीठ और पेट बराबर हो गये। शरीर पर हाथ फेरता तो बाल झड़ने लगते थे।`

ये पढ़ने के बाद जरा-सी ढील दी, आंखें मूंद लीं। मैं समझा ध्यान-ज्ञान की गोद में चले गये हैं। जरा देर बाद आंखें बस इतनी खोलीं कि पलक से पलक जुदा हो जाये। जब वो ध्यान की सातवीं सीढ़ी पर झूम रहे थे, हाथ का चुल्लू बना कर कहने लगे, `एक प्यास वो होती है जो घूंट-दो-घूंट पानी से बुझ जाती है, एक वो होती है कि जितना पानी पियो, प्यास उतनी ही भड़कती है। हर घूंट के बाद जबान में कांटे पड़ते चले जाते हैं। आदमी आदमी पर निर्भर है। किसी को काया मोह, किसी को धन-धरती की प्यास लगती है। किसी को ज्ञान और प्रसिद्धि की, किसी को खुदा के बंदों पर खुदायी की और किसी को औरत की प्यास है, जो बेहताशा लगी चली जाती है पर सबसे जियादा बेचैन करने वाली वो झूठी प्यास है जो इंसान अपने ऊपर ओढ़ लेता है। ये प्यास नदियों, बादलों और ग्लेशियरों को निगल जाती है और बुझती नहीं है। इंसान को दरिया-दरिया बंजर-बंजर लिए फिरती है, बुझाये नहीं बुझती। आग-आग, फिर होते-होते यह अनबुझ प्यास खुद इन्सान को ही पिघला कर पी जाती है।

कुरआन में आया है कि, `जब जालूत लश्कर ले कर चला, तो उसने कहा, एक दरिया पर अल्लाह की तरफ से तुम्हारी परीक्षा होने वाली है। जो उसका पानी पियेगा वो मेरा साथी नहीं। मेरा साथी सिर्फ वो है, जो इससे प्यास न बुझाये। हां! एक आध चुल्लू कोई पी ले तो पी ले, मगर एक छोटे गिरोह के अलावा सभी ने इसका भरपूर पानी पिया। फिर जब जालूत और उसके साथी दरिया पार करके आगे बढ़े तो उन्होंने जालूत से कह दिया कि आज हममें दुश्मन और उसके लश्करों का सामना करने की ताकत नहीं।` सो इस दरिया के किनारे सबका इम्तहान होता है। जिसने उसका पानी पी लिया उसमें बुराई का मुकाबला करने की ताकत नहीं रही। जीत उसकी, निजात उसकी जो बीच दरिया से प्यासा लौट आये।

देखा आपने, बस इसी कारण मुल्ला भिक्षु कहलाते हैं। बातचीत बालों से भी अधिक खिचड़ी और आस्था के नियम उनसे अधिक रंग-बिरंग, सूफियों की-सी बातें करते करते, अचानक साधुओं का-सा बाना धारण कर लेते हैं। शब्दों के सर से अनायास अमामा (अरबी पगड़ी) उतर जाता है और हर शब्द, हर अक्षर की जटायें निकल आती हैं। आबे-जमजम से वजू करके भभूत रमा लेते हैं। अभी कुछ है, अभी कुछ। आपको ऐसा महसूस होगा कि भटक कर कहां-से-कहां जा निकले।

कश्का खेंचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया

और कभी ऐसा महसूस करा देंगे जैसे गौतम बुद्ध ने वृक्ष तले अपनी समाधि छोड़ कर नमाज की टोपी पहन ली है। मगर कभी एक बिंदु पर टिकते नहीं हैं। टिड्डे की तरह एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे पर फुदकते रहते हैं। मैंने एक दिन छेड़ा। मौलाना, कुछ आलिमों के विचार में इस्लाम छोड़ने वाले मुरतद की सजा कत्ल है। इशारा समझ गये, मुस्कुरा दिये। कहने लगे, जिसने पहले ही खुदकुशी कर ली हो उसे सूली पे लटकाने से फायदा -

तमाम चेहरे हैं मेरे चेहरे

तमाम आंखें हैं मेरी आंखें

अपने तमाम प्यार और गर्मजोशी के बावजूद भी वो मुझे अच्छे-खासे बेतअल्लुक लगे। एक तरह की सूफियों वाली तटस्थता और निस्पृहता-सी आ गयी है, रिश्तों में भी। एक दिन कहने लगे, कोई वस्तु हो या व्यक्ति उससे नाता जोड़ना ही दुख का मूल कारण है। फिर इंसान की सांस छोटी और उड़ान ओछी हो जाती है। इंसान जी कड़ा करके हर चीज से नाता तोड़ ले तो दुख और सुख के अंतहीन चक्कर से बाहर निकल जाता है। फिर वो सुखी रहता है न दुखी।

मेरी वापसी में दो दिन रह गये तो मैंने छेड़ा, `मौलाना यहां बहुत रह लिए, जोरू न जाता, कानपुर से नाता। अब मेरे साथ पाकिस्तान चलो। सब यार-दोस्त, सारे संगी-साथी वहीं हैं।`

`पुरखों के हाड़-हड़वार (हड्डियां) तो यहीं हैं।`

`तुम कौन से इन पर फातिहा पढ़ते हो या जुमेरात की जुमेरात फूलों की चादर चढ़ाते हो, जो छूटने का दुख हो।`

