खोया पानी / भाग 8 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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उर्दू टीचर के कर्मक्षेत्र से बाहर के दायित्व

अगले दिन बिल्कुल तड़के बिशारत अपनी ड्यूटी पर हाजिर हो गये। मौलवी मुजफ्फर ने उनसे ड्यूटी ज्वाइन करने की लिखित रिपोर्ट ली कि 'आज सुब्ह गुलाम ने नियमानुसार चार्ज संभाल लिया।' चार्ज बहुत धोके में डालने वाला शब्द है वरना हकीकत सिर्फ इतनी थी कि जो चीजें चार्ज में दी गयी थीं वो बगैर चार्ज के भी कुछ ऐसी असुरक्षित न थीं।

खादी का डस्टर - डेढ़ अदद, हाथ का पंखा - एक अदद, रजिस्टर हाजरी - एक अदद, मिट्टी की दवात - दो अदद। मौलवी मुजफ्फर ने ब्लैक बोर्ड का डस्टर उन्हें सौंपते हुए चेतावनी दी कि देखा गया है मास्टर साहिबान चाक के मुआमले में बहुत फुजूलखर्ची करते हैं, इसलिए स्कूल की कमेटी ने यह फैसला किया है कि आइंदा मास्टर साहिबान चाक खुद खरीद कर लायेंगे। खजूर के पंखे के बारे में भी उन्होंने सूचना दी कि गर्मियों में एक ही उपलब्ध कराया जायेगा। मास्टर बिल्कुल लापरवाह साबित हुए हैं। दो ही हफ्तों में सारी बुनाई उधड़ कर झंतूरे निकल आते हैं और अक्सर मास्टर साहिबान छुट्टी के दिन स्कूल का पंखा घर में इस्तेमाल करते हुए देखे गये हैं। कई तो इतने आरामतलब और काहिल हैं कि उसी की डंडी से लौंडों को मारते हैं, हालांकि दो कदम पर नीम का पेड़ बेकार खड़ा है। हां! मौलवी मुजफ्फर ने एक होल्डर (लकड़ी का निब वाला कलम) भी उनके चार्ज में दिया जो उनके पूर्ववर्तियों ने दातुन की तरह इस्तेमाल किया था। इसका आधे से अधिक हिस्सा चिंतन-मनन के समय लगातार दांतों में दबे रहने के कारण झड़ गया था। बिशारत को इस गलत इस्तेमाल पर बहुत गुस्सा आया कि वो अब इससे नाड़ा नहीं डाल सकते थे।

चार्ज पूरा होने के बाद बिशारत ने कोर्स की किताबें मांगीं तो मौलवी मुजफ्फर ने सूचना दी कि स्कूल कमेटी के रिजोल्यूशन नं. - 5, तारीख 3 फरवरी 1935 के अनुसार मास्टर को कोर्स की किताबें अपनी जेब से खरीद कर लानी होंगी। बिशारत ने जल कर पूछा 'सब' यानी कि पहली क्लास से लेकर आठवीं तक? फरमाया, 'तो क्या आपका खयाल है आप पहली क्लास के कायदे से आठवीं का इम्तहान दिलवा देंगे।'

मौलवी मुजफ्फर ने चलते-चलते यह भी सूचना दी कि स्कूल कमेटी फिजूल के खर्चे कम करने की गरज से ड्रिल मास्टर की पोस्ट खत्म कर रही है। खाली घंटों में आप पड़े-पड़े क्या करेंगे? स्टाफ-रूम ठाली मास्टरों के ऐंड़ने और लोटें लगाने के लिए नहीं है। खाली घंटों में ड्रिल करा दिया कीजिए, (पेट की तरफ इशारा करके) बादी भी छंट जायेगी। जवान आदमी को चाक-चौबंद रहना चाहिए। बिशारत ने विनम्र अस्वीकार से काम लेते हुए कहा 'मुझे ड्रिल नहीं आती।' बहुत मीठे और धीमे लहजे में उत्तर मिला, 'कोई बात नहीं, कोई भी मां के पेट से ड्रिल करता हुआ तो पैदा नहीं होता, किसी भी लड़के से कहिएगा, सिखा देगा। आप तो माशाअल्लाह से जहीन आदमी हैं। बहुत जल्द सीख जायेंगे। आप तो टीपू सुल्तान और स्पेन के जीतने वाले तारिक का नाम लेते हैं।'

बिशारत बड़ी मेहनत और लगन से उर्दू पढ़ा रहे थे कि दो ढाई हफ्ते बाद मौलवी मुजफ्फर ने अपने दफ्तर में तलब किया और फर्माया कि आप तो मुसलमान के बेटे हैं जैसा कि आपने दरख्वास्त में लिखा था। अब जल्दी से जनाजे की नमाज पढ़ाना और नियाज देना सीख लीजिए। वक्त, बेवक्त, जुरूरत पड़ती रहती है। नमाजे-जनाजा तो कोर्स में भी है। हमारे जमाने में तो स्कूल में शवस्नान भी कंपलसरी था। धार्मिक विषय के टीचर की बीबी पर बाराबंकी में जिन्न दोबारा सवार हो गया है। रातों को चारपाई उलट देता है। उसे उतारने जा रहा है। पिछले साल एक पड़ौसी का जबड़ा और दो दांत तोड़ कर आया था। उसकी जगह आपको काम करना होगा। जाहिर है! उस हरामखोर के बदले काम करने के लिए आसमान से फरिश्ते तो आने से रहे।

