खोया पानी / भाग 2 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उनके गुस्से पर याद आया कि उस जमाने में कनमैलिए मुहल्लों, बाजारों में फेरी लगाते थे। कान का मैल निकालना ही क्या, दुनिया जहान के काम घर बैठे हो जाते थे। सब्जी, गोश्त और सौदा-सुलुफ की खरीदारी, हजामत, तालीम, प्रसव, पीढ़ी, खट-खटोले की-यहां तक कि खुद अपनी मरम्मत भी घर बैठे हो जाती। बीबियों के नाखून निहन्नी से काटने और पीठ मलने के लिए नाइनें घर आती थीं। कपड़े भी मुगलानियां घर आकर सीती थीं ताकि किसी को नाप तक की हवा न लगे। हालांकि उस समय के जनाना कपड़ों के जो नमूने हमारी नजर से गुजरे हैं वो ऐसे होते थे कि किसी बड़े लेटर-बक्स का नाप लेकर सिये जा सकते थे। मतलब ये कि सब काम घर ही में हो जाते थे। हद यह कि मौत तक घर में घटित होती थी। इसके लिए बाहर जा कर किसी ट्रक से अपनी आत्मा निकलवाने की जुरूरत नहीं पड़ती थी। खून की खराबी से किसी के बार-बार फोड़े-फुंसी निकलें, या दिमाग में बुरे खयालात की भीड़ दिन-दहाड़े भी रहने लगे तो घर पर ही फस्द (रगों से खून निकलवाना) खोल दी जाती थी। अधिक और खराब खून निकलवाने के उद्देश्य से अपना सर फुड़वाने या फोड़ने के लिए किसी राजनैतिक जलसे में जाने या सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करके लाठी खाने की जुरूरत नहीं पड़ती थी। उस जमाने में लाठी को खून निकालने के हथियार के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाता था। जोंक और सींगी लगाने वाली कंजरियां रोज फेरी लगाती थीं, अगर उस समय के किसी हकीम का हाथ आजकल के नौजवानों की नब्ज पर पड़ जाये तो कोई नौजवान ऐसा न बचे जिसके जहां-तहां सींगी लगी नजर न आये। रहे हम जैसे आजकल के बुजुर्ग कि

'की जिससे बात उसको हिदायत जुरूर की'

तो! कोई बुजुर्ग ऐसा न बचेगा, जिसकी जबान पर हकीम लोग जोंक न लगवा दें।

हम किस्सा यह बयान करने चले थे कि गर्मियों के दिन थे। किबला कोरमा और खरबूजा खाने के बाद केबिन में झपकी ले रहे थे कि अचानक कनमैलिए ने केबिन के दरवाजे पर बड़ी जोर से आवाज लगाई - 'कान का मैल'। खुदा जाने मीठी-नींद सो रहे थे या कोई बहुत-ही हसीन ख्वाब देख रहे थे, हड़बड़ा कर उठ बैठे। एक बार तो दहल गये। चिक के पास पड़ी हुई लकड़ी उठा कर उसके पीछे हो लिये। कमीने की यह हिम्मत कि उनके कान से सिर्फ गज भर दूर, बल्कि पास, ऐसी बेतमीजी से चीखे। यह कहना तो ठीक न होगा कि आगे-आगे वो और पीछे-पीछे ये, इसलिए कि किबला गुस्से में ऐसे भरे हुए थे कि कभी-कभी उससे आगे भी निकल जाते थे। सड़क पर कुछ दूर भागने के बाद कनमैलिया गलियों में निकल गया और आंखों से ओझल हो गया, मगर किबला सिर्फ अपनी छठी-इंद्रिय की बतायी हुई दिशा में दौड़ते रहे, और यह वो दिशा थी जिस तरफ कोई व्यक्ति, जिसकी पांचों इंद्रियां सलामत हों, हमला करने के चक्कर में लाठी घुमाता हरगिज न जाता कि ये थाने की तरफ जाती थी। इस वहशियाना दौड़ में किबला की लकड़ी और कनमैलिए का पग्गड़, जिसके हर पेच में उसने मैल निकालने के औजार उड़स रखे थे, जमीन पर गिर गया। उसमें से एक डिबिया भी निकली, जिसमें उसने कान का मैल जमा कर रखा था। नजर बचा कर उसी में से तोला भर मैल निकाल कर दिखा देता कि देखो तुम्हारे कान में जो भिन-भिन, तिन-तिन, की आवाजें आ रही थीं वो इन्हीं की थीं। लेकिन यह सच है कि वो कान की भूलभुलैयों में इतनी दूर तक सहज-सहज सलाई डालता चला जाता कि महसूस होता - अभी कान के रास्ते आंतें भी निकाल कर हथेली पर रख देगा। किबला ने इस पग्गड़ को बल्ली पर चढ़ा कर बल्ली अपने केबिन के सामने इस तरह गाड़ दी, जिस तरह पहले समय में कोई बेसब्र उत्तराधिकारी शहजादा या वो न हो तो फिर कोई दुश्मन, बादशाह सलामत का सर काट कर भाले पर हर खासो-आम की सूचना के लिए उठा देता था। इसका डर ऐसा बैठा कि दुकान के सामने से बढ़ई, खटबुने, सींगी लगाने वालियों और सहरी (रमजान के महीने में सूरज निकलने से पहले खाया जाने-वाला खाना) के लिए जगाने वालों ने भी निकलना छोड़ दिया। पड़ोस की मस्जिद का बुरी आवाज वाला मुअज्जिन (अजान देने वाला) भी पीछे वाली गली से आने जाने लगा।

