खोया पानी / भाग 30 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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'बट्टा -सट्टा'

बिशारत ने खान साहब की आसानी के लिए बार्टर को वस्तु-विनिमय कहना शुरू कर दिया, फिर इसका अर्थ समझाया। लंबी-चौड़ी व्याख्या सुन कर बोले 'यारा जी! तो फिर सीधा-सीधा बट्टा-सट्टा क्यों नहीं कहते, जिसमें हर पक्ष यही समझता है कि वो घाटे में रहा।'

और इसी भौंडे उदाहरण पर फैसला हो गया। खान साहब ने बड़ी खुशी और गर्व से एलान किया कि वो 'वस्तु विनिमय' के लिए तैयार हैं। दोनों ने एक-दूसरे को मुबारकबाद दी और इस तरह गले मिले, जिस तरह वो दुखियारे मिलते हैं जो एक-दूसरे के बहनोई भी होते हैं और साले भी।

लेकिन बिशारत दिल-ही-दिल में खुश थे कि खटारा गाड़ी सात हजार में बिक गयी। खान साहब उनसे भी जियादा खुश थे कि दलिद्दर लकड़ी के बदले नौ हजार की कार हथिया ली। दोनों पक्ष इस स्थिति को सत्य की विजय समझ रहे थे। हालांकि हम से दिल की बात पूछें तो झूठ ने झूठ को पछाड़ा था और कूड़ा-करकट का हस्तानांतरण कूड़ा-करकट से हुआ था। खान साहब कार को चमकाते हुए कहने लगे, 'हम इसको लंडी कोतल का सैर करायेगा। अखरोट के पेड़ की छांव में खड़ा करेगा। इसमें काबुल से कराकली, कालीन और चिल्गोजे भर कर लायेगा, काबुल के उत्तर के चिल्गोजे में, ईमान से निकाह के दस छुहारों के बराबर ताकत होता है।

फैसला होते ही खान साहब ने नयी-नयी सीखी हुई लखनवी उर्दू और कानपुरी लहजे के शिकंजे से खुद को एक ही झटके में आजाद कर लिया। वाक-चातुर्य में निपुण शत्रु पर विजय पाने के बाद कैमोफ्लाज की आवश्यकता न रही।

कहने का उद्देश्य सिर्फ यह है कि खान साहब के नजदीक मुश्की से बेहतर दुनिया में कोई सवारी हो ही नहीं सकती थी। वो उस कार को, जो अब इनकी हो चुकी थी, मुश्की कहने लगे।


बालू - शाही का इतिहास

बिशारत ने चोरी-छुपे शुक्राने की नमाज अदा की मगर खान साहब से अपनी खुशी छुपाये नहीं छुप रही थी। वो हरचंद राय रोड पर से गुजरते हुए तांगों के घोड़ों को ललचायी हुई नजरों से देख रहे थे कि यह पल विजय-प्राप्ति का था। दुश्मन के घर के चारों ओर शाही अंदाज में निकलने की घड़ी थी। बर्दाश्त न हो सका तो फिलहाल मुश्की की रान यानी कार के मडगार्ड को थपथपा कर दिल के हौसले निकाले, इंजन की थूथनी पर हाथ रख कर शाबाशी दी। उनका बस चलता तो उसे घास-दाना खिला कर अपने हाथ से खरेरा करते। कुछ देर बाद जैसे ही एक तांगे वाले ने स्पेंसर आई हास्पिटल के सामने पेड़ की छांव में घोड़ा खोला, वो लपक कर उस पर जा चढ़े और बिशारत की दुकान के दो चक्कर लगाये। फिर बिशारत ही से जग में ठंडा पानी मंगवाया और सर पर उसके तरेड़ों के बाद सात सेर बालूशाही मंगवा कर बांटी। बिशारत के तीन रिश्तेदारों के हिस्से लगा कर खुद पहुंचाये। बिशारत दंग रह गये। हद हो गयी। सख्त नाराजगी के आलम में भी उन्हें कभी इन तीनों पर शक नहीं हुआ था कि यह ऐसे फसादी और दोगले निकलेंगे। भीतर-ही-भीतर खान साहब से मिल जायेंगे। बहरहाल, बालूशाही द्वारा दोगलेपन का भांडा फूटने का इतिहास में यह पहला उदाहरण था। हमारा मतलब है बालूशाहियों के इतिहास में।