तीन-चार दिन का भुलावा दे कर मौलवी मुजफ्फर ने पूछा, 'बर्खुरदार, आप इतवार को क्या करते रहते हैं?' बिशारत ने जवाब दिया, 'कुछ नहीं।' फरमाया, 'तो यूं कहिए! केवल सांस लेते रहते हैं। यह तो बड़ी बुरी बात है। सर मुहम्मद इकबाल ने कहा है 'कभी ऐ नौजवां मुस्लिम तदब्बुर भी किया तूने,' जवान आदमी को इस तरह हाथ पर हाथ धरे बेकार नहीं बैठना चाहिए। जुमे को स्कूल की छुट्टी जल्दी हो जाती है। नमाज के बाद यतीमखाने की चिट्ठी-पत्री देख लीजिए। आप तो घर के आदमी हैं आप से क्या परदा, आपकी तनख्वाहें दरअस्ल यतीमखाने के चंदे से ही दी जाती हैं। तीन महीने से रुकी हुई हैं। मेरे पास इलाहदीन का चराग तो है नहीं। दरअस्ल यतीमों पर इतना खर्च नहीं आता, जितना आप हजरात पर। इतवार को यतीमखाने के चंदे के लिए अपनी साइकिल ले कर निकल जाया कीजिए। पुण्य कार्य भी है और आपको बेकारी की लानत से भी छुटकारा मिल जायेगा, सो अलग। आस-पास के देहात में अल्लाह के करम से मुसलमानों के काफी घर हैं। तलाश करने से खुदा मिल जाता है। चंदा देने वाले किस खेत की मूली हैं।'

बिशारत अभी सोच ही रहे थे कि चंदा देनेवाले को कैसे पहचानें और ढूंढ़ेंगे कि इतने में सर पर दूसरा बम गिरा। मौलवी मुजफ्फर ने कहा कि चंदे के अलावा आस-पास के देहात से सही यतीम भी तलाश कर लाने होंगे।


आइडियल यतीम का हुलिया

यतीम जमा करना बिशारत को चंदा जमा करने से भी मुश्किल नजर आया, इसलिए कि मौली मज्जन ने यह पख लगा दी कि यतीम तंदुरुस्त और मुस्टंडे न हों। सूरत से भी दीन, दरिद्र मालूम होने चाहिए। लंबे-चौड़े न हों, न इतने छोटे टुइयां कि चोंच में चुग्गा देना पड़े। न इतने ढऊ के ढऊ और पेटू कि रोटियों की थई-की-थई थूर जायें और डकार तक न लें, पर ऐसे गुलबदन भी नहीं कि गाल पर एक मच्छर का साया पड़ जाये तो शहजादा गुलफाम को मलेरिया हो जाये। फिर बुखार में दूध पिलाओ तो एक ही सांस में बाल्टी की बाल्टी डकोस जायें। बाजा-बाजा लौंडा टखने तक पोला होता है। लड़के बाहर से कमजोर मगर अंदर में बिल्कुल तंदुरुस्त होने चाहिए। न ऐसे नाजुक कि पानी भरने कुएं पर भेजो तो डोल के साथ खुद भी खिंचे कुएं के अंदर चले जा रहे हैं। भरा घड़ा सर पे रखते ही कत्थकों-नचनियों की तरह कमर लचका रहे हैं। रोज एक घड़ा तोड़ रहे हैं। जब देखो हराम की औलाद सुबूत में टूटे घड़े का मुंह लिए चले आ रहे हैं। अबे मुझे क्या दिखा रहा है! ये हंसली अपनी मय्या-बहना को पहना। छोटे कद और बीच की उम्र के हों। इतने बड़े और ढीठ न हों कि थप्पड़ मारो तो घंटे भर तक हाथ झनझनाता रहे और उन हरामियों का बाल भी बांका न हो। जाड़े में जियादा जाड़ा न लगता हो। यह नहीं कि जरा-सी सर्दी बढ़ जाये तो सारे कस्बे में कांपते, कंपकंपाते, किटकिटाते फिर रहे हैं और यतीमखाने को मुफ्त में बदनाम कर रहे हैं। यह जुरूर तसदीक कर लें कि रात को बिस्तर में पेशाब न करते हों। खानदान में ऐब और सर में लीखें न हों। उठान के बारे में मौली मज्जन ने स्पष्ट किया कि इतनी संतुलित बल्कि हल्की हो कि हर साल जूते और कपड़े तंग न हों। अंधे, काने, लूले, लंगड़े, गूंगे, बहरे न हों मगर लगते हों। लौंडे सुंदर हरगिज न हों, मुंह पर मुंहासे और नाक लंबी न हो। ऐसे लौंडे आगे चलकर लूती (जनखे, Gay) निकलते हैं। वो आइडियल यतीम का हुलिया बयान करने लगे तो बार-बार बिशारत की तरफ इस तरह देखते कि जैसे आर्टिस्ट पोट्रेट बनाते वक्त मॉडल का चेहरा देख-देख कर आउट लाइन उभारता है। वो बोलते रहे मगर बिशारत का ध्यान कहीं और था। उनके जह्न में एक-से-एक मनहूस तस्वीरें उभर रहीं थीं, जिसमें वो खुद को किसी तरह फिट नहीं कर पा रहे थे।


