खोया पानी / भाग 24 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है

वही होता है जो मंजूरे-खुदा होता है

इस सुधार के बाद भी जो कुछ बाकी रह गया वो खुदा को मंजूर हो तो हो, उन्हें हरगिज मंजूर नहीं था परंतु भोंडी बॉडी से अलग, रिबोरिंग के बाद जब वो चली तो सारी कुढ़न दूर हो गयी। अब वो स्टार्ट होने और चलने में ऐसी अनावश्यक फुर्ती और नुमाइशी चुस्त दिखाने लगी जैसे रिटायर्ड लोग नौकरी में एक्सटेंशन से पहले या कुछ बुड्ढे दूसरी शादी के बाद दिखाते हैं। बाथरूम में भी जॉगिंग करते हुए जाते हैं। जीने पर दो-दो सीढ़ियां फलांगते चढ़ते हैं। पहले दिन सुब्ह नौ बजे से शाम के छः बजे तक इस ट्रक-नुमा कार या कार-नुमा ट्रक से लकड़ी की डिलीवरी होती रही। कार की दिन-भर की आमदनी यानी 45 रुपये (जो आज के 450 रुपये के बराबर थे) को पहले उन्होंने 30 दिन और बाद में 12 महीने से गुणा किया तो हासिल 16200 रुपये निकला। दिल ने कहा 'जब कार की कुल कीमत 3483 रुपल्ली है! पगले! इसे गुजर प्राप्ति नहीं, जीवन प्राप्ति कहो! वो बड़ी देर तक पछताया किये कि कैसी मूर्खता थी, इससे बहुत पहले कार को ट्रक में क्यों न परिवर्तित करवा लिया। मगर हर मूर्खता का एक समय निश्चित है। अचानक 'वही होता है जो मंजूरे-खुदा होता है' उनके जह्न में आया और वो अनायास मुस्कुरा दिये।


मेरा भी तो है !

तीन-चार सप्ताह गाड़ी किसी तरह चली, हालांकि किराये का वो आनंददायक औसत न रहा। नौ-दस बार वर्कशाप भेजनी पड़ी। मिस्त्री ने पूरे एक महीने की गारंटी दी थी। अल्बत्ता गधा-गाड़ी वाला रोज सुब्ह पता करने आता कि आज कहां और किस समय आऊं, फिर एक दिन ऐसा हुआ कि बिशारत ने उस पर दो ग्राहकों की खरीदी हुई सात हजार रुपये की लकड़ी लदवा कर खलीफा को दस बजे डिलीवरी के लिए रवाना कर दिया। कोई दो बजे होंगे कि वो हांपता-कांपता आया। बार-बार अंगोछे से आंखें पोंछ कर नाक से सुड़-सुड़ कर रहा था। कहने लगा 'सरकार! मैं लुट गया, बर्बाद हो गया, अल्लाह मुझे उठा ले' बिशारत समझ गये कि इसकी सदा रोगी बीबी की मौत हो गयी है। उसे समझाने लगे कि खुदा की मर्जी में किस का दख्ल है, सब्र से काम लो, वही होता है जो..। लेकिन जब उसने कहा कि 'कूक करूं तो जग हंसे, चुपके लागे घाव, सरकार मेरा दिल खून के आंसू रो रहा है,' तो बिशारत की चिंता कुछ कम हुई कि जो व्यक्ति अत्यंत दुःख के अवसर पर भी शेर और मुहावरे के साथ रोये वो आपकी सहानुभूति नहीं अपने भाषा-ज्ञान की दाद चाहता है। जब खलीफा अंगोछा मुंह पर डाल कर जोर-जोर से बखान करके रोने लगा तो अचानक उन्हें खयाल आया कि नुकसान इस हरामखोर का नहीं मेरा हुआ है! कहने लगे 'अबे! कुछ तो बोल इस बार मेरा क्या नुकसान हुआ है?' बनावटी सिसकियों के बीच बोला 'मेरा भी तो है!' फिर सारी कहानी बतायी - गाड़ी बहुत 'ओवर लोड' थी, फर्स्ट गियर में भी बार-बार दम तोड़ रही थी। सड़क के मोड़ तक तो जैसे-तैसे वो लौंडों के धक्कों और नारों के जोर से ले गया, लेकिन चौराहे पर स्प्रिंग जवाब देने लगे। उसने बोझ हल्का करने के लिए आधी लकड़ी उतार कर मस्जिद की सीढ़ियों के पास बड़ी अच्छी तरह लगा दी और बाकी माल की डिलीवरी देने दूसरी जगह चला गया। वहां प्लाट पर कोई नहीं था। डिलीवरी दिये बिना वापस मस्जिद आया तो लकड़ी गायब! 'सरकार! मैं दिन-दहाड़े लुट गया! बरबाद हो गया'

