खोया पानी / भाग 9 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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टीचर लोग यतीमखाने को खा गये

धीरे-धीरे मौली मज्जन ने कर्ज से भी हाथ खेंच लिया और खुद भी खिंचे-खिंचे रहने लगे। एक दिन बिशारत चाक में लथपथ, डस्टर हाथ में लिए और रजिस्टर बगल में दबाये क्लास रूम से निकल रहे थे कि मौली मज्जन उन्हें आस्तीन पकड़कर अपने दफ्तर में ले गये और उल्टे सर हो गये। शायद 'हमला करने में पहल सबसे अच्छा बचाव है' वाली पालिसी पर अमल कर रहे थे। कहने लगे, 'बिशारत मियां एक मुद्दत से आपकी तन्ख्वाह चढ़ी हुई है और आपके कानों पर जूं नहीं रेंगती। स्कूल इस हालत में पहुंच गया। कुछ उपाय कीजिए। यतीमखाने के चंदे के मद से टीचरों की तन्ख्वाह दी जाती है। टीचर तो यतीमखाने को खा गये। डरता हूं, कहीं आप लोगों को यतीमों की आह न लग जाये।' बिशारत यह सुनते ही आपे से बाहर हो गये। कहने लगे, सात-आठ महीने होने को आये, कुल साठ-सत्तर रुपये मिले हैं। दो बार घर से मनीआर्डर मंगवा चुका हूं, अगर इस पर भी यतीमों की आह का अंदेशा है, तो अपनी नौकरी तह कर के रखिए' यह कह के उन्होंने वहीं चार्ज दे दिया। मतलब यह कि डस्टर और हाजिरी रजिस्टर मौली मज्जन को पकड़ा दिया।

मौली मज्जन ने एकदम पैंतरा बदला और डस्टर उनके चार्ज में वापस दे कर, हाथ झाड़ते हुए बोले, 'आप कैसी बातें कर रहे हैं। बरखुरदार! कसम है अल्लाह की! वो रकम जिसे आप अपने हिसाब से साठ-सत्तर बता रहे हैं, वो भी यतीमों का पेट काट कर जकात और सदके से निकाल कर पेश की थी। इसका आप यह बदला दे रहे हैं। सर सय्यद को भी आखिरी उम्र में ऐसे ही सदमे उठाने पड़े थे जिससे वो उठ न पाये थे। मैं सख्त आदमी हूं। खैर! सब्र से काम लीजिए। अल्लाह ने चाहा तो बकरा-ईद की खालों से सारा हिसाब बेबाक कर दूंगा। बर्खुरदार! ये आपका स्कूल है, आपका अपना यतीमखाना। मैं कोई अंधा नहीं हूं। आप जिस लगन से काम कर रहे हैं, वो अंधे को भी नजर आती है। आप जिंदगी में बहुत आगे जायेंगे। अगर इसी तरह काम करते रहे, अल्लाह ने चाहा तो बीस-पच्चीस बरस में इस स्कूल के हैड मास्टर हो जायेंगे। मैं ठहरा जाहिल आदमी, मैं तो हैडमास्टर बनने से रहा। स्कूल का हाल आपके सामने है। चंदा देने वालों की तादाद घट कर इतनी हो गयी कि सर सय्यद होते तो अपना सर पीट लेते। मगर आप सब अपना गुस्सा मुझी पर उतारते हैं। मैं अकेला क्या कर सकता हूं। अकेला चना भाड़ तो क्या खुद को भी नहीं फोड़ सकता। जुरूरत इस बात की है कि स्कूल और यतीमखाने को अमीरों, रईसों, तअल्लुकेदारों और आस-पास के शहरों में परिचित कराया जाये। लोगों को किसी बहाने बुलाया जाये। एक यतीम का चेहरा दिखाना हजार भाषणों और लाख इश्तहारों से जियादा असर रखता है। यकीन जानिए जबसे टीचरों की तन्ख्वाह रुकी है, मेरी नींदें उड़ गयी हैं। बराबर सलाह मशविरे कर रहा हूं। अल्लाह के लिए अपनी तन्ख्वाह की अदायगी की कोई तरकीब निकालिए। बहुत चिंतन-मनन के बाद अब आप ही के उपाय पर अमल करने का फैसला किया है। स्कूल की प्रसिद्धि के लिए एक शानदार मुशायरा होना बहुत जुरूरी है। लोग आज भी धीरजगंज को गांव समझते हैं। अभी कल ही एक पोस्टकार्ड मिला। पते में गांव धीरजगंज लिखा था। गांव धीरजगंज! खून खौलने लगा। लोग अर्से तक अलीगढ़ को भी गांव समझते रहे, जब तक कि वहां फिल्म नहीं आई और कार के एक्सीडेंट में पहला आदमी न मरा।

काम बांटने के सिलसिले में उन्होंने बिशारत के जिम्मे सिर्फ शायरों का लाना-ले जाना, ठहरने और खाने के बंदोबस्त, मुशायरे की पब्लिसिटी और मुशायरा-स्थल का इंतजाम दिया। बाकी काम वो अकेले कर लेंगे, जिससे अभिप्राय मुशायरे की अध्यक्षता था।