मसनवी मौलाना रूम और यतीमखाने का बैंड

पहला दृश्य : ट्रेन का गार्ड हरी झंडी हाथ में लिए सीटी बजा रहा है। छह-सात लड़के लपक कर चलती ट्रेन के थर्ड क्लास कंपार्टमेंट में चढ़ते हैं, जिससे अभी-अभी एक सुर्मा और शिलाजीत बेचने वाला उतरा है। सब नेकर पहने हुए हैं, सिर्फ एक लड़के की कमीज के बटन सलामत हैं, लेकिन आपस की लड़ाई में दुश्मन उसकी दाहिनी आस्तीन जड़ से नोच ले गया। किसी के पैर में जूता नहीं, लेकिन टोपी सब पहने हुए हैं। एक लड़के के हाथ में बड़ा-सा फ्रेम है जिसमें जिले के एक गुमनाम लीडर का सर्टिफिकेट जड़ा हुआ है। कंपार्टमेंट में घुसते ही लड़कों ने कोहिनियों और धक्कों से अपनी जगह बना ली। जैसे ही ट्रेन सिगनल से आगे निकली, सबसे बड़े लड़के ने रेजगारी से भरा हुआ टीन का गोलक झुनझुने की तरह बजाना शुरू किया। डिब्बे में खामोशी छा गयी। मांओं की गोद में रोते हुए बच्चे सहम कर दूध पीने लगे और दूध पीते हुए बच्चे दूध छोड़कर रोने लगे। मर्दों ने सामने बैठी औरतों को घूरना और उनके मियां ने ऊंघना छोड़ दिया। जब सब यात्री अपना-अपना काम रोक कर लड़के की तरफ देखने लगे तो उसने अपना गोलक-राज बंद किया। उसके साथियों ने अपने मुंह आसमान की तरफ कर लिए और आसमानी ताकतों से सीधा संबंध बना लेने के सुबूत में सबने एक साथ आंखों की पुतलियां इतनी ऊपर चढ़ा लीं कि सिर्फ सफेदी दिखायी देने लगी। फिर सब मिलकर इंतहाई मनहूस लय में कोरस गाने लगे।

हमारी भी फरियाद सुन लीजिए

हमारे भी इक रोज मां - बाप थे

थर्ड क्लास के डिब्बे में यतीम-खाने के जो लड़के घुसे उन सबकी आवाजें फट कर कभी की बालिग हो चुकी थीं, सिर्फ एक लड़के का कंठ नहीं फूटा था, यही लड़का चील जैसी आवाज में कोरस को लीड कर रहा था। उस जमाने में पेशावर से ट्रावनकोर और कलकत्ते से कराची तक रेल में सफर करने वाला कोई यात्री न होगा जो इस मनहूसियत से भरे गाने और इसकी घर बर्बाद कर देने वाली लय से अपरिचित हो। जब से उपमहाद्वीप में रेल और यतीमखाने आये हैं, यही एक धुन चल रही है। इसी तरह महाद्वीप के तीनों भाग हिंदुस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश में आदमियों से बेजार कोई शख्स मसनवी मौलाना रूम की ऐसी वाहियात मौलवियाना धुन कंपोज करके गया है कि पांच सौ साल से ऊपर गुजर गये, इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। शेर को इस तरह नाक से गा कर सिर्फ वही मौलवी पढ़ सकता है जो गाने को वाकई हराम समझकर गाता हो। किसी शख्स को गाने, सूफीज्म, फारसी और मौलवी चारों से एक ही समय में नफरत करानी हो तो मसनवी के दो शेर इसी धुन में संवा दीजिये। 'सुना दीजिये' हमने इसलिए नहीं कहा कि ये लय सिर्फ ऐसे शख्स के गले से निकल सकती है जिसने जिंदगी में किसी ईरानी को फारसी बोलते न सुना हो और जिसके गले से मुफ्त की मुर्गी के अलावा कोई चीज न उतरी हो।

दूसरा दृश्य : यतीमखाने का बैंड बज रहा है। आगे-आगे सर को दायें बायें झुलाता बैंड मास्टर चल रहा है। जिस तरह पहलवान, फौज के जवान और कुछ लड़कियां सीना निकाल कर चलती हैं, उसी तरह ये पेट निकाल कर चल रहा है। कुछ लड़कों के हाथों में पीतल के भौंपूनुमा बाजे हैं जो जलेबी और Angry Young Man की तरह बल खाके अंत में बड़ी आंत की शक्ल में समाप्त होते हैं। यूं तो इन बाजों की टोंटी लड़कों ने अपने होठों से लगा रखी है, लेकिन उन्हें फूंकने, धौंकने का गरीबों में दम कहां। लिहाजा अधिकतर समय ढोल और बांसुरी ही बजती रहती है। कई बार बांसुरी की भी सांस उखड़ जाती है और अकेला ढोल सारे ऑरकेस्ट्रा के कर्तव्य पूरे करता है। मिर्जा कहते हैं कि ऐसा बैंड बाजा तो खुदा दुश्मन की शादी में भी न बजवाये। बैंड की उजाड़धुन भी सारे उपमहाद्वीप में एक ही थी, लेकिन हिंदुओं और मुसलमानों के बैंड में कुछ दिलचस्प अंतर थे। उदाहरण के लिए मुसलमान आमतौर पर मंजीरे नहीं बजाते थे और हिंदुओं के अनाथ आश्रम के बैंड में ढोल बजाने वाला इतनी मस्ती से घूम-घूम के ढोल नहीं पीटता था कि तुर्की टोपी का फुंदना हर चोट पर 360 डिग्री का चक्कर लगाये। हिंदू अनाथ लड़के फुंदने के बजाय अपनी अस्ली चोटियां इस्तेमाल करते थे। दूसरे, हिंदुओं में ये बैंड केवल अनाथ-आश्रम के यतीम बजाते थे। मुसलमानों में यतीम होने की शर्त नहीं थी। चुनांचे कराची के कई स्कूलों में हमने स्कूल बैंड को स्पोर्टस डे पर Marching Songs भी उसी धुन पर बजाते सुना है।

