गया जिले में सवा दो मास / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती

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गत मार्च के अंत में ─ 27-28 मार्च , 1949 को ─ नियामतपुर गया में बिहार प्रांत के प्रमुख किसान कार्यकर्ताओं की महत्त्वपूर्ण मीटिंग हुई थी। प्रायः सभी किसान-सेवक उपस्थित थे। उसमें सर्वसम्मत निश्चय हुआ था कि ( 1) जिन्हें किसान-सभा में रहना है वे 30 अप्रैल , 1949 तक कांग्रेस से अलग हो जाएँ ( 2) किसान-सभा राजनीतिक दल के ढंग पर चलाई जाए , जिससे इसमें अनुशासन की पाबंदी सख्ती से की जाए और ( 3) गया जिले के हर एक थाने एवं सबडिविजन के हेड क्वार्टर्स में किसान-सभाएँ तथा किसान रैलियाँ की जाएँ। अनुशासन वगैरा के बारे में नियम बनाने के लिए स्वामी सहजानंद सरस्वती , पं. यदुनंदन शर्मा और पं. रामचंद्र शर्मा की एक उपसमिति भी बनाई गई थी।

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उसी निश्चय के अनुसार 15 अप्रैल , 1949 को पहली मीटिंग औरंगाबाद के दाउदनगर थाने में की गई। वह सिलसिला तभी से चालू था और 20 जून , 1949 को सदर सबडिविजन के फतेहपुर थाने में अंतिम किसान मीटिंग के साथ पूरा हुआ। हमने जिले के कुल 36 थानों में एक को भी नहीं छोड़ा-सर्वत्र मीटिंग कीं ─ कहीं छोटी , कहीं मँझोली और कहीं महती मीटिंग। औरंगाबाद , जहानाबाद , नावादा में विराट किसान रैलियाँ भी हुई , जिनमें 8-10 हजार से लेकर 20-25 हजार तक किसान सम्मिलित हुए। दर्जनों थाना सभाओं में भी 8-10 हजार और इनसे भी अधिक किसान शरीक हुए। गया शहरवाली किसान रैली पीछे की जाएगी।

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गया जिला किसान-आंदोलन का सदा से केंद्र रहा है। फिर भी सामूहिक रूप से समस्त जिले के कोने-कोने में सभाएँ करने का यह पहला प्रयास था। तय था कि इस बार कोई भी कोना छोड़ा न जाए। फलतः कुछ थानों में दो-दोन , तीन-तीन सभाएँ भी की गईं। जिले भर में 50 हजार से कम विज्ञप्तियाँ न बँटीं ─ ऐसी विज्ञप्तियाँ , जिनमें किसानों के वर्तमान नारे और दावे स्पष्ट रूप से लिखे थे , जो बातें हम सभाओं में बोलते थे , वही संक्षिप्त रूप में इन विज्ञप्तियों में अंकित थीं। हजारों पोस्टर भी यही बातें अति संक्षेप में ─ सूत्र रूप से लिखकर छपे और बँटे थे चिपके थे। पाँच-पाँच , सात-सात , दस-दस और कीभी इनसे भी अधिक किसान सेवकों के दल झंडों , गानों और नारों के साथ गाँवों में चक्कर लगाकर इसकी बात का प्रचार करते रहे। औरंगाबाद में तो ' पर्दाफाश ' नाटक भी खेला गया , जिसमें 8-10 हजार दर्शक शरीक हुए।

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इसी प्रकार गया जिले के कम-बेश 10-12 लाख किसानों एवं आम जनता को किसान-सभा का नया संदेश इन सवा दो महीनों के भीतर सुनाया गया। सो भी जमकर संगठित रूप से। खूबी यह कि कहीं भी जनता ने विरोध की एक भी आवाज न उठाई। यहाँ तक कि कांग्रेस के नए मुखिया लोग भी ' सटकसीताराम ' रहे। उन्हें भी हिम्मत न थी कि जुबाँ खोलें ─ चूँ करें। हालांकि समूचे प्रचार और सभी सभाओं में कांग्रेस एवं उसके कर्णधारों की कड़ी-से-कड़ी आलोचना खुल के की गई। हमने खासकर दो बातों पर सर्वत्र जोर दिया ─ कांग्रेस को तोड़ दो और गद्दीधारी नेता गद्दी छोड़ दें। बेशक इन दो प्रमुख नारों की पूरी पृष्ठभूमि भी हमारे प्रचारों और भाषणों में निरंतर की गई , जिससे वे सबों की समझ में आसानी से आ सकें और सबने इनकी महत्ता , इनकी आवश्यकता एवं सामयिकता इनका औचित्य हृदयंगम कर लिया।

