खोया पानी / भाग 26 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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पतला शोरबा और सूजी का हलवा

अभी मौलाना करामत हुसैन के वजीफे को चालीस दिन भी नहीं हुए थे कि बिशारत एक और समस्या में उलझ गये जो कुछ इस तरह थी कि हाजी औरंगजेब खान, इमारती लकड़ी के सौदागर और आढ़ती - पेशावर वाले उनसे रकम वसूल करने आ धमके। उन्होंने कोई एक साल पहले बढ़िया किस्म की लकड़ी पंजाब के एक आढ़ती की मार्फत बिशारत को सप्लाई की थी, यह दागदार निकली। जब यह साल भर तक नहीं बिकी तो बिशारत ने घाटे से सात हजार में बेच दी। यह वही लकड़ी थी जिसकी चोरी, दोबारा-प्राप्ति और खराबी का हाल हम पिछले पृष्ठों में बयान कर चुके हैं। बिशारत का कहना था कि मैंने यह लकड़ी सात हजार में घाटे से बेची। खान साहब कहते थे कि आपकी आधी लकड़ी तो चोर ले गये आधी पुलिस वाले ने हथिया ली। आप इसे बेचना कहते हैं, इसके लिए तो पश्तो में बहुत बुरा लफ्ज है।

बिशारत के अनुमानानुसार लकड़ी की मालियत किसी प्रकार सात हजार से अधिक नहीं थी, उधर हाजी औरंगजेब खां उसूली तौर पर एक पाई भी छोड़ने के लिए तैयार न थे। जिसका मतलब यह था कि बिशारत बाकी रकम, यानी 2573.9.3 रुपये अपनी जेब से भरें (यह रकम आज के दो लाख रुपये के बराबर थी। खान साहब कहते थे कि आपने माल बेचने में शैतानी जल्दी दिखाई। जल्दी का काम शैतान का, सेठ! यह लकड़ी थी, बालिग लड़की तो नहीं, जिसकी जल्द-से-जल्द विदाई पुण्य कार्य हो।

एक मुद्दत से इस रकम के बारे में पत्र-व्यवहार चल रहा था। एक दिन खान साहब के दिल में न जाने क्या आई कि कानूनी नोटिस की रजिस्ट्री करायी। पेशावर जनरल पोस्ट ऑफिस से सीधे घर आये। सामान बांधा और नोटिस से पहले खुद पहुंच गये। नोटिस उनके आने के तीन दिन बाद उनकी उपस्थिति में इस प्रकार प्राप्त हुआ कि रजिस्ट्री स्वयं उन्होंने डाकिये के हाथ से छीन कर खोली, नोटिस निकाल कर फाड़ दिया और लिफाफा बिशारत को थमा दिया। ठहरे भी उन्हीं के घर पर। उस जमाने में नियम था कि आढ़ती या थोक व्यापारी आये तो उसे घर पर ही ठहराया जाता था। यूं भी बिशारत की खान साहब से खूब बनती थी। बिशारत खान साहब की मुहब्बत और आवभगत पर जान छिड़कते थे और खान साहब उनकी लच्छेदार बातों पर फिदा थे।

दिन भर एक-दूसरे के साथ झांय-झांय करने के बाद शाम को खान साहब बिशारत के साथ उनके घर चले जाते। यहां उनकी इस तरह खातिर होती जैसे दिन में कुछ हुआ ही नहीं। घर वाले उनकी आवभगत करते-करते तंग आ चुके थे। इसके बावजूद खान साहब को शिकायत थी कि यहां पतले शोरबे का सालन खा-खा कर मेरी नजर कमजोर हो गयी है। थोड़ा लंगड़ा के चलने लगे थे, कहते थे, घुटनों में शोरबा उतर आया है। रात के खाने के बाद सूजी का हलवा जुरूर मांगते, कहते थे हलवा न खाऊं तो बुजुर्गों की आत्मायें सपने में आ-आ कर डांटती हैं। प्रायः उन पूरी रानों को याद करके आहें भरते जो उनके दस्तरख्वान की शोभा हुआ करती थीं। उनका पेट ऊंची नस्ल के बकरों, मेढ़ों का कब्रिस्तान था, जिसके वो मुजाविर (झाड़ू देने वाला) थे। बिशारत ने दोपहर को उनके लिए फ्रंटियर होटल से रान और चिपली कबाब मंगवाने शुरू किये। मिर्जा ने कई बार कहा कि इससे तो बेहतर है कि 2573.9.3 रुपये देकर अपना पिंड छुड़ाओ, यह फिर भी सस्ता पड़ेगा। मगर बिशारत कहते थे कि सवाल रुपये का नहीं उसूल का है, खान साहब भी इसे अपने स्वाभिमान और उसूल की समस्या बनाए हुए थे।