हमारे भी इक रोज मां-बाप थे

हमारे भी इक रोज मां-बाप थे

' कुछ इलाज इसका 'शहंशाहे-गजल' है कि नहीं?' इस लाइन (हमारे भी इक रोज मां-बाप थे) की खूबी ये है कि इसके सात लफ्ज चार टुकड़ों पर आधारित हैं और ये चारों ही कुंजी (चाबी) की हैसियत रखते हैं। हमारे भी / इकरोज / मां-बाप / थे। आप किसी भी टुकड़े पर जोर देकर पढ़ें, बेकसी और मनहूसियत का नयी पर्त उभरेगी। हद ये कि 'थे' भी पूरी लाइन के माने, दिशा, लहजा बदल के रख देगा। थे, ए, ए, ए! ऐसे चौमुखे मिसरे बड़े-बड़े शायरों को नसीब नहीं होते। अलबत्ता मेंहदी हसन अपनी गायकी से शेर के जिस लफ्ज को चाहें केंद्रीय बना देते हैं। इनमें जहां एक हजार खूबियां हैं वहां एक बुरी ये पड़ गयी है कि अक्सर अपनी शायरी की समझ का सुबूत देने के लिए शेर का कोई-सा लफ्ज, जिस पर उन्हें कुंजी की हैसियत होने का शक हो जाये, पकड़ के बैठ जाते हैं। अलाप रोक के श्रोताओं को नोटिस देते हैं कि अब जरा जिगर थाम के बैठो शब्दार्थ के खजाने का तिलिस्म दिखाता हूं। फिर आधा घंटा तक उस लफ्ज को भंभोड़ते हैं, उसे तरह-तरह से पटखियां देकर साबित करते हैं कि सारा अर्थ इस एक लफ्ज में बंद है। बाकी सारे लफ्ज केवल तबला बजाने के लिए हैं, यानी केवल शेर का वज्न पूरा करने और ठेका लगाने के लिए। मकसद ये जताना होता है कि मैं शेर समझ कर ही नहीं, समझा-समझा कर गा रहा हूं। उनकी देखा-देखी औरों ने खुद समझे बगैर ही समझा-समझा कर गाना शुरू कर दिया है।

होता ये है कि मेंहदी हसन कभी इस लफ्ज को खदेड़ते हुए राग और गजल की No-Man's Land में छोड़ आते हैं, और कभी 'कबड्डी-कबड्डी' कहते हुए उसे अपने पाले में ले आते हैं। फिर फ्री स्टाइल में उसके विभिन्न हिस्सों को अपनी ताकत और श्रोताओं की बर्दाश्त की हद तक तोड़ते, मरोड़ते और खींचते हैं। वो बेदम होके सांस छोड़ दे तो उसे फफेड़ने लगते हैं। अभी, लंबी सी गिटकरी के बाद, अजीब सा मुंह बनाये, उसे पपोल-पपोल के ये देख रहे थे और अपने ही मजे से आंखें बंद किये हुए थे। जरा सी देर में उसकी हड्डी तक चिचोड़ के तबलिए के सामने फेंक दी कि उस्ताद! आओ अब कुछ देर जुगलबंदी हो गये। कभी सीधे-साधे राग के अंग जी भर के झिंझोड़ने के बाद उसकी जती पे अपने कढ़े हुए रेशमी कुर्ते, जरी की वास्कट और हार्मोनियम समेत चढ़ जाते हैं। वो उठने की कोशिश करता है तो चूम-चाट के वापस लिटाल देते हैं।

चिमटे रहो सीने से अभी रात पड़ी है

और फिर वो दुलर्भ क्षण भी आता है जब ये राग भोगी उसके मुंह में अपनी जबान इस तरह रख देता है कि रागिनी चीख उठती है।

तुम अपनी जबां मेरे मुंह में रखे

जैसे पाताल से मेरी जां खींचते हो

अंत में, घंटों रगेदने के बाद उसे थप्पड़ मार के छोड़ देते हैं कि 'जा अबके छोड़ दिया, आइंदा यारों के सामने इस तरह न आइयो'

'जिसको हो दीनो-दिल अजीज मेरे गले में आये क्यों'