कांसे की लुटिया, बाली उमरिया और चुग्गी दाढ़ी

किबला अपना माल बड़ी तवज्जो, मेहनत और मुहब्बत से दिखाते थे। मुहब्बत की बढ़ोत्तरी हमने इसलिए की कि वो ग्राहक को तो शेर की नजर से देखते थे मगर अपनी लकड़ी पर मुहब्बत से हाथ फेरते रहते थे। कोई सागौन का तख्ता ऐसा नहीं था, जिसके रेशों का जाल और रगों का तुगरा, (अरबी लिपि में पेचीदा मगर सुंदर लिखाई) अगर वो चाहें तो याददाश्त से कागज पर न बना सकते हों। लकड़मंडी में वो अकेले दुकानदार थे जो ग्राहक को अपनी और हर शहतीर-बल्ली की वंशावली याद करा देते थे। उनकी अपनी वंशावली बल्ली से भी जियादा लंबी थी। उस पर अपने परदादा को टांग रखा था। एक बल्ली की लंबाई की तरफ इशारा करते हुए कहते, सवा उनतालीस फुट लंबी है। गोंडा की है। अफसोस, असगर गोंडवी की शायरी ने गोंडा की बल्लियों की प्रसिद्धि का बेड़ा गर्क कर दिया। लाख कहो, अब किसी को यकीन नहीं आता कि गोंडा की प्रसिद्धि की अस्ल वज्ह खूबसूरत बल्लियां थीं। असगर गोंडवी से पहले ऐसी सीधी बेगांठ बल्ली मिलती थी कि चालीस फुट ऊंचे सिरे पर से छल्ला छोड़ दो तो बेरोक सीधा नीचे झन्न से आ कर ठहरता था। एक बार हाजी मुहम्मद इसहाक चमड़े-वाले, शीशम खरीदने आये। किबला यूं तो हर लकड़ी की प्रशंसा में जमीन-आसमान एक कर देते थे, लेकिन शीशम पर सचमुच फिदा थे। अक्सर फर्माते, तख्ते-ताऊस में शाहजहां ने शीशम ही लगवायी थी। शीशम के गुणग्राहक और कद्रदान तो कब्र में जा सोये, मगर क्या बात है शीशम की। जितना इस्तेमाल करो, उतनी ही खूबियां निखरती हैं। शीशम की जिस चारपाई पर मैं पैदा हुआ, उसी पर दादा मियां ने जन्म लिया था और इस इत्तफाक को वो चारपाई और दादाजान दोनों के लिए मान और सम्मान का कारण समझते थे। हाजी मुहम्मद इसहाक बोले, 'ये लकड़ी तो साफ मालूम नहीं होती।' किबला न जाने कितने बरसों बाद मुस्कुराये। हाजी साहब की दाढ़ी को टकटकी बांध कर देखते हुए बोले, 'यह बात हमने शीशम की लकड़ी, कांसे की लुटिया, बाली-उमरिया, और चुग्गी-दाढ़ी में ही देखी कि जितना हाथ फेरो उतनी ही चमकती है। बढ़िया क्वालिटी की शीशम की पहचान ये है कि आरा, रंदा, बरमा सब खुंडे और हाथ पत्थर हो जायें। यह चीड़ थोड़े ही हैं कि एक जरा कील ठोंको तो 'अलिफ' (उर्दू वर्णमाला का पहला अक्षर) से लेकर 'ये' (अंतिम अक्षर) तक चिर जाये। पर एक बात है कि ताजा कटी हुई चीड़ से जंगल की महक का एक झरना फूट पड़ता है। लगता है इसमें नहाया जा रहा हूं। जिस दिन कारखाने में चीड़ की कटाई होने वाली हो, उस दिन मैं इत्र लगा के नहीं आता।'