धीरजगंज का पहला और आखिरी मुशायरा

मुशायरे की तारीख तय हो गयी। धीरजगंज के आस-पास के लोगों को निमंत्रित करना, तरह की पंक्ति तय करना और शायरों का चयन करना, शायरों को कानपुर से आखिरी ट्रेन से लाना और मुशायरे के बाद पहली ट्रेन से दफा करना। मुशायरे से पहले और गजल पढ़ने तक उनकी मुफ्त खातिर किसी और से करवाना... इसी किस्म के कार्य जो सजा का दर्जा रखते थे, बिशारत के सुपुर्द किये गये। शायरों और उनके अपने आने-जाने का रेल और इक्के का किराया, शायरों का धीरजगंज में खाने और रहने का खर्च, पान सिगरेट इत्यादि के खर्च के लिए मौली मज्जन ने दस रुपये दिये और ताकीद की कि अंत में जो राशि बच जाये वो उनको मय रसीद मुशायरे के अगले दिन वापस कर दी जाये। उन्होंने सख्ती से यह भी हिदायत की कि शायरों को आठ आने का टिकिट खुद खरीद कर देना। नक्द किराया हरगिज न देना। बिशारत यह पूछने ही वाले थे कि शायरों के हाथ-खर्च और नजराने का क्या होगा कि मौली मज्जन ने स्वयं ही सवाल हल कर दिया। फरमाया कि शायरों से यतीमखाने और स्कूल के चंदे के लिए अपील जुरूर कीजिएगा। उन्हें शेर सुनाने में जरा भी शर्म नहीं आती तो आपको इस पुण्यकार्य में काहे की शर्म। अगर आपने फूहड़पन से काम न लिया तो हर शायर से कुछ न कुछ वसूल हो सकता है, मगर जो कुछ वसूल करना है मुशायरे से पहले ही धरवा लेना। गजल पढ़ने के बाद हरगिज काबू में नहीं आयेंगे। 'रात गयी, बात गयी' वाला मुआमला है और जो शायर ये कहे कि वो अठन्नी भी नहीं दे सकता तो उसे तो हमारे यतीमखाने में होना चाहिए। कानपुर में बेकार पड़ा क्या कर रहा है।

पाठक सोच रहे होंगे इन व्यवस्थाओं के संदर्भ में स्कूल के हैडमास्टर का कहीं जिक्र नहीं आया। इसका एक उचित कारण यह था कि हैडमास्टर को नौकरी पर रखते समय उन्होंने केवल एक शर्त लगाई थी - वो यह कि हैडमास्टर स्कूल के मुआमलों में बिल्कुल हस्तक्षेप नहीं करेंगे।

इस आत्मश्लाघा कहिए या अनुभवहीनता, बिशारत ने मुशायरे के लिए तरह की जो पंक्ति चुनी वो अपनी ही गजल से ली। इसका सबसे बड़ा फायदा तो यह नजर आया कि मुफ्त में प्रसिद्धि मिल जायेगी। दूसरे उन्हें मुशायरे के लिए अलग गजल पर माथापच्ची नहीं करनी पड़ेगी। यह सोच-सोच के उनके दिल में गुदगुदी होती रही कि अच्छे-अच्छे शायर उनकी पंक्ति पर गिरह लगायेंगे। बहुत जोर मारेंगे। घंटों काव्य-चिंतन में कभी पैर पटकेंगे, कभी दिल को, कभी सर को पकड़ेंगे और शेर होते ही एक-दूसरे को पकड़ के बैठ जायेंगे। उन्होंने अट्ठारह शायरों को सम्मिलित होने के लिए तैयार कर लिया, जिनमें जौहर चुगताई इलाहाबादी, काशिफ कानपुरी और नुशूर वाहिदी भी शामिल थे, जो इसलिए तैयार हो गये थे कि बिशारत की नौकरी का सवाल था। नुशूर वाहिदी और जौहर इलाहाबादी तो उन्हें पढ़ा भी चुके थे। उन दोनों को उन्होंने तरह नहीं दी बल्कि दूसरी गजल पढ़ने की प्रार्थना की। ऐसा लगता था कि उन्होंने बाकी शायरों के चयन में यह ध्यान रक्खा था कि कोई भी शायर ऐसा न हो जो उनसे बेहतर शेर कह सकता हो।

इन सब शायरों को दो इक्कों में बिठा कर वो कानपुर के रेलवे स्टेशन पर लाये। जिन पाठकों को दो इक्कों में अट्ठारह शायरों की बात में अतिशयोक्ति लगे, शायद उन्होंने न तो इक्के देखे हैं न शायर। यह तो कानपुर था वरना अलीगढ़ होता तो एक ही इक्का काफी था। पाठकों की आसानी के लिए हम इस लाजवाब सवारी का सरसरी वर्णन किये देते हैं। पहले गुस्ले-मय्यत के तख्ते को काट कर चौकोर और चौरस कर लें। फिर उसमें दो अलग साइज के बिल्कुल चौकोर पहिये इस भरोसे के साथ जोत दें कि इनके चलने से अलीगढ़ की सड़कें समतल हो जायेंगी और इस प्रक्रिया में ये खुद भी गोल हो जायेंगे। तख्ता सड़क के गड्ढों की ऊपरी सत्ह से छह, साढ़े छह फिट ऊंचा होना चाहिए ताकि सवारियों के लटके हुए पैरों और पैदल चलने वालों के सरों की सत्ह एक हो जाये। पहिये में सूरज की किरणों की शक्ल की जो लकड़ियां लगी होती हैं वो इतनी मजबूत होनी चाहिए कि नयी सवारी इन पर पांव रख कर तख्ते तक हाई जंप कर सके। पांव के धक्के से पहिये को स्टार्ट मिलेगा। इसके बाद तख्ते में दो बांसों के बम (इक्के और तांगों के आगे लगाये जाने वाली लकड़ी जिसमें घोड़ा जोता जाता है) लगा कर एक कमजोर घोड़े को लटका दें, जिसकी पसलियां दूर से ही गिनकर सवारियां संतोष कर लें कि पूरी हैं। लीजिए इक्का तैयार है।

निहारी, रसावल, जली और धुआं लगी खीर, मुहावरे, सावन के पकवान, अमराइयों में झूले, दाल, रेशमी दुलाई, गरारे, दोपल्ली टोपी, आल्हा-ऊदल और जबान के शेर की तरह इक्का भी यू.पी. की खास चीजों में गिना जाता है। हमारा खयाल है कि इक्के का अविष्कार किसी घोड़े ने किया होगा, इसीलिए इसके डिजाइन में इस बात का ध्यान रखा गया है कि घोड़े से अधिक सवारी को परेशानी उठानी पड़े। इक्के की विशेषता यह है कि अधिक सवारियों का बोझ घोड़े पर नहीं पड़ता बल्कि उन सवारियों पर पड़ता है जिनकी गोद में वो आ-आ कर बैठती है। जोश मलीहाबादी साहब ऐसे इक्कों के बारे में लिखते हैं कि, 'तमाम के तमाम इस कदर जलील हैं कि उन पर सिकंदर महान को भी बिठा दिया जाये तो वो भी किसी देहाती रंडी के भड़वे नजर आने लगेंगे।'

