खोया पानी / भाग 6 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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फेल होने के फायदे

बिशारत कहते हैं कि बी.ए. का इम्तहान देने के बाद यह चिंता सर पड़ी कि अगर फेल हो गये तो क्या होगा, वजीफा पढ़ा तो खुदा पर भरोसे से यह चिंता तो दूर हो गयी लेकिन इससे बड़ी एक और समस्या गले आ पड़ी कि खुदा-न-ख्वास्ता पास हो गये तो क्या होगा। नौकरी मिलनी मुहाल, यार दोस्त सब तितर-बितर हो जायेंगे, वालिद हाथ खींच लेंगे। बेकारी, बेरोजगारी, बेपैसे, बेकाम... जीवन नर्क हो जायेगा। अंग्रेजी अखबार सिर्फ 'वांटेड' के विज्ञापन देखने के लिए खरीदना पड़ेगा। फिर हर बौड़म मालिक के सांचे में अपनी क्वालिफिकेशंस को इस तरह ढाल कर प्रार्थना-पत्र देना पड़ेगा कि हम मृत्युलोक में इसी नौकरी के लिए अवतरित हुए हैं। इक-रंगे विषय को सौ-रंग में बांधना पड़ेगा। रोज एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय तक जलील होना पड़ेगा, जब तक कि एक ही दफ्तर में इसकी स्थायी व्यवस्था न हो जाये। हर चंद कि फेल होने की संभावना थी मगर पास होने का डर भी लगा हुआ था।

कई लड़के इस जिल्लत को और दो साल स्थगित करने के लिए एम.ए. और एलएल.बी. में प्रवेश ले लेते थे। बिशारत की जान-पहचान में जिन मुसलमान लड़कों ने तीन साल पहले यानी 1927 में बी.ए. किया था वो सब जूतियां चटखाते फिर रहे थे, सिवाय एक सौभाग्यशाली के, जो मुसलमानों में सर्वप्रथम आया और अब मुस्लिम मिडिल स्कूल में ड्रिल मास्टर हो गया था। 1930 की भयानक विश्व-स्तरीय बेरोजगारी और महंगाई की तबाहियां समाप्त नहीं हुई थीं। माना कि एक रुपये का गेहूं 15 सेर और देसी घी एक सेर मिलता था, लेकिन एक रुपया था किसके पास?

कभी-कभी वो डर-डर के, मगर सचमुच की इच्छा करते कि फेल ही हो जायें तो बेहतर है, कम से कम एक साल निश्चिंतता से कट जायेगा। फेल होने पर बकौल मिर्जा सिर्फ एक दिन आदमी की बेइज्जती खराब होती है इसके बाद चैन ही चैन। बस यही होगा ना कि जैसे ईद पर लोग मिलने आते हैं उसी तरह उस दिन खानदान का हर बड़ा बारी-बारी से बरसों की जमा धूल झाड़ने आयेगा और फेल होने तथा खानदान की नाक कटवाने का एक अलग ही कारण बतायेगा। उस जमाने में नौजवानों का कोई काम, कोई हरकत ऐसी नहीं होती थी जिसकी झपट में आ कर खानदान की नाक न कट जाये। आजकल की-सी स्थिति नहीं थी कि पहले तो खानदानों के मुंह पर नाक नजर नहीं आती और होती भी है तो ट्यूबलेस टायर की तरह जिसमें आये दिन हर साइज के पंक्चर होते रहते हैं और अंदर ही अंदर आप-ही-आप जुड़ते रहते हैं। यह भी देखने में आया है कि कई बार खानदान के दूर-पास के बुजुर्ग छठी-सातवीं क्लास तक फेल होने वाले लड़कों की, संबंधों की निकटता व क्षमता के हिसाब से अपने निजी हाथ से पिटाई भी करते थे, लेकिन जब लड़का हाथ-पैर निकालने लगे और इतना सयाना हो जाये कि दो आवाजों में रोने लगे यानी तेरह, चौदह साल का हो जाये तो फिर उसे थप्पड़ नहीं मारते थे, इसलिए कि अपने ही हाथ में चोट आने और पहुंचा उतरने का अंदेशा रहता था, केवल चीख-पुकार, डांट से काम निकालते थे। हर बुजुर्ग उसकी सर्टिफाइड नालायकी की अपने झूठे शैक्षिक रिकार्ड से तुलना करता और नयी पौध में अपनी दृष्टि की सीमा तक कमी और गिरावट के आसार देख कर इस सुखद निर्णय पर पहुंचता कि अभी दुनिया को उस जैसे बुजुर्ग की जुरूरत है। भला वो ऐसी नालायक नस्ल को दुनिया का चार्ज देकर इतनी जल्दी कैसे विदा ले सकता है। मिर्जा कहते हैं कि हर बुजुर्ग बड़े सिद्ध पुरुषों के अंदाज में भविष्यवाणी करता था कि तुम बड़े होकर बड़े आदमी नहीं बनोगे। साहब यह तो अंधे को भी... हद तो ये है कि खुद हमें भी... नजर आ रहा था। भविष्यवाणी करने के लिए सफेद दाढ़ी या भविष्यवक्ता होना आवश्यक नहीं था। बहरहाल यह सारी Farce एक ही दिन में खत्म हो जाती थी, लेकिन पास होने के बाद तो एक उम्र का रोना था। जिल्लत ही जिल्लत, परेशानी ही परेशानी।