बन्नूं के भक्तों ने रायफलों चला-चला कर सुल्ह का ऐलान किया। एक पड़ोसी दुकानदार दौड़ा-दौड़ा बिशारत को मुबारकबाद देने आया। वो यह समझा कि उनके यहां बेटा पैदा हुआ है।

एक ट्रक ड्राइवर से, जो दुकान पर पड़तल लकड़ी की डिलीवरी देने आया था, खान साहब ने इच्छा व्यक्त की कि जरा हमें हमारी कार में गोवर्धन दास मार्किट तक सैर तो करा दो, तुम्हारे चाय-पानी का बंदोबस्त हो जायेगा। कुछ देर बाद लौटे तो कार की परफार्मेंस से बेहद खुश थे। कहने लगे, खुदा की कसम! बिल्कुल अब्बा जान की मुश्की की तरह है।

एक पेंटर को बुला कर रातों-रात कार पर काला स्प्रे पेंट करवाया ताकि आदतों के अलावा रूप-रंग में मुश्की जैसी लगे।


'Et, tu, Brute!'

दूसरे दिन बिशारत दुकान के शटर बंद करवा रहे थे कि सामने एक ट्रक आकर रुका जिसमें ड्राइवर के पहलू में थाने के मुंशी जी बैठे थे और पीछे उनकी चोरी हो गयी लकड़ी भी थी। तख्तों पर राइफल उठाये वही कांस्टेबल टंगा था। खान साहब ने एक डी.एस.पी. के माध्यम से, जो बन्नूं का रहने वाला उनका गिराईं था, न सिर्फ सारा माल शेर के मुंह से निकलवा लिया था, बल्कि उसके दांत भी प्रसाद के तौर पर निकाल लाये थे। ट्रक के पीछे-पीछे एक टैक्सी में (जो आम रास्ते पर अपने पीछे से निश्चित मात्रा से अधिक धुआं निकालने के कारण अभी-अभी पकड़ी गयी थी) वकील साहब पहुंचे, ताकि आपस में सुल्ह-सफाई हो जाये और मामला रफा-दफा हो। उनसे कुछ कदम के फासले पर वही मुल्जिम-नुमा मुवक्किल एक हाथ में उनका ब्रीफकेस थामे और दूसरे में कानून की किताबें उठाये पीछे चल रहा था। वकील साहब के हाथ में मिठाई के दो डिब्बे थे। एक खान साहब को पेश किया और दूसरे के बारे में बिशारत से कहा, कि हमारी ओर से भाभी साहिबा और बच्चों को दे दीजियेगा।

थाने के मुंशी जी ने पूछा, 'हमारा खलीफा कहां है?' बिशारत को यह जानकार बड़ा शॉक लगा कि पुलिस लॉक-आप में रात गुजारने के बाद से खलीफा महीने में दो बार थाने जाता रहा है और एस.एच.ओ. से लेकर हिरासती मुल्जिमों तक की हजामत बनाता रहा है! थाने के स्टाफ में या किसी हवालाती मुल्जिम के यहां निकट या दूर भविष्य में बच्चा पैदा होने वाला हो या थाने के आस-पास के इलाके की झुग्गियों में कोई स्त्री भारी कदमों से चलती नजर आ जाये तो उससे पक्का वादा लेता कि अगर लड़का हुआ तो खत्ने मैं करूंगा। उसके स्वर्गवासी पिता की वसीयत थी कि बेटा! अगर तुम बादशाह भी बन जाओ तो अपने पुरखों के पेशे को न छोड़ना। दूसरे, जिस किसी से मिलो उसको हमेशा के लिए अपना कर रखो या उसके हो रहो। सो वो गरीब सबका हो रहा।