अच्छा! आप उस लिहाज से कह रहे हैं

बिशारत की नियुक्ति तो उर्दू पढ़ाने के लिए हुई थी, मगर टीचरों की कमी के कारण उन्हें सभी विषय पढ़ाने पड़ते थे, सिवाय धार्मिक विषय के। जामा मस्जिद धीरजगंज के पेश-इमाम ने यह फत्वा दिया था कि जिस शख्स के घर में कुत्ता हो वो धर्मशास्त्र पढ़ाये तो पढ़नेवालों को आवश्यक रूप से स्नान करना पड़ेगा। बिशारत का गणित, ज्योमेट्री और अंग्रेजी बहुत कमजोर थी, लेकिन वो इस हैंडीकैप से जरा जो परेशान हुए हों। पढ़ाने के गुर उन्होंने मास्टर फाखिर हुसैन से सीखे थे। मास्टर फाखिर हुसैन का विषय तो इतिहास था लेकिन अक्सर उन्हें मास्टर मेंडीलाल की इंग्लिश की क्लास भी लेनी पड़ती थी। मास्टर मेंडीलाल का गुर्दा और ग्रामर दोनों जवाब दे चुके थे। अक्सर देखा गया था कि जिस दिन नवीं-दसवीं की ग्रामर की क्लास होती वो घर बैठ जाता। उसके गुर्दे में ग्रामर का दर्द उठता था। सब टीचर अपने विषय के अतिरिक्त दूसरा विषय पढ़ाने में कचियाते थे। मास्टर फाखिर हुसैन अकेले शिक्षक थे जो हर विषय पढ़ाने के लिए हर वक्त तैयार रहते, हालांकि उन्होंने बी.ए., वाया भटिंडा किया था मतलब ये कि पहले मुंशी फाजिल किया था। इंग्लिश ग्रामर उन्हें बिल्कुल नहीं आती थी। वो चाहते तो अंग्रेजी ग्रामर का घंटा हंस बोल कर या नसीहत करने में गुजार सकते थे लेकिन उनकी अंतरात्मा ऐसे समय नष्ट करने के कामों की अनुमति नहीं देती थी। दूसरे मास्टरों की तरह वो लड़कों को व्यस्त रखने के लिए इमला भी लिखवा सकते थे, मगर वो इस बहाने को अपनी विद्वत्ता का अपमान समझते थे, इसलिए जिस भारी पत्थर को सब चूम कर छोड़ देते वो उसे अपने गले में बांध कर ज्ञान के समुद्र में कूद पड़ते। पहले ग्रामर की अहमियत पर लैक्चर देते हुए यह बुनियादी नुक्ता बयान करते कि जैसे हमारी गायकी की बुनियाद तबले पर है, गुफ्तगू की बुनियाद गाली पर है, इसी तरह अंग्रेजी की बुनियाद ग्रामर पर है। अगर कमाल हासिल करना है तो बुनियाद मजबूत करो। मास्टर फाखिर हुसैन की अपनी अंग्रेजी, इमारत निर्माण का अद्भुत नमूना और संसार के सात आश्चर्यों में से एक थी, मतलब यह कि बगैर नींव के थी। कई जगह तो छत भी नहीं थी और जहां थी, उसे चमगादड़ की तरह अपने पैरों की अड़वाड़ से थाम रखा था। उस जमाने में अंग्रेजी भी उर्दू में ही पढ़ायी जाती थी, लिहाजा कुछ गिरती हुई दीवारों को उर्दू शेरों के पुश्ते थामे हुए थे। बहुत ही मंझे हुए और घिसे हुए मास्टर थे। कड़े-से-कड़े समय में आसानी से निकल जाते थे। मिसाल के तौर पर Parsing करवा रहे हैं। अपनी जानकारी में निहायत आसान सवाल से शुरुआत करते। ब्लैक बोर्ड पर 'टू गो' लिखते और लड़कों से पूछते, अच्छा बताओ यह क्या है? एक लड़का हाथ उठा कर जवाब देता, Simple Infinite! स्वीकार में गर्दन हिलाते हुए फर्माते, बिल्कुल ठीक, लेकिन देखते कि दूसरा उठा हुआ हाथ अभी नहीं गिरा। उससे पूछते, आपको क्या तकलीफ है? वो कहता, नहीं सर! Noun Infinite है। फर्माते अच्छा आप उस लिहाज से कह रहे हैं। अब क्या देखते हैं कि क्लास का सबसे जहीन लड़का अभी तक हाथ उठाये हुए है। उससे कहते, आपका सिगनल अभी तक डाउन नहीं हुआ। कहिए! कहिए! वो कहता, ये Gerundial Infinite है जो Reflexive Verb से अलग होता है, नेस्फील्ड ग्रामर में लिखा है। इस मौके पर मास्टर फाखिर हुसैन को पता चल जाता कि 'गहरे समंदरों में सफर कर रहे हैं हम।' लेकिन बहुत सहज और ज्ञानपूर्ण अंदाज में फर्माते अच्छा तो आप गोया इस लिहाज के कह रहे हैं। इतने में नजर उस लड़के के उठे हुए हाथ पर पड़ी जो एक कॉन्वेन्ट से आया था और फर-फर अंग्रेजी बोलता था। उससे पूछा, 'वेल! वेल! वेल!' उसने जवाब दिया, "Sir I am afraid, this is an Intransitive Verb" फर्माया, 'अच्छा! तो गोया आप उस लिहाज से कह रहे हैं' फिर I am afraid के मुहावरे से अपरिचित होने के कारण बहुत प्यार भरे अंदाज में पूछा, 'बेटे! इसमें डरने की क्या बात है?'