बिशारत और शाहजहां की तमन्ना

अंततोगत्वा दूसरा अंदेशा पूरा हुआ। वो पास हो गये। जिस पर उन्हें खुशी, प्रोफेसरों को आश्चर्य और बुजुर्गों को शॉक हुआ। उस दिन कई बार अपना नाम, उसके आगे बी.ए. लिख-लिख कर, देर तक भिन्न-भिन्न कोणों से देखा किये, जैसे हुसैन अपनी पेंटिंग को समझने के लिए पीछे हट-हट कर देखते हैं। एक बार तो बी.ए. के बाद ब्रेकिट में (फर्स्ट अटेंप्ट) भी लिखा, मगर इसमें वाचालता और घमंड का पहलू दिखाई दिया। थोड़ी देर बाद गत्ते पर अंग्रेजी में नीली रौशनाई से नाम और लाल रौशनाई से बी.ए. लिख कर दरवाजे पर लगा आये। पंद्रह-बीस दिन बाद उर्दू के एक स्थानीय समाचार-पत्र में विज्ञापन देखा कि धीरजगंज के मुस्लिम स्कूल में, जहां इसी साल नवीं क्लास शुरू होने वाली है, उर्दू टीचर की जगह खाली है। विज्ञापन में यह लालच भी दिया गया था कि नौकरी स्थायी, वातावरण पवित्र और शांत तथा वेतन उचित है। वेतन की उचितता का स्पष्टीकरण ब्रैकिट मंक कर दिया गया था कि एलाउन्स समेत पच्चीस रुपये मासिक होगा। सवा रुपया वार्षिक उन्नति अलग से। मल्कुश्शोअरा-खाकानी-ए-हिंद शेख मुहम्मद इब्राहीम 'जौक' को बहादुर शाह जफर ने अपना उस्ताद बनाया तो पोषण की दृष्टि से चार रुपये मासिक राशि तय की। मौलाना मुहम्मद हुसैन आजाद लिखते हैं कि 'वेतन की कमी पर नजर करके बाप ने अपने इकलौते बेटे को इस नौकरी से रोका... लेकिन किस्मत ने आवाज दी कि चार रुपये न समझना। ये ऐवाने-मल्कुशोराई के चार खंभे हैं, मौके को हाथ से न जाने देना।' इनकी इच्छा का महल तो पूरे पच्चीस खंभों पर खड़ा होने वाला था।

लेकिन वो शांत वातावरण पर मर मिटे। धीरजगंज कानपुर और लखनऊ के बीच में एक बस्ती थी जो गांव से बड़ी और कस्बे से छोटी थी। इतनी छोटी कि हर एक शख्स एक दूसरे के बाप-दादा तक की करतूतों तक से परिचित था और न सिर्फ ये जानता था कि हर घर में जो हांडी चूल्हे पर चढ़ी है उसमें क्या पक रहा है बल्कि ये भी कि किस-किस के यहां तेल में पक रहा है। लोग एक दूसरे की जिंदगी में इस बुरी तरह घुसे हुए थे कि आप कोई काम छुप कर नहीं कर सकते थे। ऐब करने के लिए भी सारी बस्ती का हुनर और मदद चाहिए थी। बहुत दिनों से उनकी इच्छा थी कि भाग्य ने साथ दिया तो टीचर बनेंगे। लोगों की नजर में शिक्षक का बड़ा सम्मान था। कानपुर में उनके पिता की इमारती लकड़ी की दुकान थी, मगर घरेलू कारोबार के मुकाबले उन्हें दुनिया का हर पेशा जियादा दिलचस्प और कम जलील लगता था। बी.ए. का नतीजा निकलते ही पिता ने उनके हृदय की शांति के लिए अपनी दुकान का नाम बदल कर 'एजुकेशनल टिंबर डिपो' रख दिया, मगर तबीयत इधर नहीं आई। मारे, बांधे कुछ दिन दुकान पर बैठे, मगर बड़ी बेदिली के साथ। कहते थे कि भाव-ताव करने में सुब्ह से शाम तक झूठ बोलना पड़ता है। जिस दिन सच बोलता हूं उस दिन कोई बोहनी-बिक्री नहीं होती, दुकान में गर्दा बहुत उड़ता है, ग्राहक चीख-चीख कर बात करते हैं।

होश संभालने से पहले वो इंजन-ड्राइवर और होश संभालने के बाद स्कूल टीचर बनना चाहते थे। क्लास रूम भी किसी सल्तनत से कम नहीं। शिक्षक होना भी एक तरह का शासन है, तभी तो औरंगजेब ने शाहजहां को कैद में पढ़ाने की अनुमति नहीं दी। बिशारत स्वयं को शाहजहां से अधिक सौभाग्यशाली समझते थे, विशेष रूप से इसलिए कि इन्हें तो बदले में पच्चीस रुपये भी मिलने वाले थे।