खान साहब रात दो बजे तक कर्जों और 'पूला' तोड़ कर खेतों को पानी देने के सरसरी मुकद्दमों को, जिनमें गाली गलौज के समावेश से पेचीदगियां पैदा हो गयीं थीं, निपटाते रहे। मुकद्दमों की सुनवायी और फैसले के दौरान, लोगों के झुंड उनको खुदा हाफिज कहने आते रहे। अदालत हरेक की चाय, चिलम, चिल्गोजे और बालूशाही से खातिर करती रही। सुब्ह चार बजे से खान साहब ने अपना सामान बांधना शुरू कर दिया। सुब्ह की अजान के बाद एक असील मुर्ग की कुर्बानी की। उसका सर बिल्ली को और शेष घर वालों को नाश्ते पर खिलाया। दिल खुद चबाया। नाश्ते पर ही ऐलान किया कि मुश्की मालगाड़ी से नहीं जायेगी। बल्कि मैं इसे पंजाब की सैर कराता, दरियाओं का पानी पिलाता 'बाई रोड' ले जाऊंगा। बच्चे उनके जाने से बहुत उदास थे। उन्होंने खुद भी इकरार किया कि मेरा भी जाने को जी नहीं चाहता, मगर क्या करूँ लकड़ी का कारोबार वहीं है। अगर यहां जंगल होते तो खुदा की कसम तुम लोगों को छोड़ कर हरगिज न जाता। फिर उन्होंने तसल्ली दी कि इंशाल्लाह दो महीने बाद फिर आऊंगा। एक बोहरी सेठ से वसूली करनी है। अकेला आदमी हूं, बूढ़ा हो गया हूं, एक समय एक ही बेईमान से निपट सकता हूं।

बिशारत को मुस्कुराता देख कर खुद भी मुस्कुरा दिये। कहने लगे, यहां उधार पर बिजनेस करना ऐसा ही है जैसे गन्ने के खेत में कबड्डी खेलना! जितना बड़ा शहर होगा, उतना ही बड़ा घपला और फड्डा होगा, जिसकी छत जियादा बड़ी है, उस पर बर्फ भी जियादा गिरेगी।

फिर सबसे छोटे बच्चे को बहलाने के लिए चारपायी पर लेट गये।

चलते समय उन्होंने बिशारत की बेटी मुनीजा को, जो उनकी चहेती हो गयी थी, पांच सौ रुपये दिये। यह उसकी पांचवीं सालगिरह का तोहफा था, जो आठ दिन बाद मनायी जाने वाली थी।

73.6.3 रुपये नौकरों को बांटे। इससे पहले पिछली रात वो एक पठान नौजवान गुल दाऊद खान को दो हजार रुपये दे चुके थे, ताकि वो अपने चचा पर, जिसने उसकी जमीनों पर जबर्दस्ती कब्जा कर रखा है, फौजदारी मुकद्दमा दायर करे और उस दल्ले को यतीमों की जायदाद पर कब्जा करने की ऐसी सजा दिलवाये कि सब चचाओं को सीख मिले। इन तीनों रकमों को कुल जोड़ 2573.6.3 रुपये बनता है और यही वो रकम थी जिसका सारा झगड़ा था और जिसकी वसूली के लिए उन्होंने अपने कमांडोज के साथ धावा बोला था। बल्कि मिर्जा के अनुसार, प्रतिद्वंद्वी के किले के बीच में तंबू तान कर भंगड़ा डाल रखा था।

इस किस्से को तीस साल होने के आये। हमारी सारी उम्र हिसाब-किताब ही में बीती है, मगर हम आज भी यह नहीं बता सकते कि वास्तव में किसकी किस पर कितनी रकम निकलती थी और आखिर में जीत किस की रही। हमारी ही समझ का कुसूर था, जिन्हें हम दुश्मन समझे, वो दोस्त निकले और...।

खान साहब नौकरों को दे दिला कर बिशारत के वालिद को खुदा हाफिज कह रहे थे कि बिशारत क्या देखते हैं कि ठीक नौ बजे एक व्यक्ति चला आ रहा है, जिसकी सिर्फ शक्ल खलीफा से मिलती है। तंग मोहरी के पाजामे, मलमल के कुर्ते और मखमल की टोपी के बजाय मलेशिया की शलवार और कुर्ता, सर पर जरी की कुलाह पर मशहदी पगड़ी, कामदार वास्कट, पैर में टायर के तले वाली पेशावरी चप्पल। वास्कट और कुलाह क्रमानुसार तीन साइज बड़ी और छोटी थी। कोट की आस्तीन पर इमाम जामिन (सुरक्षा के लिए तावीज) हाथ में बलबन (घोड़ा) की लगाम। खान साहब ने सूचित किया कि बलबन भी एक ट्रक में बन्नूं जा रहा है। उनके अस्तबल में जहां पांच घोड़े, बेकार खड़े हिनहिना रहे हैं, वहां एक और सही। प्रत्येक प्राणी अपने भाग्य का अन्न साथ लाता है।

