गाँधीजी जेल में और बाहर / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
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सन 1922 से ले कर 1924 के बीच में दो प्रसिद्ध घटनाएँ और उल्लेखनीय हैं। बारदोली में सन 1922 की फरवरी में असहयोग की लड़ाई स्थगित कर के गाँधी जी ने दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की मीटिंग संभवत: मार्च में बुलाई थी। उसमें उन्होंने कांग्रेस के ध्येय का स्पष्टीकरण अपने मतानुसार करना चाहा। लड़ाई स्थगित करने के समर्थन में जो प्रस्ताव था उसमें उन्होंने यह जोड़ना चाहा कि कांग्रेस के ध्येय में जो लेजिटिमेट (Legitimate) और पीसफुल (Peaceful) शब्द है ─ उनके अर्थ हैं क्रमश: ट्रुथ फुल (Truth ful) और नानवायोलेंट (Non violent) मगर कमिटी ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस पर अपने साप्ताहिक यंग इंडिया में उन्होंने एक लंबा लेख लिखा और कहा कि हम कहाँ-से-कहाँ चले जा रहे हैं इसका पता नहीं जानते। अगर हम समय रहते नहीं चेते तो अतल समुद्र में जा डूबेंगे। हम सरकार को कमजोर करने के बजाए देश की प्रगति के बाधक हो रहे हैं सत्य और अहिंसा को न मान कर।

मगर इसका लोगों पर तो कुछ असर हुआ नहीं। हाँ, सरकार ने बखूबी समझ लिया कि गाँधी जी का प्रभाव गिर गया है। बस,उसने 6 साल के लिए उन्हें जेल में ठूँस दिया! तबसे ले कर अब तक जहाँ तक मैं जानता हूँ कांग्रेस या आल इंडिया कांग्रेस कमिटी ने कभी भी कांग्रेस के ध्येय के उन दोनों शब्दों का गाँधी जी वाला अर्थ साफ-साफ स्वीकार नहीं किया हैं और न किसी ने इस बात की खुली कोशिश ही की है। मगर फिर भी आज तो कांग्रेस के ध्येय के नाम पर सत्य और अहिंसा का ढिंढोरा ही पीटा जाता है। इसे ही कहते हैं समय की गति!

दूसरी घटना हुई गाँधी जी के जेल से 2 साल के भीतर ही लौट आने पर। सन!1924 ईस्वी में अहमदाबाद में आल इंडिया कांग्रेस कमिटी की बैठक थी। मैं भी उसका सदस्य था। वहाँ गया था। मैंने जो नज्जारा वहाँ देखा वह भूलने का नहीं। बंगाल के श्री गोपीनाथ साहा नामक प्रसिद्ध क्रांतिकारी युवक को फाँसी हुई थी। दास साहब ने उसके हिंसात्मक कार्यों की नहीं, पर उसके ध्येय की प्रशंसा का एक प्रस्ताव पेश किया था गाँधी जी की हिंसा की भर्त्सना को मान कर ही। बहुत गर्मागर्म बहस हुई। अंत में राय लेने पर प्रस्ताव गिर गया। सभापति थे मौलाना मुहम्मद अली। बस,इतना होते ही देशबंधु, पं. मोतीलाल नेहरू आदि के साथ एक बड़ा दल कमिटी से उठ कर बाहर चला गया। इस पर गाँधी जी घबराए। उन्होंने यह भी कहा कि अब गिनिए कि कितने यहाँ हैं और कितने बाहर। गिनने पर पता लगा प्राय: दोनों ही बराबर है, थोड़ा ही अंतर है। यह देखते ही उन्होंने दास साहब आदि को बुलवाया और फिर से उस प्रस्ताव को रखवा कर पास करवा दिया! हालाँकि,उनके दिल पर गहरी चोट लगी।