धीरजगंज के प्लेटफार्म को स्कूल के बच्चों ने रंग-बिरंगी झंडियों से इस तरह सजाया था जैसे फूहड़ मां बच्ची का मुंह धुलाये बगैर बालों में शोख रिबन बांध देती है। ट्रेन से उतरते ही हर शायर को गेंदे का हार पहना कर गुलाब का एक-एक फूल और औटते दूध का कांसे का गिलास पेश किया गया जिसे थामते ही वो बिलबिला कर पूछता था कि इसे कहां रक्खूं? स्वागत करने वालों ने पच्चीस मील और एक घंटे दूर, कानपुर से आने वालों से पूछा, 'सफर कैसा रहा! कानपुर का मौसम कैसा है! हाथ मुंह धो के तीन चार घंटे सो लें तो सफर की थकान उतर जायेगी।' प्रत्युत्तर में मेहमानों ने पूछा, 'यहां मगरिब (शाम की नमाज) किस वक्त होती है' धीरजगंज वाले तो मेहमाननवाजी के लिए मशहूर हैं; यहां की कौन सी चीज मशहूर है; क्या यहां के मुसलमान भी उतने ही बुरे हाल में हैं, जितने बाकी हिंदुस्तान के।' अट्ठारह शायर और पांच मिसरा उठाने वाले जो एक शायर अपने साथ लाया था, दो बजे की ट्रेन से धीरजगंज पहुंचे। ट्रेन पहुंचने से तीन घंटे पहले ही यतीमखाना शम्स-उल-इस्लाम का बैंड बजना शुरू हो गया था, लेकिन जैसे ही ट्रेन आ कर रुकी तो कभी ढोल, कभी बांसुरी, कभी हाथी की सूंड़ जैसा बाजा बंद हो जाता और कभी तीनों ही मौन हो जाते, सिर्फ बैंड मास्टर छड़ी हिलाता रह जाता। वो इस कारण कि इन बाजों को बजाने वाले बच्चों ने इससे पहले इंजन को इतने पास से नहीं देखा था। वो उसे देखने में इतने तल्लीन हो जाते कि बजाने की सुध ही न रहती, इंजन उनके इतने पास आ कर रुका था कि उसका एक-एक प्रभावी पुरजा दिखाई दे रहा था... सीटी बजाने वाला उपकरण, कोयला झोंकने वाला बेलचा, बॅायलर दहकते-चटखते कोयलों का ताप और अंग्रेजी दवाओं की बू जैसा भभकता झोंका। शोलों की आंच से ऐंग्लो इंडियन ड्राइवर का तमतमाता लाल चुकंदर चेहरा और कलाई पर गुदी नीली मेम, मुसलमान खलासी के सर पर बंधा हरा रूमाल और चेहरे पर कोयले की जेबरा धारियां, पहिये से जुड़ी हुई लंबी सलाख जो बिल्कुल उनके हाथ की तरह चलती जिसे वो आगे पीछे करते हुए छुक-छुक रेल चलाते थे, इंजन की टोंटी से उबलती, शोर मचाती स्टीम का चेहरे पर स्प्रे। इन बच्चों ने धुएं के मरगोलों को मटियाले से हल्का सुरमई, सुरमई से गाढ़ा-गाढ़ा काला होते देखा। गले में उसकी कड़वाहट उन्हें अच्छी लग रही थी। घुंघराले धुएं का काला अजगर फुफकारें मारता आखिरी डब्बे से भी आगे निकल कर अब आसमान की तरफ उठ रहा था। बैंड बजाने वाले बच्चे बिल्कुल चुप हो कर पास, बिल्कुल पास से इंजन की सीटी को बजता हुआ देखना चाहते थे। उनका बस चलता तो जाते समय अपनी आंखें वहीं छोड़ जाते। अगर उन बच्चों से बैंड बजवाना ही था तो ट्रेन बगैर इंजन के लानी चाहिए थी।


इन्हीं पत्थरों पे चल कर ...

अट्ठारह शायरों का जुलूस स्कूल के सामने से गुजरा तो एक रहकले से 18 तोपों की सलामी उतारी गयी। ये एक छोटी सी पंचायती तोप थी जो नार्मल हालात में पैदाइश और खत्नों के मौके पर चलाई जाती थी। चलते ही सारे कस्बे के कुत्ते, बच्चे, कव्वे, मुर्गियां और मोर कोरस में चिंघाड़ने लगे। बड़ी बूढ़ियों ने घबरा कर 'दीन जागे, कुफ्र भागे' कहा। खुद वो मिनी तोप भी अपने चलने पर इतनी आश्चर्यचकित और घबरायी हुई थी कि देर तक नाची-नाची फिरी। शायरों को खाते-पीते किसानों के घर ठहराया गया, जो अपने-अपने मेहमान को स्कूल से घर ले गये। एक किसान तो अपने हिस्से के मेहमान की सवारी के लिए टट्टू और रास्ते के लिए नारियल की गुड़गुड़ी भी लाया था। कस्बे में जो गिने-चुने संपन्न घराने थे, उनसे मौली मज्जन की नहीं बनती थी, इसलिए शायरों के ठहरने और खाने का बंदोबस्त किसानों और चौधरियों के यहां किया गया, जिसकी कल्पना ही शायरों की नींद उड़ाने के लिए काफी थी। शेरो-शायरी या नॉविलों में देहाती जिंदगी को रोमेंटिसाइज करके उसकी निश्छलता, सादगी, सब्र और प्राकृतिक सौंदर्य पर सर धुनना और धुनवाना और बात है लेकिन सचमुच किसी किसान के आधे पक्के या मिट्टी गारे के घर में ठहरना किसी शहरी इंटेलेक्चुअल के बस का रोग नहीं। किसान से मिलने से पहले उसके ढोर-डंगर, घी के फिंगर प्रिंट वाले धातु के गिलास, जिन हाथों से उपले पाथे उन्हीं हाथों से पकायी हुई रोटी, हल, दरांती, मिट्टी से खुरदुराये हुए हाथ, बातों में प्यार और प्याज की महक, मक्खन पिलाई हुई मूंछ... इस सबसे एक ही वक्त में गले मिलना पड़ता है।