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हमारी सभी सभाओं की विशेषता यह थी कि इनमें अधिकांश खेत-मजदूर और टुटपुँजिए किसान शरीक हुए। फटे-टूटे चिथड़े , मैले-कुचैले कपड़े और लँगोटी पहननेवाले काले-कलूटे अन्नदाताओं ने इस बार विशेष रूप से भाग लिया। वे हमारे भाषणों और गानों को गोया चुपचाप पीते रहे हैं। बड़े चाव एवं प्रेम से हमारी बात वे सुनते रहे हैं। हमारे शब्द ठेठऋ उनके दिल-दिमाग में घुस जाते हैं , ऐसा मालूम पड़ता रहा है। हमने देखा कि बातें सुनते-सुनते उनके चेहरे खिलते थे। गोया , सभी बातें उनके दिल की ही कही जाती थीं। हमने यह भी अनुभव किया कि वास्तविक किसान , असली शोषित-पीड़ित जनता जग चुकी और जग रही है करवटें बदल रही है और आँखें खोल चुकी है ─ वही जनता जो महारूद्र का महातांडव करती है। भूकंप और प्रलय मचाती है , इनकिलाब और क्रांति करती है। ऐसा लगा कि उसका दिल कह रहा है कि कुछ निराली बात करनी है। जिसका संदेश सुनानेवाले आ रहे हैं , चलो और संदेश सुनो।

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जब हमने आज से सवा दो मास पूर्व यह महान एवं पवित्र कार्य शुरू किया , तो खूब समझ-बूझकर कि देहातों में सभाएँ करनी हैं लगन और विवाह का दिन है। खासकर तपिश और लू का सामना करना है , खासकर गया की लू का , बरसात भी सर पर थी , खेती-गिरस्ती के दिन आ चुके थे और किसानों को बारिश के पूर्व अपने झोंपड़ों तथा घरों की मरम्मत भी करनी थी। फिर भी हम आगे बढ़े और आत्मविश्वास एवं हिम्मत के साथ आगे बढ़े। इहसान नाखुदा का उठाएँ मेरी बला। कश्ती खुदा पे छोड़ दूँ , लंगर को तोड़ दूँ। को हमने सामने रखा। कुछ धुनी साथियों को लेकर हम और श्री यदुनंदन शर्मा ने तूफानी समुंदर में अपनी कश्ती डाल दी , मस्ती के साथ बिना पतवार और मल्लाह के ही नाव को झकोरों और लहरों के बीच खेलने दिया और अंत में लहराते झंडों के साथ पार उतरे और किनारे लगे।

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जिन्हें थानों की मीटिंगों के लिए प्रचार का भार सौंपा ऐसे कुछ साथी अपनी ड्यूटी में बुरी तरह चूके सो भी अपनी लापरवाही एवं गैर-जवाबदेही के चलते। वे थाने में गए तक नहीं। कुछ ऐसे थे , जो गए जरूर और कुछ काम भी प्रचार का कर सके , मगर पीछे किसी मजबूरी से बैठे रहे। मजबूरी वालों में कुछ बीमार पड़े और कुछ गर्मी तथा लू के चलते अलसा गए फिर भी हमारा काम चलता रहा। हमारा कारवाँ आगे बढ़ता ही गया। हमने एक भी थाना न छोड़ा। हमें , श्री यदुनंदन शर्मा , त्रिवेणी सुधाकर और हलधर को तो न बीमारी पूछती थी , न लू , न थकावट और न घबराहट और न निराशा ही। हम मस्ती से यकीन के साथ आगे बढ़ते ही गए। हालत यह थी कि जिस थाने में कोई समाचार पहले से न हो सका था , वहाँ भी बात-ही-बात में हमने हजारों की हाँ , हजारों की सुंदर मीटिंग कर ली। दृष्टांत के लिए बोध गया और अतरी को ले सकते हैं। यहाँ 12 और 24 घंटों में सुंदर सभाएँ हो गईं , हालाँकि पहले खबर भी न पहुँच सकी थी कि हम आ रहे हैं। अगर गुरू गोविंद सिंह को दो-तीन साथियों के बल पर काया पलट की , तो श्री यदुनंदन शर्मा को भी ऐसे ही दो-चार साथी मिले हैं।