इतने में एक चितकबरी बिल्ली अपना बच्चा मुंह में दबाये उनके कमरे में दाखिल हुई। नेमतखाने में बंद कबूतर सहम-कर कोने में दुबक गये। बिल्ली के पीछे पड़ौसी की बच्ची मैना का पिंजरा हाथ में लटकाये और अपनी गुड़िया दूसरी बगल में दबाये आई और कहने लगी कि सुब्ह से इन दोनों ने कुछ नहीं खाया। बोलते भी नहीं, दवा दे दीजिये। उन्होंने बीमार गुड़िया की नब्ज देखी और मैना से उसी के लहजे में बोलने लगे तो मैना उन्हीं के लहजे में बोलने लगे लगी। उन्होंने एक डिब्बे में से लेमन ड्रॉप निकाल कर बच्ची को दी। उसने उसे चूसा तो गुड़िया को आराम आ गया। वो मुस्कुरा दिये फिर बहस का सिरा वहीं से उठाया जहां से बिल्ली, बच्ची और मैना के अचानक आने से टूट गया था। मुझसे कहने लगे, `यहां मैं सबके दुख दर्द में साझी हूं, वहां मेरी जुरूरत किसको होगी? वहां मुझ-सा गरीब कौन होगा, यहां मुझसे भी गरीब हैं।`

खुदा के बंदे! एक बार चल कर तो देखो, पाकिस्तान का तुम्हारे दिमाग में कुछअजीब-सा नक्शा है। वहां भी दुखी बसते हैं। हमारी खातिर ही चलो, एक हफ्ते के लिए ही सही।

`कौन पूछेगा मुझको मेले में?`

तो फिर यूं समझो कि जहां सभी ताज पहने बैठे हों वहां नंगे सिर आदमी, धरती पे बैठा आदमी सबसे उजागर होता है।

खुदा जाने सचमुच कायल हुए या केवल जिच हो गये, कहने लगे, `बिरादर, मैं तो तुम्हें दाना डाल रहा था। अब तुम कहते हो कि हमारी छतरी पे आन बैठो। खैर, चला तो चलूं, मगर खुदा जाने इन कबूतरों का क्या होगा?`

`ये खुदा की नीयत पर नहीं, बिल्ली की नीयत पर है, मगर सुनो तुम खुदा के कब से कायल हो गये?`

`मैंने तो मुहावरा कहा था। सामने जो जामुन का पेड़ देख रहे हो, ये मेरे दादा ने लगाया था। जिस समय पौ फटती है और इस खिड़की से सुब्ह का सितारा नजर आना बंद हो जाता है या जब दोनों वक्त मिलते हैं और शाम का झुटपुटा-सा होने लगता है तो इस पर अनगिनत चिड़ियां जी-जान से चहचहाती हैं कि दिल को कुछ होने-सा लगता है। इस जामुन की देखभाल कौन करेगा?`

`अव्वल तो इस बूढ़े जामुन को तुम्हारी और बुद्धिज्म की जुरूरत नहीं, गोबर की खाद की जुरूरत है; दूसरे, तुम्हें भ्रम हो रहा है। महात्मा बुद्ध को निर्वाण जामुन के नीचे नहीं, पीपल-तले प्राप्त हुआ था। और अगर तुम पशु, पक्षी और पेड़ की सेवा के बगैर जिंदा नहीं रह सकते तो कराची के कमजोर गधों और लाहौर की अपर-मॉल की जामनों की रखवाली करके शौक पूरा कर लेना।`

`मैं आऊंगा, लाहौर एक दिन जरूर आऊंगा। मगर फिर कभी और,`

`अभी मेरे साथ चलने में क्या परेशानी है?`

`इन बच्चों का क्या होगा?`

`होगा क्या? बड़े हो जायेंगे, तुम्हें कोई मिस नहीं करेगा। आखिर को तुम मर गये, तब क्या होगा?`

`तो क्या हुआ। ये बच्चे - इन बच्चों के बच्चे तो जिंदा रहेंगे। सीनों में उजाला भर रहा हूं। मर गया तो उनके मुंह से बोलूंगा। इनकी अवतार आंखों से देखूंगा।`

बिशारत की जबानी कहानी यहीं खत्म होती है।


नेपथ्य कथा

लो वो भी हार्ट अटैक में गये : 3 दिसंबर, 1985 को सूरज उगने से जरा पहले, जब उन्हीं के शब्दों में, जामुन पर चिड़ियां इस तरह चहचहा रही थीं, जैसे जी जान से गुजर जायेंगी, मुल्ला अब्दुल मन्नान आसी का हृदयगति रुक जाने से देहांत हो गया। मुहल्ले की मस्जिद के इमाम ने कहला भेजा, इस्लामद्रोही के जनाजे की नमाज जायज नहीं। जिसके अस्तित्व के ही मियां कायल न थे उससे बख्शिश की दुआ का क्या मतलब। बड़ी देर तक जनाजा जामुन तले रखा रहा। अंत में उनके एक प्रिय शिष्य ने नमाज पढ़ाई, सैकड़ों लोग सम्मिलित हुए। दफ्न से पहले उनके ब्लैक-बॉक्स का ताला मुहल्ले वालों के सामने खोला गया। इसमें स्कूल की कापी के एक पन्ने पर पेंसिल से लिखी हुई तहरीर मिली। लिखा था, `मरने के बाद मेरी जायदाद (जिसका विस्तृत विवरण और हाल आप पिछले पृष्ठों में पढ़ चुके हैं) नीलाम करके कबूतरों का ट्रस्ट बना दिया जाये और ध्यान रखा जाये कोई गोश्त खाने वाला ट्रस्टी न बनाया जाये।' ये भी लिखा था - `मुझे कानपुर में न दफ्न किया जाये, लाहौर में मां के कदमों में लिटा दिया जाये।`