इन्हीं पत्थरों पे चल कर अगर आ सको तो आओ

इस कस्बे के मुशायरे में, जो धीरजगंज का अंतिम यादगार मुशायरा साबित हुआ, बाहर के 18 शायरों के अलावा 33 स्थानीय तथा संबंधित शायर भी सम्मिलित होने के लिए बुलाये गये, या बिन बुलाये आये। बाहर से आने वालों में कुछ ऐसे भी थे जो इस लालच में आये थे कि नक्द न सही, गांव है; कुछ नहीं तो सब्जियां, फस्ल के मेवे, फल-फलवारी के टोकरे, पांच-छह मुर्गियों का झाबा तो मुशायरा कमेटी वाले जुरूर साथ कर देंगे। धीरजगंज में कुछ शरारती नौजवान ऐसे थे जिनके बारे में मशहूर था कि वो पास-पड़ोस के तीन-चार मुशायरे चौपट कर चुके हैं। उनके एक पुराने लंगोटिये थे जिन्होंने मैट्रिक में चार-पांच बार फेल होने और परीक्षकों की जत्रों के गुणों को पहचानने के अयोग्यता से तंग आकर चुंगी विभाग में नौकरी कर ली थी। इसमें इंद्रिय-दमन के अलावा इस बदनाम महकमे को सजा देना भी छुपा हुआ था। चुंगी के वातावरण को उन्होंने शायरी के लिए हद से जियादा उपयुक्त पाया। अपनी वर्तमान स्थिति से इतने संतुष्ट और आनंदित थे कि इसी पोस्ट से रिटायर होने के इच्छुक थे। अधिक संतान वाले थे और आशु कविता करते थे। जो शेरों के आने का क्रम था वही औलाद का भी, यानी कि दोनों के अवतरण का आरोप ऊपर वाले पर लगाते थे। आम-सा वाक्य भी उन पर कविता बन कर उतरता था। गद्य बोलने और लिखने में उन्हें उतनी ही उलझन होती थी जितनी एक आम आदमी को कविता लिखने में।

वो शायरी करते थे मगर मुशायरों से विरक्त और उदास थे। फरमाते थे, 'आज कल जिस तरह शेर कहा जाता है बिल्कुल उसी तरह दाद दी जाती है, यानी मतलब समझे बगैर। सही दाद देना तो दूर अब लोगों को ढंग से हूट करना भी नहीं आता। शेर मुशायरे में सुनने-सुनाने की चीज नहीं। एकांत में पढ़ने, समझने, सुनने और सहने की चीज है। शायरी किताब की शक्ल में हो तो लोग शायर का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मैं 'मीर' की किताब से एक-दो नहीं, सौ-दो सौ शेर ऐसे निकाल कर दिखा सकता हूं जो वो किसी मुशायरे में पढ़ देते तो इज्जत और पगड़ी ही नहीं, सर भी सलामत नहीं रहता। उन्हें 'मीर' के सिर्फ यही शेर याद थे। दूसरे उस्ताद शायरों के भी उन्होंने सिर्फ वही शेर याद कर रखे थे जिनमें कोई कमी या गलती थी। उन साहब से बिशारत पांच छह गजलें कहलवा कर ले आये और उन मुशायरा बिगाड़ नौजवानों में बांट दीं कि तुम भी पढ़ना। यह तरकीब काम कर गयी। देखा गया है कि जिस शायर को दूसरे नालायक शायरों से दाद लेने की उम्मीद हो वो उन्हें हूट नहीं करता। चोरियां बंद करने का आजमाया हुआ तरीका यह बताया गया है कि चोर को थानेदार बना दो। हमें इसमें इस फायदे के अलावा कि वो दूसरों को चोरी नहीं करने देगा एक फर्क और नजर आता है। वो ये कि पहले जो माल वो अंधेरी रातों में सेंध लगाकर बड़ी मुसीबतों से हासिल करता था, अब दिन-दहाड़े रिश्वत की शक्ल में थाने में धरवा लेगा।