इसमें शक नहीं कि उस जमाने में शिक्षण का पेशा बहुत सम्मानित और गरिमामय समझा जाता था। जिंदगी और कैरियर में दो चीजों की बड़ी अहमियत थी। पहला इज्जत और दूसरे मानसिक शांति। दुनिया के और किसी देश में इज्जत पर कभी इतना जोर नहीं रहा जितना कि इस महाद्वीप में। अंग्रेजी में तो इसका कोई ढंग का समानार्थक शब्द भी नहीं है, इसलिए अंग्रेजी के कई पत्रकारों तथा प्रसिद्ध लिखने वालों ने इस शब्द को अंग्रेजी में ज्यों-का-त्यों इस्तेमाल किया है।

आज भी दुनिया देखे हुए बुजुर्ग किसी को दुआ देते हैं तो चाहे सेहत, सुख-चैन, अधिक संतान, समृद्धि का जिक्र करें या न करें, यह दुआ जुरूर करते हैं कि खुदा तुम्हें और हमें इज्जत-आबरू के साथ रक्खे, उठाये। नौकरी के संदर्भ में भी हम गुणसंपन्नता, तरक्की की दुआ नहीं मांगते, अपने लिए हमारी अकेली दुआ होती है कि सम्मान के साथ विदा लें। यह दुआ आपको दुनिया की किसी और जबान या मुल्क में नहीं मिलेगी। कारण ये कि बेइज्जती के जितने प्रचुर अवसर हमारे यहां हैं दुनिया में कहीं और नहीं। नौकरीपेशा आदमी बेइज्जती को प्रोफेशनल हेजर्ड समझ कर स्वीकार करता है। राजसी परंपराएं और उनकी जलालतें जाते-जाते जायेंगी। उन दिनों नौकरी-पेशा लोग खुद को नमकख्वार कहते और समझते थे (रोम में तो प्राचीन काल में नौकरों को वेतन के बदले नमक दिया जाता था और दासों की कीमत नमक के रूप में दी जाती थी), वेतन मेहनत के बदले नहीं बल्कि बतौर दान और बख्शिश दिया और लिया जाता था। वेतन बांटने वाले विभाग को बख्शीखाना कहते थे।


नेकचलनी का साइनबोर्ड

विज्ञापन में मौलवी सय्यद मुहम्मद मुजफ्फर ने, कि यही स्कूल के संस्थापक, व्यवस्थापक, संरक्षक, कोषाध्यक्ष और गबनकर्ता का नाम था, सूचित किया था कि उम्मीदवार को लिखित आवेदन करने की आवश्यकता नहीं, अपनी डिग्री और नेकचलनी के दस्तावेजी सुबूत के साथ सुब्ह आठ बजे स्वयं पेश हो। बिशारत की समझ में न आया कि नेकचलनी का क्या सुबूत हो सकता है, बदचलनी का अलबत्ता हो सकता है। उदाहरण के लिए चालान, मुचलका, गिरफ्तारी-वारंट, सजा के आदेश की नक्ल या थाने में दस-नंबरी बदमाशों की लिस्ट। पांच मिनट में आदमी बदचलनी तो कर सकता है नेकचलनी का सुबूत नहीं दे सकता। मगर बिशारत की चिंता अकारण थी। इसलिए कि जो हुलिया उन्होंने बना रक्खा था यानी मुंड़ा हुआ सर, आंखों में सुरमे की लकीर, एड़ी से ऊंचा पाजामा, सर पर मखमल की काली रामपुरी टोपी, घर, मस्जिद और मुहल्ले में पैर में खड़ाऊं... इस हुलिए के साथ वो चाहते भी तो नेकचलनी के सिवा और कुछ संभव न था। नेकचलनी उनकी मजबूरी थी, स्वयं अपनायी हुई अच्छाई नहीं और उनका हुलिया इसका सुबूत नहीं साइनबोर्ड था।

यह वही हुलिया था जो इस इलाके के निचले मिडिल क्लास खानदानी शरीफ घरानों के नौजवानों का हुआ करता था। खानदानी शरीफ से अभिप्राय उन लोगों से है जिन्हें शरीफ बनने, रहने और कहलाने के लिए व्यक्तिगत कोशिश बिल्कुल नहीं करनी पड़ती थी। शराफत, जायदाद और ऊपर वर्णित हुलिया पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस तरह विरसे में मिलते थे जिस तरह आम आदमी को जीन्स और वंशानुगत रोग मिलते हैं। आस्था, प्रचार, ज्ञान और हुलिए के लिहाज से पड़पोता अगर हू-ब-हू अपना पड़दादा मालूम हो तो ये खानदानी कुलीनता, शराफत और शुद्धता की दलील समझी जाती थी।

इंटरव्यू के लिए बिशारत ने उसी हुलिए पर रगड़ घिस करके नोक-पलक संवारी। अचकन धुलवायी, बदरंग हो गयी थी इसलिए धोबी से कहा कलफ अधिक लगाना। सर पर अभी शुक्रवार को जीरो नंबर की मशीन फिरवायी थी, अब उस्तरा और उसके बाद आम की गुठली फिरवा कर आंवले के तेल की मालिश करवायी। देर तक मिर्चें लगती रहीं। टोपी पहन कर आईना देख रहे थे कि अंदर मुंडे हुए सर से पसीना इस तरह रिसने लगा जिस तरह माथे पर विक्स या बाम लगाने से झरता है। टोपी उतारने के बाद पंखा चला तो ऐसा लगा जैसे किसी ने हवा में पिपरमेंट मिला दिया हो। फिर बिशारत ने जूतों पर फौजियों की तरह थूक से पालिश करके अपनी पर्सनेलिटी को फिनिशिंग टच दिया।