किबला का मूड बदला तो हाजी इसहाक की हिम्मत बंधी। कहने लगे, इसमें शक नहीं कि ये शीशम तो सबसे अच्छी मालूम होती है मगर सीजंड (Seasoned) नहीं लगती। किबला के तो आग ही लग गई। कहने लगे, 'सीजंड! कितना भूखा रहने के बाद सीखा है यह शब्द? सीजंड सामने वाली मस्जिद का, मय्यत को नहलाने वाला तख्ता है। बड़ा पानी पिया है उसने! लाऊं? उसी पे लिटा दूंगा।'

यूं तो उनकी जिंदगी डेल कार्नेगी के हर सिद्धांत की शुरु से आखिर तक अत्यधिक कामयाब अवहेलना थी, लेकिन बिजनेस में उन्होंने अपने हथकंडे अलग आविष्कार कर रखे थे। ग्राहक से जब तक यह न कहलवा लें कि लकड़ी पसंद है, उसकी कीमत नहीं बताते थे। वो पूछता भी तो साफ टाल जाते, 'आप भी कमाल करते हैं, आपको लकड़ी पसंद है, ले जाइए, घर की बात है।' ग्राहक जब पूरी तरह लकड़ी पसंद कर लेता तो किबला कीमत बताये बगैर हाथ फैला कर बयाना तलब करते। सस्ता जमाना था वो दुअन्नी या चवन्नी का बयाना पेश करता जो इस सौदे के लिए काफी होता। इशारे से दुत्कारते हुए कहते, चांदी दिखाओ। (यानी कम-से-कम एक कलदार रुपया निकालो।) वो बेचारा शर्मा-हुजूरी एक रुपया निकालता जो उस जमाने में पंद्रह सेर गेहूं या सेर-भर अस्ली घी के बराबर होता तो, किबला रुपया लेकर अपनी हथेली पर इस तरह रखते कि उसे तसल्ली के लिए नजर तो आता रहे, मगर झपट्टा न मार सके। हथेली को अपने जियादा करीब भी न लाते, कहीं ऐसा न हो कि सौदा पटने से पहले ही ग्राहक बिदक जाये। कुछ देर बाद खुद-ब-खुद कहते 'मुबारक हो! सौदा पक्का हो गया।' फिर कीमत बताते, जिसे सुन कर वो हक्का-बक्का रह जाता। वो कीमत पर हुज्जत करता, तो कहते 'अजीब घनचक्कर हो। बयाना दे के फिरते हो। अभी रुपया दे के सौदा पक्का किया है। अभी तो इसमें से तुम्हारे हाथ की गर्मी भी नहीं गई और अभी फिर गये। अच्छा कह दो कि यह रुपया तुम्हारा नहीं है। कहो! कहो! कीमत नाप-तौल कर ऐसी बताते कि काइयां से काइयां ग्राहक भी दुविधा में पड़ जाये और यह फैसला न कर सके कि पेशगी डूबने में जियादा नुकसान है या इस भाव लकड़ी खरीदने में।

हुज्जत के दौरान कितनी ही गर्मी बल्कि हाथापाई हो जाये वो अपनी हथेली को चित ही रखते। मुट्ठी कभी बंद नहीं करते थे ताकि जलील होते हुए ग्राहक को यह संतुष्टि रहे कि कम-से-कम बयाना तो सुरक्षित है। उनके बारे में एक किस्सा मशहूर था कि एक सरफिरे ग्राहक से झगड़ा हुआ तो धोबी-पाट का दांव लगा कर जमीन पर दे मारा और जती पर चढ़ कर बैठ गये लेकिन इस पोज में भी अपनी हथेली जिस पर रुपया रखा था, चित ही रखी ताकि उसे ये बदगुमानी न हो कि रुपया हथियाना चाहते हैं।