अगले वक्तों के हैं ये लोग, इन्हें कुछ न कहो

अब उन्हें स्वयं अपनी मूर्खता पर भी अफसोस होने लगा कि साढ़े तीन हजार की खटारा कार में दुगनी मालियत यानी साढ़े सात हजार का माल भेजना कहां की बुद्धिमानी है। काश! चोर लकड़ी के बजाय कार ले जाता, जान छूटती। उन्हें यकीन था कि खलीफा आदत से बाज नहीं आया होगा। भरी गाड़ी खड़ी करके कहीं हजामत बनाने, खत्ना करने या किसी जजमान से शादी-ब्याह की बधाई वसूल करने चला गया होगा। कई बार ऐसी हरकत कर चुका था। पहाड़ का टलना संभव है, आदत का बदलना संभव नहीं वाली कहावत अचानक उन्हें याद आई और यह भी याद आया कि यह कहावत अपने हवाले से उन्होंने पहली बार मास्टर फाखिर हुसैन से सुनी थी। क्लास में शरारत करने पर मास्टर फाखिर हुसैन ने उनको 'बूजना' (बंदर) करार देने के बाद इस कहावत की सलीब पर उल्टा लटका दिया था, बूजना कहने का जब उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो मास्टर साहब ने उनसे बूजना का अर्थ पूछा, फिर बारी-बारी सब लड़कों से पूछा। किसी को मालूम नहीं था, इसलिए सारी क्लास को बेंच पर खड़ा करके कहने लगे 'नालायकों! मेरा नाम डुबाओगे... बूजना बंदर को कहते हैं समझे?' हाय! कैसे जमाने और कैसे उस्ताद थे। अर्थहीन बात के भी शाब्दिक अर्थ बताते थे। क्रोध में भी शिक्षा के तकाजों का लिहाज रखते थे, केवल गाली ही नहीं देते थे, उसका इमला और मतलब भी बताते थे।


कुसूर अपना निकल आया

वो सीधे पुलिस स्टेशन रपट लिखवाने गये। अफसर इंचार्ज ने कहा, यह थाना नहीं लगता। आप जहां रहते हैं उसके संबंधित थाने में एफ.आई.आर. दर्ज कराइये। वहां पहुंचे तो जवाब मिला कि जनाबे-आली! जुर्म की रपट आपकी रिहाइश वाले थाने में बेशक दर्ज की जा सकती है अगर जुर्म आपने किया हो। आप रपट, वारदात वाली जगह से संबंधित थाने में लिखवाइये। वहां पहुंचे तो कहा गया कि वारदात वाली जगह दो थानों के संगम पर स्थित है, मस्जिद की इमारत बेशक हमारे थाने में है, परंतु इसकी सीढ़ियों की तलहटी के इलाके, साथ वाले थाने में लगते हैं। साथ वाले थाने पहुंचे तो वहां किसी को न पाया। बस एक व्यक्ति था, जिसके माथे से खून बह रहा था, दायें हाथ में कंपाउंड फ्रेक्चर था और बायीं आंख सूज कर बंद हो चुकी थी। वो कहने लगा कि मैं दफा 324 की रपट लिखवाने आया हूं। दो घंटे से इंतजार कर रहा हूं, अंधेर है। सिविल अस्पताल वाले कहते हैं कि जब तक थाने वाले एफ.आई.आर. दर्ज करके पर्चा न काट दें हम इलाज नहीं कर सकते। विजयी अंदाज में वो छीना हुआ हथियार यानी शाम चढ़ी लाठी पकड़े हुये था, जिससे उसका सर फाड़ा गया था। उसके साथ उसका चचा था, जो किसी दीवानी वकील का मुंशी था। वो भतीजे को दिलासा दे रहा था कि मुजरिम ने लाठी और कानून अपने हाथ में लेकर कानून और तुम्हारे सर को एक ही वार से तोड़ा है। उस हरामजादे को हथकड़ी न पहना दूं तो मैं अपने बाप की औलाद नहीं। उसने तो खैर संगीन जुर्म किया है, मैंने तो कइयों को बिना जुर्म के जेल की हवा खिलवा दी है! उसने बिशारत को कानूनी सलाह दी कि आपको दरअस्ल उस थाने से संपर्क करना चाहिये जिसकी सीमा में चोर का रिहाइशी मकान आता है। बिशारत उससे उलझने लगे। बहस के दौरान पता लगा कि इस वक्त S.H.O. की लड़की की सगाई की रस्म हो रही है। अधिकतर स्टाफ वहीं तैनात है। एक डेढ़-घंटे बाद आयेंगे। असिस्टेंट सबइंस्पेक्टर दोपहर से सड़क पर सुरक्षा डयूटी और स्कूल की लड़कियों को इकट्ठा करके सड़क पर दोनों ओर खड़ा करने में लगा है, इसलिए कि प्रधानमंत्री एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय जा रहा है। हेड कांस्टेबल तफ्तीश पर निकला हुआ है।