इसी प्रोग्राम के तहत पांच ताजा गजलें हकीम अहसानुल्लाह 'तस्लीम' से इस वादे पर लिखवा कर लाये कि जाड़े में उनके कुश्तों के लिए पचास तिलेर, बीस तीतर, पांच हरियल और दो काजें नज्र करेंगे और बकराईद पर पांच खस्सी बकरे आधे दामों धीरजगंज से खरीदकर भिजवायेंगे। हकीम अहसानुल्लाह 'तस्लीम' मूलगंज की तवायफों के खास हकीम तो थे ही, गाने के लिए उन्हें फरमाइशी गजल भी लिखकर देते थे। किसी तवायफ के पैर भारी होते तो उसके लिए खास तौर से छोटी बह्र (छंद) में गजल कहते ताकि ठेका और ठुमका न लगाना पड़े। वैसे उस जमाने में तवायफें आमतौर पे दाग और फकीर, बहादुरशाह जफर का कलाम गाती थीं। हकीम साहब किसी तवायफ पर कृपालु होते तो मक्ते में उसका नाम डाल के गजल उसी को बख्श देते। कई तवायफें मसलन मुश्तरी, दुलारी, जोहरा प्रसिद्ध शायरों से गजल कहलवातीं और न सिर्फ गाने की बल्कि गजल कहने की भी दाद पातीं। हकीम 'तस्लीम' तवायफों के उच्चारण के दोष भी ठीक करते, बाकी चीजें ठीक होने से परे थीं मतलब ये कि वैसे दोष-सुधार चाहती थीं लेकिन सुधार से परे थीं। उस जमाने में तवायफों और उनके श्रद्धालुओं के दोष सुधारना अदबी फैशन में दाखिल था। वास्तव में ये समाजी से जियादा खुद सुधारक का ऐंद्रिक विषय होता था, जिसका Catharsis संभव हो न हो, उसका बयान लज्जत भरा था। गुनाह का जिक्र गुनाह से कहीं जियादा लजीज हो सकता है बशर्ते कि विस्तृत हो और बयान करनेवाला शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार से बूढ़ा हो। एमली जोला की Nana रुसवा की उमराव जान अदा, टोलार्ज ट्रेक और देगा (Degas) की तवायफों और चकलों की तस्वीरें शारीरिक वास्तविकता के सिलसिले की पहली कड़ी हैं, जबकि कारी सरफराज हुसैन की 'शाहिदे-राअना' से रंगीनी के एक दूसरे लजीज सिलसिले की शुरुआत होती है, जिसकी कड़ियां काजी अब्दुल गफ्फार के लैला के खत, गुलाम अब्बास की आनंदी की भरपूर सादगी और मंटों की प्रकट रूप में खुरदरी वास्तविकता लेकिन Inverted Romanticism से जा मिलती हैं। हमारे यहां तवायफ से संबंधित तमाम बचकाना आश्चर्यों, खुमगुमानियों, सुनी-सुनायी बातों और रोमांटिक सोचों... जिससे मिले, जहां से मिले, जिस कदर मिले... सबका बोझल अंबार इस तरह लगाया जाता है कि हर तरफ लफ्जों के तोता मैना फुदकते-चहकते दिखाई देते हैं। जिंदा तवायफ कहीं नजर नहीं आती। रोमेंटिक मलबे तले उसके घुंघरू की आवाज तक सुनाई नहीं देती, इस तवायफ की निर्माण सामग्री उठती जवानी के मुहासों भरे अधकचरे जजबात से ली गयी है, जिसकी महक रिसर्च स्कॉलरों की रगों में दौड़ती फिरती रौशनाई को मुद्दतों गरमाती रहेगी। इस इच्छा भरे शहर की तवायफ ने अपनी Chastity belt की चाबी दरिया में फेंक दी है और अब उसे किसी से... हद ये है कि खुद लेखक और अपने आप से भी कोई खतरा नहीं।

वो सर से है ता नाखुने-पा, नामे-खुदा, बर्फ

बात साठ-सत्तर साल पुरानी लगती है, मगर आज भी उतनी ही सच है। अलग-अलग तबकों के लोग तवायफ को जलील और नफरत के काबिल समझते थे, मगर साथ ही साथ उसकी चर्चा और चिंतन में एक लज्जत महसूस किये बिना नहीं रहते थे। समाज और तवायफ में सुधार के बहाने उसकी जिंदगी की तस्वीर बनाने में उनकी प्यास की संतुष्टि हो जाती थी। इस शताब्दी के पहले आधे भाग का साहित्य, विशेष रूप से फिक्शन, तवायफ के साथ इसी Love-hate यानी दुलार-दुत्कार के ओलते-बदलते संबंध का परिचायक है। उसने एक द्विअर्थी बयान-शैली को जन्म दिया। जिसमें बुरा-भला कहना भी मजे लेने का माध्यम बन जाता है। भोगे हुए यथार्थ के पर्दे में जितनी दाद तवायफ को उर्दू फिक्शन लिखने वालों से मिली उतनी अपने रात के ग्राहकों से भी न मिली होगी। अलबत्ता अंग्रेजी फिक्शन पिछले तीस बरसों में चर्चा के केंद्र का घूंघट उठाकर खुल्लमखुल्ला...।


किबला चूं पीर शुद

मूलगंज में वहीदन बाई के कोठे पर एक बुजुर्ग जो हिल-हिल कर सिल पर मसाला पीसते हुए देखे गये, उनके बारे में यार लोगों ने मशहूर कर रखा था कि तीस बरस पहले जुमे की नमाज के बाद वहीदन बाई के चाल-चलन के सुधार की नीयत से कोठे के जीने पर चढ़े थे, मगर उस वक्त इस छप्पन-छुरी की भरी जवानी थी। लिहाजा इनका मिशन बहुत तूल खींच गया।

कारे-जवां दराज है, अब मेरा इंतजार कर

वहीदन बाई जब फर्स्ट क्लास क्रिकेट से रिटायर हुई और गुनाहों से तौबा करने का तकल्लुफ किया, जिसके लायक अब वो वैसे भी नहीं रही थी तो किबला-आलम की दाढ़ी पेट तक आ गयी थी। अब वो उसकी बेटियों के बावर्ची-खाने का इंतजाम तथा गजलों और ग्राहकों के चयन में मदद देते थे। 1931 में वो हज को गयी तो ये नौ सौ चूहों के अकेले प्रतिनिधि की हैसियत से उसके साथ थे।


जो पैदा किसी घर में होती थी बेटी

हकीम अहसानुल्लाह 'तस्लीम' का दावा था कि उन्होंने इमामत, हकीमी और शायरी बुजुर्गों से पायी है। गर्व से कहते थे कि उनके दादा हकीम अहतिशाम हुसैन राअना की कन्नौज में इतनी बड़ी जमींदारी थी कि एक नक्शे में नहीं आती थी। अब नक्शे उनके कब्जे में और जमींदारी महाजन के कब्जे में थी। हकीम एहसानुल्लाह तसलीम रंगीनमिजाज रईसों का भी इलाज करते थे, फकत कारूरा (पेशाब) देखकर रईस का नाम बता देते और रईस की नब्ज पे उंगली रखते ही ये निशानदेही कर देते कि बीमारी के कीटाणु किस कोठे के आवारा और पले हुए हैं। ये समझ में आने वाली बात है कि किसी तवायफ के यहां लड़का पैदा हो जाये तो रोना पीटना मच जाता है। हकीम तसलीम के पास खानदानी डायरी में एक ऐसा नुस्खा था कि शर्तिया लड़की पैदा होती। यह एक भस्म थी जो तवायफ उस रात के राजा या विशेष अतिथि को चुपके से पान में डाल कर खिला देती। इस नुस्खे के ठीक होने की प्रसिद्धि इस कदर थी कि कानपुर में किसी गृहस्थ के भी लड़की पैदा होती तो वो मियां के सर हो जाती, हो न हो! तुम वहीं से पान खा कर आये थे। तवायफ कितनी भी हसीन हो उनकी नीयत सिर्फ उसके पैसों पर बिगड़ती थी। तवायफें उनसे बड़ी आस्था और श्रद्धा रखती थीं। कहने वाले तो यहां तक कहते थे कि उनके मरने का बड़ी बेचैनी से इंतजार कर रही हैं ताकि संगे-मरमर का मजार बनवायें और हर साल धूमधाम से उर्स मनायें।