लेकिन इसमें शक नहीं कि जैसी बेदाग और बढ़िया लकड़ी वो बेचते थे, वैसी उनके कहे-अनुसार, 'बागे-बहिश्त में शाखे-तूबा (जन्नत का एक खूश्बूदार पेड़) से भी प्राप्त न होगी। दागी लकड़ी बंदे ने आज तक नहीं बेची। सौ साल बाद भी दीमक लग जाये तो पूरे दाम वापस कर दूंगा।' बात दरअस्ल ये थी कि वो अपने उसूल के पक्के थे। मतलब यह कि तमाम उम्र 'ऊंची-दुकान, सही-माल, गलत-दाम,' पर सख्ती से कायम रहे। सुना है कि दुनिया के सबसे बड़े फैशनेबल स्टोर हेरड्ज का दावा है कि हमारे यहां सूई से लेकर हाथी तक हर चीज मिलती है। कहने वाले कहते हैं कि कीमत भी दोनों की एक ही होती है। हेरड्ज अगर लकड़ी बेचता तो खुदा की कसम ऐसी ही और इन ही दामों बेचता।

ये छोड़ कर आये है

कानपुर से उजड़ के कराची आये तो दुनिया ही और थी। अजनबी माहौल, बेरोजगारी, सबसे बढ़कर बेघरी अपनी पुरखों की हवेली के दस-बारह फोटो खिंचवा लाये थे। 'जरा यह साइड पोज देखिए, और यह शाट तो कमाल का है।' हर आये-गये को फोटो दिखा कर कहते, 'यह छोड़ कर आये हैं।' जिन दफ्तरों में मकान के एलॉटमेंट के प्रार्थना-पत्र दिये थे, उनके बड़े अफसरों को भी कटघरे के इस पार से तस्वीरी प्रमाण दिखाते 'यह छोड़ कर आये हैं।' वास्कट और शेरवानी की जेब में और कुछ हो या न हो, हवेली का फोटो जुरूर होता था। अस्ल में यह उनका विजिटिंग-कार्ड था। कराची के फ्लैटों को कभी माचिस की डिब्बियां, कभी दड़बे, कभी काबुक कहते। लेकिन जब तीन महीने जूतियां चटखाने के बावजूद एक काबुक में भी सर छुपाने को जगह नहीं मिली तो आंखें खुलीं। दोस्तों ने समझाया, 'फ्लैट एक घंटे में मिल सकता है, कस्टोडियन की हथेली पर पैसा रखो और जिस फ्लैट की चाहो, चाबी ले लो।' मगर किबला तो अपनी हथेली पर पैसा रखवाने के आदी थे, वो कहां मानते। महीनों फ्लैट एलॉट करवाने के सिलसिले में भूखे-प्यासे, परेशान-हाल सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते रहे। जिंदगी भर किसी के मेहमान न रहे थे। अब बेटी-दामाद के यहां मेहमान रहने की तकलीफ भी सही।

'अब क्या होएगा?'

इंसान जब किसी घुला-देने-वाली पीड़ा या परीक्षा से गुजरता है तो एक-एक पल, एक-एक बरस बन जाता है और यूं लगता है जैसे। 'हर बरस के हों दिन पचास हजार'।

बेटी के घर टुकड़े तोड़ने या उस पर भार बनने की वो कल्पना भी नहीं कर सकते थे। कानपुर में कभी उसके यहां खड़े-खड़े एक गिलास पानी भी पीते तो हाथ पर पांच-दस रुपये रख देते। लेकिन अब? सुब्ह सर झुकाये नाश्ता करके निकलते तो, दिन-भर खाक जन-कर मगरिब (सूरज डूबने के बाद की नमाज) से जरा पहले लौटते। खाने के समय कह देते कि ईरानी होटल में खा आया हूं। जूते उन्होंने हमेशा रहीम बख्श से बनवाये, इसलिए कि उसके बनाये हुए जूते चरचराते बहुत थे। इन जूतों के तले अब इतने घिस गये थे कि चरचराने के लायक न रहे। पैरों में ठेकें पड़ गई, अचकनें ढीली हो गयीं। बीमार बीबी रात को दर्द से कराह भी नहीं सकती थी कि समधियाने वालों की नींद खराब होने का डर था। मलमल के कुर्तों की लखनवी कढ़ाई मैल में छुप गई। चुन्नटें निकलने के बाद आस्तीनें उंगलियों से एक-एक बालिश्त नीचे लटकी रहतीं। खिजाबी मूंछों का बल तो नहीं गया, लेकिन सिर्फ बल-खाई हुई नोकें सियाह रह गयीं। चार-चार दिन नहाने को पानी न मिलता। मोतिया का इत्र लगाये तीन महीने हो गये। बीबी घबरा कर बड़े भोलेपन से देहाती अंदाज में कहतीं 'अब क्या होयेगा? होगा के बजाय होयेगा उनके मुंह से बहुत प्यारा लगता था। इस एक वाक्य में वो अपनी सारी परेशानी, मासूमियत, बेबसी, सामने वाले के ज्योतिष-ज्ञान और उसकी बेमांगी मदद पर भरोसा-सभी कुछ समो देती थी। किबला इसके जवाब में बड़ा विश्वास से 'देखते हैं' कह कर उनकी तसल्ली कर देते थे।