अक्सर फर्माते कि इंसान को ज्ञान की खोजबीन का दरवाजा हमेशा खुला रखना चाहिए। खुद उन्होंने सारी उम्र बारहदरी में गुजारी। अब ऐसे टीचर कहां जिनके अज्ञान पर भी प्यार आये।


सय्यद सय्यद लोग कहे हैं , सय्यद क्या तुम - सा होगा

अब इस रेखाचित्र में जलील होने के अलग-अलग शेड भरना हम आपकी विचार क्षमता पर छोड़ देते हैं। इन हालात में जैसा वक्त गुजर सकता था, गुजर रहा था। दिसंबर में स्कूल का सालाना जलसा होने वाला था जिसकी तैय्यारियां इतनी जोर-शोर से हो रही थीं कि मौली मज्जन को इतनी फुरसत भी न थी कि मास्टरों की तनख्वाहों की अदायगी तो दूर, इस विषय पर झूठ भी बोल सकें। दिसंबर का महीना सालाना कौमी जल्सों, मुर्गाबी के शिकार, बड़े दिन पर साहब लोगों को डालियां भेजने, पतंग उड़ाने, कुश्ते खाने और उनके नतीजों से मायूस होने का जमाना होता था। 30 नवम्बर को मौली मज्जन ने बिशारत को बुलवाया तो वो यह समझे कि शायद निजी रूप से एकांत में तन्ख्वाह देंगे ताकि और टीचरों को कानों-कान खबर न हो। मगर वो छूटते ही बोले 'आप अपने शेरों में पराई बहू-बेटियों के बारे में अपने मंसूबों का बयान करने के बजाय कौमी जज्बा क्यों नहीं उभारते। अपने मौलाना हाली पानीपती ने क्या कहा है ऐसी शायरी के बारे में? (चुटकी बजाते हुए) क्या है वो शेर? अमां! वही संडास वाली बात' बिशारत ने मरी-मरी आवाज में शेर पढ़ा

वो शेर और कसाइद का नापाक दफ्तर

उफूनत में संडास है जिससे बेहतर


उनकी बीबी और मौलाना हाली की साझी गलतियां

शेर सुनकर फर्माया, 'आपके हाथों में अल्लाह ने शेर गढ़ने का हुनर दिया है। इसे काम में लाइए, सालाना जलसे में यतीमों पर एक जोरदार नज्म लिखिए। मुस्लिम कौम में चेतना के अभाव, साइंस पर मुसलमानों के अहसानात, सर सय्यद की कुरबानियां, अंग्रेजी-साम्राज्य में अम्न-चैन का दौर-दौरा, चंदे की अहमीयत, तारिक द्वारा स्पेन की विजय और तहसीलदार साहब की क्षमता और अनुभव का जिक्र होना चाहिए। पहले मुझे सुना दीजिएगा। वक्त बहुत कम है।'

बिशारत ने कहा 'मुआफ कीजिएगा, मैं गजल का शायर हूं। गजल में यह विषय नहीं बांधे जा सकते।'

क्रोधित होकर बोले, 'मुआफ कीजिएगा, क्या गजल में सिर्फ पराई बहू-बेटियां बांधी जा सकती है? तो फिर सुनिए, पिछले साल जो उर्दू टीचर था वो डिसमिस इसी बात पर हुआ था। वो भी आपकी तरह शायरी करता था। मैंने कहा, इनआम बांटने के जलसे में बड़े-बड़े लोग आयेंगे। हर दानदाता और बड़े आदमी के आने पर पांच मिनट तक यतीमखाने का बैंड बजेगा। यतीमों की बुरी हालत और यतीमखाने के फायदे और खिदमत पर एक फड़कती हुई चीज हो जाये। तुम्हारी आवाज अच्छी है, गा कर पढ़ना। ऐन जलसे वाले दिन भिनभिनाता हुआ आया। कहने लगा, बहुत सर मारा, पर बात नहीं बनी। इन दिनों तबियत हाजिर नहीं है। मैंने कहा, अमां हद हो गयी। अब क्या हर चपड़कनात मुलाजिम की तबियत के लिए एक अलग रजिस्टर हाजिरी रखना पड़ेगा। कहने लगा, बहुत शर्मिंदा हूं। एक दूसरे शायर की नज्म, मौके के हिसाब से तरन्नुम से पढ़ दूंगा। मैंने कहा, चलो कोई बात नहीं, वो भी चलेगी। बाप रे बाप! उसने तो हद ही कर दी। भरे जलसे में मौलाना हाली पानीपती की मुनाजाते-बेवा (विधवा की ईश्वर से प्रार्थना) के बंद पढ़ डाले। डाइस पर मेरे पास ही खड़ा था। मैंने आंख से, कुहनी के टहूके से, खंखार के, बहुतेरे इशारे किये कि अल्लाह के बंदे! अब तो बस कर। हद ये कि मैंने दायें कूल्हे पर चुटकी काटी तो बायां भी मेरी तरफ करके खड़ा हो गया। स्कूल की बड़ी भद पिटी। सब मुंह पर रूमाल रखे हंसते रहे मगर वो आसमान की तरफ मुंह किये रांड-बेवाओं की जान को रोता रहा। एक मीरासी, जिसके जरिये मैंने कार्ड बंटवाये थे, ने मुझे बताया इस बेहया ने दो तीन सुर मालकोंस के भी लगा दिये। लोगों ने दिल-ही-दिल में कहा होगा कि मैं शायद मौलाना हाली की आड़ में विधवा आश्रम खोलने की जमीन तैयार कर रहा हूं। बाद को मैंने आड़े हाथों लिया तो कहने लगा, सब की किताबें खंगाल डालीं। यतीम पर कोई नज्म नहीं मिली। सितम ये है कि मीर तकी मीर, जो खुद बचपने में यतीम हो गये थे, ने मोहनी नाम की बिल्ली और कुतिया पर तो प्रशंसा में काव्य लिखे पर मासूम यतीमों पर फूटे मुंह से एक लाइन न कह के दी। इस तरह मिर्जा गालिब ने सेहरे के लिए, प्रशंसा में कसीदे लिखे। बेसनी रोटी, डोमनी की तारीफ में शेर कहे, दो कौड़ी की जली को सरे-पिस्ताने-परीजाद (परी के स्तन का अगला भाग) से भिड़ा दिया मगर यतीमों के बारे में एक शेर भी नहीं कहा। अब हर किताब से मायूस हो गया तो मुझे एक दम खयाल आया कि यतीमों और बेवाओं का चोली-दामन का साथ है। विषय एक और दुख साझा, सो गुलाम ने मुनाजाते-बेवा पढ़ दी। महान रचना है। तीन साल से आठवीं के इम्तहान में इस पर बराबर सवाल आ रहे हैं। चुनांचे मैंने भी गुलाम को उसकी महान रचना और चोली-दामन समेत खड़े-खड़े डिसमिस कर दिया। कुछ दिन बाद उस हरामखोर ने मेरे खिलाफ इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल से शिकायत की। उसमें ये भी लिक्खा है कि मैंने अपने नहाने के लिए पांच मर्तबा बाल्टी में पानी मंगवाया। सरासर झूठ बोला। मैंने पंद्रह-बीस बार मंगवाया था। घड़े में भर के छलकाता लाया था।