भिक्षुओं की फेंटेसी

मूलगंज का जिक्र ऊपर की पंक्तियों और कानपुर से संबंधित दूसरे चित्रों में जगह-जगह बल्कि जगह-बेजगह आया है। इस मुहल्ले में तवायफें रहती थीं। लिहाजा थोड़ा-सा विनम्र स्पष्टीकरण आवश्यक है। ये बिशारत का पसंदीदा विषय है, जिससे हमारे पाठक पूरी तरह से परिचित हो चुके होंगे। वो हिरफिर के इसके वर्णन से अपनी संजीदा बातचीत में विघ्न डालते रहते हैं, हालांकि बिना संदेह वो हैं दूसरे ग्रुप के आदमी।

बाजार से गुजरा हूं खरीदार नहीं हूं

जैसे कई एलर्जिक लोगों को अचानक पित्ती उछल आती है, उसी तरह उनकी बातचीत में तवायफ... अवसर देखे न जगह... छम से आन खड़ी होती है। संयमी हैं, कभी के नाना-दादा बन गये, मगर तवायफ है कि किसी तरह उनके सिस्टम से निकलने के लिए राजी नहीं होती। एक बार हमने आड़े हाथों लिया। हमने कहा, हजरत! पुरानी कहानियों में हीरो और राक्षस की जान किसी तोते में अटकी होती है। कहने लगे, अरे साहब मेरी कहानी पर मिट्टी डालिए। ये देखिए कि आजकल की फिक्शन और फिल्मों में हीरों और हीरोइन से कौन से धर्मग्रंथ पढ़वाये जा रहे हैं। जिस सोच के मुताबिक पहले तवायफ कहानी में डाली जाती थी, अब इस काम के लिए शरीफ घराने की बहू-बेटियों को तकलीफ दी जाती है। पढ़ने वाले और फिल्म देखने वाले आज भी तवायफ को उस तरह उचक लेते हैं जैसे मरीज हकीमों के नुस्खे में से मुनक्का।

निवेदन किया, ये हकीमी उपमा तो तवायफ से भी जियादा Ancient है। कौन समझेगा? फरमाया तवायफ को समझने के लिए यूनानी हिकमत से परिचय जुरूरी है।

और बिशारत कुछ गलत नहीं कहते। शायद आज उस मनस्थिति का अंदाजा करना मुश्किल हो तवायफ उस डगमगाते हुए समाज के संपन्न वर्ग की इंद्रियों पर वर्जित सुख की तरह छायी हुई थी, और ये कुछ उस दौर से ही संबंधित नहीं। औरंगजेब के बारे में मशहूर है कि उसने दुनिया के सबसे पुराने पेशे को समाप्त करने के लिए एक फरमान जारी किया था कि एक निश्चित तारीख तक सारी तवायफें शादी कर लें, वरना उन सबको नाव में भरके यमुना में डूबो दिया जायेगा। अधिकतर तवायफें डूबने को हांडी-चूल्हे पर और मगरमच्छ के जबड़े को ऐसे लफंगों पर प्रमुखता देती थीं जो प्यार भी करते हैं तो इबादत की तरह, यानी बड़ी पाबंदी के साथ और बेदिली के साथ। बहुत-सी तवायफों ने इस धंधे को अलविदा कहकर निकाह कर लिए।

हो चुकीं गालिब बलाएं सब तमाम

एक अक्दे-नागहानी और है

अब जरा इसके दौ सौ बरस बाद की एक झलक 'तजकिरा-ए-गौसिया' में मुलाहिजा फरमायें। इसके लेखक मौलवी मुहम्मद इस्माईल मेरठी अपने श्रद्धास्पद पीरो-मुर्शिद (गुरु) के बारे में एक घटना लिखते हैं 'एक रोज आदेश हुआ, कि जब हम दिल्ली की जीनतुल-मस्जिद में ठहरे हुए थे, हमारे दोस्त कंबलपोश (यूसुफ खां कंबलपोश लेखक तारीखे-यूसुफी, अजायबाते-फिरंग जो उर्दू का पहला इंग्लैंड का यात्रा वर्णन है) ने हमारी दावत की। शाम की नमाज के बाद हमको लेकर चले। चांदनी चौक में पहुंच एक तवायफ के कोठे पर हमको बैठा दिया और आप चंपत हो गये। पहले तो हमने सोचा कि खाना इसी जगह पकवाया होगा, मगर मालूम हुआ कि यूं ही बिठा कर चल दिया है। हम बहुत घबराये भला ऐसी जगह कमबख्त क्यों लाया। दो घड़ी बात हंसता हुआ आया और कहने लगा मियां साहब! मैं आपकी भड़क मिटाने यहां बैठा गया था। बाद में अपने घर ले गया और खाना खिलाया।

याद रहे कि कंबलपोश एक आजाद और मनमौजी आदमी था, ये घटना उस समय की है जब पीरो-मुरशिद की सोहबत में उसका दिल बदल चुका था। सोचिये, जिसकी पतझड़ का ये रंग हो उसकी बहार कैसी रही होगी।