बाहुबल और तेज काट की अवस्था

हर दुःख, हर परेशानी के बाद जिंदगी आदमी पर अपना एक रहस्य खोल देती है। बोधि-वृक्ष की छांव तले बुद्ध भी एक दुःख भरी तपस्या से गुजरे थे। जब पेट पीठ से लग गया, आंखें अंधे-कुंओं की तह में अंधेरी हो गयीं और हड्डियों की माला में बस सांस की डोरी अटकी रह गई तो गौतम बुद्ध पर भी एक भेद खुला था। जैसा, जितना और जिस कारण आदमी दुःख भोगता है, वैसा ही भेद उस पर खुलता है, निर्वाण ढूंढ़ने वाले को निर्वाण मिल जाता है और जो दुनिया के लिए कष्ट उठाता है दुनिया उसको रास्ता देती चलती जाती है।

गली-गली खाक फांकने और दफ्तर-दफ्तर धक्के खाने के बाद किबला के दुखी दिल पर कुछ खुला तो ये कि कायदे-कानून बुद्धिमानों और जालिमों ने कमजोर दिल वालों को काबू में रखने के लिए बनाये हैं। जो व्यक्ति हाथी की लगाम की तलाश करता रह जाये, वो कभी उस पर चढ़ नहीं सकता। जाम उसका है, जो बढ़कर खुद साकी को जाम-सुराही समेत उठा ले। दूसरे शब्दों में, जो बढ़कर ताला तोड़ डाले, मकान उसी का हो गया। कानपुर से चले तो अपनी जमा-जत्था, वंशावली, स्प्रिंग से खुलने वाला चाकू, अख्तरी बाई फैजाबादी के तीन रिकार्ड, मुरादाबादी हुक्के और सुराही के हरे कैरियर स्टेंड के अतिरिक्त अपनी दुकान का ताला भी ढो कर ले आये थे। अलीगढ़ से खास तौर पर बनवाकर मंगवाया था, तीन सेर से कम न होगा। ऊपर जो कुछ उन पर खुला, उसके बाद बर्नस रोड पर एक शानदार फ्लैट अपने लिए पसंद किया। मार्बल की टाइल्ज, समुद्र की ओर खुलने वाली खिड़कियां जिनमें रंगीन शीशे लगे थे, दरवाजे के जंग लगे ताले पर अपने अलीगढ़ी ताले की एक ही चोट से फ्लैट में खुद को सरकार का अहसानमंद हुए बगैर आबाद कर लिया। तख्ती दुबारा पेंट करवा के लगा दी। तख्ती पर नाम के आगे 'मुजतर कानपुरी' भी लिखवा दिया। पुराने परिचितों ने पूछा, आप शायर कब से हो गये? फरमाया, मैंने आज तक किसी शायर पर दीवानी मुकदमा चलते नहीं देखा, न डिग्री, कुर्की होते देखी! फ्लैट पर कब्जा करने के कोई चार महीने बाद अपने चूड़ीदार का घुटना रफू कर रहे थे कि किसी ने बड़ी बदतमीजी से दरवाजा खटखटाया। मतलब ये कि नाम की तख्ती को फटफटाया। जैसे ही उन्होंने हड़बड़ा कर दरवाजा खोला, आनेवाले ने अपना परिचय इस प्रकार करवाया जैसे अपने ओहदे की चपड़ास उठा के उनके मुंह पर दे मारी। 'अफसर कस्टोडियन इवैकुएट प्रापर्टी।' फिर डपट कर कहा, 'बड़े मियां! फ्लैट का एलाटमेंट आर्डर दिखाओ।' किबला ने वास्कट की जेब से हवेली का फोटो निकाल कर दिखाया, 'ये छोड़ कर आये हैं' उसने फोटो का नोटिस न लेते हुए सख्ती से कहा, 'बड़े मियां! सुना नहीं? एलॉटमेट आर्डर दिखाओ।' किबला ने बड़ी शांति से अपने बायें पैर का सलीम-शाही जूता उतारा और उतने ही आराम से कि उसे, खयाल तक न हुआ कि क्या करने वाले हैं, उसके मुंह पर मारते हुए बोले, 'यह है यारों का एलॉटमेंट आर्डर! कार्बन कॉपी भी देखेंगे?' उसने अब तक, यानी जलील होने तक, रिश्वत-ही-रिश्वत खाई थी, जूते नहीं खाये थे। फिर कभी इधर का रुख नहीं किया।