पीर-फकीर जिस एकाग्रता से ध्यान और साधना करते हैं, खान साहब इससे अधिक एकाग्रता और तन्मयता भोजन में दिखाते थे। अक्सर कहते थे कि नमाज, नींद, खाने और गाली देने के बीच कोई दख्ल दे तो उसे गोली मार दूंगा। किसी अजनबी या दुश्मन या अविश्वसनीय मित्र से मिलने जाते तो गले में 38 बोर का रिवाल्वर डाल लेते। मशहूर था कि हज के समय काबे की परिक्रमा के दौरान भी रिवाल्वर अहराम (उस समय पहने जाने वाली चादर) में छुपा रखा था। खुदा ही बेहतर जानता है, हमें तो पता नहीं। दस सेर सूजी बतौर उपहार साथ लाये थे, उसी का हलवा बनवा-बनवा कर खा रहे थे। बिशारत रोज सूजी की बोरी देखते और दहल जाते, इसलिए कि अभी तो इसके समाप्त होने में बहुत देर थी। खान साहब कहते थे कि अगली बार मर्दान शुगर मिल्ज से ताजा गुड़ की बोरी लाऊंगा, सफेद चीनी खाने से खून पतला पड़ जाता है। एक दिन बिशारत ने घबरा के बातों-बातों में टोह लेनी चाही। पूछा, 'खान साहब! गुड़ से क्या-क्या बनता है?' सूजी के हलवे का गोला हल्क में फिसलाते हुए बोले, 'भाभी से पूछ लेना। इस वक्त दिमाग हाजिर नहीं। बात यह है कि घाटे, झगड़े और गुड़ से - और रोजे से भी हमारे दिमाग को एकदम गर्मी चढ़ जाता है। हम रमजान में सिर्फ हाथापाई करता है, क्योंकि रोजे में गाली देना मना है।'


टांगे और पाये

खान साहब अपने दस्तरख्वान और आवभगत का क्या कहना। बिशारत को पेशावर में उनके यहां मेहमान रहने का मौका मिला था। हर खाने पर बकरी या दुंबे की पूरी रान सामने रख देते। नाश्ते और चाय पर अलबत्ता मुर्गी की टांग से गुजारा करते। उनके दस्तरख्वान पर रान और टांग के सिवा किसी और हिस्से का गोश्त नहीं देखा न कभी सब्जी या मछली देखी। इसका कारण यही समझ में आता था कि बैंगन और मछली के टांगें नहीं होतीं। यह कहना तो मुश्किल है कि पेरिस के Folies bugere और Lido की कोरस गर्ल्ज का legs show देख कर खान साहब पश्तो में क्या फर्माते, लेकिन इतना हम विश्वास से कह सकते हैं कि उन्हें ऐसी टांगों से कोई दिलचस्पी नहीं थी, जिन्हें रोस्ट करके वो खा और खिला न सकें।