सलेक्शन कमेटी का चेयरमैन तहसीलदार था। सुनने में आया था कि एपाइंटमेंट के मुआमले में उसी की चलती है। फक्कड़, फिकरेबाज, साहित्यिक, मिलनसार, निडर और रिश्वतखोर है। घोड़े पर कचहरी आता है, 'नादिम' (शर्मिंदा) उपनाम रखता है, आदमी बला का जहीन और तबीयतदार है। उसे अपना तरफदार बनाने के लिए बादामी कागज का एक दस्ता, छह-सात निब वाले कलम खरीदे और रातों-रात अपनी शायरी का चमन यानी सत्ताईस गजलों का गुलदस्ता स्वयं तैय्यार किया। 'मखमूर' उपनाम रखते थे जो उनके उस्ताद जौहर इलाहाबादी का दिया हुआ था। इसी लिहाज से अपनी अधूरी आद्योपांत किताब का नाम 'खुमखाना-ए-मखमूर कानपुरी सुम लखनवी' रखा (लखनऊ से केवल इतना संबंध था कि पांच साल पहले अपना पित्ता निकलवाने के सिलसिले में दो सप्ताह के लिए अस्पताल में लगभग अर्द्धमूर्च्छित हालत में रहे थे) फिर उसमें एक विराट संकलन भी मिला दिया।

इस विराट संकलन की कहानी यह है कि अपनी गजलों और शेरों का चयन उन्होंने दिल पर पत्थर बल्कि पहाड़ रख कर किया था। शेर कितना ही घटिया और कमजोर क्यों न हो उसे स्वयं काटना और रद्द करना उतना ही मुश्किल है जितना अपनी औलाद को बदसूरत कहना या जंबूर से खुद अपना हिलता हुआ दांत उखाड़ना। गालिब तक से ये पराक्रम न हो सका। कांट-छांट मौलाना फज्ले-हक खैराबादी के सुपुर्द करके खुद ऐेसे बन के बैठ गये जैसे कुछ लोग इंजेक्शन लगवाते वक्त दूसरी तरफ मुंह करके बैठ जाते हैं।

बिशारत ने शेर छांटने को तो छांट दिये मगर दिल नहीं माना, इसलिए अंत में एक परिशिष्ट अपनी रद्द की हुई शायरी का सम्मिलित कर दिया। यह शायरी उस काल से संबंधित थी जब वो बेउस्ताद थे और 'फरीफ्ता' उपनाम रखते थे। इस उपनाम की एक विशेषता यह थी कि जिस पंक्ति में भी डालते वो छंद से बाहर हो जाती। चुनांचे अधिकतर गजलें बगैर मक्ते के थीं। चंद मक्तों में शेर का वज्न पूरा करने के लिए 'फरीफ्ता' की जगह उसका समानार्थक 'शैदा' और 'दिलदादा' प्रयोग किया, उससे शेर में कोई और दोष पैदा हो गया। बात दरअस्ल यह थी कि आकाश से जो विचार उनके दिमाग में आते थे उनके दैवी जोश और तूफानी तीव्रता को छंद की गागर में बंद करना इंसान के बस का काम न था।


मौलवी मज्जन से तानाशाह तक

तहसीलदार तक सिफारिश पहुंचाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। अलबत्ता मौलवी मुजफ्फर (जो तिरस्कार, संक्षेप और प्यार में मौली मज्जन कहलाते थे) के बारे में जिससे पूछा, उसने नया ऐब निकाला। एक साहब ने कहा, कौम का दर्द रखता है हाकिमों से मेलजोल रखता है पर कमीना है, बच के रहना। दूसरे साहब बोले, मौलवी मज्जन एक यतीमखाना शम्स-उल-इस्लाम भी चलाता है। यतीमों से अपने पैर दबवाता है। स्कूल की झाड़ू दिलवाता है और मास्टरों को यतीमों की टोली के साथ चंदा इकट्ठा करने कानपुर और लखनऊ भेजता है, वो भी बिना टिकिट। मगर इसमें कोई शक नहीं कि धुन का पक्का है। धीरजगंज के मुसलमानों की बड़ी सेवा की है। धीरजगंज के जितने भी मुसलमान आज पढ़े-लिखे और नौकरी करते नजर आते हैं वो सब इसी स्कूल के जीने से ऊपर चढ़े हैं। कभी-कभी लगता था कि लोगों को मौलवी मुजफ्फर से ईश्वरीय बैर हो गया है। बिशारत को उनसे एक तरह की हमदर्दी हो गयी। यूं भी मास्टर फाखिर हुसैन ने एक बार बड़े काम की नसीहत की थी कि कभी अपने बुजुर्ग या बॉस या अपने से अधिक बदमाश आदमी को सही रास्ता बताने की कोशिश न करना। उन्हें गलत राह पर देखो तो तीन ज्ञानी बंदरों की तरह अंधे, बहरे और गूंगे बन जाओ! ठाठ से राज करोगे!