खान साहब ने घोषणा की कि मुश्की को खलीफा ड्राइव करके पेशावर ले जायेगा और कयामत तक वापस नहीं आयेगा। इसके दो कारण हैं, पहला तो यह कि उसके पुरखे कंधार से पेशावर के रास्ते से हिंदुस्तान आये थे। यात्रा के सामान में नंगी तलवार के अतिरिक्त कुछ न था। यह भी अधिकाधिक उपयोग से घिस-घिसा कर उस्तरा बन गयी। दूसरा यह कि उन्होंने इस नमक-हलाल को मुलाजिम रख लिया।

बिशारत का मुंह फटा-का-फटा रह गया।

'खलीफा! तुम...!'

'सरकार! - ' उसने इस अंदाज से हाथ जोड़ कर घिघियाते हुए कहा कि किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता न रही। इसमें लज्जा भी थी, विनती भी और हर हाल में रोटी कमाने-खाने का हौसला भी।


जब उम्र की नकदी खत्म हुई

खान साहब के जाने के कोई छः-सात सप्ताह बाद उनका लिखवाया हुआ एक खत मिला। लिखा था 'खुदा का शुक्र है, यहां हर तरह से खैरियत है, बाकी यह कि मैंने अपने वहां रहने के दौरान आपको बताना ठीक न समझा, क्योंकि आप ख्वामख्वाह चिंता करते और सोहबत का सारा मजा किरकिरा हो जाता। पेशावर से चलने के तीन सप्ताह पूर्व डॉक्टरों ने मुझे जिगर का सिरोसिस बताया था, दूसरी स्टेज में, जिसका कोई इलाज नहीं। जिनाह अस्पताल वालों ने भी यही बताया। डॉक्टरों ने सलाह दी कि हर समय अपना दिल खुश रखो। खुद को खुश रखो, और ऐसे खुशबाश लोगों के साथ अधिक-से-अधिक समय बिताओ जिनकी संगत तुम्हें खुश रखे। बस यह तुम्हारा इलाज और अच्छी जिंदगी का नुस्खा है। यारा जी! मैं बच्चा नहीं हूं। जो उन्होंने कहा वो मैं समझ गया और जो नहीं कहा वो भी अच्छी तरह समझ गया। यह सलाह तो मुझे कोई तबला बजाने वाला भी मुफ्त दे सकता था। इसके लिए एफ.ओ.सी.जी. और एफ.आर.सी.एस. होने और जगह-बेजगह टोंटी लगा कर देखने की जुरूरत नहीं।

मैंने लंडी कोतल से लांडी तक निगाह डाली। आपसे जियादा मुहब्बत करने वाला, खुद खुश रहने और दूसरों का मन प्रसन्न करने वाला कोई बंदा नजर नहीं आया सो मैं टिकट लेकर आपके पास आ गया। बाकी जो कुछ हुआ वो तबीयत का जंग उतारने का बहाना था। जितने दिन आपके साथ गुजरे, उतने दिनों मेरी जिंदगी बढ़ गयी। खुदा आपको इसी तरह खुश और मुझ पर मेहरबान रखे। आपको मेरी वज्ह से तकलीफ हुई उसकी माफी मांगना लखनवी तकल्लुफ में गिना जायेगा जो मुझ जैसे जाहिल के बस का काम नहीं। मगर दोस्ती में तो यही कुछ होता है - मेरा दादा कहता कि फारसी में एक कहावत है - या तो हाथी-बानों से दोस्ती मत करो और अगर कर ली है तो फिर अपना मकान ऐसा बनाओ जो हाथियों की टक्कर सह सके।