टांग का गोश्त रुचिकर होने के बावजूद खान साहब को बोंग की नहारी और शिरी पायों से सख्त चिढ़ थी। एक बार कहने लगे, मुझसे तो जानवरों के गंदे, गोबर में बसे हुए खुरों का शोरबा नहीं खाया जाता। हमारे फ्रंटियर में तो कोई बुड्ढा किसी कच्ची उम्र की कुंवारी से शादी कर ले तो हकीम और पड़ौसी उसे ऐसा ही गर्म पदार्थ खिलाते हैं। इससे वो आंतों की बीमारी का शिकार हो कर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। सुना है विलायत में तो खुरों से सालन के बजाय सरेश बनाते हैं। आप भी कमाल करते हैं! बकरी के पाये, भेड़ के पाये, दुंबे के पाये, भैंस के पाये, मेरे विचार में तो चारपायी के पाये आप महज इसलिए छोड़ देते हैं कि वो साफ होते हैं।


पिछली शताब्दी का स्टैच्यू

खान साहब सुंदर और भारी भरकम आदमी थे, उनकी बेकार बात में भी वज्न महसूस होता था। कद लगभग साढ़े छः फुट, जिसे टोपी और पगड़ी से साढ़े सात फुट बना रखा था। मगर आठ फुट के लगते थे और यही समझ कर बात करते थे। स्वास्थ्य और काठी इतनी अच्छी कि उम्र कुछ भी हो सकती थी। शरीर का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि हत्थेवाली कुर्सी पर जैसे तैसे ठुंस कर बैठ तो जाते, लेकिन जब उठते तो कुर्सी भी साथ उठती। सुनहरी मूंछें और हल्की-भूरी आंखें, बायें गाल पर घाव का निशान, जो अगर न होता तो चेहरा अधूरा दिखाई देता। तर्जनी दूसरे पोर से कटी हुई, किसी को चेतावनी देनी हो या आसमान को किसी समस्या में गवाह बनाना हो (जिसकी आवश्यकता दिन में कई बार पड़ती थी) तो ये अधकटी उंगली उठा कर बात करते। उनकी कटी उंगली भी हमारी पूरी उंगली से बड़ी थी। पास और दूर की नजर काफी कमजोर थी, परंतु जहां तक संभव हो ऐनक लगाने से बचते थे। सिर्फ चेक पर दस्तखत करने और गाली देने के बाद, जिसे गाली दी उसके चेहरे के इंप्रेशन देखने के लिए पास की ऐनक लगा लेते और उतारने से पहले जल्दी-जल्दी दूर की चीजें देखने की कोशिश करते। यह मालूमात उनकी दिन-भर की आवश्यकताओं के लिए काफी होती थी। आंखों में शरारत चमकती थी। खुल कर हंसते तो चेहरा अनारदाना हो जाता, चेहरे पर हंसी समाप्त होने के बाद उसकी अंदरुनी लहरों से पेट देर तक हिचकोले खाता रहता। जरी की टोपी पर पगड़ी का हाथ-भर ऊंचा कलफदार तुर्रा घायल अंगूठे की तरह सदा खड़ा ही रहता था। गहरा ब्राउन तुर्की कोट, 'तिल्ले' की पेशावरी चप्पल जिसमें हमारे दोनों पैर आगे-पीछे आ जायें। बेतहाशा घेर की सफेद शलवार। खान साहब एक बेहद रोबीले पिछली शताब्दी के आदमी दिखाई देते थे। कसीदे (प्रशंसा में लिखी गयी कविता) और स्टैच्यू के लिए यह आवश्यक है कि कम-से-कम डेढ़ गुना हो, लाइफ साइज न हो, खान साहब अपना स्टैच्यू आप थे।