कोई दो घंटे के बाद एस.एच.ओ. का एक वकील की कार में आगमन हुआ। वकील का ब्रीफकेस, जिस पर खाकी जीन का गिलाफ चढ़ा था, एक मुल्जिमनुमा मुअक्किल उठाये हुआ था। वकील के हाथ में सगाई की मिठाई के डिब्बे थे, जो उसने स्टाफ को बांट दिये। एक डिब्बा बिशारत को भी दिया। एस.एच.ओ. ने बिशारत से सरसरी रूदाद सुन कर कहा, आप जरा बाहर प्रतीक्षा कीजिये। अस्ल रिपोर्टकर्ता ड्राइवर है, उससे पूछ-ताछ करनी है। घंटे भर तक उससे न जाने क्या उल्टी-सीधी तफ्तीश करता रहा। खलीफा बाहर निकला तो उसका केवल मुंह ही लटका हुआ नहीं था, खुद भी सारे-का-सारा लटका हुआ दिखाई दे रहा था। इसके बाद एस.एच.ओ. ने बिशारत को अंदर बुलाया तो उसके तेवर बिल्कुल बदले हुए थे। कुर्सी पर बैठने को भी नहीं कहा, सवालों की भरमार कर दी। थोड़ी देर के लिए तो बिशारत ने सोचा कि शायद उसे धोखा हुआ है और वो उन्हें चोर समझ बैठा है। लेकिन जब उसने कुछ ऐसे चुभते हुए प्रश्न किये जो सिर्फ इन्कम-टैक्स अफसर को करने चाहिये तो उनका अपना धोखा दूर हो गया। मिसाल के तौर पर जब आपने चुरा ली जाने वाली इमारती लकड़ी बेची तो रोकड़ बही में दर्ज किया या ऊपर-ऊपर कैश डकार गये? ड्राइवर को जो तन्ख्वाह देते हैं तो रसीद उतनी ही रकम की लेते हैं या जियादा की? गोदाम से लकड़ी बिना डिलीवरी आर्डर के कैसे निकलती है! आप स्वयं बिना Learner's Licence के ट्रक कैसे चलाते हैं? लकड़ी के तख्ते जब ट्रक में ले जाने के लिए रखे गये तो क्या नियम उंतीस सौ कुछ के नियमानुसार पीछे सुर्ख झंडी लगाई थी? और हां! याद आया कि मेरा मकान नींव तक आ गया है, कितने फुट लकड़ी की जुरूरत होगी? हिसाब लगा कर बताइये 'सौ गज का वेस्ट ओपन कार्नर प्लाट है। आपके यहां जो रेडियो है उसका लाइसेंस आपने बनवाया? क्या यह सही है कि आपकी फर्म में आपके पिछत्तर वर्षीय अब्बा और दूध पीता बेटा भी पार्टनर हैं? लकड़ी जब ली मार्केट से नाजियाबाद ले जानी थी तो रणछोड़ लाइन की परिक्रमा की जुरूरत क्यों पड़ी? क्या यह सही है कि आप पांचों वक्त नमाज पढ़ते हैं और हार्मोनियम बजाते हैं। जवाब में बिशारत ने कहा नमाज मैं पढ़ता हूं हार्मोनियम अब्बा बजाते हैं। इस जवाब पर एस.एच.ओ. ने देर तक हथकड़ी बजायी और पहली बार मुस्कराते हुए बोला, 'हूं! सुनना मुंशी जी? यानी गुनाह का बखान गुनाह से अधिक मजेदार है? लकड़ी खुले-तौर पर ठीक मस्जिद के दरवाजे पर रखी तो क्या इससे नमाजियों का इम्तहान लेना मकसद था? ड्राइवर से आपका सारा टब्बर हजामत बनवाता है, कोरमा पकवाता है। उसने आपके जूनियर पार्टनर के खत्ने भी किये। मेरा मतलब आपके छोटे साहबजादे से है। आपने उससे घोड़ा तांगा भी चलवाया, यही आपके घोड़े और अब्बा जी का क्रमानुसार खरेरा और मालिश करता था। यह लेबर लाज की खुली अवहेलना है। क्या यह सही है कि कुछ समय पहले एक आरा चलाने वाले की आंख में छिपटी उचट कर पड़ने से रोशनी जाती रही और आपने उसे घर भेज दिया? कोई मुआवजा नहीं दिया और आपने दुगनी कीमत पर लकड़ी कैसे बेची? अंधेर है। मुझे अपने मकान के लिए आधे दाम मिल रही है! खुले भाव!'