एक दिलजले बुजुर्ग, जो 'जमाना' पत्रिका में काम करते थे, फर्माया, वो जकटा ही नहीं, चरकटा भी है। पच्चीस रुपये की रसीद लिखवा कर पंद्रह रुपल्ली हाथ पे टिका देगा। पहले तुम्हें जांचेगा, फिर आंकेगा, इसके बाद तमाम उम्र हांकेगा। उसने दस्तखत करने उस वक्त सीखे जब चंदे की जाली रसीदें काटने की जुरूरत पड़ी। अरे साहब! सर सय्यद तो अब जा के बना है मैंने अपनी आंखों से उसे अपने निकाहनामे पे अंगूठा लगाते देखा है। ठूंठ जाहिल है मगर बला का गढ़ा हुआ, घिसा हुआ भी। ऐसा-वैसा चपड़कनात नहीं है, लुक्का भी है, लुच्चा भी और टुच्चा भी। बुजुर्गवार ने एक ही सांस में पाजीपन के ऐसे बारीक शेड्स गिनवा दिये कि जब तक आदमी हर गाली के बाद शब्दकोश न देखे या हमारी तरह लंबे समय तक भाषाविदों की सुहबत के सदमे न उठाये हुए हो वो जबान और नालायकी की उन बारीकियों को नहीं समझ सकता।

सय्यद एजाज हुसैन 'वफा' कहने लगे, 'मौली मज्जन पांचों वक्त टक्करें मारता है। घुटने, माथे और जमीर पर ये बड़े-बड़े गट्टे पड़ गये हैं। थानेदार और तहसीलदार को अपनी मीठी बातचीत, इस्लाम-दोस्ती, मेहमान-नवाजी और रिश्वत से काबू में कर रखा है। दमे का मरीज है। पांच मिनट में दस बार आस्तीन से नाक पोंछता है।' दसअस्ल उन्हें आस्तीन से नाक पोंछने पर इतना एतराज न था जितना इस पर कि आस्तीन को अस्तीन कहता है, यखनी को अखनी और हौसला का होंसला। उन्होंने अपने कानों से उसे मिजाज शरीफ और शुबरात कहते सुना था। जुहला (गंवारों) किसानों और बकरियों की तरह हर वक्त मैं! मैं! करता रहता है। लखनऊ के शुरफा (शरीफ का बहुवचन - भद्र लोग) अहंकार से बचने की गरज से खुद को हमेशा हम कहते हैं। इस पर एक कमजोर और सींक-सलाई बुजुर्ग ने फर्माया कि जात का कसाई, कुंजड़ा या दिल्ली वाला मालूम होता है, किस वास्ते कि तीन बार गले मिलता है। अवध में शुरफा केवल एक बार गले मिलते हैं।

ये अवध के साथ सरासर जियादती थी इसलिए कि सिर्फ एक बार गले मिलने में शराफत का शायद उतना दख्ल न था जितना नाजुक-मिजाजी का और ये याद रहे कि यह उस जमाने के पारंपरिक चोंचले हैं जब नाजुक मिजाज बेगमें खुश्के और ओस का आत्महत्या के औजार की तरह प्रयोग करती थीं और यह धमकी देती थीं कि खुश्कखार ओस में सो जाऊंगी। वो तो खैर बेगमें थीं, तानाशाह उनसे भी बाजी ले गया। उसके बारे में मशहूर है कि जब वो बंदी बना कर दरबार में बेड़ियां पहना कर लाया गया तो सवाल ये पैदा हुआ कि इसे मरवाया कैसे जाये। दरबारियों ने एक से एक उपाय पेश किये। एक ने तो मशवरा दिया कि ऐसे अय्याश को तो मस्त हाथी के पैर से बांध कर शहर का चक्कर लगवाना चाहिए। दूसरा कोर्निश बजा कर बोला, दुरुस्त, मगर मस्त हाथी को शहर का चक्कर कौन माई का लाल लगवायेगा। हाथी शहर का चक्कर लगाने के लिए थोड़े ही मस्त होता है, अलबत्ता आप तानाशाह की अय्याशियों की सजा हाथी को देना चाहते हैं तो और बात है। इस पर तीसरा दरबारी बोला कि तानाशाह जैसे अय्याश को इससे जियादा तकलीफ देने वाली सजा नहीं हो सकती कि इसे हीजड़ा बना कर इसी के हरम में खुला छोड़ दिया जाये। एक और दरबारी ने तजवीज पेश की कि आंखों में नील की सलाई फिरवा कर अंधा कर दो, फिर किला ग्वालियर में दो साल तक रोजाना खाली पेट पोस्त का पियाला पिलाओ कि अपने जिस्म को धीरे-धीरे मरता हुआ खुद भी देखे। इस पर किसी इतिहासकार ने विरोध किया कि सुल्तान का तानाशाह से खून का कोई रिश्ता नहीं है, ये बरताव तो सिर्फ सगे भाइयों के साथ होता आया है। एक दिलजले ने कहा कि किले की दीवार से नीचे फेंक दो मगर यह तरीका इसलिए रद्द कर दिया गया कि इसका दम तो मारे डर के रस्ते में ही निकल जायेगा, अगर मकसद तकलीफ पहुंचाना है तो वो पूरा नहीं होगा। अंत में वजीर ने, जिसका योग्य होना साबित हो गया, ये मुश्किल हल कर दी। उसने कहा कि मानसिक पीड़ा देकर और तड़पा-तड़पाकर मारना ही लक्ष्य है तो इसके पास से एक ग्वालिन गुजार दो।