वास्कट की जेब में जो सोने की घड़ी रखते थे उसकी जंजीर दो फुट लंबी अवश्य होगी, इसलिए कि वास्कट की एक जेब से दूसरी जेब की दूरी इतनी ही थी। जितनी देर में खान साहब की शलवार में कमरबंद डलता उतनी देर में आदमी आराम से टहल कर वापस आ सकता था। नर्वस स्टिम बेहद शक्तिशाली था। मामूली तकलीफ और बेआरामी का उनको अहसास ही नहीं होता था। एक बार धोबी ने उनकी मैली शलवार के नेफे से पेन्सिल के टुकड़े बरामद किये। खूब खाते थे और खाने के दौरान बातचीत से परहेज करते और पानी नहीं पीते थे कि ख्वामखाह जगह घेरता है। दाल को हिंदुवाना बुराई और सब्जी खाने को मवेशियों का अधिकार छीनने में गिनते थे। कड़ाही गोश्त का अर्थ सिर्फ यही नहीं होता था कि वो कड़ाही का गोश्त खायेंगे, बल्कि कड़ाही भर के खायेंगे। खैरियत गुजरी कि उस जमाने में बाल्टी गोश्त का रिवाज नहीं था वरना वो यकीनी तौर पर बाल्टी को कड़ाही से बेहतर समझते। तीतर, बटेर की हड्डियों, अंगूर, माल्टे और तरबूज के बीज थूकने को जनानी हरकतों में शुमार करते थे। अपनी शारीरिक स्थिति से स्वयं परेशान थे। घूमने-फिरने और चहलकदमी के शौकीन मगर इस शर्त पर कि हर चालीस कदम चलने के पश्चात सुस्ताने और कुछ पेट में डालने के लिए थोड़ा रुकेंगे ताकि ताजादम हो कर आगे बढ़ें यानी अगले चालीस कदम। माना कि खान साहब में इतनी फुर्ती और चलत-फिरत नहीं थी कि बढ़ कर शत्रु पर आक्रमण कर सकें, मगर लड़ाई के दौरान अगर वो उस पर सिर्फ गिर पड़ते तो वो पानी न मांगता। हाथ-पांव मारे बिना वहीं दम घुट के ढेर हो जाता। यहां उगाही के लिए आते तो कारतूसों की पेटी नहीं बांधते थे, कहते थे कि इसके बिना ही काम चल जाता है। सीने और पेट पर पेटी के निशान से एक लकीर बन गयी थी जो धड़ को दो समानांतर त्रिकोणों में आड़ा विभाजित करती थी। कहते थे जहां पहाड़ी हवायें और बंदूक की आवाज न आये वहां मर्दों को नींद नहीं आती।

उनकी कटी हुई तर्जनी का किस्सा यह है कि उनका लड़कपन था। लड़कों में लेमोनेड की गोली वाली बोतल को उंगली से खोलने का मुकाबला हो रहा था। खान साहब ने उसकी गोली पर उंगली रख कर दूसरे हाथ से पूरी ताकत से मुक्का मारा, जिससे फौरन बोतल और हड्डी टूट गयी। बोतल की गर्दन उनकी उंगली में सगाई की अंगूठी की तरह फंस कर रह गयी, दो सप्ताह बाद कटवानी पड़ी। क्लोरोफार्म सूंघने को वो मर्दों की शान के खिलाफ समझते थे, इसलिए बिना क्लोरोफार्म के आपरेशन कराया। आपरेशन से पहले कहा कि मेरे मुंह पर कस के ढाटा बांध दो। अपने विचार में कोई बहुत ही बुद्धिमानी की बात करनी हो तो बात में वज्न पैदा करने के उद्देश्य से पहले अपनी ठुड्डी पर इस तरह हाथ फेरते मानो वहां टैगोर जैसी दाढ़ी है, जो उलझी हुई है और कंघे की मुहताज है। फिर कटी हुई तर्जनी आकाश की ओर उठाते और पढ़ने की ऐनक लगा कर बोलना शुरू करते। लेकिन गंभीर और पेचीदा वाक्य के बीच कोई शोख बात या चंचल फिकरा अचानक जह्न में कौंध जाता तो उसे अदा करने से पहले आंख मारते और आंख मारने से पहले ऐनक उतार लेते, ताकि देखने वालों को साफ नजर आये।

उनकी हंसी की तस्वीर खींचना बहुत मुश्किल है। यूं लगता था जैसे वो बड़े जोर से एक लंबा कहकहा लगाना चाहते हैं, मगर किसी कारणवश उसे रोकने की कोशिश कर रहे हैं। परिणामस्वरूप उनके मुंह से बड़ी देर तक ऐसी आवाजें निकलती रहतीं जैसी बैटरी खलास होने के बाद कार को बार-बार स्टार्ट करने से निकलती हैं। हंसने से पहले आम-तौर पर अपनी वास्कट के बटन खोल देते थे। कहते थे, परदेस में रोज-रोज किस से बटन टंकवाऊं।