इसके बाद ही उन्होंने एक और भी प्रस्ताव को, जो पहले गिर गया था, फिर से विचारने और पास करने की इच्छा प्रकट की थी। असल में कांग्रेसी लोग मुकदमों में पैरवी न करते थे। ऐसी ही सख्त आज्ञा कांग्रेस की थी उधर बेलगाँव में कांग्रेस होनेवाली थी। उसके कर्ताधर्ता श्री गंगाधर राव देशपांडे की सारी जाएदाद ले लेने पर सरकार तुली बैठी थी। क्योंकि वे केस तो लड़ते नहीं। इसीलिए प्रस्ताव कुछ ऐसा ही था कि खास-खास प्रकार के केसों में पैरवी की जाए। मगर कमिटी ने पहले इसे न माना था।गाँधी जी उसे ही दोबारा पेश कर के मनवाना चाहते थे। इस पर लोगों ने नियमों के आधार पर उज्र शुरू कर दिया और कहा कि इसी बैठक में गिरा हुआ प्रस्ताव फिर कैसे पेश होगा, आदि-आदि।गाँधी जी दलीलें सुनते थे और उनका चेहरा सुर्ख होता जा रहा था! एक धक्का गोपी साहावाले प्रस्ताव ने दिया था। अब दूसरा धक्का यह हुआ। वहाँ भी हारे और यहाँ भी वही नौबत थी। उन्होंने समझा था कि जैसे साहावाला गिरा हुआ प्रस्ताव फिर से पेश हो कर पास हो गया उसी प्रकार यह भी हो जाए तो थोड़ी शांति मिले। वह उसे पास कराने के पक्ष में थे। मगर लोग कब सुननेवाले थे?

आखिर में वह उबल ही तो पड़े। कुछ तो क्रोध और कुछ बेचैनी इन दोनों के करते बच्चों की तरह मुँह बना कर आग सी बरसाने लगे। उन्होंने कहा कि स्वराज्य मिलने पर यही कमिटी पार्लिमेंट बनेगी जो आज बच्चों का सा काम कर रही है। अभी-अभी जब साहावाला प्रस्ताव फिर पेश कर के पास किया गया तो किसी ने कायदा-कानून नहीं बघारा और धीरे से उसे गले के नीचे उतार लिया। मगर जब इस प्रस्ताव के बारे में मैंने कहा तो कानून और कायदों की बदहजमी सभी लोग मिटाने लगे! बात क्या है?उस प्रस्ताव के समय यह दलीलें कहाँ थीं जो एकाएक अभी आ धमकी है?देशपांडे जैसा दक्ष कार्यकर्ता और लीडर तबाह हो जाए और बेलगाँववाला कांग्रेस-सेशन होने न पाए इस बात की तैयारी हो गई है। इसे ही मैं रोकना चाहता हूँ। इसीलिए यह प्रस्ताव फिर ला कर पास कराना चाहा। मगर आप लोगों को सूझता ही नहीं। मुझे आपने कांग्रेस में कैद थोड़े ही कर लिया है। अभी छोड़ कर चला जाता हूँ। मेरे अपने विचार हैं जिन्हें छोड़ कर या जिनकी हत्या कर के कहीं भी रह नहीं सकता। देखें, कौन मुझे कांग्रेस में रखता है?आदि-आदि।

बस, अब क्या था?चारों ओर थोड़ी देर सन्नाटा सा रहा और गाँधी जी की सिसकियाँ खत्म भी न हो पाई थीं कि चारों ओर से आरजू-मिन्नत शुरू हुई। लोग ऐसा समझ न सके थे। इसलिए घबरा कर कहीं देशबंधु, कहीं पं. मोतीलाल,और कहीं अध्यक्ष मौलाना मुहम्मद अली हाथ जोड़ कर गाँधी जी को मनाने लगे! मगर जब देखा कि वह सुनने को तैयार नहीं, तो मौलाना मुहम्मद अली ने अपने सिर की टोपी उनके पाँव पर रख दी। तब कहीं जा कर वह पिघले। वह दृश्य देखने ही का था। लेखनी उसे अंकित कर नहीं सकती।