आखिर में, इस लतीफे के लगभग डेढ़ सौ साल बाद के एक नाखुनी निशान पे उचटती सी निगाह डालते चलें। जोश जैसा शब्दों का जादूगर, खानदानी, सुरुचिसंपन्न और नफासतपसंद शायर जब जीवन के स्वर्ग और असीमित सुख की तस्वीर खींचता है तो देखिए उसका कलम क्या गुल खिलाता है

' कूल्हे पे हाथ रख के थिरकने लगी हयात '

कूल्हे पे हाथ रख के थिरकने में कोई हरज नहीं, बशर्ते कूल्हा अपना ही हो। दूसरे, थिरकना पेशेवर काम हो शौकिया न हो। मतलब ये कि कोई कूल्हे पे हाथ रख के थिरकने लगे तो किसी को क्या एतराज हो सकता है, मगर इससे जात पहचानी जाती है।

तो खुदा आपका भला करे... और मुझे माफ करे... मूलगंज रंडियों का चकला था। उस जमाने में भी लोगों का चाल-चलन इतना ही खराब था, जितना अब है, मगर निगाह अभी उतनी खराब नहीं हुई थी कि तवायफों की बस्ती को आजकल की तरह 'बाजारे-हुस्न' कहने लगें। चकले को चकला ही कहते थे। दुनिया में कहीं और बदसूरत रंडियों के कोठों और बेडौल, बिहंगम जिस्म के साथ यौन रोग बेचने वालियों की चीकट कोठरियों को इस तरह ग्लैमराइज नहीं किया गया। 'बाजारे हुस्न' की रोमेंटिक उपमा आगे चलकर उन साहित्यकारों ने प्रचलित की जो कभी तुरंत उपलब्ध होने वाली औरतों की बकरमंडी के पास भी नहीं गुजरे थे, लेकिन निजी तजरुबा इतना आवश्यक भी नहीं। 'रियाज खैराबादी' सारी उम्र शराब की तारीफ में शेर कहते रहे, जब कि उनकी तरल पदार्थों की बदपरहेजी कभी शरबत और सिकंजबीं से आगे नहीं बढ़ी। दूर क्यों जायें, खुद हमारे समकालीन शायर मकतल, फांसी घाट, जल्लाद, और रस्सी के बारे में ललचाने वाली बातें करते रहे हैं। इसके लिए फांसी पे झूला हुआ होना जुरूरी नहीं। ऐश की दाद देने और रात की गलियों में चक्कर लगाने की हिम्मत या ताकत न हो तो 'हवस सीनों में छुप-छुप कर बना लेती है तस्वीरें' और सच तो ये है कि ऐसी ही तस्वीरों के रंग जियादा चोखे और लकीरें जियादा दिलकश होती हैं। क्यों? केवल इसलिए कि काल्पनिक होती हैं। अजंता और एलोरा की गुफाओं के Frescoes (भित्ति-चित्र) और मूर्तियां इसके क्लासिक उदाहरण हैं। कैसे भरे-पूरे बदन बनाये हैं बनाने वालों ने, और बनाने पर आये तो बनाते ही चले गये। मांसल मूर्ति बनाने चले तो हर Sensuous लकीर बल खाती, गदराती चली गयी। सीधी-सादी लकीरें आपको मुश्किल से ही दिखायी पड़ेंगी। हद ये कि नाक तक सीधी नहीं। भारी बदन की इन औरतों और अप्सराओं की मूर्तियां अपने मूर्तिकार के विचारों की चुगली खाती हैं। नारंगी की फांक जैसे होठ। बर्दाश्त से जियादा भरी-भरी छातियां जो खुद मूर्तिकार से भी संभाले नहीं संभलती। बाहर को निकले हुए भारी कूल्हे, जिन पर गागर रख दें तो हर कदम पर पानी, देखने वालों के दिल की तरह बांसों उछलता चला जाये। उन गोलाइयों के खमों के बीच बलखाती कमर और जैसे ज्वार भाटे में पीछे हटती लहर, फिर वो टांगें जिनकी उपमा के लिए संस्कृत शायर को केले तने का सहारा लेना पड़ा। इस मिलन से अपरिचित और अनुपलब्ध बदन को और उसकी इच्छा की सीमा तक Exaggerated लकीरों और खुल-खेलते उभारों को उन तरसे हुए ब्रह्मचारियों और भिक्षुओं ने बनाया और बनवाया है जिनपर भोग-विलास वर्जित था और जिन्होंने औरतों को सिर्फ फेंटेसी और सपने में देखा था और जब कभी सपने में वो इतने करीब आ जाती कि उसके बदन की आंच से अपने लहू में अलाव भड़क उठता तो फौरन आंख खुल जाती और वो हथेली से आंखें मलते हुए पथरीली चट्टानों पर अपने सपने लिखने शुरू कर देते।


वो सूरतगर कुछ ख्वाबों के

पश्चिम का सारा Porn और Erotic Art भिक्षुओं और त्यागियों की फेंटेसी के आगे बिल्कुल बचकाना और पतली छाछ लगता है। ऐसे छतनार बदन, इच्छाओं से निहाल स्वरूप और ध्यान-धूप में पके नारफल (तख्ती और छातियों के लिए पुरानी उर्दू में ये शब्द बहुत आम था।) सिर्फ और सिर्फ वो त्यागी और भिक्षु बना सकते थे जो अपनी-अपनी यशोधरा को सोता छोड़कर सच्चाई, निर्वाण की तलाश में निकले थे, पर सारी जिंदगी भीगी, सीली और अंधेरी गुफाओं में जहां सपने के सिवा कुछ दिखाई नहीं देता, पहाड़ का सीना काट कर अपना सपना यानी औरत बरामद करते रहे। बरस दो बरस की बात नहीं, इन ज्ञानियों ने पूरे एक हजार बरस इसी मिथुन कला में बिता दिये। फिर जब सारी चट्टानें खत्म हो गयीं और एक-एक पत्थर ने उनके जीवन-सपने का रूप धारण कर लिया तो वो निश्चिंत होकर अंधेरी गुफाओं से बाहर निकले तो देखा कि धर्म और सत्य का सूरज कभी का डूब चुका और बाहर अब उनके लिए जन्म-जन्म का अंधेरा ही अंधेरा है सो वो बाहर के अंधेरे और हा-हाकार से घबरा कर आंखों पर दोनों हाथ रखे फिर से भीतर के जाने पहचाने अंधेरे में चले गये।