जिन पाठकों ने बिगड़े रईस और ग्वालिन नहीं देखी उनकी जानकारी के लिए निवेदन है कि मक्खन और कच्चे दूध की बू, रेवड़ बास में बसे हुए लहंगे और पसीने के नमक से सफेद पड़ी हुई काली कमीज के एक भबके से अमीरों और रईसों का दिमाग फट जाता था। फिर उन्हें हिरन की नाभि से निकली हुई कस्तूरी के लखलखे सुंघा कर होश में लाया जाता था।


हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता

इंटरव्यू की गरज से धीरजगंज जाने के लिए बिशारत सुब्ह तीन बजे ही निकल खड़े हुए। सात बजे मौलवी मुजफ्फर के घर पहुंचे तो वो जलेबियों का नाश्ता कर रहे थे। बिशारत ने अपना नाम पता बताया तो कहने लगे, 'आइये आइये! आप तो कान ही पुर (कानपुर ही) के रहने वाले हैं। कानपुर को गोया लखनऊ का आंगन कहिये। लखनऊ के लोग तो बड़े घमंडी और नाक वाले होते हैं। लिहाजा मैं नाश्ते के लिए झूठों भी नहीं टोकूंगा।'

'ऐ जौक तकल्लुफ में हैं तकलीफ बराबर (जी हां उन्होंने सरासर को बराबर कर दिया था) जाहिर है नाश्ता तो आप कर आये होंगे। सलेक्शन कमेटी की मीटिंग अंजुमन के दफ्तर में एक घंटे बाद होगी। वहीं मुलाकात होगी, और हां! जिस बेहूदे आदमी से आपने सिफारिश करवायी है, वो निहायत कंजूस और नामाकूल है।'

इस सारी बातचीत में अधिक से अधिक दो मिनट लगे होंगे। मौलवी मुजफ्फर ने बैठने को भी नहीं कहा, खड़े-खड़े ही भुगता दिया। घर से मुंह अंधेरे ही चले थे, मौलवी मुजफ्फर को गर्म जलेबियां खाते देखकर उनकी भूख भड़क उठी। मुहम्मद हुसैन आजाद के शब्दों में 'भूख ने उनकी अपनी ही जबान में जायका पैदा कर दिया।' घूम फिर के हलवाई की दुकान पता की। डेढ़ पाव जलेबियां घान से उतरती हुई तुलवायीं। दोने से पहली जलेबी उठायी ही थी कि हलवाई का कुत्ता उनके पूरे अरज के गरारेनुमा लखनवी पाजामे के पांयचे में मुंह डाल के बड़े आवेग से लपड़-लपड़ पिंडली चाटने लगा। कुछ देर वो चुपचाप, निस्तब्ध और शांत खड़े चटवाते रहे। इसलिए कि उन्होंने किसी से सुना था कि कुत्ता अगर पीज करे या आपके हाथ-पैर चाटने लगे तो भागना या शोर नहीं मचाना चाहिए वर्ना वो आजिज आकर सचमुच काट खायेगा। जैसे ही उन्होंने उसे एक जलेबी डाली, उसने पिंडली छोड़ दी। इसी बीच में उन्होंने खुद भी एक जलेबी खाई। कुत्ता अपनी जलेबी खत्म होते ही पांयचे में मुंह डाल के फिर शुरू हो गया। जबान भी ठीक से साफ नहीं की।

अब नाश्ते का ये पैटर्न बना कि पहले एक जलेबी कुत्ते को डालते तब एक खुद भी खा पाते। जलेबी देने में जरा देर हो जाती तो वो लपक कर बड़े चाव और दोस्ती से पिंडली चिचोड़ने लगता, शायद इसलिए कि उसके अंदर एक हड्डी थी। लेकिन अब दिल से कुत्ते का डर इस हद तक निकल चुका था कि उसकी ठंडी नाक से गुदगुदी हो रही थी। उन्होंने खड़े-खड़े दो बहुत महत्वपूर्ण निर्णय लिए, पहला ये कि कभी कानपुर के जाहिलों की तरह सड़क पर खड़े होकर जलेबी नहीं खायेंगे; दूसरा लखनऊ के शरीफों की तरह चौड़े पांयचे का पाजामा हरगिज नहीं पहनेंगे, कम-से-कम जिंदा हालत में।