मौलवी मुजफ्फर की बुराइयां बिल्कुल स्पष्ट और अच्छाइयां आंखों से छुपी हुई थीं। वो बिशारत के अंदाजे और अंदेशे से जियादा जहीन और काइयां निकले। ऐसे ठूंठ जाहिल नहीं थे, जैसा दुश्मनों ने मशहूर कर रखा था। रहन-सहन में एक सादगी और सादगी में इक टेढ़। कानों और जबान के कच्चे, मगर धुन के पक्के थे। उन्हीं का हौसला था कि बारह साल से बगैर साधन के लश्तम-पश्तम स्कूल चला रहे थे। उसे चलाने के लिए उनकी निगाह में हर किस्म की धांधली उचित थी। स्कूल की हालत खराब बतायी जाती थी। आये दिन मास्टरों से दर्द भरी अपील की जाती थी कि आप दिल खोल कर चंदा और दान दें। पांच-छह महीने की नौकरी के दौरान उन्हें कुल साठ रुपये मिले थे, जो स्कूल एकाउंट की किताबों में कर्ज के तौर पर दिखाये गये थे। अब उन्हें तन्ख्वाह का तकाजा करते हुए भी डर लगता था कि कर्ज बढ़ता जा रहा था। इधर न मिली तन्ख्वाह की राशि बढ़ती जाती, उधर मौली मज्जन का लहजा रेशम और बातें लच्छेदार होती जातीं। बिशारत ने एक दिन दबे शब्दों में तकाजा किया तो कहने लगे, 'बेटे! मैं तुम्हारे बाप की तरह हूं मेरी समझ में नहीं आता तुम इस अकेली देह में इतने रुपयों का क्या करोगे? छड़े-छटांक आदमी हो। अकेले घर में बेतहाशा नकदी रखना जोखिम का काम है। रात को तुम्हारी तरफ से मुझे डर ही लगा रहता है। सुल्ताना डाकू ने तबाही मचा रखी है।' बहरहाल इस तकाजे का इतना असर जुरूर हुआ कि दूसरे दिन से उन्होंने उनके घर एक मटकी छाछ की भेजनी शुरू कर दी।

तहसीलदार ने कभी रुपये-पैसे से तो कोई बर्ताव नहीं किया, अलबत्ता एक दो गड्डी पालक या चने का साग, कभी हिरन की टांग, कभी एक घड़ा गन्ने का रस या दो-चार भेलियां गुड़ की साथ कर देता। ईद पर एक हांडी संडीले के लड्डुओं की और बकरईद पर एक नर बकरे का सर भी दिया। उतरती गर्मियों में चार तरबूज फटी बोरी में डलवा कर साथ कर दिये। हर कदम पर निकल-निकल पड़ते थे। एक को पकड़ते तो दूसरा लुढ़क कर किसी और राह पर बदचलन हो जाता। जब बारी-बारी सब तड़ख गये तो आधे रास्ते में ही बोरी एक प्याऊ के पास पटक कर चले आये। उनके बहते रस को एक प्यासा सांड, जो पंडित जुगल किशोर ने अपने पिताजी की याद में छोड़ा था, तब तक चाव और तल्लीनता से चाटता रहा जब तक एक अल्हड़ बछिया ने उसका ध्यान उत्तम से सर्वोत्तम की ओर भटका न दिया।

जनवरी की बारिश में उनके खस की टट्टियों के मकान का छप्पर टपकने लगा तो तहसीलदार ने दो गाड़ी पूले मुफ्त डलवा दिये और चार छप्पर बांधने वाले बेगार में पकड़ कर लगवा दिये। कस्बे के तमाम छप्पर बारिश धूप और धुएं से काले पड़ गये थे, अब सिर्फ उनका छप्पर सुनहरा था। बारिश के बाद चमकीली धूप निकलती तो उस पर किरन-किरन अशरफियों की बौजर होने लगती। इसके अलावा तहसीलदार ने लिहाफ के लिए बारीक धुनकी हुई रुई की एक बोरी और मुर्गाबी के परों का एक तकिया भी भेजा जिसके गिलाफ पर नाजो ने एक गुलाब का फूल काढ़ा था। (बिशारत इस तकिये पर उल्टे यानी पेट के बल सोते थे... फूल पर नाक और होंठ रख कर)