शादी एक ही की। एक जगह लग कर काम करते रहने के कायल थे। पत्नी ने तंग आ कर कई बार उनसे कहा कि दूसरी कर लो ताकि औरों को भी तो चांस मिले।


लंगड़े काकरोच से शेख शादी तक

आप चाहें तो खान साहब को अनपढ़ कह सकते हैं, मगर जाहिल बिल्कुल नहीं। रची-बसी तबियत, बला की सूझ-बूझ और नजर रखते थे, जो तुरंत बात की तह तक पहुंच जाती थी। सही अर्थों में सभ्य थे कि उन्होंने इंसान और जिंदगी को बरता था, किताब के distorting mirror और आर्ट के सजावटी फ्रेम में नहीं देखा था। खुद जिंदगी जो कुछ दिखाती, सिखाती और पढ़ाती है वो सीधा दिल पर अंकित होता है।

'नजीर' सीखे से इल्मे-रस्मी बशर की होती है चार आंखें

पढ़े से जिसके हो लाख आंखें वो इल्म दिल की किताब में है

खान साहब बरसों चैक पर अंगूठा लगाते रहे जिस दिन उनका बैंक बैलेंस एक लाख हो गया उन्होंने उर्दू में दस्तखत करने सीख लिए। कहते थे, अंगूठा लगा-लगा कर सूदखोर बैंकों से ओवर ड्राफ्ट लेने में तो कोई हरज नहीं, पर हलाल की कमाई की रकम सोच-समझ कर निकालनी चाहिये। दस्तखत क्या थे, लगता था कोई लंगड़ा काकरोच दवात में नहा कर कागज पर से गुजर गया है। दस्तखत के दौरान उनका हाथ ऐसी तोड़ा-मरोड़ी से गुजरता और हर छोटा-बड़ा वृत्त बनाते समय उनके खुले हुए मुंह की गोलाई इस प्रकार घटती-बढ़ती कि एक ही दस्तखत के बाद उनके हाथ और देखने वाले की आंख में ऐंठन पड़ जाती। उस जमाने में खान साहब का एकाउंट मुस्लिम कमर्शियल बैंक में था, जहां उर्दू में दस्तखत करने वालों को स्टांप पेपर पर यह अपमानजनक जमानत देनी पड़ती थी कि अगर उनके एकाउंट में जाली दस्तखतों के कारण कोई फ्राड हो जाये तो बैंक जिम्मेदार न होगा, बल्कि यदि इसके नतीजे में बैंक को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में कोई हानि पहुंची तो उसे भी वही भरेंगे। खान साहब को जब इसका मलतब पश्तो में समझाया गया तो क्रोधित हो उठे। उर्दू बोलने वाले एकाउंटेंट से कहने लगे कि ऐसी बेहूदा शर्त मानने वाले के लिए पश्तो में बहुत बुरा शब्द है। हमारा दिल बहुत खफा है। बकते-झकते बैंक के अंग्रेज मैनेजर मिस्टर ए. मेक्लीन के पास विरोध करने गये। कहने लगे कि मेरे दस्तख्त इतने खराब हैं कि कोई पढ़ा-लिखा आदमी बना ही नहीं सकता। जब मैं स्वयं अपने दस्तखत इतनी मुसीबत से करता हूं तो दूसरा कैसे बना सकता है? आपके स्टाफ में दो दर्जन आदमी तो होंगे। सब-के-सब शक्ल से चोर, उचक्के और चौसरबाज लगते हैं। अगर इनमें से कोई मेरे दस्तखत बना कर दिखा दे तो तुरंत एक हजार इनाम दूंगा, फिर गोली से उड़ा दूंगा। मिस्टर मेक्लीन ने कहा कि मैं बैंक के नियम नहीं बदल सकता। ग्रैंडलेज बैंक में भी यही नियम हैं। हमने सारे फार्म उसी से नक्ल किये हैं। नक्ल क्या, मक्खी पे मक्खी मारी है, बल्कि इस फार्म पर तो प्रिंटर की लापरवाही से नाम भी ग्रैंडलेज बैंक का ही छपा है। खान! तुम वर्नाक्युलर की बजाय अंग्रेजी में दस्तखत करना सीख लो तो इस झमेले से अपने-आप मुक्ति मिल जायेगी। उसने अपने हुक्म में प्रार्थना का रंग भरने के लिए खान साहब की चाय और पेस्ट्री से खातिर भी की। इस आदेश के पालन के लिए खान साहब दो महीने तक अंग्रेजी दस्तखतों का अभ्यास करते रहे। जब हाथ रवां और पक्का हो गया तो चिक उठा कर सीधे मिस्टर मेक्लीन के कमरे में प्रवेश किया और रू-ब-रू दस्तखत करके दिखाये। वो इस तरह कि पहले हाथ ऊंचा करके चार-पांच बार हवा में दस्तखत किये और फिर एकदम कलम कागज पर रख कर फर्राटे से दस्तखत कर दिये। उसने तुरंत एक स्लिप पर एकाउंटेंट को आदेश दिया कि उनकी इंडेम्निटी रद्द समझी जाये। मैं उनके अंग्रेजी दस्तखत की जो उन्होंने मेरी उपस्थित में इस कार्ड पर किये हैं, पुष्टि करता हूं।