फौजदारी से छेड़खानी

जब बिशारत हर सवाल का गैर तसल्लीबख्श जवाब दे चुके तो एस.एच.ओ. ने कहा, 'मैं इसी समय मुआयना करूंगा। कल इतवार है, थाने नहीं आऊंगा। सवारी है?' बिशारत ने कहा, 'हां!' और उसे गाड़ी तक ले आये, 'मगर यह है क्या!' एस.एच.ओ. ने आश्चर्य से पूछा। 'इसी में लकड़ी गयी थी।'

'मगर यह है क्या'

उसने चोरी से बच जाने वाले उन तख्तों को छू-छू कर देखा, जो उसमें चुने हुए थे। फिर गाड़ी के गिर्द चक्कर लगा कर उनकी लंबाई का अनुमान लगाया। इसके बाद वो एक दम बिफर गया। कैसी वारदात वाली जगह और कैसा मुआयना, उल्टे धर लिए गये। एस.एच.ओ. बकता-झकता वापस थाने में ले गया। जैसे ही वो अपने कुढब प्रश्न से उन्हें चारों-खाने चित करता, वैसे ही उसका खुशामदी असिस्टेंट उन्हें अपने सींगों पर उठा कर दोबारा जमीन पर पटक देता। एक सवाल हो तो... पैसिंजर कार को किसकी अनुमति से ट्रक में परिवर्तित किया गया। जिस गली से इसका गुजरना बताया जाता है, वो तो वन वे है! इसकी इंश्योरेंस पॉलिसी तो कभी की Lapse हो चुकी। व्हील टैक्स एक साल से नहीं भरा गया। आपके ड्राइवर ने अभी स्वयं इकबाले-जुर्म किया है कि ब्रेक न होने के कारण गाड़ी गियर के द्वारा रोकता है। इसी वज्ह से कुछ रोज पहले गार्डन ईस्ट की झुग्गियों के सामने एक मुर्गी कार के नीचे आ गयी, जिसका हरजाना खलीफा के पास नहीं था। झुग्गी वालों ने रात भर कार impound किये रखी और मुर्गी के बदले खलीफा को पकड़ लिया, हालांकि वो चीखता रहा कि दोष कार का नहीं, मुर्गी खुद उड़ कर इसके नीचे आई थी। दिन निकलने के बाद खलीफा ने हर्जाने के तौर पर मुर्गी मालिक और उसके डेढ़-दो दर्जन बेटों, भतीजों, दामादों और दूर-निकट के पड़ोसियों की हजामत बनायी, तब कहीं जा कर मुक्ति मिली। एक पड़ोसी तो अपने पांच वर्षीय नंग-धड़ंग बेटे को गोटे की टोपी पहना कर ले आया कि जरा इसके खत्ने कर दो। इस मुशक्कत से फारिग हो कर वो डेढ़-दो बजे आपके पास पहुंचा तो इसका बदला आपने यह दिया कि उस पर आरोप लगाया कि तुम कार के टूल-बक्स में कैची-उस्तरा रखे हजामतें बनाते फिरते हो और एक दिन की तन्ख्वाह काटने की धमकी दी। खैर, यह एक अलग तफ्तीश योग्य-समस्या है, परंतु यह बताइये कि आपकी कार चिमनी की तरह धुआं क्यों देती है। सड़क पर हर कहीं खड़ी हो जाती है। मुंशी जी! अमां सुन रहे हैं मुंशी जी? आम रास्ते पर रुकावट पैदा करने की कै महीने की है? महज? या बामुशक्कत? और जनाबे-वाला! अगर यह सही है कि यह ट्रक है तो शाम को इसमें आपका पूरा खानदान कचरधान क्यों रंगा फिरता है? और मुंशी जी जरा इनको ओवर लोडिंग की दफा तो पढ़कर सुना दीजिये।