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नेताओं से जनता को बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं , लीडरों ने बड़ी-बड़ी बातें जो की थीं। और जनता तो नेताओं का विवेचन-विश्लेषण मार्क्सवादी ढंग से कर पाती नहीं। फलतः उसने लीडरों की बातें अक्षरशः , सही मानी थी। मगर जब आज देखती है कि हजार में एक बात भी पूरी न हो रही है , तो उसे सहसा खयाल होता है कि सब किया-कराया बेकार गया। इसी को अंग्रेजी में ' सेंस ऑफ फस्टेशन ' कहते हैं। जनता की यह दशा है इसी से उसे गुस्सा भी है। वह सारी शैतानियत और वादाखिलाफी उखाड़ फेंकने की ओर आप-से-आप झुक रही है। कोई शक्ति उसे इस ओर बलात घसीटती-सी है। हमें यह अनुभव हुआ। अतः हमने समझा कि यही तो सुनहला मौका है कि जनता को आज क्या करना है। यह सिखाया जाए। यदि क्रांतिकारी ताकतें इस मौके पर चूकेंगी , तो बुरा होगा। उनको आज ही जरूरत है कि किसान-मजूरों के बीच धूनी रमाएँ नहीं तो जनता उन्हें भी न छोड़ेगी। याद रहे जनजागरण का जो स्त्रोत अपने-आप फूट रहा है। चालू हो रहा है उसे जल्द-से-जल्द तेज और विकराल बना देने में हम सबों को अविलंब लग जाना है , ताकि वह मार्ग की चट्टानों और शिलाओं को चीरता-फाड़ता-रौंदता हुआ अबाध द्रुतगति से आगे बढ़े तथा लक्ष्य तक पहुँच के ही दम लें।

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हमें इस तूफानी दौर में बहुतों को देखना था कि कौन कहाँ तक साथ देगा। सबसे पहले किसान-मजूरों एवं जनसाधारण की नब्ज देखनी थी। वह तो चुस्त मिली। तो साथ ले चलनेवालों की प्रतीक्षा में है।

अपने पुराने साथियों को भी देखना था कि वे किस घाट पर लगेंगे। हमें खुशी है कुछेक को छोड़कर सभी उत्साह से हमारा साथ आए। जिनकी हमें आशा न थी , वे ही आए। यह ठीक है कि लंबी दौड़ में वे अंत तक डट न सके-उन्हें थकान आ गई। यह स्वाभाविक भी है। हमार विश्वास है , ऐसी ही धूल , धूप और सरपट में एक-दो बार और भी गोते जाने पर वे सब नहीं , अधिकांश इस्पात हो के निकलेंगे। उन्हें इस फौजी अनुशासन में नौ हफ्तों तक अविराम चलने का पहला ही मौका था। फिसलन काफी थी। फलतः पाँव खिसक जाना स्वभाविक था। मगर वे न भूलें कि जनता बेमुरव्वती से अपने सेवकों से हिसाब माँगती है और जरा सी भूल पाकर लटका देती है ─ खासकर किसान-मजूर जनता। ' सेवक धर्म कठोरा ' यह एक सत्य भी है। सेवक भी बने और मजा भी लें , यह होने को नहीं।

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आखिर में हमें औरंगाबाद के अपने राजपूत साथी को भी देखना था कि उसमें थकान तो नहीं है। हमें खुशी है कि वह तो राजपूती ढंग से आगे बढ़ना ही जानता है। प्रलोभन और विघ्नबाधाएँ उसे और भी सजग , कर्त्तव्यपरायण एवं मौत से खेलनेवाला बना रही है। ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती जाती है , त्यों-त्यों उसकी यह अनोखी राजपूती अपना कमाल दिखाती नजर आती है। ढलती उम्र में भी वह कुमार ही है। सारी शक्ति लगाकर किसान-मजूरों की सेवा में अपने को उत्सर्ग कर देने की उसकी तमन्ना ने हमें बाग-बाग कर दिया।

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इस अपनी सरकार में मीटिंग जैसे नागरिक अधिकार पर चौबीस घंटे , तीस दिन और बारह महीने कितनी जंजीरें सख्ती से लगी हैं यह भी हमने सवा दो महीने में दर्द के साथ अनुभव किया। न तो कोई असाधारण स्थिति है , न दंगे या युळ का समय है। फिर भी , हम मीटिंगें कर नहीं सकते। जब तक दारोगा , इंस्पेक्टर , एस. पी. और कलक्टर के पास क्रमशः दरबार करके आज्ञा न लें। आज्ञा तो हमें बेशक मिली। जिले के अधिकारियों ने कोई बाधा न डाली। उनने कभी-कभी निहायत जरूरी में ही हमें आज्ञा दे दी। मगर नीचे से ऊपर तक यह शिष्टाचार और यह विधि-विधान हमें बुरी तरह खटका। इसने रह-रह के याद दिलाया कि यह आजादी कैसी खोखली है और असली आजादी से हम कितने दूर हैं। यह ' अपनी सरकार ' भी कैसी गजब की है। हमने इसी दरम्यान देखा। शासन का कर्ज इसे ही कहते हैं , जो कांग्रेसी शासकों पर सवार है। देखें , उसकी दवा कब , कैसे , कौन करता है ?