कुत्ते को नाश्ता करवा चुके तो खाली दोना उसके सामने रख दिया। वो शीरा चाटने में तल्लीन हो गया तो हलवाई के पास दुबारा गये। एक पाव दूध कुल्हड़ में अपने लिए और डेढ़ पाव कुत्ते के लिए खरीदा ताकि उसे पीता छोड़ कर सटक जायें। अपने हिस्से का दूध गटागट पी कर कस्बे की सैर को रवाना होने लगे तो कुत्ता दूध छोड़ कर उनके पीछे-पीछे हो लिया। उन्हें जाता देख कर पहले कुत्ते के कान खड़े हुए थे, अब उनके खड़े हुए कि बदजात अब क्या चाहता है। तीन-चार जगह जहां उन्होंने जरा दम लेने के लिए रफ्तार कम करने की कोशिश की या अपनी मर्जी से मुड़ना या लौटना चाहा तो कुत्ता किसी तरह राजी न हुआ। हर मोड़ पर गली के कुत्ते उन्हें और उसे घेर लेते और खदेड़ते हुए दूसरी गली तक ले जाते, जिसकी सीमा पर दूसरे ताजादम कुत्ते चार्ज ले लेते। कुत्ता बड़े अनमनेपन से अकेला लड़ रहा था। जब तक युद्ध निर्णायक ढंग से समाप्त न हो जाता या कम-से-कम अस्थायी युद्ध विराम न हो जाता अथवा दूसरी गली के शेरों से नये सिरे से लड़ायी शुरू न हो जाती, वो U.N.O. की तरह बीच में खामोश खड़े देखते रहते। वो लौंडों को कुत्तों को पत्थर मारने से बड़ी सख्ती से मना कर रहे थे। इसलिए कि सारे पत्थर उन्हीं के लग रहे थे, वो कुत्ता दूसरे कुत्तों को उनकी तरफ बढ़ने नहीं देता था और सच तो ये है उनकी हमदर्दी अब अपने ही कुत्ते के साथ हो गयी थी। दो फर्लांग पहले जब वो चले थे तो वह महज एक कुत्ता था, मगर अब रिश्ता बदल चुका था। वो उसके लिए कोई अच्छा-सा नाम सोचने लगे।

उन्हें आज पहली बार मालूम हुआ कि गांव में मेहमान के आने का ऐलान कुत्ते, चोर और बच्चे करते हैं उसके बाद वो सारे गांव और हर घर का मेहमान बन जाता है।


टीपू नाम के कुत्ते

उन्हें यह देख कर दुख हुआ कि हलवाई और बच्चे उस कुत्ते को टीपू! टीपू! कह कर बुला और दुतकार रहे हैं। श्रीरंगापट्टम के भयानक रक्तपात से भरे संग्राम में टीपू सुल्तान के मरने के बाद अंग्रेजों ने कुत्तों के नाम टीपू रखने शुरू कर दिये और एक जमाने में यह उत्तरी भारत में इतना आम हुआ कि खुद भारतीय भी आवारा और बेनाम कुत्तों को टीपू कह कर ही बुलाते और हुश्कारते थे, ये जाने बगैर कि कुत्तों का ये नाम कैसे पड़ा। नेपोलियन और टीपू सुल्तान के अलावा अंग्रेजों ने ऐसा व्यवहार अपने किसी और दुश्मन के साथ नहीं किया, इसलिए कि किसी और दुश्मन की उनके दिल में ऐसी दहशत नहीं बैठी।


तलवार देख कर किस्मत का हाल बतानेवाला

हालांकि उनका घर पक्का और स्कूल आधा पक्का था लेकिन मौलवी मुजफ्फर ने अपनी ईमानदारी और इस्लाम के आरंभिक काल के मुसलमानों की सादगी का नमूना पेश करने की गरज से अपना दफ्तर एक कच्चे टिनपोश मकान में बना रखा था। सैलेक्शन कमेटी का दरबार यहीं लगने वाला था। बिशारत समेत कुल तीन उम्मीदवार थे। बाहर दरवाजे पर बायीं तरफ एक ब्लैक बोर्ड पर चाक से यह निर्देश लिखे हुए थे -

(1) उम्मीदवार अपनी बारी का इंतजार धैर्य और विनम्रता से करें।

(2) उम्मीदवार को सफर खर्च और भत्ता हरगिज नहीं दिया जायेगा। जुहर की नमाज के बाद उनके खाने का इंतजाम यतीमखाना शम्स-उल-इस्लाम में किया गया है।

(3) इंटरव्यू के वक्त उम्मीदवार को मुबलिग एक रुपये चंदे की यतीमखाने की रसीद पेश करनी होगी।

(4) उम्मीदवार कृपया अपनी बीड़ी बुझाकर अंदर दाखिल हों।

बिशारत जब प्रतीक्षालय यानी नीम की छांव तले पहुंचे तो कुत्ता उनके साथ था। उन्होंने इशारों में कई बार उससे विदा चाही, मगर वो किसी तरह साथ छोड़ने को तैयार न हुआ। नीम के नीचे वो एक पत्थर पर बैठ गये तो वो भी उनके कदमों में आ बैठा और अत्यधिक उचित अंतराल से दुम हिला-हिला कर उन्हें कृतज्ञ आंखों से टुकर-टुकर देख रहा था। उसका ये अंदाज उन्हें बहुत अच्छा लगा और उसकी मौजूदगी से उन्हें कुछ चैन-सा महसूस होने लगा। नीम की छांव में एक उम्मीदवार जो खुद को इलाहाबाद का एल.टी. बताता था, उकड़ूं बैठा तिनके से रेत पर 20 का यंत्र बना रहा था। जिसके खानों की संख्याएं किसी तरफ से भी गिनी जायें, जोड़ 20 आता था। स्त्री-वशीकरण तथा अफसर को प्रभावित करने के लिए यह यंत्र सर्वोत्तम समझा जाता था। कान के सवालिया निशान '?' के अंदर जो एक और सवालिया निशान होता है, उन दोनों के बीच उसने खस के इत्र का फाया उड़स रखा था। जुल्फे-बंगाल हेयर ऑयल से की हुई सिंचाई के रेले, जो सर की तात्कालिक आवश्यकता से कहीं जियादा थे, माथे पर बह रहे थे। दूसरा उम्मीदवार जो कालपी से आया था, खुद को अलीगढ़ का बी.ए.-बी.टी. बताता था। धूप का चश्मा तो समझ में आता था, मगर उसने गले में सिल्क का लाल स्कार्फ भी बांध रखा था जिसका इस चिलचिलाती धूप में यही उद्देश्य मालूम पड़ता था कि चेहरे से टपका हुआ पसीना सुरक्षित कर ले।