जिस हवेली में था हमारा घर

किबला ने बड़े जतन से मार्किट में एक छोटी-सी लकड़ी की दुकान का डोल डाला। बीबी के दहेज के छोवर और वेबले स्कॉट की बंदूक औने-पौने में बेच डाली। कुछ माल उधार खरीदा, अभी दुकान ठीक से जमी भी न थी कि एक इन्कम टैक्स इंस्पेक्टर आ निकला। खाता, रजिस्ट्रेशन, रोकड़-बही और रसीद बुक तलब कीं। दूसरे दिन, किबला हमसे कहने लगे, 'मियां! सुना आपने? महीनों जूतियां चटखाता, दफ्तरों में अपनी औकात खराब करवाता फिरा, किसी ने पलट कर न पूछा कि भैया कौन हो! अब दिल्लगी देखिए, कल एक इन्कम टैक्स का तीसमारखां दनदनाता आया। लक्का कबूतर की तरह सीना फुलाये। मैंने साले को यह दिखा दी - यह छोड़ कर आये हैं। चौंक के पूछने लगा - 'यह क्या है! मैंने कहा हमारे यहां इसे महलसरा कहते हैं।'

सच झूठ का हाल मिर्जा जानें, उन्हीं से सुना है कि इस महलसरा का एक बड़ा फोटो, फ्रेम करवा के अपने फ्लैट की कागजी-सी दीवार में कील ठोंक रहे थे कि दीवार के उस पार वाले पड़ोसी ने आ कर निवेदन किया कि कील एक फुट ऊपर ठोकिए ताकि दूसरे सिरे पर मैं अपनी शेरवानी लटका सकूं। दरवाजा जोर से खोलने और बंद करने की धमक से इस जंग खाई कील पर सारी महलसरा पेंडुलम की तरह झूलती रहती थी। घर में डाकिया या नई धोबिन भी आती तो उसे भी दिखाते 'यह छोड़ कर आये हैं'।

उस हवेली का फोटो हमने भी कई बार देखा था। उसे देखकर ऐसा लगता था जैसे कैमरे को मोटा नजर आने लगा है लेकिन कैमरे की आंख की कमजोरी को किबला अपनी बातों के जोर से दूर कर देते थे। यूं भी अतीत हर चीज के आस-पास एक रूमानी घेरा खींच देता है। आदमी का जब सब-कुछ छिन जाये तो वो या तो मस्त मलंग हो जाता है या किसी फेंटैसी-लैंड में शरण लेता है, वंशावली और हवेली भी ऐसे ही शरण-स्थल थे। संभव है धृष्ट-निगाहों को यह तस्वीर में ढंढार दिखाई दे लेकिन किबला जब इसके नाजुक पहलुओं की व्याख्या करते थे तो इसके आगे ताजमहल बिल्कुल सीधा-सपाटा, गंवारू घरौंदा मालूम होता था। मिसाल के तौर पर, दूसरी मंजिल पर एक दरवाजा नजर आता था, जिसकी चौखट और किवाड़ झड़ चुके थे। किबला उसे फ्रांसीसी दरीचा बताते थे, अगर यहां वाकई कोई यूरोपियन खिड़की थी तो यकीनी तौर पर ये वही खिड़की होगी जिसमें जड़े हुए कांच को तोड़ कर सारी-की-सारी ईस्ट इंडिया कंपनी आंखों में अपने जूतों की धूल झोंकती गुजर गई। ड्योढ़ी में दाखिल होने का जो बेकिवाड़ फाटक था वो दरअस्ल शाहजहानी मेहराब थी। उसके ऊपर एक टूटा हुआ छज्जा था, जिस पर तस्वीर में एक चील आराम कर रही थी। ये राजपूती झरोखे के बाकी-बचे चिह्न बताये जाते थे, जिनके पीछे उनके दादा के समय में ईरानी कालीनों पर आजरबाइजानी अंदाज की कव्वालियां होती थीं। पिछले पहर जब नींद से भारी आंखें मुंदने लगतीं तो थोड़ी-थोड़ी देर बाद चांदी के गुलाबपाशों से महफिल में आये लोगों पर गुलाबजल छिड़का जाता। फर्श और दीवारें कालीनों से ढकी रहतीं। कहते थे कि जित्ते फूल गलीचे पे थे, वित्ते ही बाहर बगीचे में थे, जहां इतालवी मखमल के कारचोबी कालीन पर गंगा-जमुनी काम के पीकदान रखे रहते थे, जिनमें चांदी के वरक में लिपटी हुई गिलौरियों की पीक जब थूकी जाती तो बिल्लौरी गले में उतरती-चढ़ती साफ नजर आती, जैसे थर्मामीटर में पारा।