सदियों रूप-स्वरूप और श्रृंगार-रस की भूल-भुलइयों में भटकने वाले तपस्वी तो मिट्टी थे, सो मिट्टी में जा मिले। उनके सपने बाकी रह गये। ऐसे ख्वाब देखने वाले, ऐसे भटकने और भटकाने वाले अब कहां आयेंगे।

कोई नहीं है अब ऐसा जहान में 'गालिब'

जो जागने को मिला देवे आके ख्वाब के साथ

देखिए बात से बात बल्कि खुराफात निकल आई मतलब ये कि बात हकीम एहसानुल्लाह 'तसलीम' से शुरू हुई औ कोठे-कोठे चढ़ती उतरती अजंता और एलोरा तक पहुंच गयी। क्या कीजिये हमारे बांके यार का बातचीत का यही ढंग है। चांद और सूरज की किरणों से चादर बुन के रख देते हैं।

हमने इस चैप्टर में उनके विचारों को यथासंभव उन्हीं के शब्दों और ध्यान को भटकाने वाले अंदाज में इकट्ठा कर दिया है। अपनी तरफ से कोई बढ़ोत्तरी नहीं की। वो अक्सर कहते हैं 'आप मेरे जमाने के घुटे-घुटे माहौल, पवित्र अभाव और इच्छाओं की पवित्रता का अंदाजा नहीं लगा सकते। आपके और मेरी उम्र में एक नस्ल का... बीस साल का... गैप है।'

सही कहते हैं। उनकी और हमारी नस्ल के बीच में तवायफ खड़ी है।


मुशायरा किसने लूटा

जौहर इलाहाबादी, काशिफ कानपुरी और नुशूर वाहिदी को छोड़कर बाकी स्थानीय और बाहरी शायरों को काव्य पाठ में आगे-पीछे पढ़वाने का मसअला बड़ा टेढ़ा निकला, क्योंकि सभी एक-दूसरे के बराबर थे और ऐसी बराबर की टक्कर थी कि यह कहना मुश्किल था कि उनमें कम बुरे शेर कौन कहता है ताकि उसको बाद में पढ़वाया जाये। इस समस्या का हल यह निकाला गया कि शायरों को अक्षरक्रम के उल्टी तरफ से पढ़वाया गया यानी पहले यावर नगीनवी को अपनी हूटिंग करवाने की दावत दी गयी। अक्षरक्रम के सीधी तरफ से पढ़वाने में ये मुश्किल थी उनके उस्ताद जौहर इलाहाबादी को उनसे भी पहले पढ़ना पड़ता।

मुशायरा स्थल पर एक अजब हड़बोंग मची थी। उम्मीद के विपरीत आस-पास के देहात से लोग झुंडों में आये। दरियां और पानी कम पड़ गया। सुनने में आया कि मौली मज्जन के दुश्मनों ने ये अफवाह फैलायी कि मुशायरा खत्म होने के बाद लड्डुओं, खजूर का प्रसाद और मलेरिया तथा रानीखेत (मुर्गियों की बीमारी) की दवा की पुड़ियां बटेंगी। एक देहाती अपनी दस बारह मुर्गियां झाबे में डाल के ले कर आया था कि सुब्ह तक बचने की उम्मीद नहीं थी। इसी तरह एक किसान अपनी जवान भैंस को नहला धुला कर बड़ी उम्मीदों से साथ लाया था, उसके कट्टे ही कट्टे होते थे, मादा बच्चा नहीं होता था। उसे किसी ने खबर दी थी कि शायरों के मेले में तवायफों वाले हकीम अहसानुल्लाह 'तस्लीम' आने वाले हैं। श्रोताओं की बहुसंख्या ऐसी थी जिन्होंने इससे पहले मुशायरा और शायर नहीं देखे थे। मुशायरा खासी देर से यानी दस बजे शुरू हुआ, जो देहात में दो बजे रात के बराबर होते हैं। जो नौजवान वॉलंटियर रौशनी के इंतिजाम के इंचार्ज थे, उन्होंने मारे जोश के छह बजे ही गैस की लालटेनें जला दीं जो नौ बजे तक अपनी बहारें दिखा कर बुझ गयीं। उनमें दोबारा तेल और हवा भरने और काम के दौरान आवारा लौंडों को उनकी शरारत और जुरूरत के मुताबिक बड़ी, और बड़ी गावदुम गाली देकर परे हटाने में एक घंटा लग गया। तहसीलदार को उसी दिन कलैक्टर ने बुला लिया था। उसकी अनुपस्थिति से लौंडों-लहाड़ियों को और शह मिली। रात के बारह बजे तक कुल सत्ताईस शायरों का भुगतान हुआ। मुशायरे के अध्यक्ष मौली मज्जन को किसी जालिम ने दाद का अनोखा तरीका सिखाया था। वो वाह वा! कहने के बजाय हर शेर पर मुकर्रर इरशाद (दुबारा पढ़िये) कहते थे, नतीजा सत्ताईस शायर चव्वन के बराबर हो गये। हूटिंग भी दो से गुणा हो गयी। कादिर बाराबंकवी के तो पहले शेर पर ही श्रोताओं ने तंबू सर पर उठा लिया। वो परेशान हो कर कहने लगा, 'हजरात! सुनिये तो! शेर पढ़ा है, गाली तो नहीं दी।' इस पर श्रोता और बेकाबू हो गये, मगर उसने हिम्मत नहीं हारी, बल्कि एक शख्स से बीड़ी मांग कर बड़े इत्मीनान से सुलगा ली और ऊंची आवाज में बोला, 'आप हजरात को जरा चैन आये तो अगला शेर पढ़ूं।' मिर्जा के अनुसार मुशायरों के इतिहास में यह पहला मुशायरा था जो श्रोताओं ने लूट लिया।