हुआ सिर्फ इतना था कि खान साहब ने इन दो महीनों में उर्दू दस्तखत को दायें से बायें करने के बजाय बायें से दायें करने का अभ्यास किया और निपुणता प्राप्त कर ली। इस दौरान नुक्ते और मर्कज गायब हो गये। मिस्टर मेक्लीन के सामने उन्होंने यही दस्तखत बायें से दायें किये और सारी उम्र इसी अंग्रेजी शैली पर चलते रहे। चेक और कारोबारी कागजों पर इसी प्रकार दस्तखत करते। परंतु यदि किसी दोस्त रिश्तेदार को चिट्ठी लिखवाते या कोई हलफनामा दाखिल करते, जिसमें सच बोलना आवश्यक हो, तो आखिर में उर्दू में दस्तखत करते। मतलब यह कि कलम दायें से बायें चलता। खान साहब दस्तखत करने की कला में अब इतनी निपुणता प्राप्त कर चुके थे कि अगर जापानी में दस्तखत करने के लिए कहा जाता तो वो इसी लेटे हुए काक्रोच को मूंछें पकड़ के सर के बल खड़ा कर देते।

खान साहब को कभी बहस जल्दी निपटानी होती या विरोधी और संबोधित को महज बोझों मारना होता तो कहते, शेख सादी ने फरमाया है कि... उन्होंने अपने समस्त स्वर्णिम तथा अस्वर्णिम वचन शेख सादी के पक्ष में त्याग दिये थे। हमें विश्वास है कि शेख सादी भी यदि इन वचनों को सुन लेते तो वो स्वयं भी त्याग देते।

बात कितनी ही असंबद्ध और छोटी-सी हो, खान साहब उसके पक्ष में बड़े-से-बड़ा नुक्सान उठाने के लिए तैयार रहते थे। नजरअंदाज करने और समझौते को उन्होंने हमेशा मर्दानगी के विरुद्ध समझा। अक्सर कहते कि जो व्यक्ति खून-खराबा होने से पहले ही समझौता कर ले, उसके लिए पश्तो में बहुत बुरा शब्द है। इस समस्या के बाद बिशारत को एक बार बन्नू में उनके पुश्तैनी मकान में ठहरने का संयोग हुआ, देखा कि खान साहब किसी घमासान की बहस में जीत जाते या किसी प्रिय घटना पर बहुत खुश होते तो तुरंत बाहर जा कर घोड़े पर चढ़ जाते और अपने किसी दुश्मन के घर का चक्कर लगा कर वापस आ जाते। फिर नौकर से अपने सर पर एक लोटा ठंडे पानी का डलवाते कि अहंकार अल्लाह को पसंद नहीं।