वो भीड़ कि अक्ल धरने की जगह नहीं

हवेली के चंद अंदरूनी क्लोज-अप भी थे। कुछ कैमरे की आंख के और कुछ कल्पना की आंख के। एक तिदरी थी जिसकी दो मेहराबों की दरारों में ईंटों पर कानपुरी चिड़ियों के घोंसले नजर आ रहे थे। इन पर Moorish arches का अभियोग था, दिया रखने का एक ताक ऐसे आर्टिस्टिक ढंग से ढहा था कि पुर्तगाली आर्च के चिह्न दिखाई पड़ते थे। फोटो में उसके पहलू में एक लकड़ी की घड़ौंची नजर आ रही थी, जिसका शाहजहानी डिजाइन उनके परदादा ने बादशाह के पानी रखने की जगह से, अपने हाथ से चुराया था। शाहजहानी हो या न हो, उसके मुगल होने में कोई शक नहीं था, इसलिए कि उसकी एक टांग तैमूरी थी। हवेली की गर्दिशें फोटो में नजर आती थीं, लेकिन एक पड़ोसी का बयान था कि उनमें गर्दिश के मारे खानदानी बूढ़े रुले फिरते थे। उत्तरी हिस्से में एक खंभा, जो मुद्दत हुई छत का बोझ अपने ऊपर से ओछे के अहसान की तरह उतार चुका था, Roman pillars का अदुभुत नमूना बताया जाता था। आश्चर्य इस पर था कि छत से पहले क्यों न गिरा। इसका एक कारण यह हो सकता है कि चारों तरफ गर्दन तक मलबे में दबे होने की वज्ह से उसके गिरने के लिए कोई खाली जगह न थी। एक टूटी दीवार के सहारे लकड़ी की कमजोर सीढ़ी इस प्रकार खड़ी थी कि यह कहना मुश्किल था कि कौन किसके सहारे खड़ा है। उनके बयान के अनुसार जब दूसरी मंजिल नहीं गिरी थी तो यहां विक्टोरियन स्टाइल का Grand staircase हुआ करता था। उस छत पर, जहां अब चिमगादड़ें भी नहीं लटक सकती थीं, किबला लोहे की कड़ियों की ओर इशारा करते, जिनमें दादा के समय में बेल्जियम के फानूस लटके रहते थे, जिनकी चंपई रोशनी में वो घुंघराली खंजरियां बजतीं जो दो कूबड़ वाले बाख्तरी ऊंटों के साथ आई थीं। अगर फोटो उनकी रनिंग कमेंट्री के साथ न देखे होते तो किसी तरह यह खयाल में नहीं आ सकता था कि पांच सौ स्क्वायर गज की एक लड़खड़ाती हवेली में इतनी वास्तु कला और ढेर-सारी संस्कृतियों का ऐसा घमासान का दंगल होगा कि अक्ल धरने की जगह न रहेगी। पहली बार फोटो देखें तो लगता था कि कैमरा हिल गया है। फिर जरा गौर से देखें तो आश्चर्य होता था कि यह ढंढार हवेली अब तक कैसे खड़ी है। मिर्जा का विचार था कि इसमें गिरने की भी ताकत नहीं रही।