अगर उसका वज्न 100 पौंड कम होता तो वो जो सूट पहन कर आया था, बिल्कुल फिट आता। कमीज के नीचे के दो बटन तथा पैंट के ऊपर के दो बटन खुले हुए थे। सिर्फ सोलर हैट सही साइज का था। फीरोजे की अंगूठी भी शायद तंग हो गयी थी, इसलिए कि जब इंटरव्यू के लिए आवाज पड़ी तो उसने जेब से निकाल कर छंगुलिया में पहन ली। जूते के फीते, जिन्हें वो खड़े होने के बाद नहीं देख सकता था, खुले हुए थे। कहता था - गोलकीपर रह चुका हूं। इस मोटे-ताजेपन के बावजूद खुद को नीम के दो शाखे 'Y' में इस तरह फिट किया था कि दूर से एक 'V' नजर आता था, जिसकी एक नोक पर जूते और दूसरी पर हैट रखा हो। ये साहब ऊपर टंगे-टंगे ही बातचीत में हिस्सा ले रहे थे और वहीं से पीक की पिचकारियां और सिगरेट की राख चुटकी बजा-बजा कर झाड़ रहे थे।

कुछ देर बाद बिशारत के पास एक जटाधारी साधू आ बैठा। अपना सोंटा उनके माथे पर रखकर कहने लगा, 'किस्मत का हाल बताता हूं पांव के तलवे देख कर, अबे जूते उतार नहीं तो साले यहीं भस्म कर दूंगा।' उन्होंने उसे पागल समझकर मुंह फेर लिया। लेकिन जब उसने नर्म लहजे में कहा 'बच्चा, तेरे पेट पर तिल है और सीधी बगल में मस्सा है', तो उन्होंने घबरा कर जूते उतार दिये। इसलिए कि उसने बिल्कुल ठीक बताया था। थोड़ी दूरी पर एक बरगद के पेड़ के नीचे तीसरी क्लास के बच्चे ड्रिल कर रहे थे। उस समय उनसे दंड लगवाये जा रहे थे। पहले ही दंड में 'हूं' कहते हुए सर ले जाने के बाद केवल दो लड़के हथेलियों के बल उठ पाये। बाकी वहीं धूल में छिपकली की तरह पट पड़े रह गये। सब गर्दन मोड़-मोड़ कर बड़ी बेबसी से ड्रिल मास्टर को देख रहे थे जो उन्हें ताना दे रहा था कि तुम्हारी मांओं ने तुम्हें कैसा दूध पिलाया है?

दरवाजे पर सरकंडों की चिक पड़ी थी, जिसका निचला हिस्सा झड़ चुका था। सुतली की लड़ियां रह गयी थीं। सबसे पहले अलीगढ़ के उम्मीदवार को इस तरह आवाज पड़ी जैसे अदालत में नाम मय-वल्दियत के पुकारे जाते हैं। पुकारने के अंदाज से पता लगता था कि शायद डेढ़-दो सौ उम्मीदवार हैं जो डेढ़ दो मील दूर कहीं बैठे हैं। उम्मीदवार पहले वर्णित नीम की गुलैल पर से धम्म-से कूद कर सोलर हैट समेत दरवाजे में दाखिल होने वाला था कि चपरासी ने रास्ता रोक लिया। उसने यतीमखाने के चंदे की रसीद मांगी और सिगरेट की डिबिया, जिसमें दो सिगरेट बाकी थे, लगान के तौर पर धरवा ली। फिर जूते उतरवा कर लगभग घुटनों के बल चलाता हुआ अंदर ले गया। पचास मिनट बाद दोनों बाहर निकले। चपरासी ने दरवाजे के पास रक्खे हुए घड़ियाल को एक बार बजाया, जिसका उद्देश्य गांव वालों और उम्मीदवारों को खबर करना था कि पहला इंटरव्यू समाप्त हुआ। बाहर खड़े हुए लड़कों ने जम कर तालियां बजायीं। उसके बाद इलाहाबादी उम्मीदवार का नाम पुकारा गया जो बीसे का यंत्र मिटा कर लपक-झपक अंदर चला गया। पचास मिनट बाद फिर चपरासी ने बाहर आ कर घंटे पर दो बार इतनी जोर से चोट लगाई कि कस्बे के सारे मोर चिंघाड़ने लगे। (हर इंटरव्यू का समय वही था जो घंटों का) चपरासी ने आंख मार कर बिशारत को अंदर चलने को कहा।