संक्षेप में यह कि दंड संहिता और फौजदारी अधिनियम की कोई दफा ऐसी नहीं बची जिसे तोड़ कर वो उस समय रंगे हाथों न पकड़े गये हों। उनका प्रत्येक कर्म किसी न किसी दफा की लपेट में आ रहा था और उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे उनका समस्त जीवन कानून से छेड़खानी में गुजरा है। पहले तो उन्हें इस पर आश्चर्य हुआ कि एस.एच.ओ. को उनके तमाम कानून के उल्लंघनों का पता कैसे चला, फिर वो बार-बार खलीफा को कच्चा चबा जाने वाली नजरों से देखने लगे। जैसे ही आंखें चार होतीं, खलीफा झट से हाथ जोड़ लेता।

इतने में एस.एच.ओ. ने आंख से कुछ इशारा किया और एक कांस्टेबल ने आगे बढ़ कर खलीफा के हथकड़ी डाल दी। हेड कांस्टेबल बिशारत के कंधे पर हाथ रख कर उन्हें दूसरे कमरे में ले गया। 'पहले आपके खिलाफ पर्चा कटेगा। चूंकि Vehicle खुद नाजायज है, इसीलिए मुंशी जी! सुपुर्दनामा तैयार कीजिये। शिकायत दर्ज कराने वाले से स्वयं बहुत से अपराध हुए हैं, इसलिए...'

बिशारत को चक्कर आने लगे।


कुछ हाल हवालात का

थाने के हवालात या जेल में, आदमी चार घंटे भी गुजार ले, तो जिंदगी और हजरत इंसान के बारे में इतना कुछ सीख लेगा कि यूनिवर्सिटी में चालीस बरस रह कर भी नहीं सीख सकता। बिशारत पर चौदह तबक (सात आकाश-लोक, सात पृथ्वी-लोक) से भी बढ़ कर कुछ रौशन हो गया और वो दहल गये। सबसे अधिक आश्चर्य उन्हें उस भाषा पर हुआ जो थानों में लिखी और बोली जाती है। रिपोर्ट करने वालों की हद तक तो बात समझ में आती है परंतु मुंशी जी एक व्यक्ति को (जिस पर एक नाबालिग लड़की के साथ जर्बदस्ती निकाह पढ़वाने का आरोप था) बलपूर्वक निकाह करने वाला कह रहे थे। स्टाफ की आपस की बातचीत से उन्हें अंदाजा हुआ कि इस थाने ने इंसानों को दो हिस्सों में बांट रखा है, एक वो जो सजायाफ्ता हैं, दूसरे वो जो नहीं हैं, मगर होने चाहिये। देश में बड़ी संख्या गैर-सजायाफ्ता लोगों की है और यही सारे झगड़े की जड़ है। बातचीत में जिस किसी का भी जिक्र आया, वो कुछ न कुछ 'याफ्ता' (पाने वाला) या 'शुदा' (हुआ) अवश्य था। 'मिजाज पुर्सी' वाले कमरे में जो व्यक्ति थोड़ी-थोड़ी देर में चीखें मार रहा था, वो सजायाफ्ता और मुचलके-शुदा था। सरेआम आलिंगन चुंबन के आरोप में जिन दो महिलाओं को गिरफ्तार किया गया था, उनमें से एक को एक ए.एस.आई. शादी-शुदा और दूसरी को महज-शुदा यानी गयी-गुजरी बता रहा था। हेडकांस्टेबल जो स्वयं इनआमयाफ्ता था, किसी मरने वाले का अंतिम समय दिया गया बयान पढ़ कर सुना रहा था। एक पर्चे में किसी गुंडे के बेकाबू चाल-चलन का विवरण दर्ज था, एक जगह आतिशजदा मकान के अलावा एक निवासी के बर्बादशुदा सामान और तबाहशुदा शुहरत का भी जिक्र था।