लार्ड वेलेजली

बिशारत ने एक बार यह शिकायत की कि मुझे रोजाना धूप में तीन कि.मी. पैदल चल कर आना पड़ता है तो तहसीलदार ने उसी वक्त एक खच्चर उनकी सवारी में लगाने का हुक्म दे दिया। ये अड़ियल खच्चर उसने नीलामी में आर्मी टांसपोर्ट से खरीदा था। अब बुढ़ापे में सिर्फ इस लायक रह गया था कि उद्दंड जाटों, बेगार से बचने वाले चमारों तथा लगान और मुफ्त दूध न देने वाले किसानों का मुंह काला करके इस पर कस्बे में गश्त लगवायी जाती थी। पीछे ढोल, ताशे और मंजीरे बजवाये जाते ताकि खच्चर बिदकता रहे। इस पर से गिर कर एक घसियारे की रीढ़ की हड्डी टूट गयी, जिसने मुफ्त में घास देने से अनाकानी की थी। इससे उसे पूरा फालिज हो गया। सवारी के बजाय बिशारत को पैदल चलना अधिक गौरवशाली और शांतिदायक लगा। यह जुरूर है कि लार्ड वेलेजली अगर साथ न होता तो तीन मील की दूरी बहुत खलती। वो रास्ते भर उससे बातें करते जाते, उसकी तरफ से जवाब और हुंकारा खुद ही भरते फिर जैसे ही नाजो का ध्यान आता सारी थकान दूर हो जाती। डग की लंबाई आप-ही-आप बढ़ जाती। वो तहसीलदार के नटखट लड़कों को उस समय तक पढ़ाते रहे जब तक वो वाकया न पेश आया जिसका जिक्र आगे आयेगा। कस्बे में वो मास्टर साहब कहलाते थे और इस हैसियत से उनकी हर जगह आवभगत होती थी। लोगों को तहसीलदार से सिफारिश करवानी होती तो लार्ड वेलेजली तक के लाड़ करते। वो रिश्वत की दूध जलेबी खा-खा कर इतना मोटा और काहिल हो गया था कि सिर्फ दुम हिलाता था। भौंकने में उसे आलस आने लगा था। उसका कोट ऐसा चमकने लगा था जैसा रेस के घोड़ों का होता है। कस्बे में वो लाट लिजलिजी कहलता था। जलने वाले अलबत्ता बिशारत को तहसीलदार का टीपू कहते थे। नाजो ने जाड़े में वेलेजली को अपनी सदरी काट-पीट के पहना दी तो लोग उतरन पर हाथ फेर-फेर के उसपे प्यार जताने लगे। मौली मज्जन की एक बुरी आदत थी कि मास्टर पढ़ा रहे होते तो दबे पांव, सीना ताने क्लास रूम में घुस जाते, यह देखने के लिए कि वो ठीक पढ़ा रहे हैं या नहीं। लेकिन बिशारत की क्लास में कभी नहीं आते थे इसलिए कि उनके दरवाजे पर वेलेजली पहरा देता रहता था।

परिचय बढ़ा और बिशारत शिकार में तहसीलदार के साथ रहने लगे तो वेलेजली तैर कर घायल मुर्गाबी पकड़ना सीख गया। तहसीलदार ने कई बार कहा यह कुत्ता मुझे दे दो, बिशारत हर बार अपनी तरफ इशारा करके टाल जाते कि यह गुलाम मय अपने कुत्ते के आपका खादिम है। आप कहां इसके हगने, मूतने की खखेड़ में पड़ेंगे। जिस दिन से तहसीलदार ने एक कीमती पट्टा लखनऊ से मंगवा कर उसे पहनाया तो उसकी गिनती शहर के मुसाहिबों में होने लगी और बिशारत शहर में इतराते फिरने लगे। उसके खानदानी होने में कोई शक न था। उसका पिता इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक जज का पाला हुआ प्वांइटर था जब वो इंग्लैंड जाने लगा तो अपने रीडर को बख्श गया। वेलेजली उसी की औलाद था, जो धीरजगंज में आकर यूं गली-गली खराब हो रहा था।

मौली मज्जन को वेलेजली जहर लगता था। फरमाते थे कि 'पहले तो कुत्ते की जात है और फिर इसे तो ऐसी ट्रेनिंग दी गयी है कि सिर्फ शरीफों को काटता है।' इसमें शक नहीं कि जब मौली मज्जन पे भौंकता तो बहुत ही प्यारा लगता था। अब वो वाकई इतना ट्रेंड हो गया था कि बिशारत हुक्म देते तो स्टाफ रूम से उनका रूलर मुंह में दबा कर ले आता। मौली मज्जन का बयान था कि उन्होंने अपनी आंखों से इस पलीद को हाजिरी रजिस्टर ले जाते देखा, लेकिन शायद तहसीलदार और रेबीज के डर से कुछ न बोले। एक चीनी विद्वान का कथन है कि कुत्ते पर खींच कर ढेला मारने से पहले यह जुरूर पता कर लो कि इसका मालिक कौन है।