एक ट्रक वाले के हाथ मरदान का दस सेर ताजा गुड़ जिसमें नयी फस्ल के अखरोट डले हुए हैं, सोवात के शहद के तीन छत्ते कुदरती हालत में, अस्ली मोम और मुर्दा मक्खियों समेत और एक सुराहीदार गर्दन वाली टोकरी में बीस फस्ली बटेरें भेज रहा हूं। युसूफी साहब के लिए उनका पसंदीदा पेशावर केंट वाली दुकान का सेर भर ताजा पनीर और पिंडी का हलवा एक नाजुक-सी हवादार टोकरी में है। चलते समय उन्होंने गंधार आर्ट के दो-तीन नमूनों की फरमाइश की थी। कुछ तो रवानगी की अफरा-तफरी, फिर मैं जाहिल आदमी। यहां अपने ही जैसे दो-तीन दोस्तों से पूछा। उन्होंने मुझे गंधार मोटरपार्ट के दफ्तर भेज दिया। वो बोले हम तो ट्रक और उसके पार्ट्स बेचते हैं। तुम्हें किसका नमूना चाहिये। सोमवार को एक ठेकेदार का मुंशी चार काले पत्थर की मूर्तियां खुदाई से चादर में छुपा कर लाया था मगर एक जानने वाले ने जो आदमकद से भी बड़ी मूर्तियां स्मग्ल करके अमेरिका भेजता रहता है, मुझे बताया कि यह बुद्ध की नहीं है बल्कि उसके चपड़कनात चेले-चांटों की हैं। पश्तों में उसके चेलों के लिए बहुत बुरा लफ्ज है। बुद्ध इतना तगड़ा कभी था ही नहीं। सुना है, निर्वाण के बाद बुद्ध की सेहत और पसलियां युसूफी साहब जैसी हो गयी थीं। बहरहाल, तलाश जारी है। बाद सलाम उनसे अर्ज कीजिये कि इससे तो बेहतर होगा कि दीवार पर काबुली वाला का फोटो टांग लें।

'इस बीमारी का खाना खराब हो। उम्र का पैमाना पूरा होने से पहले ही छलका जा रहा है। खत लिखवाने में भी सांस उखड़ जाती है। डर के मारे ठीक से खांस भी नहीं सकता। आपकी भाभी रोने लगती हैं, मुझसे छुप कर थोड़ी-थोड़ी देर के बाद गरज-चमक के साथ रोती हैं। बहुत समझाता हूं कि बख्तावर! जब तक बिल्कुल बेहोश न हो जाऊं, मैं बीमारी से हार मानने वाला आदमी नहीं। बिशारत भाई! ऐसे आदमी के लिए पश्तो में बहुत बुरा शब्द है। पिछले हफ्ते से यूनिवर्सिटी रोड पर एक नया मकान बनवाना शुरू कर दिया है। दालान में पेशावर के पचास या कराची के सौ शायरों के पाल्थी मार कर बैठने की गुंजाइश होगी।

बाकी सब खैरियत है। खलीफा सलाम अर्ज करता है। मैंने उसे बैंक में चपरासी लगवा दिया है। रोज शाम को और छुट्टी के दिन मुश्की वही चलाता है। बहुत चंगा है, मुश्की को पश्तो में रवानी से गाली देने लगा है, मगर अभी पश्तो की तमीज पैदा नहीं हुई। सुनने वाले ठट्ठे लगाते हैं। कल ही मैंने उसे गुर बताया है कि जिसे तू हमेशा पुल्लिंग समझता आया, अब उसे स्त्रीलिंग कर दे, फिर तुझे पश्तो आ जायेगी। सबको सलाम, दुआ, प्यार और डांट-डपट।

आपका चाहने वाला काबुली वाला।

एक बात और यहां आ कर पुराना हिसाब देखा तो पता चला कि अभी कुछ लेना-देना बाकी है। मुझे सफर मना है। आप किसी तरह फुर्सत निकाल कर यहां जल्दी आ जायें तो हिसाब पूरा हो जाये और आपके काबुली वाला को थोड़ी-सी जिंदगी और उधार मिल जाये।

दूसरे, अब नये मकान और दालान का इंतजार कौन करे। मैंने आपके लिए फिलहाल एक बेछेद चांदनी और पांच शायरों का इंतजाम कर लिया है। वस्सलाम।

बिशारत पहली ट्रेन से पेशावर रवाना हो गये।

समाप्त।