इस थाने में हथियार की सिर्फ दो किस्में थी। धारदार और गैर-धारदार। जिस हथियार से सरकारी गवाह के कूल्हों पर नील पड़े और सर पर गूमड़ उभरा, उसके बारे में रोजनामचे में लिखा था कि डाक्टरी मुआयने में जाहिर होता है कि गवाह को बीच बाजार में गैर-धारदार आले से मारा गया। इस हथियार से मुराद जूता था! रात के दस बजे 'मिजाज पुर्सी' वाले कमरे में एक व्यक्ति से जूते के द्वारा सच बुलवाया जा रहा था। पता चला कि जूते खा कर ना किये गये जुर्म को स्वीकार करने वालों को सुल्तानी गवाह कहते हैं। वो व्यक्ति बड़ी देर से जोर-जोर से चीखे जा रहा था, जिससे मालूम होता था कि अभी तक जूते खाने को झूठ बोलने से अधिक महत्व दे रहा है। जूते के इस Extra Curricular इस्तेमाल को पंजाबी में छतरोल कहते हैं। थाने में लोगों का आना-जाना कुछ कम हुआ तो तीन कांस्टेबल सुब्ह दर्ज किये गये एक बलात्कार के मामले के चश्मदीद गवाह को आठवीं बार लेकर बैठ गये जो उस समय इस घटना को इस तरह बयान कर रहा था जैसे बच्चे अपने पिता के मित्रों को इतरा-इतरा कर नर्सरी राइम सुनाते हैं। हर बार वो इस वारदात में नयी-नयी बातों से अपनी अपराधिक अतृप्त इच्छाओं का रंग भरता चला जाता।

'यूं न था मैंने फकत चाहा था यूं हो जाये'

तीनों कांस्टेबल सर जोड़े इसे अच्छे शेर की तरह सुन रहे थे और बीच-बीच में आरोपी को हसरत-भरी दाद और दाद भरी गालियां देते जाते। सुब्ह जब बंद कमरे में बयान लिए जा रहे थे तो सब-के-सब, यहां तक कि हवालात में बंद आरोपियों के भी कान दीवार से लगे थे।

नौ बजे किसी शाम के अखबार का क्राइम रिपोर्टर आया, जिसके अखबार का सर्कुलेशन किसी तरह बढ़ के नहीं दे रहा था। ए.एस.आई. से कहने लगा 'उस्ताद! दो सप्ताह से खाली हाथ जा रहा हूं। यह थाना है या लावारिसों का कब्रिस्तान। तुम्हारे इलाके के सभी गुंडों ने या तो तौबा कर ली है या पुलिस में भर्ती हो गये हैं। यही हाल रहा तो हम दोनों के घरों में चूहे कलाबाजियां खायेंगे।' उसने जवाब दिया, 'जाने-मन! बैठो तो सही, आज एक के गले में घंटी बांध दी है। ऐसा स्कूप बरसों में नसीब होता है। बगल वाले कमरे में चश्मदीद गवाह दसवीं बार पाठ सुना रहा है। तुम भी जा के सुन लो और यार! चार दिन से तूने मेरे तबादले के खिलाफ एक भी लेटर टू दि एडिटर नहीं छपवाया। हमीं जब न होंगे तो तुझे कौन हथेली पे बिठायेगा? ओये बशीरे! दो चाय सुलेमानी। फटाफट, लबालब। मलाई ऐसी दबादब डलवाइयो कि चाय में पेन्सिल खड़ी हो जाये और भाई फीरोजदीन! उस इन्कलाबिये को चुपका करो। शाम ही से साले के दर्दें उठने लगीं 'इब्तिदाये-इश्क है रोता है' चीखते-डकराते गला बैठ गया है। जनाब! मर्द के रोने से अधिक जलील चीज दुनिया में नहीं। साला स्वयं को हुसैन-नासिर से कम नहीं समझता। मैंने पांच बजे उसे आइस कोल्ड बीयर के चार मग पिला दिये। बहुत खुश हुआ। तीसरे मग के बाद मुझे! जी हां मुझे! 'सुतूने-दार पे रखते चलो सरों के चिराग' का मतलब समझाने लगा! चौथा पी चुका तो मैंने टायलेट जाने की मनाही कर दी। इसलिए तीन बार खड़े-खड़े पतलून में ही चिराग जला चुका है जनाब! हम तो हुक्म के गुलाम हैं अभी तो बड़े मेहमानखाने में इसकी आरती उतरेगी। वो सब कुछ कुबूल करा लेते हैं। इस साले की ट्रेजडी यह है कि इसके पास कुबूल करने को कुछ है ही नहीं, इसलिए जियादा पिटेगा।